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राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
जी-7 और चीन : विश्व व्यवस्था के दोष
चीन विरोधी धर्मयुद्ध को लेकर जी-7 देशों के बीच मतभेद के संकेत मिल रहे हैं।
एम. के. भद्रकुमार
16 Jun 2021
Translated by महेश कुमार
जी7
जी-7 देशों के नेता कॉर्नवाल, यूके, में 12-13, जून 2021 को हुए शिखर सम्मेलन में भाग लेते हुए।

जी-7 देशों ने 1970 के दशक के मध्य में तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति वालेरी गिस्कार्ड डी'स्टाइंग और पश्चिम जर्मन चांसलर हेल्मुट श्मिट की पहल पर विश्व अर्थव्यवस्था पर चर्चा करने और पहले तेल के झटके के बाद एक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नीति पर परामर्श करने और ब्रेटन वुड्स स्थिर विनिमय दर प्रणाली के पतन पर चर्चा करने के बीच की इस अवधि एक लंबा सफर तय किया है।

लेकिन 1980 के दशक तक, जी-7 देशों ने विदेश और सुरक्षा नीति के मुद्दों पर चर्चा शुरू कर दी थी। अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे बड़े मुद्दे पर बड़ी चर्चा जी-7 देशों ने संभवतः 1991 में की थी जब उन्होने मिखाइल गोर्बाचेव को 1991 में जी-7 शिखर सम्मेलन के लिए लंदन में वार्ता के लिए आमंत्रित किया था। 1998 में, रूस को औपचारिक रूप से इस समूह में शामिल किया गया और  समूह को अब जी-8 कहा जाने लगा था। 

इसके बाद करीब डेढ़ दशक तक, यानि 2013 तक रूस ने शिखर सम्मेलन की बैठकों में नियमित रूप से भाग लिया, तब तक जब तक कि यूक्रेन की "कलर क्रांति" के बाद रास्ते अलग नहीं हो गए थे, और जी-8 फिर जी-7 में तब्दील हो गया था। तब से जी-7 एक विशिष्ट पश्चिमी क्लब के रूप में निर्दयतापूर्वक व्यवहार कर रहा है।

इतना सा संक्षिप्त विवरण इस बात को याद दिलाने के लिए उपयोगी और जरूरी भी है कि सात पश्चिमी देशों का यह गहन राजनीतिक मंच असाधारणवाद की ऐसी धारणाओं को पोषित करने के लिए कैसे आगे बढ़ा था। लेकिन आज, वे बदलती दुनिया का सामना कर रहे हैं, और उन्हे आशंका हैं कि कहीं दुनिया कल को उनके नियंत्रण से दूर न चली जाए। 

1970 के दशक के बाद से भूमिका में नाटकीय बदलाव आया है, विकासशील दुनिया अब पश्चिम दुनिया की एक तिहाई की दुनिया की तुलना में वैश्विक अर्थव्यवस्था की लगभग दो-तिहाई है। बेशक, यह वास्तविकता, जो 2008 के वित्तीय संकट के दौरान बढ़ी है, उसके बदले में, अधिक प्रतिनिधित्व वाले जी-20 देशों के समूह का जन्म हुआ है, लेकिन जी-7 ने इस बदलाव के चलते भी पीछे हटने से इनकार कर दिया है।

महामारी इस ऐतिहासिक बदलाव को और अधिक बढ़ा सकती है। कुल मिलाकर, पश्चिमी ताक़तें आघात की स्थिति में हैं क्योंकि वे चारों ओर देख रहे हैं और महसूस कर रहे हैं कि विश्व अर्थव्यवस्था पर उनकी अपनी पकड़ के कारण और उन्होंने जिस तरह के प्रभुत्व का आनंद उठाया था,  वह शायद अब संभव नहीं है। किसी भी हिसाब से आप देखें, रविवार को संपन्न हुई शिखर बैठक जो सप्ताहांत में ब्रिटेन में हुई जिसमें जी-7 नेता आए थे वे अपने चारों ओर घूमने वाली अंतर्धाराओं या घटनाओं के प्रति सचेत दिखे।

जी-7 देश खुद को फिर से बनाने पर मजबूर हुए है। जी-7 का सप्ताहांत शिखर सम्मेलन  लोकतांत्रिक दुनिया के स्रोत के रूप में फिर से परिभाषित करने की दिशा में पहला कदम है, जो इसे चीन के खिलाफ वैश्विक अभियान में इच्छुक लोगों के गठबंधन का नेतृत्व करने में सक्षम बनाता है। (जी-7 विज्ञप्ति को यहाँ पढे)

हालाँकि, चीन के खिलाफ चलाए जा रहे धर्मयुद्ध के बारे में जी-7 देशों के बीच मतभेद के संकेत मिले हैं। चीन विश्व अर्थव्यवस्था के विकास का वाहक है और उसने कुछ पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से संगठित किया है। यहीं सबसे बड़ा विरोधाभास है। जी-7 के नवीनतम शिखर सम्मेलन के परिणामों को देखते हुए यह माना जा रहा है कि निजी क्षेत्र की पूंजी और विशेषज्ञता को जुटाकर "बुनियादी ढांचे के वित्तपोषण की कमी को दूर करने के लिए" पश्चिमी दुनिया का जवाबी कदम है। बड़ा सवाल ये है कि आखिर जी-7 का पैसा आता कहां से है?

उनकी खुद की अर्थव्यवस्था कर्ज में डूबी हुई है। और उनकी निजी क्षेत्र की कंपनियां तब तक उधार क्यों लें जब तक कि उस उधार के बदले अनुचित रिटर्न या वापसी न हो और, सबसे महत्वपूर्ण बात, क्या उनके पास चीन की तरह बेल्ट एंड रोड पहल जैसी परियोजनाएं हैं जो अफ्रीका या एशिया में काम कर रही हैं, उस तरह की परियोजनाओं को शुरू करने के लिए क्या उनके पास संसाधन, विशेषज्ञता और प्रासंगिक अनुभव है? डेटा प्रदाता रिफिनिटिव के अनुसार, 2020 की पहली तिमाही तक, चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजनाओं का मूल्य पहले से ही 4 ट्रिलियन डॉलर से अधिक हो गया है! ये कुछ कटु वास्तविकताएं हैं जिनसे नज़रें नहीं फेरी जा सकती हैं।

भू-राजनीतिक दृष्टि से, जी-7 शिखर सम्मेलन का मुख्य परिणाम यह है कि इसके यूरोपीय प्रतिभागी राहत की सांस ले सकते हैं कि डोनाल्ड जे ट्रंप के चार वर्षों की बरबादी की विरासत से हुए उल्लंघनों की मरम्मत शुरू करने के लिए वाशिंगटन की ओर से रुचि और संकेत देने वाला एक नया स्वर दिखाई दिया है। 

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने बाइडेन से मुलाकात के बाद कहा, "एक अमेरिकी राष्ट्रपति का हमारे साथ आना अच्छी बात है और जो अब हमारे इस क्लब का हिस्सा है और सहयोग करने के बहुत इच्छुक भी है।" निश्चित रूप से, मैत्रीपूर्ण माहौल ने बाइडेन को जी-7 में एक निश्चित शीत युद्ध ओवरटोन को इंजेक्ट करने में मदद की है। 

हालाँकि, आगे के हालत को देखते हुए, जी-7 की दुर्दशा तीन गुना बढ़ने वाली है। सबसे पहले, तो असलियत में यह सरवेंट्स उपन्यास में डॉन क्विक्सोट की तरह भ्रमपूर्ण जादू में पवनचक्की पर झुका हुआ एक सारथी है; क्योंकि, चीन और रूस न केवल पश्चिम को चुनौती देने के लिए अपना विरोधी गुट बनाने के काफी नजदीक हैं, बल्कि ऐसी दिशा में आगे बढ़ने की योजना भी नहीं बना रहे हैं।

पिछले हफ्ते, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सेंट्रल कमेटी के अखबार ग्लोबल टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में, बीजिंग में रूस के राजदूत एंड्री डेनिसोव ने जी-7 शिखर सम्मेलन और पुतिन और बाइडेन के बीच होने वाले आगामी शिखर सम्मेलन के साए में निम्न बातें कही:

"रूस की स्थिति स्पष्ट रूप से चीन (अमेरिका की तुलना में) के बहुत करीब है। हाल के वर्षों में, अमेरिका ने रूस और चीन दोनों पर प्रतिबंध लगाए थे। हालांकि रूस और चीन के प्रति क्षेत्र और सामग्री के मामले में अमेरिका का असंतोष अलग हैं, और इस मामले में अमेरिका का एकमात्र लक्ष्य यही ही है: कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को कुचलना चाहता है। हम स्पष्ट रूप से अमेरिका के इस तरह के रवैये को स्वीकार नहीं कर सकते हैं। हमें उम्मीद है कि रूस-चीन-अमेरिका की "तिकड़ी" संतुलन को बनाए रखेगी।

"रूस और चीन दोनों विश्व शक्तियाँ हैं और वैश्विक और क्षेत्रीय स्तरों पर उनके अपने हित हैं। ये हित सभी मामलों में समान नहीं हो सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर रूस और चीन के अंतरराष्ट्रीय हित समान हैं, इसलिए अधिकांश अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर हमारी स्थिति समान है। इस मामले में सबसे स्पष्ट उदाहरण यह है कि हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कैसे मतदान करते हैं: रूस और चीन अक्सर सुरक्षा परिषद में एक ही साथ वोट डालते हैं… वास्तव में, कुछ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर हमारी स्थिति समान ही है, लेकिन कुछ खास मुद्दों पर हमारे विचार अलग-अलग हैं।”

क्या उपरोक्त बयान रूस और चीन के बीच एक सैन्य गठबंधन या यहां तक कि साझा विचारधारा को जोड़ता है? जाहिर है, ऐसा नहीं है। यह हमें दूसरे बिंदु पर लाता है, अर्थात्, चीन के प्रति उसकी विदेश नीति पर दुश्मनी के मामले में पश्चिमी भागीदारों को जोड़ने के लिए अमेरिका कठोर दबाव महसूस कर रहा है, जो अनिवार्य रूप से निराशा की भावना से पैदा कर रहा हैं क्योंकि उसके इस सदी के वैश्विक प्रभुत्व को गंभीर चुनौती मिल रही और पश्चिमी हितों को कमजोर करने वाले चीन के साथ इसका कोई लेना-देना नहीं है।

इसमें कोई शक नहीं कि जी-7 देश इस बात को सामने लाए है कि चीन की बढ़ती ताकत का जवाब कैसे दिया जाए, इस बारे में अमेरिका और उसके सहयोगियों के बीच तीखी असहमति है। यूरोप - विशेष रूप से, दो प्रमुख यूरोपीय शक्तियां जर्मनी और फ्रांस - चीन को एक भागीदार, प्रतिस्पर्धी, विरोधी या एकमुश्त सुरक्षा खतरे के रूप में मानने के मामले में आमने-सामने हैं।

यह मिजाज व्यापक पश्चिमी प्रतिक्रिया को जुटाने के अमेरिकी प्रयासों को झटका देगा। निकट भविष्य में, बड़ा इम्तिहान यह होगा कि क्या बाइडेन प्रशासन सहयोगियों को चीन के जबरन श्रम के इस्तेमाल की निंदा करने के लिए राजी कर पाएगा और क्या यह सुनिश्चित करने के लिए ठोस कार्रवाई कर पाएगा कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला चीनी श्रम के इस्तेमाल से पूरी तरह मुक्त हो - या क्या फिर, यह बिना काटे भोंकने वाला बन कर रह जाएगा। 

अंतत, अर्थशास्त्र के नियम भू-राजनीतिक निर्माणों या मानवाधिकारों की चिंताओं से अधिक मजबूत होते हैं। गौरतलब है कि पिछले मंगलवार को यूरोपीयन यूनियन के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल ने निवेश सौदे को "सही दिशा में एक बड़ा कदम" कहकर चीन के साथ निवेश पर एक व्यापक समझौते पर बातचीत करने के यूरोपीयन यूनियन के प्रयासों का बचाव किया था। उन्होंने संवाददाताओं से कहा, "पहली बार हम यूरोपीयन कंपनियों (चीनी अर्थव्यवस्था में) द्वारा निवेश की सुविधा के लिए कदम उठा रहे हैं।"

इस तरह की टिप्पणी का वक़्त काफी नाजुक और पेचीदा था, खासकर तब जब बाइडेन अपने यूरोपीय दौरे के लिए रवाना हो रहे थे। यह दर्शाता है कि चीन और यूरोपीयन यूनियन के आर्थिक संबंध एक जटिल संक्रमणकालीन चरण में हैं, यह अमेरिका के लिए हलवे में अपनी उंगली घुसाने का बहाना नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब रेखांकित करता है कि न तो यूरोपीयन यूनियन और न ही चीन अमेरिका के हस्तक्षेप को चीजों को बदतर और कम अनुमानित बनाना चाहता है। दूसरी ओर, निश्चित रूप से, यूरोपीयन लोग अपनी नीतिगत स्वतंत्रता को भी खोना नहीं चाहेंगे और चीन के खिलाफ अमेरिकी नियंत्रण का मोहरा नहीं बनेंगे।

यह अपेक्षित था, क्योंकि 2020 में, चीन ने यूरोपीयन यूनियन के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में अमेरिका को पछाड़ दिया है। चीन और यूरोपीय देशों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया है, जिसमें दोतरफा संचयी निवेश 250 बिलियन डॉलर से अधिक था।

चीन में यूरोपियन यूनियन चैंबर ऑफ कॉमर्स द्वारा जारी किए गए एक सर्वेक्षण ने मंगलवार को दर्शाया कि लगभग 60 प्रतिशत यूरोपीयन कंपनियां इस साल चीन में अपने कारोबार का विस्तार करने की योजना बना रही हैं, जो पिछले साल के सर्वेक्षण के 51 प्रतिशत से लगभग 10 प्रतिशत अधिक की वृद्धि है। यह कहना काफी होगा कि यूरोपीयन अच्छी तरह से जानते हैं कि चीन और यूरोपीयन यूनियन के आर्थिक संबंधों का राजनीतिकरण उनके दीर्घकालिक हितों के लिए हानिकारक होगा।

 (इस लेख का दूसरा भाग भी आएगा)

G7
China
International Economic Policy
G20

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