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बतकही: वे चटनी और अचार परोस कर कह रहे हैं कि आधा खाना तो हो गया...
मंत्री जी कह रहे हैं कि फ़िफ़्टी परसेंट मांगें मान ली हैं, यानी आधा मसला हल हो गया। इसलिए पड़ोसी जी भी कह रहे हैं कि अब तो मान जाओ। धरना-वरना हटाओ।
मुकुल सरल
31 Dec 2020
Farmers protest
फोटो : सोशल मीडिया से साभार

मैं धूप खाने की गरज से छत पर आया तो अपनी छत पर खड़े पड़ोसी ने तुरंत व्यंग्यात्मक लहजे में ज़ोर से कहा- अब तो आप जीत गए, सरकार ने सारी मांगें मान लीं, अब तो ये धरना-वरना ख़त्म कर दीजिए!

मैंने आश्चर्य जताया- मांगें मान ली हैं, आपसे किसने कहा?

अरे आप तो पत्रकार हैं, आप अनजान बनते हैं। रात तोमर जी का बयान नहीं सुना। आज अख़बार भी नहीं पढ़ा क्या!, कल की बैठक में सरकार ने किसानों की दो मांगें मान ली हैं। यानी फ़िफ़्टी परसेंट तो मसला हल हो गया है। अब फ़िफ़्टी परसेंट बचा है। वो भी हल हो जाएगा, लेकिन अब किसानों को ये धरना-जाम ख़त्म कर देना चाहिए। वैसे भी ठंड बहुत है। पड़ोसी पूरे उत्साह से बोले।

चलिए, आपको किसानों की कुछ तो फिक्र हुई। मुझे थोड़ी हैरत हुई।

तो आप क्या समझते हैं कि हमें किसानों की फिक्र नहीं!  अरे वैसे भी नया साल आ रहा है, ये धरना-जाम ठीक नहीं लगता...और 26 जनवरी भी तो आ रही है। अब इंगलैंड के प्रधानमंत्री को भी आना है। हम नहीं चाहते कि फिर ट्रंप के आने वाला ड्रामा दोहराया जाए। कितनी बेइज़्ज़ती होती है। दुनिया में मोदी जी का डंका बज रहा है और अपने ही देश में...। ख़ैर, मैं कह रहा हूं कि आधा काम तो हो गया, आधा भी हो जाएगा, मोदी जी पर भरोसा रखना चाहिए।

अच्छा, आपके हिसाब से आधा विवाद हल हो गया है!

हां-हां, क्यों नहीं। पड़ोसी ने कहा।

आपका मतलब है कि थाली में अचार और चटनी परोसने का मतलब है आधा खाना हो जाना!

तो क्या पराली और बिजली बिल से जुड़ी मांगे अचार और चटनी के बराबर हैं! पड़ोसी ने पलटवार किया।

चलो, अचार और चटनी नहीं तो दाल और सब्ज़ी मान लेते हैं। लेकिन जब तक रोटी और चावल नहीं परोसा जाएगा तब तक पूरा क्या अधूरा भी भोजन नहीं माना जा सकता।

ज़रा, मंत्री जी से पूछिए, कल उन्होंने किसानों का लंगर चखा। क्या दाल, सब्ज़ी के साथ रोटी, चावल नहीं मिला। क्या दाल-सब्ज़ी खाकर पेट भर लिया!    

मतलब, आप लोग मानेंगे नहीं? पड़ोसी ने तीखी नज़रों से देखते हुए कहा।

अरे मेरे या आपके मानने से क्या होगा साथी। किसानों को मानना है, उन्हें मनाओ।

तो फिर आप बताइए कि कल (30 दिसंबर) की बैठक कुछ भी नतीजा नहीं निकला। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। पड़ोसी ने पूछा।

हां, फ़ायदा तो हुआ है। ऐसा नहीं कि फ़ायदा नहीं हुआ। बात कुछ आगे बढ़ी, गाड़ी कुछ आगे खिसकी। और उम्मीद तो हमें रखनी ही चाहिए...। लेकिन वास्तव में दिख रहा है कि सरकार समाधान की बजाय चालाकी ज़्यादा कर रही है। सरकार ने पासा फेंका है। किसानों की पहली और दूसरी मुख्य मांगें छोड़कर तीसरे और चौथे नंबर की मांग मान ली है, ताकि प्रचारित किया जा सके कि देखिए सरकार कितनी नरम है, कितनी झुक रही है, लेकिन ये तो बस किसान हैं कि अड़े हुए हैं। हालांकि सबको ये जान लेना चाहिए कि तीनों नए कृषि क़ानून रद्द करने और एमएसपी की क़ानूनी गांरटी करने की मांग को लेकर ही ये पूरा आंदोलन शुरू हुआ है।

और उन्होंने कौन सी मांगें मानी हैं- पराली और बिजली संशोधन बिल से जुड़ी दो मांगें। पराली से जुड़ा मामला दिल्ली और आसपास की वायु गुणवत्ता से यानी पर्यावरण से जुड़ा मसला है। जिसमें हर बार हल्ला मचाया जाता है कि किसानों ने पराली जला दी, पराली जला दी, प्रदूषण फैला दिया। जबकि प्रदूषण में उनका हिस्सा बेहद कम और ज़िम्मेदारी तो उससे भी कम है। सरकार मुफ़्त या सस्ता उपाय उपलब्ध कराए तो किसान क्यों पराली जलाए। लेकिन उपाय सुझाने की बजाय सरकार ने क़ानून बनाया है जिसमें पराली जलाने पर किसानों पर भारी जुर्माने और जेल तक की सज़ा का प्रावधान है, उसे हटाने का आश्वासन दिया गया है।

दूसरा है बिजली संशोधन बिल 2020। इसमें क्रास सब्सिडी इत्यादि को लेकर विवाद था। यह बिल अभी आया नहीं बल्कि प्रस्तावित था। इसलिए इसे भी वापस लेने की बात मान ली गई और राज्यों में जिस तरह किसानों को सिंचाई की बिजली के लिए छूट मिलती रही है, वो मिलती रहेगी।

हालांकि किसानों ने पहले ही भेजे अपने लिखित एजेंडे में साफ़ कर दिया था कि सबसे पहले बात होगी तो तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की प्रक्रिया पर और दूसरी बात एमएसपी की गांरटी के लिए क़ानून बनाने पर। लेकिन सरकार पहली, दूसरी सीढ़ी छोड़कर सीधे तीसरी और चौथी सीढ़ी पर कूद गई। इसे बहुत से जानकार और किसान कह रहे हैं कि अभी सिर्फ़ पूंछ आई है, हाथी अभी बाक़ी है। यानी छोटी दो कम महत्व की मांगें मान ली गईं हैं, दो बड़ी मांगें जिनपर पूरा आंदोलन खड़ा है, उन्हें मानना बाक़ी है।  

ख़ैर फिर भी उम्मीद तो रखनी होगी। आज किसान मंत्रियों को अपने लंगर तक खींच लाए हैं, कल शायद अपनी मांगों तक भी ले आएं। उन्हें समझ आए कि अन्नदाता किसान जब खाना खिलाता है तो पूरा खाना खिलाता है। दाल, चावल, रोटी, सब्ज़ी सब थाली में होता है। और हमारे गांव में तो ऊपर से मट्ठा/लस्सी भी पिलाते हैं। 

वैसे बताया जा रहा है कि इस बार की बातचीत में एक फ़र्क़ नज़र आया कि सरकार ने अब क़ानून में संशोधन की बात करनी बंद कर दी है। उसको भी समझ आ गया है कि किसान तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लिए जाने से कम पर मानेंगे नहीं इसलिए अब उसने संशोधन प्रस्ताव मांगने की बजाय REPEAL  के लिए कोई दूसरा विकल्प सुझाने के लिए कहा है। हालांकि ये विकल्प सुझाने की भी ज़िम्मेदारी उसने किसानों पर डाल दी है।

अब ये विकल्प शाब्दिक है या सैद्धांतिक या वास्तविक, कहना मुश्किल है। लेकिन कुल मिलाकर इतना तो समझ आ रहा है कि सरकार किसान आंदोलन की ताक़त को पहचान और स्वीकार कर रही है और अब चाह रही है कि उसकी इज़्ज़त (झूठी शान) भी बची रहे और वो किसी तरह इस किसान आंदोलन से भी बाहर निकले। अब REPEAL के अर्थ या पर्यायवाची में तो हिंदी-अंग्रेज़ी में कई शब्द हैं जैसे cancel, revoke, revocation, Abrogation, Dismissed... निरस्त, रद्द या ख़ारिज करना। वापस लेना। डिक्शनरी में और भी शब्द मिल जाएंगे जैसे निरसन, खंडन, लोप, भंग करना इत्यादि। अब सरकार को जो शब्द अच्छा लगता हो, जिसमें उसकी ‘इज़्ज़त’ बचती हो वो चुन ले, लेकिन REPEAL का विकल्प तो REPEAL ही हो सकता है। आपके पास कोई विकल्प हो तो बताइए। मैंने पड़ोसी की तरफ़ देखा।

पड़ोसी दांत निकालकर हँस दिए। उन्हें देखकर मैं भी हँस दिया।

लेकिन यकायक धूप छंटते ही मुझे चिंता होने लगी कि किसान इतनी ठंड में कैसे करेंगे। धरने में बच्चे भी हैं और बुजुर्ग भी और ये सरकार बातचीत के लिए एक-एक दो-दो सप्ताह ऐसे ही बढ़ाए जा रही है, जैसा कोई फ़र्क़ ही न पड़ता हो। इस बार तो पूरे 22 दिन बाद बात हुई और फिर अगली तारीख़ मिल गई 4 जनवरी।

अब देखिए क्या होता है, हालांकि देखने के अलावा अभी किया भी क्या जा सकता है। सरकार लगातार बहलाने, उलझाने और थकाने का खेल खेल रही है, लेकिन हम भी फ़ैज़ की तरह देखना चाहते हैं कि-

“जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां

रुई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव तले

ये धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हकम के सर ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

…

हम देखेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है...”

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