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भारत
राजनीति
पूर्व पीएम चंद्रशेखर की विरासत ध्वस्त, नरेंद्र निकेतन पर चला नरेंद्र मोदी का हथौड़ा!
दरअसल, चंद्रशेखर की विरासत पर बुलडोजर भले ही सरकार के आदेश पर चलाया गया है लेकिन इसकी पटकथा चंद्रशेखर के खासमखास होने का दावा करने वालों ने लिखी है!
प्रदीप सिंह
17 Feb 2020
chandrashekhar

दिल्ली : 14 फरवरी, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की विरासत के लिए बुरा दिन था। प्रखर समाजवादी नेता चंद्रशेखर द्वारा स्थापित नरेंद्र निकेतन को केंद्रीय शहरी और विकास मंत्रालय के बुलडोज़रों ने जमींदोज कर दिया। नरेंद्र निकेतन का नामाकरण समाजवादी चिंतक एवं शिक्षाविद आचार्य नरेंद्र देव के नाम पर किया गया था। दिल्ली में सेंटर ऑफ एप्लाइड पॉलिटिक्स (Center of Applied Politics) के कार्यालय साथ ही समाजवादी जनता पार्टी (चंद्रशेखर) का भी कार्यालय था। फिलहाल शहरी विकास मंत्रालय के बुलडोज़र ने इस इमारत को मलबे में तब्दील कर दिया है।

12 फरवरी को शहरी विकास मंत्रालय ने इस कार्यालय को अपने कब्ज़े में ले लिया था और पदाधिकारियों को पत्र लिखकर खाली करने का आदेश दिया था। लेकिन कार्यालय को खाली करने के पहले ही नरेंद्र मोदी का हथौड़ा चल गया और समाजवाद की यह विरासत खाक में मिल गई।

आईटीओ पर दिल्ली पुलिस हेडक्वार्टर के पीछे स्थित य़ह इमारत मात्र ईंट-गारे से निर्मित एक भवन नहीं था। इस इमारत के साथ समाजवाद का सपना और चंद्रशेखर के संघर्ष की विरासत जुड़ी थी। अपने जीवनकाल में चंद्रशेखर ने यहां से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और गैट के विरोध में बिगुल बजाया था। हालांकि बहुत लोग चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर के ही बीजेपी में चले जाने को उनकी विरासत के अंत के तौर पर देखते हैं।

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समाजवादी जनता पार्टी (चंद्रशेखर) के राष्ट्रीय महासचिव श्यामजी त्रिपाठी कहते हैं कि, “30 जनवरी को गांधी शहादत दिवस पर पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने यहां पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया था। यह प्रेस कॉन्फ्रेंस सीएए, एनआरसी औऱ एनपीआर पर थी। इसके बाद ही षडयंत्र करके इसे ढहा दिया गया। हमें सामान हटाने का भी मौका नहीं दिया गया। चंद्रेशेखर जी से जुड़े कई दुर्लभ दस्तावेज नष्ट हो गए।”

नरेंद्र निकेतन और सेंटर ऑफ एप्लाइड पॉलिटिक्स संस्था कोई गुमनाम या जेबी संस्था नहीं हैं। दोनों संस्थाओं का एक इतिहास है। और संस्था को यह जमीन केंद्र सरकार के शहरी विकास मंत्रालय के एल एंड डीओ डिपार्टमेंट ने नियम-कानून के तहत दी थी।

श्याम जी त्रिपाठी के कहते हैं कि, “यह जमीन 1974 में एल एंड डीओ ने “सेंटर ऑफ अप्लाइड पॉलटिक्स” नामक संस्था को आबंटित की थी। लीज 1977 में कन्फर्म की गई। लीज कन्फर्म होने के बाद पूर्व प्रधानमंत्री ने यहां यंग इंडिया पत्रिका का दफ्तर बनाया। 1988 इसका नाम नरेंद्र निकेतन रखा गया और यहीं से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपनी राजनीतिक गतिविधियां चला रहे थे। 2007 में उनके निधन के बाद पार्टी उनके विचारों को यहीं से देश भर में प्रचारित कर रही थी। अचानक 12 फरवरी को एल एंड डीओ ने जमीन का लीज कैंसल कर दिया और 14 फरवरी को संस्था के दफ्तर को जमींदोज भी कर दिया।”

नरेंद्र निकेतन का शिलान्यास 31 अक्टूबर 1978 को अरुणा आसिफ अली ने किया था। संस्था की शुरुआत महान समाजवादी अशोक मेहता ने 22 सितंबर 1966 को की थी। चंद्रशेखर 1975 में इसके अध्यक्ष बनाये गए और अपनी अंतिम सांस तक वो इस संस्था के अध्यक्ष रहे। 1999 से समाजवादी जनता पार्टी (चंद्रशेखर) का दफ्तर सेंटर ऑफ एप्लाइड पॉलिटिक्स के प्रांगण में चलता रहा। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर यंग इंडियन मैगजीन के मुख्य संपादक थे और यहीं से यंग इंडिया मैगजीन भी निकलती थी। जो उनके निधन के बाद बंद हो गई थी।

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शहरी विकास मंत्रालय के एल एंड डीओ विभाग के अफसरों का कहना है कि कई साल पहले यह जमीन “सेंटर ऑफ अप्लाइड पॉलटिक्स” नामक संस्था को 99 सालों के लीज पर दी गई थी। संस्था को जिस काम के लिए लीज पर जमीन दी गई थी, जमीन का इस्तेमाल उस काम के लिए नहीं कर रही थी। अभी तक बिल्डिंग भी नहीं बनाई थी। अस्थायी शेड में दफ्तर चलाए जा रहे थे। इसलिए इसे तोड़ दिया गया।”

लेकिन यह पहली बार नहीं है कि चंद्रशेखर द्वारा स्थापित किसी संस्था के साथ ऐसा हुआ है। चंद्रशेखर के जीवनकाल में गुरुग्राम स्थित भोड़सी को लेकर भी विवाद हुआ था और मामला कोर्ट में पहुंच गया था। अदालत का निर्णय आने के तत्काल बाद बिना किसी आनाकानी के चंद्रशेखर ने भोड़सी को हरियाणा सरकार के हवाले कर दिया था। क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि नरेंद्र निकेतन में रखे सामान को सुरक्षित निकालने के बाद बुलडोज़र चलता ?

फिलहाल चंद्रशेखर के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत और उनके द्वारा स्थापित संस्थाएं विवादों के केंद्र में हैं। श्यामजी त्रिपाठी इसका कारण बताते हैं, “चंद्रशेखर जी ने अपने द्वारा स्थापित किसी भी संस्था या ट्रस्ट में अपने दोनों पुत्रों की कौन कहे किसी परिजन या रक्त संबंधी को सदस्य नहीं बनने दिया। राजनीतिक कार्यकर्ताओं और विश्वसपात्रों को ही उन्होंने विभिन्न संस्थाओं का ट्रस्टी और सदस्य बनाया। 2007 में उनकी मृत्यु के बाद सेंटर ऑफ एप्लाइड पॉलिटिक्स की गवर्निंग बॉडी ने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर कई कमिटी बनाई थी। 2007 से 2017 के बीच अनेकों फर्जी कमिटी बनाकर रजिस्टर्ड करवाने का प्रयास किया गया। कौन सच्चा है कौन झूठा इसके चक्कर में ही यह कार्रवाई की गई है।”

श्यामजी त्रिपाठी की बात पूरे मामले का एक पक्ष है। भारतीय राजनीति में चंद्रशेखर की एक विरासत है और उनके चाहने वालों की संख्या लाखों में है। जिस दिल्ली में आप यूं ही किसी झुग्गी को नहीं तोड़ सकते हैं वहां चंद्रशेखर जैसे राजनेता की विरासत के जमींदोज होने के बाद पसरी चुप्पी किसी गहरे सियासी षडयंत्र का संकेत है। आने वाले दिनों में दीनदयाल रोड पर स्थित चंद्रशेखर भवन और बलिया (जेपी नगर) स्थित लोकनायक जयप्रकाश नारायण के स्मारक पर भी हथौड़ा चल सकता है। कहा जा रहा है कि दिल्ली में बैठे सत्ता के दलाल पर्दे के पीछे चंद्रशेखर की विरासत को खत्म करने का षडयंत्र रच रहे हैं।

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दरअसल, चंद्रशेखर की विरासत पर बुलडोजर भले ही सरकार के आदेश पर चलाया गया है लेकिन इसकी पटकथा चंद्रशेखर के खासमखास होने का दावा करने वालों ने लिखी है। यह बात सही भी है कि चंद्रशेखर के निधन के बाद ऐसे लोग उनका नाम बेच कर अपना धंधा चला रहे हैं। चंद्रशेखर के निधन के बाद ही उनके विश्वसपात्र होने का दावा करने वाले कुछ लोगों ने उनकी राजनीतिक विरासत को हथियाने का षडयंत्र रचना शुरू कर दिया था।

दरअसल, चंद्रशेखर ने अपने जीते जी अपने दोनों पुत्रों को राजनीति से दूर रखा। अपने दोनों पुत्रों पंकज शेखर औऱ नीरज शेखर से उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि यदि आप लोगों को राजनीति करनी हो तो पहले किसी क्षेत्र में जाकर जनता की सेवा करो। इसी कारण चंद्रशेखर के निधन के बाद बलिया लोकसभा उपचुनाव में टिकट के लिए उनके दोनों पुत्रों में काफी विवाद हुआ था। उस समय चंद्रशेखर के एक तीसरे राजनीतिक उत्तराधिकारी भी सामने आए थे।

वे लंबे समय तक चंद्रशेखर के ‘सेवक’ रहे। ‘सेवक’ महोदय का दावा है कि तीन-चार दशकों तक वह अध्यक्ष जी की सेवा करते रहे। इसलिए उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी पंकज एवं नीरज नहीं बल्कि मैं हूं। बलिया लोकसभा सीट से टिकट की दावेदारी करते हुए उन्होंने दिल्ली के पत्र-पत्रिकाओं में लेख भी लिखे और लिखवाए थे। लेकिन चंद्रशेखर के राजनीतिक वारिस बनने में सफल नहीं हुए। इसके बाद उनकी चंद्रशेखर के परिवार से दूरी बनती गई।

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चंद्रशेखर ने उनको अपने द्वारा स्थापित अधिकांश संस्थाओं में सदस्य, ट्रस्टी आदि बनाया था। इसके बाद वह यह कहना शुरू कर दिए कि, “अध्यक्ष जी ने कहा था कि हमने जितनी संस्था बनाई है सबमें जनता का पैसा लगा है, यदि मेरे बाद संस्थाओं को संचालित करने में कोई परेशानी आती है तो आप संस्थाओं को सरकार को सौंप देना। इसको किसी की निजी जागीर मत बनने देना।” लेकिन अफसोस की बात यह है कि चंद्रशेखर के निधन के बाद उनकी विरासत को निजी जागीर बनाने की होड़ मच गई। जो काम उनके परिजनों ने नहीं कियी उसे उनके “तथाकथित चेलों-शिष्यों” ने कर दिखाया।

“चेलों-शिष्यों” या “मुंशी-मैनेजरों” का रास्ता तब तक साफ था जब तक नीरज शेखर समाजवादी पार्टी में थे। उस समय मुंशी-मैनेजर संस्थाओं को पहले कांग्रेस सरकार और बाद में बीजेपी सरकार की मदद से हथियाने का प्रयास करते रहे। लेकिन जैसे ही नीरज शेखर समाजवादी छोड़ कर बीजेपी में आए तो खेल बदल गया। अब तक कई ‘सेवकों’ को यह लगता था कि बीजेपी सरकार में अपने संपर्कों-संबंधों का इस्तेमाल करते हुए वे चंद्रशेखर की विरासत पर कब्जा कर लेंगे, लेकिन नीरज शेखर के बीजेपी में आने से उनकी दाल गलने वाली नहीं थी।

फिलहाल चंद्रशेखर विरासत उनके पुत्रों-परिजनों, समाजवादी कार्यकर्ताओं, “मुंशी-मैनेजरों” और ‘सेवकों’ के बीच बंट गई है। चंद्रशेखर के सुपुत्र औऱ उनके खास होने का दावा करने वाले अधिकांश लोग बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या चंद्रशेखर के चाहने लोग ही उनके विरासत को नष्ट करने में लगे हैं?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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