NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कानून
शिक्षा
विज्ञान
भारत
राजनीति
एल्सेवियर और विली का भारत में अनुसंधान में लगे लोगों के ख़िलाफ़ एलान-ए-जंग
साइ-हब (Sci-Hub) और लिबजेन (Libgen) जैसी वेबसाइटों पर उपलब्ध पत्रिकाओं तक पहुंच के बिना गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान कर पाना तक़रीबन नामुमकिन है, मगर इन वेबसाइटों के ख़िलाफ़ कॉपीराइट धारकों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में मामला दायर कर दिया है।
प्रबीर पुरकायस्थ
28 Dec 2020
साइ-हब

तीन अकादमिक प्रकाशक इस बात की मांग कर रहे हैं कि भारत में साइ-हब और लिबजेन को ब्लॉक किया जाये। ग़ौरतलब है कि ये ऐसी दो वेबसाइट हैं, जो रिसर्च स्कॉलर और छात्रों को शोध पत्रों और किताबों को मुफ़्त में डाउनलोड करने की सुविधा देती हैं। एल्सेवियर लिमिटेड, विली इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और अमेरिकन केमिकल सोसाइटी, इन तीनों ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर दी है, जिस पर अब 6 जनवरी को सुनवाई होनी है।

दूसरे देशों में भी इसी तरह के मुकदमे दायर करने वाले इन प्रकाशकों का मानना है कि ये साइट उनके ख़िलाफ़ किसी पाइरेट साइट के तौर पर काम करते हैं। मगर, वे जिन चीज़ों को सामने लाने से बच रहे हैं, वह यह है कि इस पूरे मामले में एक और समुदाय शामिल है, जो छात्र, शिक्षक और रिसर्च स्कॉलर से बना है, अगर अदालत इन प्रकाशकों के पक्ष में फ़ैसला सुना देती है, तो इस समुदाय की पहुंच इन पत्रिकाओं तक तक़रीबन ख़त्म हो जायेगी। भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर इसका गंभीर और दीर्घकालिक असर पड़ेगा।

ऐसे में जिज्ञासा होना स्वाभिक है कि दिल्ली उच्च न्यायालय का रुख़ करने वाले ये तीन प्रकाशक कौन-कौन हैं? एल्सेवियर, विली और अमेरिकन केमिकल सोसाइटी मिलकर 40% वैज्ञानिक किताबों का प्रकाशन करते हैं। अगर हम पांच शीर्ष प्रकाशकों को लें, तो उनका दुनिया भर के विज्ञान और सामाजिक विज्ञानों में 50% से ज़्यादा प्रकाशनों पर नियंत्रण हैं, जो किसी भी क्षेत्र में बाज़ार की शक्ति की सबसे बड़ी ताक़तों में से एक है। पत्रिकाओं का प्रकाशन उद्योग 10 बिलियन डॉलर का है, जिसमें किसी भी क्षेत्र के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा प्रोफ़िट मार्जिन है। एल्सेवियर का प्रोफ़िट मार्जिन 37% है, जो कि गूगल का दोगुना है, यह विश्व स्तर पर गूगल के एकाधिकार कार्यप्रणाली और ज़बरदस्त-मुनाफ़े को मिलने वाली चुनौती है।

विज्ञान और सामाजिक विज्ञान से जुड़ी पत्रिकाओं का प्रकाशन एक ऐसा व्यवसाय है,जिसमें प्रकाशक या तो छपने वाली विषय-वस्तु ख़ुद नहीं बनाते या इसे लेकर लिये जाने वाले फ़ैसले के ज़रिये वे इसकी गुणवत्ता का ख्याल नहीं रखते हैं। ये सभी काम उस वैज्ञानिक समुदाय की तरफ़ से मुफ्त किया जाता है, जिसे करदाताओं या छात्रों की फ़ीस के बदले भुगतान किया जाता। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग इस तरह के विषय-वस्तु बनाते हैं,उन्हें भी अगर इन पत्रिकाओं को पढ़ना होता है, तो इसके लिए उन्हें वाजिब क़ीमत से कहीं ज़्यादा भुगतान करना पड़ता है।

पुस्तकालयों के लिए इन प्रकाशनों की हद से ज़्यादा क़ीमतों का भुगतान कर पाना मुश्किल हो रहा है, और यह विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए पड़ने वाली लागत का इकलौता सबसे बड़ा मद बन गया है, क्योंकि ये एकाधिकार वाले प्रकाशक इन पत्रिकाओं की क़ीमत लगातार बढ़ाते रहे हैं।

सवाल है कि ऐसा तो नहीं कि उत्पादन की बढ़ती लागत के चलते इन पत्रिकाओं की लागत बढ़ रही है? लेकिन, अगर हम आंकड़ों पर नज़र डालें, तो ऐसा लगता नहीं है। इन पत्रिकाओं की क़ीमत पिछले 30 वर्षों में पांच गुनी, यानी 521% से भी ज़्यादा हो गयी है, जबकि इसी दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बढ़ोत्तरी महज़ 118% की हुई है। इसका मतलब है कि इन प्रकाशनों की क़ीमत छह गुनी हो गयी है, जबकि बाक़ी सामान की क़ीमत 30 साल पहले से सिर्फ़ दोगुनी हुई है। यह उस उत्पाद पर वसूला जाने वाला ऐसा ज़बरदस्त प्रॉफ़िट या रक़म है, जिसका उत्पादन भी हम रिसर्च समुदाय ही करते हैं और भुगतान भी हमीं करते हैं।

क्या दूसरे क्षेत्रों के मुक़ाबले तीन गुना के इस अंतर को सही ठहराने के लिहाज़ से प्रकाशन क्षेत्र में उत्पादन की लागत ज़्यादा बढ़ी है? हक़ीक़त इसकी उलट है! जैसा कि हम जानते हैं कि इनके विषय-वस्तु के लिए प्रकाशकों की लागत के लिए भुगतान नहीं करना होता है; यह रिसर्च करने वालों के स्वतंत्र श्रम का नतीजा होता है। अब, अगला सवाल यह उठता है कि क्या प्रकाशन में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों की उत्पादन लागत बढ़ गयी है? इसका जवाब भी नहीं में ही आता है। आज इन प्रकाशनों की बिक्री, कुल बिक़्री का महज़ 10% ही प्रिंट के तौर पर है, बाक़ी 90% पूरी तरह से डिजिटल है। इसलिए,समय के साथ उत्पादन की लागत में कमी आयी है। यहां भी उत्पादन लागत का बड़ा हिस्सा तो उन्हीं शोधकर्ताओं के हिस्से ही आता है। उन्हें अपने पांडुलिपियों को सख़्ती के साथ प्रकाशकों के दिशानिर्देशों के मुताबिक़ और उनके फ़ॉर्मेट में ही इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रस्तुत करना होता है। इन विषय-वस्तुओं से सजे अंतिम उत्पाद के तौर पर वास्तविक रूपांतरण का काम भी इन प्रकाशकों द्वारा नहीं किया जाता है, इसके लिए वे भारत जैसे देशों में स्थित विभिन्न कंपनियों का आउटसोर्स करते हैं, ये कंपनियां ही उन्हें डिजिटल रूप में वास्तविक तौर पर रूपांतरित करती हैं, रिसर्च का फ़ॉर्मेट देती हैं और सभी ज़रूरी गुणवत्ता मानदंडों को बनाये रखती हैं।

आख़िर जब सभी कार्य शोधकर्ता और ऑउटसोर्स की जाने वाली कंपनियां ही करती हैं, तो सवाल है कि प्रकाशक क्या करते हैं? सच्चाई तो यही है कि अपने एकाधिकार के दम पर वे पैसों में सेंध लगाते हैं, जबकि विषय-वस्तु का निर्माण, अंतिम डिजिटल उत्पाद से जुड़ी इस आपूर्ति श्रृंखला की हर कड़ी जीने के लिए संघर्ष करती है। ये प्रकाशक अपने इन सभी उत्पादों के बड़ी संख्या में सब्सक्रिप्शन ख़रीदने के लिए पुस्तकालयों के पास जाते हैं, उन लेखों के लिए भी पैसे चार्ज करते हैं, जो दुनिया के किसा भी कोने में  रह रहे शोधकर्ताओं के लिए ज़रूरी हो सकते हैं, उनसे प्रति लेख 30 डॉलर से 60 डॉलर तक चार्ज किया जा सकता है। दुनिया के प्रमुख बौद्धिक विषय-वस्तु पर एकाधिकार जमाकर बैठे इन प्रकाशकों के लिए पैसे तो बरसते रहते हैं।

वैज्ञानिक प्रकाशन का यह व्यवसाय मॉडल उस रॉबर्ट मैक्सवेल की करतूत था, जो धूर्त था और ब्रिटिश उद्योग में घृणित चरित्रों में से एक था। अपने कर्मचारियों के पेंशन फ़ंड से कुल 400 मिलियन डॉलर की चोरी करने की वजह से उसकी खोज की जा रही थी और माना जाता है कि पकड़े जाने से पहले उसने किसी जहाज़ से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। एल्सेवियर ने उसके मरने से कुछ समय पहले मैक्सवेल से अपने मौजूदा प्रकाशनों का एक अहम हिस्सा ख़रीद लिया था।

इन पत्रिकाओं तक पहुंच के बिना गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान कर पाना तक़रीबन नामुमकिन है। भारत अगर पहले दर्जे का विज्ञान और प्रौद्योगिकी राष्ट्र बनना चाहता है, तो यहां के छात्रों और शिक्षकों के लिए ज्ञान हासिल करना एक अनिवार्य ज़रूरत है। लोगों को मुफ़्त में सामग्री पढ़ने और डाउनलोड करने की अनुमति देने वाले ओपन एक्सेस जर्नल के सामने एक अलग बाधा है और वह बाधा यह है कि हमें पत्रिकाओं को प्रकाशित करवाये जाने को लेकर भुगतान करना होता है। अपनी पहुंच बनाने के बजाय, गरीब देशों और विश्वविद्यालयों के सामने जो कहीं बड़ी बाधा है, वह है-प्रकाशित हो रहे उनके शोधकर्ताओं के पास भुगतान करने की क्षमता का नहीं होना। इस तरह, अनुसंधान सामग्री का महज़ 20% सामग्री ही आज ऐसी खुली पहुंच वाली पत्रिकाओं में आ पाती है।

ऐसे में तक़रीबन 80 मिलियन शोध-पत्र वाली साइ-हब जैसी साइट्स शोधकर्ताओं के लिए वरदान बन गयी हैं। 2016 में साइ-हब की मदद से लिखे गये एक विज्ञान लेख में बताया गया था कि भारतीय विद्वानों ने एक साल के भीतर तक़रीबन 7 मिलियन शोध-पत्र डाउनलोड किये थे। इसके लिए 2016 में छात्रों या विश्वविद्यालयों को 200-250 मिलियन के आसपास ख़र्च करना होता, तबसे लेकर इस संख्या और राशि में बढ़ोत्तरी ही हुई है।

ऐसा नहीं कि महज़ ख़र्च से बचने के लिए ही लोग इस साइ-हब का रुख़ कर रहे हैं। एक ही जगह तमाम चीज़ें मिल जाने वाली इस साइट के सर्च एल्गोरिदम की गुणवत्ता और किसी भी पत्रिका से किसी शोध-पत्र को डाउनलोड करने की स्पीड भी ज़बरदस्त है। जैसा कि इस साइंस लेख में बताया गया है कि इसी वजह से विश्वविद्यालयों से जुड़े वे शोध छात्र,जिनकी अपने विश्वविद्यालयों के ज़रिये इन पत्रिकाओं तक पहुंच है, वे भी इस साइ-हब का इस्तेमाल करते हैं, और अमेरिका के जिन शहरों में विश्वविद्यालय हैं,वहां इस तरह डाउनलोड में लगे लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा हैं !

कज़ाखिस्तान की रहने वाली एक नौजवान विज्ञान रिसर्च स्कॉलर, अलेक्जेंड्रा एल्बाक्यान ने साइंस स्कॉलर की विभिन्न पत्रिकाओं में छपे अच्छी गुणवत्ता वाले बहुत सारे लेखों की कमी के चलते इस साइ-हब का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। अमेरिका में दर्ज मामलों के तहत उसे कहीं भी गिरफ़्तार किया जा सकता है और मुकदमे का सामना करने और लंबी जेल की सज़ा को लेकर अमेरिका लाया जा सकता है। इसलिए,यह कोई संयोग नहीं है कि दिल्ली हाईकोर्ट में दायर मामले में उसके ठिकाने का ख़ुलासा करने के लिए कहा गया है ताकि अमेरिका और उसकी अतिरिक्त क्षेत्रीय पहुंच की पूरी ताक़त का इस्तमाल उसे रोकने के लिए किया जा सके।

जिन लोगों को आरोन स्वार्टज़ के मामले याद हैं, उन्हें पता होगा कि स्वार्ट्ज अपने विश्वविद्यालय की सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए कई शोध पत्र डाउनलोड किये थे और उन्हें स्वतंत्र रूप से उपलब्ध कराना चाहते थे। लेकिन, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था, और अमेरिकी क़ानून के तहत उन्हें एक लंबी जेल की सजा का सामना करना पड़ा था, आख़िरकार ख़ुदक़ुशी से उनकी मृत्यु हो गयी थी। आरोन को उन मुक्त सॉफ़्टवेयर और मुक्त ज्ञान समुदाय के ज़रिये मुफ़्त सॉफ़्टवेयर और उन सॉफ़्टवेयर को क़ैद रखने वाले प्रहरियों से ज्ञान को मुक्त करने की उनकी मांग, ‘ज्ञान को मुक्त करने के मैनिफ़ेस्टो’ में उनके योगदान के लिए याद किया जाता है।

आरोन ने 2008 में प्रकाशित अपने गुरिल्ला ओपन एक्सेस मैनिफ़ेस्टो में लिखा था:

“सूचना शक्ति है। लेकिन सभी शक्ति की तरह, वे भी एक ताक़त हैं, जो इस  सूचना शक्ति को अपने लिए रखना चाहते हैं। किताबों और पत्रिकाओं में सदियों से प्रकाशित होने वाली दुनिया की संपूर्ण वैज्ञानिक और सांस्कृतिक विरासत तेज़ी से कुछ मुट्ठीभर निजी कॉर्पोरेट के हाथों से डिजिटाइज हो रही है और क़ैद हो रही है। क्या विज्ञान के सबसे जाने-माने नतीजों वाले इन विशिष्ट काग़ज़ात को आप पढ़ना चाहते हैं? इसके लिए आपको रीड एल्सेवियर जैसे प्रकाशकों को भारी मात्रा में पैसे चुकाने होंगे।”

माना जा सकता है कि साइ-हब का भारत में कोई क़ानूनी मामला नहीं है। लेकिन, यह सच नहीं है। साइ-हब डाउनलोड के लिए किसी भी छात्र या शोधकर्ता से शुल्क नहीं लेती है, यह एक मुफ़्त सेवा है। इसलिए, यह ऐसे काग़ज़ात उपलब्ध कराकर मुनाफा नहीं कमा रही है। दूसरी बात कि क़ानून में शिक्षा और अनुसंधान,भारतीय कॉपीराइट के अपवाद हैं। यह फ़ैसला अदालत को करना है कि भारत में रिसर्च स्कॉलर द्वारा साइ-हब के इस्तेमाल कॉपीराइट के इन अपवादों का इस्तेमाल वैध है या नहीं, यह ठीक उसी तरह का मामला है, जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के फ़ोटो-कॉपी मामले में अदालतों की तरफ़ से दलील दी गयी थी और फ़ैसला दिया गया था। आख़िरकार, ये कॉपीराइट धारक उन विषय-वस्तुओं पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं, जिनमें से कुछ तो 60 साल से ज़्यादा पुरानी हैं और भारत में ये कॉपीराइट से मुक्त हैं। इसके बावजूद, इस सामग्री तक पहुंच बनाने के लिए हमें अभी भी पैसे देने होंगे।

इन साइटों पर एक पूर्ण प्रतिबंध लगाये जाने की मांग करते हुए कॉपीराइट धारकों द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट में दायर इस मामले महज़ विज्ञान-हब और लिबगेन के ख़िलाफ़ ही मामला नहीं है, बल्कि यह मामला इस देश के रिसर्च स्कॉलर के ख़िलाफ़ भी है। अगर प्रकाशन उद्योग के ये लुटेरे नवाब इस मामले में कामयाब हो जाते हैं, तो इन रिसर्च स्कॉलरों के ज़्यादातर शोध कार्य रुक जायेंगे। ऐसे में एलेक्जेंड्रा एल्बक्यान या साइ-हब का भविष्य नहीं, बल्कि भारत में अनुसंधान का भविष्य दांव पर लगा हुआ है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Elsevier and Wiley Declare War on Research Community in India

Sci Hub Case
Libgen Case
Copyrights Cases in India
Alexandra Elbakyan
Research Work in India
Open Access Journals
Academic Journals
Access to education
Access to Knowledge
Aaron Swartz Case
Delhi University Photocopying Case
Indian Copyright Law
Elsevier War on Research Scholars
Wiley Publishers

Related Stories


बाकी खबरें

  • JAYANT
    रवि शंकर दुबे
    आज़म के परिवार से जयंत की मुलाकात के क्या मायने निकाले जाएं?
    20 Apr 2022
    रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी की आज़म खान के बेटे अब्दुल्ला आज़म खान से मुलाकात के बाद तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। एक अटकल ये है कि आज़म खान सपा छोड़ सकते हैं तो दूसरी तरफ़ यह भी कि शायद जयंत अखिलेश…
  • jammu kashmir
    राजा मुज़फ़्फ़र भट
    जम्मू-कश्मीर में नियमों का धड़ल्ले से उल्लंघन करते खनन ठेकेदार
    20 Apr 2022
    विशालकाय मशीनें छोटी नदियों का दोहन कर जैव विविधता को नष्ट कर रही हैं। गैरकानूनी ठेके और ज्यादा खनन से जलीय जीवन, वनस्पतियों और जीवों तथा कृषि के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो गया है।
  • jahangirpuri
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    सुप्रीम कोर्ट ने जहांगीरपुरी में अतिक्रमण रोधी अभियान पर रोक लगाई, कोर्ट के आदेश के साथ बृंदा करात ने बुल्डोज़र रोके
    20 Apr 2022
    मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने मौजूदा हालात में यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए। उसने कहा कि याचिका को उचित पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाएगा।
  • hate
    असद रिज़वी
    लखनऊ: देशभर में मुस्लिमों पर बढ़ती हिंसा के ख़िलाफ़ नागरिक समाज का प्रदर्शन
    20 Apr 2022
    उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में विभिन सामाजिक, सांस्कृतिक और महिला संगठनों ने देश में बिगड़ते सम्प्रदायिक सौहार्द पर चिंता जताई हैं।
  • Libya
    पीपल्स डिस्पैच
    सत्ता हस्तांतरण की मांग के विरोध के बाद लीबिया में तेल उत्पादन बाधित
    20 Apr 2022
    लीबिया की संसद ने प्रधान मंत्री अब्दुल हामिद दबेबा की जगह फाति बाशागा को चुन लिया है, इसके बावजूद दबेबा ने पद छोड़ने से इनकार कर दिया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License