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मेटा: क्या यह सिर्फ फेसबुक की दागदार छवि बदलने का प्रयास है?
फेसबुक की छवि को व्हिसिलब्लोअर फ्रांसिस हाउजेन और सोफी झांग के रहस्योद्घाटनों से काफी चोट लगी है। क्या यह फेसबुक का अपने दागदार अतीत तथा वर्तमान से पीछा छुड़ाकर एक वैकल्पिक जगत में, उसके द्वारा रचे जाने वाले मेटावर्स में अपने दाग धुंधले करने की कोशिश है?
प्रबीर पुरकायस्थ
07 Nov 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
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जुकरबर्ग ने पिछले पखवाड़े, कनैक्ट 2021 में “मेटा” नाम से एक नये कंपनी ब्रांड का एलान किया। फेसबुक के शब्दों में यह, “हमारे एप्स तथा प्रौद्योगिकियों को एक नये कंपनी ब्रांड के तहत एक जगह एकत्रित कर देगा। मेटा का ध्यान इस पर केंद्रित होगा कि मेटावर्स (यूनिवर्स की तर्ज पर) में प्राण फूंके जाएं और कनैक्ट करने, समुदायों को खोजने और कारोबारों को बढ़ाने में लोगों की मदद की जाए।”

क्या यह फेसबुक की रीब्रांडिंग करने भर का मामला है? याद रहे कि उसकी छवि को व्हिसिलब्लोअर फ्रांसिस हाउजेन और सोफी झांग के रहस्योद्घाटनों से काफी चोट लगी है। क्या यह उसकी अपने दागदार अतीत तथा वर्तमान से भी पीछा छुड़ाकर एक वैकल्पिक जगत में, फेसबुक द्वारा रचे जाने वाले मेटावर्स में चले जाने की कोशिश है? क्या यह हमसे इसी को भुलवाने का खेल है कि किस तरह उसके घृणा से सराबोर पेज ही, उसके विज्ञान से संचालित कारोबारी साम्राज्य को चलाते आए हैं? क्या इस तरह से उन युवा दर्शकों को फिर से अपने पाले में करने की कोशिश की जा रही है, जिन्होंने अपने कीबोर्डों और जॉयस्टिकों के जरिए, फेसबुक को खारिज कर दिया था?

फेसबुक के आंतरिक दस्तावेज युवा उपयोक्ताओं को फिर से अपने पाले में लाने की उसकी बदहवासी को दिखाते हैं। वह तो “एक मूल्यवान तथा अछूते श्रोता समूह” के रूप में किशोरावस्था पूर्व– 9 से 12 वर्ष तक आयु–के बच्चों पर ध्यान केंद्रित करने तक पर चर्चा करता रहा है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसके लिए उसका भी तर्क वही है, जो सिगरेट कंपनियों के बच्चों को निशाना बनाने के पीछे होता है। एक बार उन्हें लत लग गयी, तो जिंदगी भर लत लगी रहेगी और इन कंपनियों को जिंदगी भर के लिए बंधुआ उपभोक्ता मिल जाएंगे। या फेसबुक के मामले में, इस कंपनी को फेसबुक के आदी हो गए बच्चों को, जिंदगी भर के लिए अपने विज्ञापनदाताओं को बेचने का मौका मिल जाएगा।

फेसबुक के मेटा पर या मेटावर्स में उसके कायांतरण पर आम तौर पर प्रतिक्रिया, उदासीनता से लेकर हैरानी तक हो रही है। जहां तक ज्यादातर फेसबुक उपयोक्ताओं का सवाल है, साइंस फिक्शन का उनका ज्ञान बड़ा सीमित सा है। इसलिए, उनके लिए ऐसे मेटावर्स की अवधारणा ही पूरी तरह से अपरिचित है, जहां यथार्थ जगत से एक वर्चुअल जगत में, आसानी से रूपांतरण हो जाता है। यह इसके बावजूद है कि महमारी के दौरान विभिन्न प्लेटफार्मों को, परस्पर संवाद की स्थिति में, एक साथ लाया गया था। बहरहाल, जो लोग इस सबके मामले में ज्यादा गंभीर हैं तथा साहित्य से ज्यादा परिचित हैं और जिनका मानना है कि फेसबुक की मौजूदा दुनिया ही काफी दु:स्पप्नीय है, उनके तो मेटा को काफ्का के मेटामॉर्फोसिस के साथ जोडऩे की ही ज्यादा संभावना है! 

इस दु:स्वप्नात्मक उपन्यास में, कथानायक एक सुबह जब जागता है, वह खुद को एक मानवाकार तिलचट्टों में रूपांतरित हुआ पाता है या कहें कि अपने मेटावर्स में वह तिलचट्टों का अवतार ले लेता है! इस और इसी प्रकार के अन्य बहुत ही मजाहिया व्यंग्यात्मक चित्रणों के जरिए जुकरबर्ग के मेटा का मजाक उड़ाया गया है। इन मजाहिसा चित्रणों में उसके मेटावर्स की मुख्य बात यही लगती है कि यह ‘कूल’ वर्चुअल अवकाश निर्मित करेगा जहां हम संवद्र्घित यथार्थ या वर्चुअल यथार्थ के उपकरणों के सहारे, अपने मित्रों और सहकर्मियों से संवादरत होंगे।

बहरहाल, फेसबुक के मेटा का खारिज ही कर देने से पहले हमें यह भी याद रखना चाहिए कि उसके पास फेसबुक द्वारा बटोरा गया अकूत पैसा है और उसका मार्केट कैपीटलाइजेशन करीब 10 खरब डालर का है। एक कंपनी के रूप में, वॉल स्ट्रीट के मेटावर्स में अब भी उसकी हैसियत कहीं ज़्यादा बड़ी है! और अकेेले फेसबुक का ही उपयोक्ता आधार करीब 3 अरब का है और व्हाट्सएप तथा इंस्टाग्राम के भी उपयोक्ता अरबों में हैं। अब यह तो एक अलग ही सवाल है कि उनमें से कितने अनोखे उपयोक्ता हैं, लेकिन इतना तय है कि जिस कंपनी की दुनिया की आधी आबादी तक पहुंच हो और जिसके पास अपार पैसा हो, उसे आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता है।

बहरहाल, फेसबुक से दो सवाल हैं और हां! हम फिलहाल उसे फेसबुक ही कहेंगे न कि मेटा। पहला तो यही कि वह मेटावर्स कौन सा है, जिसे वह गढऩे जा रहा है? और क्या उसका कोई बिजनस मॉडल है? दूसरे शब्दों में क्या वह उन युवा श्रोताओं/ दर्शकों को दोबारा हासिल करने जा रहा है, जो उसने खो दिए हैं और क्या उनके मेटावर्स में असली पैसे के बदले में वर्चुअल ‘संपत्तियों’ या ‘मालों’ को खरीदा-बेचा जा सकेगा?

आइए, हम मेटावर्स की संकल्पना पर ही नजर डाल लें। जैसाकि जुकरबर्ग ने खुद ही स्पष्ट किया कि अपने कीबोर्ड या गेमिंग कोंसोल से वीडियो गेम खेलने में अंतर,सिर्फ इतना है कि दूसरे में आप कल्पना की दुनिया में डूब जाते हो।। मेटावर्स के लिए उपयोग के उपकरणों के साथ, जिनमें खास चश्मे, हैप्टिक दस्ताने या सूट शामिल हैं, हम वर्चुअल दुनिया की चीजों को देख तथा स्पर्श कर सकते हैं और एक आभासीय दुनिया में होने का एहसास कर सकेंगे। दूसरे शब्दों में हम अपनी कल्पनाशीलता को विश्राम दे सकते हैं और ये पहने जा सकने वाले उपकरण–ऑगमेंटेड रीएलिटी (एआर) या वर्चुअल रीएलिटी (वीआर) उपकरण–आपकी कल्पना का काम कर सकते हैं। 

बेशक, ऐसी भविष्य कल्पनाओं पर काफी किताबें लिखी गयी हैं और फिल्में भी बन चुकी हैं। इसमें ज्यादा दिलचस्पी रखने वाले, इसाक असिमोव की रोबोट शृंखला तो देख सकते हैं। हालांकि वह रोबोटों पर ही केंद्रित है और जिसमें वर्चुअल/ ऑगमेंटेड रीएलिटी के मेटावर्स को प्रदत्त मानकर चला जाता है। इस संबंध में कहीं हाल की प्रस्तुति और जहां से इंटरनैट के वर्चुअल यथार्थ विस्तार के रूप में मेटावर्स आता है, नील स्टीफेन्सन का 1992 का साइंस फिक्शन उपन्यास, स्नो क्रैश है।

मेटावर्स की कल्पना दो तरह से की जा सकती है। पहला, जिसमें इसे यथार्थ जगत के ही एक प्रारूप के रूप में देखा जा रहा हो, जहां हम यथार्थ जगत में मिल सकते हैं, जा सकते हैं या खेल सकते हैं। लेकिन यह हमारे उपकरणों द्वारा निर्मित ऑगमेंटेड या वर्चुअल यथार्थ के सहारे मुमकिन है। यानी अपने घर पर बैठे-बैठे ही हम, अपने मित्रों के साथ अलग-अलग जगहों पर जा सकें, अपने दफ्तरों में बैठकें कर सकें और यहां तक कि अपने डाक्टर को खुद को दिखा भी सकें। दूसरा, हम एक ऑनलाइन वर्चुअल जगत में एक अवतार के रूप में लाइव जा सकते हैं, जिसके भी ऐसे ही या भिन्न नियम होंगे। यह सैकेंड लाइफ का उन्नततर रूप होगा, जिसके पीछे फेसबुक की विशाल कमाई की और बाजार की ताकत होगी।

सैकेंड लाइफ में, जिसे 2003 में खड़ा किया गया था, मेटा वाले कई लक्ष्य मौजूद थे। वह अब भी उपयोक्ताओं के अपेक्षाकृत छोटे समूह के बीच लोकप्रिय है, जिनकी संख्या करीब दस लाख होगी। यह अपने आप में डुबो लेने वाला (इमर्सिव) जगत है, जो अपने उपयोक्ता अवतारों के बीच परस्पर अंतक्र्रिया को संभव बनाता है और इसके दायरे में अनेकानेक दुनियाएं हो सकती हैं, जिनके अपने नियम और उपसंस्कृतियां हो सकती हैं। यहां तक कि इस जगत की मुद्रा भी है, जिसका नाम लिंडन डॉलर है। इसका उपयोग इस जगत के अंदर ही किया जा सकता है, बाहर नहीं। बहरहाल, इस जगत में इसके बुनियादी मकसद पर बहस अब भी चल ही रही है कि यह एक इमर्सिव मंच है या एक गेमिंग की दुनिया है।

फेसबुक के मेटा में दोनों संभावनाएं बनी हुई हैं। एक इमर्सिव मंच के रूप में मेटा का एक स्वत:स्पष्टï संचालक तो, घर से ही काम कर सकने की संभावना ही है। सभी टैक कंपनियां इस अनुभव तक पहुंच रही हैं कि घर से ही काम करना, कर्मचारियों के लिए आकर्षक होता है, लेकिन इसमें रचनात्मकता तथा नियंत्रण के पहलू से नुकसान होता है, जो दफ्तर से काम करना मुहैया कराता है, जहां कर्मचारी एक-दूसरे से मिलते हैं तथा अपने काम के संबंध में बात-चीत करते हैं। जुकरबर्ग के मेटा में, कंपनियां यथार्थ जगत के अपने दफ्तर आदि संपत्तियों को, जहां लोग काम करने आ सकते हैं, बेच सकते हैं। इसकी जगह पर वे, मेटा में दफ्तर के तौर पर जगह किराए पर ले सकते हैं या खरीद सकते हैं। यह कर्मचारियों को, काम पर दूसरों के साथ रखेगा, लेकिन इसके लिए उन्हें न तो दफ्तर पहुंचने के लिए लंबा सफर करना होगा और कंपनी के दफ्तर के आस-पास रहने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस तरह जुकरबर्ग अपने मेटा पर जगहें बेच सकता है या किराए पर उठा सकता है और इसी को अपना बिजनस मॉडल बना सकता है। या हम वर्चुअल बैठक लाउंजों के तौर पर अपने दोस्तों से मिलने के लिए, जहां जगह हो ऐसी जगहें उसी तरह किराए पर ले सकते हैं, जैसे हम जूम कक्ष किराए पर ले सकते हैं।

जुकरबर्ग के लिए एक और बिजनस मॉडल यह हो सकता है कि नकदी लेकर, जिसका उपयोग जगत के विभिन्न रूपों में हो सकता हो, मेटा के लिए विभिन्न साज-सामान, उपकरण, टोकन तथा दूसरी अनेक चीजें बेचे। मेटा के जगत के बाहर इनका डॉलर मूल्य होगा या फेसबुक की वैकल्पिक मुद्रा, लिब्रा में। यहां यह मामला लिंडन डालर से भिन्न होगा, जिसका उपयोग सिर्फ सैंकेंड लाइफ की दुनिया में ही किया जा सकता है।

जुकरबर्ग के लिए गेमिंग की दुनिया कहीं मुश्किल होगी। गेमिंग उद्योग दसियों साल से खड़ा हो रहा था और महामारी के दौरान उसने उसी तरह से उड़ान भरी है। जूम जैसे ऑनलाइन और नैटफ्लिक्स जैसे ओटीटी प्लेटफार्मों ने उड़ान भरी है। दुनिया में 3 अरब से ज्यादा गेमर हैं और वे अपने गेमिंग कोंसोलों के साथ काफी समय गुजारते हैं। गेमर ही उन्नततम पर्सनल कंप्यूटरों तथा लैपटॉपों की मांग में तेजी को संचालित कर रहे हैं और इससे ऐसे दूसरी चीजों में तेजी संचालित हो रही है, जिनमें उन्नत दर्जे के ग्राफिक्स की जरूरत होती है, जिसमें वीडियो संपादन भी शामिल है। इसने न्वीडिया के जीपीयू तथा अनेकानेक कृत्रिम मेधा (आइए) एप्लीकेशनों में तेजी पैदा की है। गेमरों के लिए, जुकरबर्ग और फेसबुक, मनमाफिक नहीं हैं। उनके मेटावर्स के जुकरबर्ग के प्रारूप से आकर्षित होने की भी संभवना नहीं ही है।

बेशक, अपने नकदी के बोरों से जुकरबर्ग गेम बनाने वाली कंपनियों को जरूर अपनी ओर खींच सकता है। अगर मेटा कुछ जानी-मानी गेमिंग कंपनियों को अपने प्लेटफार्म पर खींचने में कामयाब हो जाता है, तो क्या वह जुकरबर्ग के मेटावर्स के प्रारूप को संचालित करेगा? क्या ऐसी गेमिंग कंपनियां, फेसबुक से अपनी स्वतंत्रता का त्याग करने के लिए तैयार होंगी? इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है। आखिरकार, सोने की अपनी चमक होती है, सोने की!

फेसबुक का तात्कालिक लक्ष्य, एक ऐसी दागदार कंपनी की अपनी बदनामी से छुटकारा पाना है, जो अपने प्लेटफार्म पर नफरत और फेक न्यूज को बढ़ावा देती है। लेकिन, इसके साथ ही वह कनैक्टिविटी के नये युग तथा आर्टिफीशिएल इंटैलीजेंस के जिन उपकरणों की ओर हम बढ़ रहे हैं, उन पर भी ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, जिनके सहारे गेम की तरह वैकल्पिक दुनिया और यथार्थ जगत के बीच आवाजाही को साधा जा सकता है। लेकिन, यहां अमरीकी कंपनियों की कमजोर नस सामने आ जाती है। 

अमरीका 5जी की दौड़ में चीन, दक्षिण कोरिया के मुकाबले बहुत पीछे है और ब्राडबैंड की अपनी व्याप्ति में अनेक योरपीय देशों के मुकाबले कहीं दरिद्र है। क्या अमरीका, अपने डिजिटल बुनियादी ढांचे पर सरकारी निवेश के जरिए, अपनी इस पिछड़ को दूर कर सकता है? क्या फेसबुक, एक जहरीली सोशल मीडिया कंपनी की अपनी छवि से उबर सकता है और मेटा पर अपने लिए एक नया जीवन गढ़ सकता है? उसके पास अब भी काफी ताकत और प्रभाव तो हो सकता है, लेकिन अपने बुढ़ाते उपभोक्ता आधार के चलते उसका महत्व धीरे-धीरे छीज सकता है।

समाज उसे नफरत और फेक न्यूज का व्यापार करने के लिए बेशक दंडित करेगा, लेकिन तब तक वह हमारे सामाजिक ताने-बाने को भारी क्षति पहुंचा चुका होगा। इस सब में एक और खतरा यह है कि आभासी यथार्थ या वर्चुअली रीएलिटी, एक जहरभरी दुनिया भी हो सकती है। गेमिंग समुदाय के एक बड़े हिस्से में मौजूद नारीद्वेष इसका संकेतक है। क्या फेसबुक, अपने रिकार्ड के साथ, इस जहर को बढ़ाएगा और मेटा के रूप मेें एक दु:स्वप्नीय उभयजगत या मल्टीवर्स को खड़ा करेगा? 

 

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

https://www.newsclick.in/Facebook-Meta-Rebranding-Itself-Trouble-Building-Dystopian-Future

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