NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
बिहार की चुनावी राजनीति और कम्युनिस्ट पार्टियां
यदि पूरे हिंदी क्षेत्र ख़ासकर बिहार में भाजपा को सत्ता अपनी बदौलत न मिल सकी तो इसका एक बड़ा कारण ज़मीनी स्तर पर वामपंथ की सशक्त मौजूदगी रहा है।
अनीश अंकुर
18 Nov 2020
 बिहार की चुनावी राजनीति और कम्युनिस्ट पार्टियां

यदि पूरे हिंदी क्षेत्र ख़ासकर बिहार में भाजपा को सत्ता अपनी बदौलत न मिल सकी तो इसका एक बड़ा कारण जमीनी स्तर पर वामपंथ की सशक्त मौजूदगी रहा है। बिहार के पिछले तीन दशकों के चुनावी इतिहास में तीनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियां,  भाकपा, माकपा और भाकपा-माले (लिबरेशन) राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहीं थी। नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में भी तीनों दल साथ थे लेकिन भाकपा-माले के जब सात में से पांच विधायक लालू प्रसाद ने तोड़ लिए उसके बाद राजद व भाकपा-माले-लिबरेशन (तब आईपीएफ) के आपसी संबंध बेहद तल्ख हो गए थे। लेकिन सीपीआई और सीपीएम का संबंध अगले एक दशक तक लालू प्रसाद की पार्टी के साथ बना रहा।

1992 में तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा भूमि संघर्ष शुरू किए गए। भूमि संघर्षों में वामदलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं की हत्या होती रही। माकपा के पूर्णिया विधायक अजीत सरकार,   खेत मजदूरों के प्रमुख नेता रामनाथ महतो, जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे भाकपा-माले नेता चंद्रशेखर सहित सैकड़ों लोगों की हत्या हुई।  बिहार में जितने भी बड़े अपराधियों व निजी सेनाओं का इस दौरान अभ्युदय हुआ उसमें अधिकांश के हाथ कम्युनिस्टों के रक्त से रंगे हुए थे। अंततः दोनों के रास्ते अलग होने थे।

जब तक सीपीआई और सीपीएम लालू प्रसाद की पार्टी के साथ गठबंधन में रही लालू प्रसाद की पार्टी सत्ता में बनी रही लेकिन ज्यों ही इन दोनों वामपंथी दलों - सीपीआई, सीपीएम- ने लालू प्रसाद से अलग हटकर चुनाव लड़ा लालू प्रसाद को सरकार बनाने में सफलता हाथ न लगी।

2019 के लोकसभा चुनावों में कन्हैया कुमार से खतरा महसूस कर तेजस्वी यादव ने उन्हें बेगूसराय सीट पर समर्थन नहीं दिया लेकिन भाकपा-माले-लिबरेशन  को आरा सीट दी गयी। उसके बदले में माले ने पाटलिपुत्र लोकसभा सीट पर लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को समर्थन दिया।

पाटलिपुत्र लोकसभा सीट पर वामपंथियों का खासा प्रभाव रहा है। इस सीट पर कम्युनिस्टों के सहयोग के बगैर राजद कभी  भी जीत हासिल न  कर सका था। वामपंथियों का सहयोग न मिलने पर  लालू प्रसाद को भी  यहां पराजय का सामना करना पड़ा था। दरअसल इस लोकसभा सीट पर लंबे अर्से तक यादव जाति के सीपीआई नेता रामावतार शास्त्री सांसद चुने जाते रहे थे। लालू प्रसाद ने सीपीआई से यह सीट 1991 में इंद्र कुमार गुजराल के लिए छोड़ देने का आग्रह किया था। सीपीआई ने भलमनसाहत में यह सीट छोड़ दी। उसके बाद राजद ने यह सीट अपने कब्जे में कर ली। राजद वाम दलों के प्रभाव से वाकिफ था, इन्हीं वजह से मीसा भारती के लिए इस सीट पर समर्थन भाकपा-माले से मांगा और बदले में आरा में समर्थन दिया था।

मगध में सीपीआई का पुराना प्रभाव

पूरे मगध क्षेत्र में सीपीआई का खासा प्रभाव रहा है। पटना से सटे बिक्रम में सीपीआई के रामनाथ यादव भूमिहार बहुल इलाके के चार दफे यानी बीस सालों  (1980-2000) तक विधायक चुने जाते रहे। रामनाथ यादव के बाद पिछड़ी जाति का कोई उम्मीदवार वहां से जीत न हासिल कर सका। गोह से सीपीआई के रामशरण यादव भी चार-पांच बार विधायक बनते रहे। उसके बाद राजद अपनी बदौलत कभी गोह से यादव या पिछड़ी जाति का उम्मीदवार अपनी बदौलत  जितवा पाने मे  न सफल हो  सका।  रामशरण  यादव के बाद राजद ,  वर्तमान चुनाव में सीपीआई, के आधार वाले इस इलाके से, उनके सहयोग से ही, जीत हासिल कर सकी।

ठीक इसी प्रकार जहानाबाद से सीपीआई  नेता रामाश्रय यादव पांच बार सांसद बने। उनके बाद राजद कभी भी यादव जाति का उम्मीदवार यहां से  पांच वर्षों के लिए जीत पाने में सफल न हो सका। बाद के दिनों में भाकपा-माले-लिबरेशन  इस इलाके में काफी सक्रिय रहा परन्तु कभी भी इस जिले से एक भी सदस्य बिहार विधानसभा में नहीं भेज पाया। इस चुनाव में पहली बार यहां से भाकपा-माले का विधायक घोसी से सीपीआई-सीपीएम-राजद-कांग्रेस के गठबंधन में जीत पाने में सफल हुए।

लेकिन सीटों के बंटवारे में पूरे मगध के इलाके में सीपीआई और सीपीएम को एक भी सीट समझौते के तहत नहीं दी गयी। मगध इलाके में पहले चरण में चुनाव हुआ था। महागठबंधन ने पहले चरण में ही सबसे अच्छा  प्रदर्शन  किया।  भाकपा-माले की अधिकांश  सीटें  भी इस चरण में थी।  भाकपा-माले  पहले चरण में सात सीटें जीतने में सफल रहा। इस बात की ओर कई  विश्लेषकों  का ध्यान गया है कि यदि राजद ने कुछ सीटें और वामपंथी दलों-खासकर- सीपीआई, सीपीएम- को दी होतीं तो बिहार में महागठबंधन की सरकार बन गयी होती।

वाम दलों द्वारा अलग-अलग सीट समझौता करना

वामपंथी दलों को अधिक सीटें  न मिल पाने में  वामपंथी दलों  का आपसी अंर्तविरोध तो था ही राजद द्वारा कन्हैया और उसकी पार्टी सीपीआई के प्रति नापसंदगी भी एक बड़ी वजह थी। सीपीआई, सीपीएम ने एक साथ मिलकर तो भाकपा-माले-लिबरेशन ने राजद के साथ अलग-अलग समझौता वार्ता किया। यदि तीनों वाम दल एक साथ बात करते तो संभव है कि 29 के बदले वामदल 50 सीट तक प्राप्त कर सकते थे। लेकिन भाकपा-माले-लिबरेशन द्वारा अन्य वामदलों के साथ एकजुट होकर बात करने के बजाय स्वतंत्र होकर राजद द्वारा बात करने के कारण यह बात आकार न ले सकी। कई  विश्लेषकों  का यह भी मानना है कि कन्हैया की पार्टी से अपनी चिढ़ के कारण राजद ने भाकपा-माले-लिबरेशन को एक सोची-समझी रणनीति के तहत अधिक सीटें दीं। सीपीआई को, इसी दरम्यान, एक गहरा धक्का, उसके लोकप्रिय राज्यसचिव सत्यनारायण सिंह की कोरोना से  मौत के रूप में लगा। सीपीआई का नया नेतृत्व जब तक बातों को समझता तब तक राजद के अंदर,  सीपीआई-सीपीएम केा लेकर,  एक समझ बन चुकी थी कि इन्हें ज्यादा सीटें नहीं देनी है। पूरे बिहार में सबसे बड़ी सांगठनिक उपस्थिति वाली पार्टी  सीपीआई को मात्र तीन जिलों में सीटें दी गयीं। लोकसभा चुनाव के वक्त तेजस्वी यादव ने सीपीआई को ‘एक जिले व एक जाति की पार्टी’  कहा था। ऐसा प्रतीत होता है इसी समझ के तहत सीपीआई को आधी सीटें यानी तीन बेगूसराय में ही दी गयीं। सीपीआई को यदि उसके आधार वाले इलाके खगड़िया, मोतीहारी, गोह, गया  में और सीपीएम को पूर्णिया, उजियारपुर तथा समस्तीपुर की अन्य सीटें मिलती तो बड़े आराम से इसे महागठबंधन की झेाली में लाया  जा सकता था।

कन्हैया की लोकप्रियता का लाभ न ले पाना

फरवरी माह में एक माह तक चले सीएए विरोधी लंबे अभियान में कन्हैया ने जिस प्रकार पूरे प्रांत की यात्रा की उसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें राज्य भर के मुस्लिम जमात के मध्य काफी लोकप्रिय बना डाला। महागठबंधन कन्हैया की इस लोकप्रियता का सीमांचल के इलाकों में इस्तेमाल कर सकता था। चुनावों के दौरान राजद, कांग्रेस और माले की सीटों पर कन्हैया को चुनाव प्रचार के लिए आमंत्रित ही नहीं किया गया। लिहाजा भाजपा विरोधी एक बड़े चेहरे की संभावनाओं का उपयोग न कर बदलाव की दहलीज पर खड़े ऐतिहासिक मौके को गंवा दिया गया।

स्वामी सहजानंद के आंदोलन में समाजवादी व वामपंथी

राजद और वामपंथ जब भी साथ रहा है उसने हमेशा चुनावों में सफल प्रदर्शन  किया है। 2020 का विधानसभा चुनाव भी उसका अपवाद नहीं है। राजद और कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच एकता दरअसल आजादी के पूर्व  समाजवादियों - कम्युनिस्टों के बीच साथ काम करने की निरंतरता है जिसके नेता क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती थे। स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व वाली किसान सभा में समाजवादी व वामपंथी साथ रहे। लेकिन समाजवादियों व वामपंथियों की एकता में दरार उस वक्त पड़ गयी जब स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 1942 के आंदोलन में कम्युनिस्टों के ‘पीपुल्सवार’ की लाइन का समर्थन कर दिया जबकि समाजवादी इसके खिलाफ थे। समाजवादियों व  कम्युनिस्टों द्वारा संयुक्त रूप से चलाए गए सामंतवाद विरोधी संघर्ष का परिणाम था कि बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाला देश का पहला राज्य बना।

त्रिवेणी संघ व किसान सभा

ठीक इसी प्रकार तीस के दशक में जब किसान आंदोलन जोरों पर था इसे  कमजोर करने की नीयत  से जमींदारों ने तीन पिछड़ी जातियों - यादव, कुर्मी और कोईरी - के अगुआ हिस्सों को ‘त्रिवेणी संघ’ को पीछे से खड़ा किया। त्रिवेणी संघ  सामंतों के खिलाफ बनी किसान सभा की मुखालफत यह कह कर किया करती थी कि इसका नेतृत्व सवर्ण भूमिहार जाति के हाथो में है। किसान आंदोलन के उभार के दौर में इस पिछड़ी जातियों के इस संगठन का 1942 में जमींदारी हितों की संरक्षक कांग्रेस में  विलय हो गया। बाद के दिनों में लालू प्रसाद उसी त्रिवेणी संघ का वैचारिक उत्तराधिकारी बनकर उभरे। जब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने तब ‘त्रिवेणी संघ’ के एक पुराने जीवित नेता ने टिप्पणी की थी ‘ हमने जिस जीप को स्टार्ट किया था लालू प्रसाद उसका चौथा ड्राइवर है।’’

समाजवादी व वामपंथी आंदोलन में दो धाराओं का अभ्युदय

1950 के बाद समाजवादी आंदोलन दो धाराओं में बंट गया। प्रसोपा और संसोपा। प्रसोपा (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी) जयप्रकाश  नारायण से प्रेरणा पाती रही थी तो संसोपा ( संयुक्त  सोशलिस्ट  पार्टी )  जो खुद को लोहिया के करीब पाती थी।  संसोपा और प्रसोपा में वैसे तो कोई बुनियादी अंतर न था परन्तु संसोपा व प्रसोपा में सवर्ण जातियों के प्रति रूख को लेकर हल्का फर्क देखा जा सकता है। मसलन प्रसोपा उच्च जातियों के खिलाफ उतनी मुखर न थी  जबकि लोहिया ने ‘ संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’ को प्रधान नारा बनाया। लोहिया का यह नारा ‘त्रिवेणी संघ’ से प्रेरणा पाता था। समाजवादी आंदोलन में इन दोनों धाराओं का आगे विकास नब्बे के दशक में राजद व जदयू के रूप में, लालू प्रसाद और नीतीश  कुमार के मध्य हुआ। समाजवादी आंदोलन की इन दोनों धाराओं ने कम्युनिस्ट आंदोलन पर भी प्रभाव डाला। इसे सीपीआई और सीपीएम एक ओर तो दूसरी ओर  नक्सल आंदोलन की कई धाराओं में देखा जा सकता है।

बिहार विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रदर्शन 

 

अब भी बिहार में नक्सल आंदोलन की कई धाराएं मौजूद हैं लेकिन अब लिबरेशन गुट सबसे बड़ा बन चुका हैं। यदि एक ओर सीपीआई-सीपीएम और दूसरी ओर सीपीआई-एमएल-लिबरेशन प्रसोपा व संसोपा प्रवृत्तियों की वाम अभिव्यक्ति है। सीपीआई-सीपीएम ने जमीन, मजदूरी जैसे संघर्ष अधिक जबकि माले ने मान-सम्मान की अधिक लड़ाई लड़ी।

जातीय ध्रुवीकरण और वामपंथी दल

नक्सल समूहों में जातीय अन्तर्विरोधों का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति रही है।  इन्हीं वजहों से पुराने मध्य बिहार तथा वर्तमान दक्षिण बिहार में सामंतों की निजी सेनाओं को सर्वणों के गरीब हिस्सों को भी जाति के नाम पर ध्रुवीकरण कर पाने में सफलता मिली। 1990 के बाद जब कृषि में सब्सिडी वापस खींचे जाने के कारण कृषि  महंगी होती  जा रही  थी,  किसानों ने इस संकट का बोझ खेत मजूदरों पर डालना चाहा। जातीय अंतर्विरोधों के  इस्तेमाल की प्रवृत्ति के कारण प्रतिक्रियावादी  शक्तियों  को ‘जाति’ की नाम पर गोलबंदी कर पाने में सहायता मिली। जातीय ध्रुवीकरण इतना तेज हुआ कि इस पूरे दौर में माले के आंदोलनों के केंद्र रहे जहानाबाद से एक भी सीट न निकाल पायी थी। कई दशकों के बाद घोसी से इस  चुनाव में  भाकपा-माले-लिबरेशन को सफलता हासिल  मिली है।  सीपीआई के सांसद रहे रामाश्रय यादव के बाद रामबलि सिंह यादव घोसी से कम्युनिस्ट विधायक बने हैं।

जब जहानाबाद में सीपीआई का प्रभाव प्रतिक्रियावादी ताकतें चुनावी गोलबंदी कर पाने में सफल नहीं हो पायी थी। इसके बरक्स सीपीआई-सीपीएम के आधार वाले इलाके में जातीय उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष तो हुआ लेकिन ‘जाति’  का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति न थी इस कारण बेगूसराय, मधुबनी, मोतीहारी, समस्तीपुर, खगड़िया में चले आंदोलनों ने कभी भी उग्र जातीय स्वरूप न ग्रहण किया। खगड़िया में सीपीआई के सत्यनारायण सिंह जिस विधानसभा से जीतते थे उनकी जाति के मात्र 2-3 हजार वोट थे लेकिन कम्युनिस्ट अधिकांश जातियों के गरीबों का समर्थन हासिल किया करते थे। सीपीआई के इस दौर में नक्षत्र मालाकार, भोला मांझी सहित कई नायक पिछड़ी दलित जातियों से निकलकर आये।

ऐसा माना जाता है कि भारत में वर्ग संघर्ष दो पैरों पर चलना चाहिए एक ओर 'सामाजिक उत्पीड़न' तो दूसरी तरफ 'आर्थिक शोषण' के विरूद्ध संघर्ष। बेगूसराय में चले ‘मांग-मनसेरी’ जहां आर्थिक मुद्दा तो ‘चिरागदानी’ के खिलाफ सामाजिक मान सम्मान संघर्ष इसका प्रतीक है। इसी कारण पूरे हिंदी क्षेत्र में बेगूसराय एकमात्र लोकसभा क्षेत्र है जहां वामपंथ अपनी बदौलत चुनाव जीतने में कामयाबी मिलती है।

नरेंद्र मोदी के आने के बाद वामपंथ ने जिस ढंग से जमीनी स्तर पर संघर्ष  कर  माहौल बनाया उससे उसे नई धार मिली। इन तीनों प्रमुख वामदलों के अलावा छोटे-छोट कई टुकड़ों में बंटे वामदलों व जमातों को देखा जाए तो हिंदी क्षेत्र के किसी दूसरे राज्य के मुकाबले बिहार वामपंथी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए, अभी, सबसे उर्वर भूमि नजर आती है।

(अनीश अंकुर, पटना स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

Electoral politics
communist parties
Bihar
CPI(M)
CPI(ML)
CPI

Related Stories

बिहार: पांच लोगों की हत्या या आत्महत्या? क़र्ज़ में डूबा था परिवार

बिहार : जीएनएम छात्राएं हॉस्टल और पढ़ाई की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

झारखंड-बिहार : महंगाई के ख़िलाफ़ सभी वाम दलों ने शुरू किया अभियान

बिहारः नदी के कटाव के डर से मानसून से पहले ही घर तोड़कर भागने लगे गांव के लोग

मिड डे मिल रसोईया सिर्फ़ 1650 रुपये महीने में काम करने को मजबूर! 

बिहार : दृष्टिबाधित ग़रीब विधवा महिला का भी राशन कार्ड रद्द किया गया

केरल उप-चुनाव: एलडीएफ़ की नज़र 100वीं सीट पर, यूडीएफ़ के लिए चुनौती 

बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   

वाम दलों का महंगाई और बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ कल से 31 मई तक देशव्यापी आंदोलन का आह्वान


बाकी खबरें

  • bhasha singh
    न्यूज़क्लिक टीम
    श्रीलंका में सत्ता बदल के बिना जनता नहीं रुकेगीः डॉ. सिवा प्रज्ञासम
    12 May 2022
    स्पेशल इंटरव्यू में वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने बात की, श्रीलंका के मानवाधिकार कार्यकर्ता-ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता डॉ. सिवा प्रज्ञासम से और जानने की कोशिश की कि किस दिशा में बढ़ रहा है आंदोलन।
  •  delimitation report
    न्यूज़क्लिक टीम
    जम्मू कश्मीर की Delimitation की रिपोर्ट क्या कहती है?
    12 May 2022
    जम्मू कश्मीर से जुड़ा परिसीमन की रिपोर्ट क्या कहती है? भाजपा इस रिपोर्ट पर खुश क्यों हैं और भाजपा के अलावा दूसरी पार्टियां खफा क्यों है? क्या निष्पक्ष ढंग से परिसीमन किया गया? जम्मू कश्मीर के परिसीमन…
  • दमयन्ती धर
    खंभात दंगों की निष्पक्ष जाँच की मांग करते हुए मुस्लिमों ने गुजरात उच्च न्यायालय का किया रुख
    12 May 2022
    याचिका के मुताबिक पुलिस कथित तौर पर हिंदुओं और मुस्लिमों के द्वारा दायर की गई प्राथमिकियों पर जानबूझकर अलग-अलग तरीके से और दुर्भावनापूर्ण तरीके से जांच कर रही है।
  • abhisar
    न्यूज़क्लिक टीम
    शाहीन बाग से खरगोन : मुस्लिम महिलाओं का शांतिपूर्ण संघर्ष !
    12 May 2022
    बोल के लब के आज़ाद हैं तेरे के इस एपिसोड में आज वरिष्ठ पत्रकार अभिसार शर्मा चर्चा कर रहे हैं खरगोन में मुस्लिम महिलाओं के रैली की जिसमे निर्दोष लोगो को रिहा करने की मांग की गई हैं।
  • अब्दुल अलीम जाफ़री
    योगी 2.0 का पहला बड़ा फैसला: लाभार्थियों को नहीं मिला 3 महीने से मुफ़्त राशन 
    12 May 2022
    पीएमजीकेएवाई ने भाजपा को विधानसभा चुनाव जीतने में मदद की थी।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License