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राजनीति
राजनीति भले ही नई हो, क़ीमत तो अवाम ही चुकाएगी
क़ानूनी रूप से उर्दू में शपथ लेने में कोई परेशानी नहीं है लेकिन जिस रूप में यह पेश किया गया वह काफी महत्वपूर्ण है।
जितेन्द्र कुमार
25 Nov 2020
bihar

सोमवार, 23 नवंबर को बिहार विधानसभा के नव निर्वाचित विधायक जब शपथ ले रहे थे तो ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहाद उल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के सभी विधायकों ने उर्दू में शपथ ली। कानूनी रूप से उर्दू में शपथ लेने में कोई परेशानी नहीं है लेकिन जिस रूप में यह पेश किया गया वह काफी महत्वपूर्ण है। वैसे जब ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल इमान ने उर्दू में शपथ लेने के क्रम में उसके प्रारूप में लिखित ‘हिंदुस्तान' के बजाय संविधान में प्रयुक्त शब्द ‘भारत' का उपयोग करने के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था, ‘मुझे हिंदुस्तान शब्द से कोई एतराज नहीं, लेकिन संविधान में भारत शब्द का ज्यादा इस्तेमाल हुआ है, इसलिए हमारे दृष्टिकोण से इस शब्द का जैसा कि अन्य भाषाओं में अनुवाद किए जाने के दौरान भारत ही किया जाता है, का इस्तेमाल किया जाना अधिक उचित होगा।’

चूंकि संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’ का ही जिक्र है। इसलिए कायदे से भाजपा नेता को उनसे सहमत होना चाहिए था क्योंकि ‘हिन्दुस्तान’ की उत्पत्ति हिन्दू शब्द से हुई है जो फारसी है जबकि ‘भारत’ मूलतः हिन्दुस्तानी शब्द है। लेकिन थोड़ी ही देर में बिहार भाजपा के नेता नीरज सिंह बबलू ने एआईएमआईएम के नेताओं के उस क्रिया-कलाप पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘जिन लोगों को हिन्दुस्तान से समस्या है उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए।’ जबकि कांग्रेस के विधायक डॉ. शकील अहमद खान को पता था कि इस तरह के विवाद क्यों होते और किए-कराए जाते हैं इसलिए इसका जबाव उन्होंने बहुत ही ‘होशियारी’ से दिया और देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय-जेएनयू से उर्दू में पीएचडी होने बावजूद उन्होंने संस्कृत में शपथ ली।

उर्दू-हिन्दी या हिन्दी-उर्दू कभी भी भाषा की बहस नहीं रही बल्कि वह हमेशा से ही एक राजनीतिक बहस थी। इसका अमृत राय ने अपनी किताब 'ए हाउस डिवाइडेड' में बेहतरीन ढंग से विश्लेषण किया है, साथ ही, हिन्दी कैसे 'पॉलिटिकल एंजेडा' बना इसकी कहानी फ्रेंचिस्का ऑरसिनी और आलोक राय ने अपनी-अपनी किताब क्रमशः 'हिन्दी पब्लिक स्फेयर' व 'हिन्दी नेशनलिज्म' में काफी बारीकी से किया है। इसलिए हिन्दी-उर्दू की बहस को जान-बूझकर हिन्दू-मुसलमानों के बहस में तब्दील कर दिया गया है और इसी राजनीति के चलते उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दी गई है।

बिहार के जिस सीमांचल में एआईएमआईएम उभर कर सामने आयी है, वहां की बहुसंख्य आबादी मुस्लिम है। यह इलाका नेपाल, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश से सटा हुआ है। विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने इसी इलाके पर फोकस किया और 20 सीटों पर चुनाव लड़कर 5 सीटों अमौर, बहादुरगंज, बैसी, जोकीहाट और कोचाधामन में सफलता हासिल की। उन 20 उम्मीदवारों में पार्टी ने 15 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे जिसका उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, बहुजन समाज पार्टी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री  देवेन्द्र प्रसाद यादव की पार्टी से गठबंधन था। इसमें एआईएमआईएम के अलावा सिर्फ बसपा ही एक सीट पर चुनाव जीत सकी। वैसे एआईएमआईएम ने बिहार में 2015 का विधानसभा चुनाव भी बड़ी शिद्दत से लड़ा था, लेकिन अपवादों को छोड़कर अधिकांश जगहों पर उसके उम्मीदवारों को ज़मानत गंवानी पड़ी थी।

वैसे बाद में किशनगंज विधानसभा उपचुनाव में उनकी पार्टी विजयी रही। जिस पार्टी को पांच साल पहले बिहार में इतनी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था, वह पांच साल के भीतर बीस सीटों में से न सिर्फ पांच सीटों पर विजयी रही बल्कि जिस नेता के ऊपर सबसे अधिक चर्चा हो रही है, वह ओवैसी हैं। कुछ राजनीतिक कमेंटेटर उस पार्टी को वोटकटवा के रुप में देखने लगे तो कुछ ऐसे भी कमेंटेटर हैं जिन्हें लगता है कि वह मुसलमानों के सबसे पोटेंशियल राजनीतिक दल के रूप में उभर सकता है!

 ओवैसी के लिए पुराने आंध्र प्रदेश और वर्तमान तेलंगाना की इस छोटी सी पार्टी के लिए वर्ष 2014 से अब तक का समय काफी मुफीद साबित हुआ है। बीजेपी के सामने जिस तरह सभी धर्मनिरपेक्ष व सामाजिक न्याय की ताकतों ने घुटने टेका है उससे ओवैसी को अपनी राजनीतिक जगह बनाने में काफी मदद मिली है। बीजेपी अपने पूर्व अवतार जनसंघ के समय से हिन्दू सांप्रदायिकता के आधार पर देश में गोलबंदी करने की कोशिश करती रही है, लेकिन उसे सबसे बड़ी सफलता शाहबानो केस के दौरान मिली। शाहबानो प्रकरण के कुछ ही दिनों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में घोर हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा ने सांप्रदायिकता को देश की एकता और अखंडता के नारे से जोड़ दिया और साथ ही कश्मीर से सम्बंधित अनुच्छेद 370, तीन तलाक और कॉमन सिविल कोड के मुद्दे को भी जोर-शोर से उछालने लगी। बीजेपी ने इन मसलों के अलावा देश की विभिन्न समस्याओं को इस रूप में पेश करना शुरू किया जिससे लोगों में यह संदेश जाए कि भारतीय समाज की ज्यादातर समस्याओं के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं। वास्तव में मुसलमानों की भी समस्याएं वही थीं जो आम हिन्दुओं की थी, लेकिन बीजेपी ने हर समस्या के लिए मुसलमानों को ही जवाबदेह ठहराया। इसका सबसे सटीक जबाव सच्चर कमिटी की रिपोर्ट है जिससे साबित हुआ कि मुसलमानों  के तुष्टीकरण की बात कितना बड़ा झूठ है। लेकिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि देश के संशाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है तो बीजेपी ने पूरे देश में फिर से हंगामा काट दिया था, जबकि मनमोहन सिंह के कहने का एकमात्र उदेश्य यह था कि जिसे सबसे अधिक मदद की जरूरत है, सरकार उनकी मदद करेगी।

भारतीय राजनीति का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण टर्निंग प्वाइंट मंडल आयोग को लागू करना रहा। मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने से बीजेपी बौखला गयी क्योंकि आरएसएस विचार से मूलतः सवर्ण हिन्दूओं की तरफदारी करने के लिए बना है। इसलिए मंडल की काट में राम मंदिर का मुद्दा उछाला गया, और काऊ बेल्ट में मंदिर के पक्ष में गोलबंदी शुरू हुई जो हिन्दुत्व के पक्ष में भले ही दिख रहा हो, अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों के विरोध में थी। उसी दौर में बिहार और उत्तर प्रदेश में लालू यादव और मुलायम  सिंह यादव जैसे नेता सत्ता में थे जिन्होंने हिन्दू सांप्रदायिकता के खिलाफ मजबूत पहलकदमी  की थी। मंडल की राजनीति ने मंदिर की राजनीति को सामाजिक रूप से चुनौती तो दी, लेकिन दीर्घकालीन प्रभाव नहीं छोड़ पायी।

नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद जिस आक्रामक तरीके से हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाया गया उससे मुसलमानों में असुरक्षा की भावना बढ़ती चली गयी। चाहे वह तीन तलाक का मसला हो, राम मंदिर पर  सुप्रीम कोर्ट का फैसला हो या फिर एनआरसी का मामला, सभी राजनीतिक दलों ने मुसलमानों के सवालों  पर पूरी तरह चुप्पी साध ली। एनआरसी के खिलाफ शाहीनबाग में चल रहे प्रदर्शन में वामपंथी दलों को छोड़कर किसी भी हिन्दू नेता का समर्थन में न आना इसी डर को साबित करता है। ऐसा भी नहीं है कि ओवैसी एनआरसी के खिलाफ करने-मरने पर आमदा थे। अगर वह सचमुच उस तरह मुखर होते तो इसके खिलाफ सबसे असरकारी प्रदर्शन हैदराबाद में हुआ होता जहां एआईएमआईएम का गढ़ है। लेकिन ओवैसी ने जिस रूप में  मुस्लिम समुदाय के पक्ष में तक़रीर की, उससे मुसलमान अवाम को लगा कि शायद वे उन्हें अपना वोट देकर बराबरी का अधिकार हासिल कर सकते हैं। दूसरी बात, ओवैसी जिस मजबूती के साथ संसद से लेकर सड़क तक अपनी बात रखते हैं, वह अब पूरे समुदाय को आकर्षित करने लगा है। मुसलमानों, खासकर युवा मुसलमानों के मन में वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ  शक़ को बढ़ाने का काम किया। 

लेकिन जब कभी भी सांप्रदायिक स्तर पर इस तरह की गोलबंदी हुई है, चाहे हिन्दुत्व के नाम पर हो या मुसलमान के नाम पर समाज के मूलभूत समस्याओं से पूरी तरह ध्यान खत्म हो जाता है। इसका प्रमाण यह भी है कि बिहार में संपन्न हुए चुनाव में एआईएमआईएम ने पसमांदा समाज का कोई मसला नहीं उठाया, मुसलमानों के बेसिक समस्याओं पर कोई बात नहीं हुई। ओवैसी ने हर चुनावी सभा में सिर्फ मुसलमानों की भागीदारी की बात कही। और तो और, बिहार के पसमांदा समाज के दो सबसे बड़े चेहरे अनवर अली और डॉ. एजाज अली को न किसी भी मीटिंग में नहीं बुलाया गया और न ही उनसे सलाह मशविरा किया गया। इतना ही नहीं, एआईएमआईएम के सभी विधायक भी सवर्ण हैं। इसी तरह महागठबंधन का नारा—पढ़ाई, कमाई, दवाई, सिंचाई व सुनवाई था जबकि बीजेपी का नारा—राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 का खात्मा, तीन तलाक जैसे भावनात्मक नारे थे।

एआईएमआईएम का बिहार में मुसलमानों के बीच इतना ताकतवर होकर उभरने का मतलब यह भी है मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां उस समुदाय के महत्वाकांक्षा पर खरी नहीं उतरी हैं।

(जितेन्द्र कुमार स्वतंत्र लेखक-पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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