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भारत
राजनीति
गांधी, गोडसे और हिंदुत्व के भीतर के 'पौरुष' की तलाश
गांधी की हत्या और उस हत्या को बहादुरी की तरह पेश किया जाना भी उसी तरह का सुबूत है, जिस तरह बाबरी मस्जिद का विध्वंस या इसी तरह की दूसरी हरक़तें हैं।
नीलांजन मुखोपाध्याय
06 Oct 2020
गोडसे

ऐसा नहीं है कि इसी साल ट्विटर पर महात्मा गांधी की जयंती पर 'नाथूराम गोडसे जिंदाबाद' का हैशटैग चलाकर हिंदुत्ववादी तत्वों ने राष्ट्रपिता के हत्यारे का महिमामंडन किया है। मगर, कोई शक नहीं कि इस कट्टरपंथी शख़्स को देवता की तरह पूजे जाने की कोशिश के पीछे की इस हक़ीक़त ने और ज़्यादा चिंताजनक स्थिति में डाल दिया है कि लगातार दूसरे साल भी उसी दिन गोडसे का महिमामंडित वाला यह हैशटैग घंटों तक ट्रेंड करता रहा, जिस दिन भारत में ही नहीं,बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी शांति के इस पुजारी को निष्ठा के साथ याद किया जाता है।

पिछले साल इसी दिन दक्षिणपंथी ताक़तों ने हैशटैग, #GodseAmarRahe (गोडसे अमर रहे) चलाया था और इसे तब भी ट्रेंड तो कराया गया था,लेकिन उस पैमाने पर नहीं,जिस पैमाने पर इस साल ट्रेंड कराया गया है। पीछे देखने पर ऐसा लगता है कि पिछले साल का वह हैशटैग असल में जनमत को भांपने की कोशिश थी। विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यकर्ता ने भी एक ट्वीट किया था,जो चारों तरफ़ फैल गया था,वह था, ‘अगर गोडसे ने गांधी की हत्या करके ग़लत काम किया होता, तो गांधी क्या करते? वे एक और विभाजन की अनुमति दे देते। गोडसे ने तो सिर्फ़ एक हत्या की थी और उसे मौत की सजा भी सुनायी गयी, लेकिन गांधी के कारण हुए विभाजन में तो हिंदुओं का नरसंहार हुआ था, क्या गांधी को इसके लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए था?’ उस कार्यकर्ता के इस नज़रिये ने असल में उस दक्षिणपंथी भावना को ज़ाहिर किया था, जिसने गांधी को विभाजन का दोषी ठहराया था।

दो तरीक़ों से किये गये विश्लेषण के आधार पर एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पिछले साल 2 अक्टूबर की रात 8 बजे तक गोडसे हैशटैग के साथ-साथ तक़रीबन 15,000 ट्वीट किये गये थे, लेकिन इस साल उतने ही समय में इस तरह के ट्वीट्स की संख्या बढ़कर 1,13,000 हो गयी। मानो यह काफ़ी नहीं था, यही वजह है कि अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने 3 अक्टूबर को एक ऐसा यूट्यूब चैनल लॉन्च किया,जो गोडसे द्वारा किये गये इस "अच्छे काम" के लिए समर्पित है। मीडिया की तरफ़ से एक प्रवक्ता को यह कहते हुए उद्धृत किया गया कि इस चैनल को "युवा पीढ़ी" का ध्यान रखते हुए लॉन्च किया गया था। इसके प्राथमिक उद्देश्यों में से एक है, दर्शकों को "गांधी की हत्या के पीछे के कारणों की व्याख्या करना”।

गोडसे को देवता बनाने के लिए हिंदू राष्ट्रवादी पारिस्थितिक तंत्र के एक हिस्से का यह ठोस अभियान उस संघ परिवार की उस धारा के प्रयासों के एकदम उलट है,जो इस समय भारतीय व्यवस्था में एक प्रमुख राजनीतिक समूह है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या आरएसएस हो, इनके लिए गांधी की विरासत को समाहित करना एक बड़ी परियोजना है। मोदी सरकार ने अपने प्रमुख कार्यक्रम, स्वच्छ भारत में गांधी से जुड़ी परिकल्पना को समाहित किया है। उसी प्रतीक का इस्तेमाल नोटबंदी के बाद के नोटों में भी किया जाता है।

मोदी का राजघाट की रस्म अदायगी करने और इस महात्मा को श्रद्धांजलि देने के अलावा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंधित होने और जांच के दायरे में आने के बावजूद आरएसएस भी गांधी के नाम की लगातार क़समें खा रहा है। इसी साल 2 अक्टूबर को आरएसएस के एक सहयोगी विश्व संपर्क केंद्र, और ख़ुद को "अलग तरह के मीडिया केंद्र" के तौर पर बताने वाले विश्व संवाद केंद्र की गुजरात शाखा ने 'महात्मा गांधी-एक शाश्वत विचार' नामक पुस्तक लॉन्च की है।

मगर,गोडसे के कृत्य को बार-बार बहादुरी की तरह दिखाये जाने वाले उदाहरणों से साफ़ हो जाता है कि गांधी और गोडसे परस्पर विरोधी हैं। जनवरी 2019 में हिंदू महासभा के एक पदाधिकारी ने गांधी के पुतले को गोली मारकर गोडसे के हत्या वाले कृत्य को ही दोहराया था। इस महासभा की सचिव,पूजा शकुन पांडे ने अपने बाद के दावे में कहा था कि दशहरे के दौरान हर साल जिस तरह रावण का पुतला जलाया जाता है, उससे यह कृत्य अलग नहीं था।

जब उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिंदू राष्ट्रवाद के विचार ने अपना सर उठाना शुरू कर दिया था, तो "बहादुर" मुसलमानों के उलट "कायर" हिंदुओं के औपनिवेशिक सिद्धांत को उलटने की एक कोशिश की शुरुआत हुई। शिवाजी की छवि को बहादुर की तरह पेश करना और एक विरोधी के रूप में उनका मुग़ल (मुसलमान) शक्ति के सामने खड़ा करना भी एक बहादुर समुदाय के रूप में हिंदुओं की छवि बनाने के इसी प्रयास का हिस्सा है। जब अंग्रेज़ों ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वीडी सावरकर का समर्थन मांगा, तो उन्होंने हिंदुओं को अंग्रेज़ी सेना में भर्ती होने का आह्वान किया था,उनका तर्क था कि इससे हिंदुओं का सैन्यीकरण होगा।

शिवाजी से लेकर गोडसे तक सार्वजनिक रूप से हिंदू देवताओं की मौजूदा स्थिति की परिकल्पना उनके हथियार के साथ ही की जाती है, परशुराम की कुल्हाड़ी, राम का धनुष, कृष्ण का सुदर्शन चक्र और शक्ति के रूप में दुर्गा की परिकल्पना दरअस्ल हिंदुओं की इसी "बहादुरी" के आयाम को आगे बढ़ाने वाले तक़रीबन 150 वर्षों की कोशिशों का हिस्सा है। यहां तक कि दीवार के पोस्टर और कार स्टिकर के तौर पर इस्तेमाल किये जाने वाले क्रोधित हनुमान की नवीनतम फ़ोटो का मक़सद भी इसी हिंदू ‘कायरता’ के ख़ात्मे को रेखांकित करना है। गांधी की हत्या और उस हत्या को बहादुरी की तरह पेश किया जाना भी उसी तरह का सुबूत है, जिस तरह बाबरी मस्जिद का विध्वंस या इसी तरह की दूसरी हरक़तें हैं।

गांधी की जिस छवि का इस्तेमाल राज्य काज में लगी हुई संघ परिवार की शाखा की तरफ़ से लगातार किया जा रहा है, वह बहादुरी और कायरता,दोनों ही एहसास से परे है। इसके उलट, समावेशी गांधी, ऐसी शख़्सियत थे,जो लगातार भारत के बहुलवाद का हवाला देते थे और इस बात पर ज़ोर देते थे कि अपने पीछे खड़े मुसलमानों के प्रति हिंदुओं की यह ज़िम्मेदारी है कि वह मुसलमानों को सहज महसूस कराये और ज़िंदगी जीने के लिए सुरक्षा का अहसास कराये, लेकिन गांधी को एक ऐसे कायरता वाले चरित्र के साथ पेश किया जाता है,जिसका झुकाव मुसलमानों की तरफ़ था। 'यह' गांधी रोल मॉडल नहीं हो सकते थे और इस तरह गांधी के मुक़ाबले खड़ा करने के लिए गोडसे को महिमामंडित करने की ज़रूरत थी।

हालांकि,गणतंत्र होने के साथ ही गांधी की इस तरह सार्वजनिक निंदा की अपनी राजनीतिक क़ीमत भी थी। समय के साथ सत्ता की राजनीति में लगे हिंदू राष्ट्रवादियों के इस वर्ग ने गांधी के प्रति अपने रवैये में सुधार लाया और गांधी का भी स्तुति गान करना शुरू कर दिया। कई दशकों के दौरान कई दूसरे राष्ट्रवादी नेताओं को भी संघ परिवार की तरफ़ से इसलिए समाहित किया गया,क्योंकि इसके नेता अब उस राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में बात करते हैं,जिसमें उनकी नगण्य भूमिका थी।

वाजपेयी शासन की तरफ़ से सावरकर को राष्ट्रीय शख़्सियत के समूह में स्थान दिलाने को लेकर जिस अभियान की शुरुआत हुई थी,उसके आख़िरी चरण की शुरुआत 2014 में की गयी। जबसे मोदी ने सावरकर को 'वीर' और देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी के रूप में संदर्भित करते हुए सेंट्रल हॉल में सावरकर के चित्र पर माल्यार्पण किया है, तबसे सावरकर को राष्ट्रीय शख़्सियत के बीच जगह मिल गयी लगती है। हालांकि यह गोडसे के लिए इतना सरल नहीं हो सकता, क्योंकि उसे वह ऊंचाई तभी हासिल हो सकती है, जबतक कि गांधी अपने स्थापित आधार से उखाड़ नहीं फेंके जाते।

हालांकि इस तरह का इरादा 1948 से ही रहा है और गोडसे की पूजा भी की जाती रही है, मगर इस तरह के नज़रिया रखने वाले बिल्कुल अलग-थलग रहे हैं,लेकिन यह अतीत की बात हो गयी है और अब तो गोडसे को लेकर सार्वजनिक स्वीकृति भी शर्म की बात नहीं रही। हालांकि, गांधी को लेकर अत्यधिक वैचारिक घृणा से प्रेरित गोडसे के गांधी की हत्या करने का फ़ैसला उसके भीतर के "पौरुष" की गहरी तलाश से संचालित था।

गोडसे बचपन से ही एक ऐसे अवसाद से ग्रस्त था, जो उसकी अस्वीकार्यता और नाकामी के डर से उभरा था। जीवन में उसकी नाकामियां उसके बेकार बीते बचपन में निहित थीं। आंशिक रूप से यह एहसास उसकी उस नाक से उपजा था, जिसे छिदाया गया था और जिसमें किसी औरत के श्रृंगार वाले किसी आभूषण को धारण किया जा सकता था, यह भारत में किसी भी समुदाय के नौजवान लड़कों या मर्दों का आभूषण नहीं है। इसके अलावा, उसके दो नाम थे-एक नाम उसकी नाक छिदवाने से पहले का था और दूसरा नाक छिदवाने के बाद का नाम था। उसका पहला नाम रामचंद्र था, जो उसकी जीवनी लिखने वाले को छोड़कर किसी को याद नहीं है। इस नाम के पहले भाग, यानी ‘राम’ को इसमें से निकाल लिया गया था और इसका इस्तेमाल उसके बाद के उस नाम का हिस्सा बना, जिससे उसे अपनी पहचान मिली थी। नाथ यानी नथिया, जिसमें 'उकार’ ध्वनि का इस्तेमाल इसलिए जोड़ दिया गया, ताकि नाथ और राम को मिलाकर नाथूराम बन सके।

उसके माता-पिता ने एक नर बच्चे के रूप में गोडसे की पहचान को छुपाये रखा था और वह बाद की ज़िंदगी में अपने ऊपर थोप दिये गये औरताने एहसास से बचने के लिए संघर्ष करता रहा। कोई शक नहीं कि उसे इस एहसास से छुटकारा पाने में कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली। ऐसे में उसका हिंदुओं के खो चुके या अनुपयुक्त "पौरुष" के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करना वास्तव में विरोधाभासी है। इससे शायद इस बात की व्याख्या हो पाती है कि हैशटैग बनाने या वीडियो शूट करने जैसी गतिविधियां छद्म गतिविधियां क्यों बनी रहेंगी। लेकिन, गोली चलाने और भाग लेने के ये गुप्त मिशन हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक रणनीति का अभिन्न हिस्सा रहेंगे, क्योंकि इसके सहयोगी संगठनों की हर कार्रवाई को खुलकर अंजाम नहीं दिया जा सकता है। साज़िश भारत के दक्षिणपंथियों से जुड़ा एक ऐसा तत्व है,जो उसके सहगामी है।

टिप्पणीकार पत्रकार और लेखक हैं। आपकी आख़ीरी किताब,द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राईट है और इस समय अयोध्या मुद्दा और भारतीय राजनीति में किस तरह से बदलाव आया है, इस पर काम कर रहे हैं। आपका ट्वीटर एकाउंट है: @NilanjanUdwin.

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Gandhi, Godse and the Search for ‘Masculinity’ Within Hindutva

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