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भारत
राजनीति
गोलवलकर और सावरकर की गहन असहमति थी हमारे स्वाधीनता संग्राम से
संदर्भ भारत छोड़ो आंदोलन: आज जब सत्तारूढ़ भाजपा भारत के स्वाधीनता संग्राम के नायकों पर अपना दावा पेश कर रही है और स्वयं को सर्वाधिक देशभक्त दल के रूप में प्रचारित कर रही है तब उससे कुछ प्रश्न पूछे जाने ज़रूरी हैं।
डॉ. राजू पाण्डेय
08 Aug 2020
गोलवलकर और सावरकर
साभार : सबलोग

भारत के स्वाधीनता संग्राम की जो विशेषताएं उसे विलक्षण बनाती हैं, उनमें उसका सर्वसमावेशी स्वरूप और निर्णायक तौर पर अहिंसक प्रवृत्ति मुख्य हैं। महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन और समाज सुधार को अपरिहार्य रूप से अन्तर्सम्बन्धित कर दिया था। धार्मिक असहिष्णुता और जातीय संकीर्णता से निरंतर संघर्ष करते गांधी कट्टरपंथियों का विरोध झेलते रहे किंतु कट्टरपंथी ताकतों की तमाम कोशिशों के बाद भी देश की जनता का समर्थन उनके प्रति कभी कम नहीं हुआ बल्कि उसमें वृद्धि ही हुई। साम्प्रदायिक शक्तियों को हाशिए पर रहना पड़ा। पता नहीं यह जनता द्वारा नकारे जाने से उत्पन्न हताशा का परिणाम था या फिर गांधी विरोध की अग्नि में जलते इन कट्टरपंथी नेताओं की प्रतिशोधी सोच का नतीजा - स्वाधीनता संग्राम से आरएसएस और हिन्दू महासभा तथा मुस्लिम लीग जैसे संगठनों ने दूरी बना ली थी। 9 अगस्त 1942 को प्रारंभ हुआ भारत छोड़ो आंदोलन कोई अपवाद नहीं था।

श्री गोलवलकर की भारत के स्वाधीनता संग्राम से असहमति थी। वे अंग्रेज शासकों का विरोध करने के पक्ष में कदापि नहीं थे। उन्होंने अपनी इस असहमति को कभी छिपाया नहीं अपितु कई बार इसे सैद्धांतिक और दार्शनिक आधार प्रदान करने का प्रयत्न भी किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा- "टेरीटोरियल नेशनलिज्म तथा साझा खतरे के सिद्धांतों ने राष्ट्र की हमारी अवधारणा को गढ़ा था किंतु इन सिद्धांतों के कारण ही हम हिन्दू राष्ट्रवाद के सकारात्मक और प्रेरक प्रभाव से वंचित हो गए। इन्हीं सिद्धांतों के कारण हमारा स्वाधीनता आंदोलन ब्रिटिश विरोध का आंदोलन बन कर रह गया। ब्रिटिशों के विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद का पर्याय माना जाने लगा। इस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण ने पूरे स्वाधीनता आंदोलन और इसके नेताओं तथा आम जनता पर विनाशकारी प्रभाव डाला।" (एमएस गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलोर, 1996,पृष्ठ 138) भारत छोड़ो आंदोलन के प्रारंभ के ठीक पहले 8 जून 1942 को नागपुर के आरएसएस मुख्यालय में आए प्रशिक्षणार्थियों को संबोधित करते हुए श्री गोलवलकर ने कहा कि भारत की दुर्दशा के लिए अंग्रेजों को दोष देना उचित नहीं है।

उन्हीं के शब्दों में-  "संघ हमारे समाज की वर्तमान दुर्दशा के लिए किसी अन्य पर दोषारोपण नहीं करना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष लगाने लगते हैं तो इसका अर्थ है कि स्वयं उनमें कमजोरी है। शक्तिशाली को उसके द्वारा शक्तिहीन पर किए गए अत्याचार के लिए दोष देना निरर्थक है। संघ अपना अमूल्य समय दूसरों को कोसने या उनकी निंदा करने में गंवाना नहीं चाहता। यदि हमें मालूम है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है तो बड़ी मछली को इसके लिए दोष देना निरा पागलपन है। प्रकृति का नियम चाहे वह अच्छा हो या बुरा हमेशा सही होता है। यदि इस नियम को हम अन्याय की संज्ञा देने लगें तो यह बदल नहीं जाएगा।"(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खण्ड एक, पृष्ठ 11-12)

शम्सुल इस्लाम ने अपनी पुस्तक द आरएसएस वे में मार्च 1947 में श्री गोलवलकर द्वारा दिल्ली में संघ के वार्षिक उत्सव में स्वयंसेवकों को दिए गए उद्बोधन का उल्लेख किया है। यह वह कालखंड था जब अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए सिद्धांततः सहमत हो गए थे। श्री गोलवलकर ने कहा कि संकीर्ण दृष्टिकोण वाले नेता भारत में ब्रिटिश राज सत्ता का विरोध कर रहे थे। उन्होंने कहा कि शक्तिशाली विदेशियों को स्वयं की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि विजेताओं के प्रति घृणा को आधार बनाकर राजनीतिक आंदोलन प्रारंभ करने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए श्री गोलवलकर ने एक घटना सुनाई- "एक बार एक वरिष्ठ और आदरणीय सज्जन हमारी शाखा में आए। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिए एक नया संदेश लाए थे।

जब उन्हें शाखा के स्वयंसेवकों को संबोधित करने का अवसर दिया गया तो उन्होंने अत्यंत प्रभावशाली लहजे में अपनी बात कही। उन्होंने कहा-“ अब आप केवल एक कार्य करें। अंग्रेजों को अपने काबू में करें, उन पर ताकतवर प्रहार करें और उन्हें बाहर फेंक दें। फिर जो भी होगा वह हम बाद में देख लेंगे।” उन्होंने इतना कहा और बैठ गए। इस दर्शन के मूल में राज सत्ता के प्रति गुस्से और दुःख की भावना है। और यह घृणा पर आधारित प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति है। आज के राजनीतिक भावुकतावाद  की बुराई यह है कि ये प्रतिक्रिया, दुःख और क्रोध की भावना तथा (मैत्री भाव को भुलाकर ) विजेताओं के विरोध पर आधारित है।" ( श्री गुरुजी समग्र दर्शन, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खण्ड एक, पृष्ठ 109-110, शम्सुल इस्लाम द्वारा द आरएसएस वे में पृष्ठ 13-14 में उद्धृत)।

श्री गोलवलकर से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए था कि कथित इस्लाम धर्मावलंबी आक्रांताओं द्वारा भारत की सभ्यता एवं संस्कृति को पददलित करने के आरोप लगाने वाला संघ जिसकी बुनियाद में प्रतिक्रिया और प्रतिशोध के बीज उपस्थित हैं, अंग्रेजों के प्रति अतिशय रूप से उदार क्यों था? 

पुनः 5 मार्च 1960 को देश भर से इंदौर में एकत्रित हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष पदाधिकारियों को संबोधित करते हुए श्री गोलवलकर ने ब्रिटिशों को भारत से निकाल बाहर करने के स्वाधीनता सेनानियों के जुनून की आलोचना की। श्री गोलवलकर के ही शब्दों में- "अनेक लोगों ने ब्रिटिशों को निकाल बाहर कर भारत को स्वतंत्र करने की प्रेरणा के कारण  कार्य किया। जब ब्रिटिशों की यहाँ से औपचारिक विदाई हो गई तो यह प्रेरणा मंद पड़ गई। सच कहा जाए तो इतना ज्यादा प्रेरित होने की जरूरत भी नहीं थी। हमें याद रखना होगा कि हमने अपनी शपथ में धर्म और संस्कृति की रक्षा द्वारा देश की स्वाधीनता की बात कही है। इसमें ब्रिटिशों की विदाई का कोई उल्लेख नहीं है।"(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खण्ड चार, पृष्ठ-2)

श्री गोलवलकर की यह स्पष्ट मान्यता थी कि सविनय अवज्ञा और असहयोग जैसी रणनीतियों से देशवासियों में अनुशासनहीनता और अराजकता की वृद्धि हुई और वे कानूनों का उल्लंघन करने के आदी बन गए। श्री गोलवलकर के अनुसार- "निश्चित रूप से (स्वाधीनता) संघर्ष के बुरे नतीजे होने ही हैं। 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़के अनियंत्रित और उपद्रवी हो गए। यह मैं आंदोलन के नेताओं पर कीचड़ उछालने के लिए नहीं कह रहा हूँ। किन्तु यह परिस्थितियां आंदोलन के बाद की अनिवार्य उत्पाद थीं। मैं यह कहना चाहता हूं कि हम इन परिणामों पर समुचित नियंत्रण स्थापित नहीं कर पाए। 1942 के बाद तो लोग प्रायः इस विचार के हो गए कि कानून के बारे में सोचने का कोई मतलब ही नहीं है।"(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खण्ड चार, पृष्ठ 41)

महात्मा गांधी की सविनय अवज्ञा और असहयोग की रणनीति से श्री गोलवलकर की गहन असहमति थी। श्री गोलवलकर एक ऐसी जनता की अपेक्षा करते हैं जो कर्त्तव्य पालक और अनुशासित हो। ऐसी जनता जिसकी प्रतिबद्धता लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हो न कि शासक के प्रति, उन्हें स्वीकार्य नहीं है। वे गांधी जी की आलोचना करते हुए लिखते हैं-“ विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय तथा महाविद्यालय के बहिष्कार की योजना पर बड़े-बडे व्यक्तियों ने यह कहकर प्रखर टीका की थी कि यह बहिष्कार आगे चलकर विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, उद्दंडता, चरित्रहीनता आदि दोषों को जन्म देगा और सर्व नागरिक-जीवन नष्ट होगा। बहिष्कार आदि कार्यक्रमों से यदि स्वातंत्र्य मिला भी, तो राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए आवश्यक, ज्ञानोपासना, अनुशासन, चरित्रादि गुणों की यदि एक बार विस्मृति ही गई, तो फिर उनकी प्रस्थापना करना बहुत ही कठिन है। शिक्षक तथा अधिकारियों में अवहेलना करने की प्रवृत्ति निर्माण करना सरल है, किंतु बाद में उस अनिष्ट वृत्ति को सँभालना प्राय: अशक्य होगा, ऐसी चेतावनी अनेक विचारी पुरुषों ने दी थी ।----- जिनकी खिल्ली उड़ाई गई, जिन्हें दुरुत्तर दिए गए, उनकी ही दूरदृष्टि वास्तविक थी, यह मान्य करने की सत्यप्रियता भी दुर्लभ है।“(मराठी मासिक पत्र युगवाणी, अक्टूबर,1969)।

यही कारण था कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय जब पूरा देश एकजुट था तब भी संघ राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से दूरी बनाए रखने की अपनी नीति पर कायम रहा। इसके लिए संघ की देश भर में आलोचना भी हुई। यहां तक कि संघ के अपने अनेक सदस्य भी शीर्ष नेतृत्व के फैसले से सहमत नहीं थे। श्री गोलवलकर ने स्वयं स्वीकार किया है- "1942 में अनेक व्यक्तियों के हृदय में प्रबल भावना थी। उस समय भी संघ की रोजाना की नियमित गतिविधियां जारी रहीं। संघ ने प्रत्यक्ष रूप से कुछ न करने की शपथ ली थी। जो भी हो संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल जारी रही। न केवल बाहरी व्यक्ति अपितु संघ के स्वयंसेवक भी यह कहते पाए गए कि संघ अक्रिय लोगों का संगठन है, इनकी बातें अर्थहीन हैं। यह लोग बहुत ज्यादा असंतुष्ट और नाराज थे।" (श्री गुरुजी समग्र दर्शन, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खण्ड चार, पृष्ठ 40)

भारत छोड़ो आंदोलन के डेढ़ साल बाद अंग्रेजी राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में प्रसन्नता व्यक्त करते हुए लिखा था कि संघ ने पूरी ईमानदारी से स्वयं को क़ानून के दायरे में रखा, विशेषकर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में वह सम्मिलित नहीं हुआ। (फ्रॉम प्लासी टू पार्टीशन :अ हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न इंडिया, शेखर बंधोपाध्याय)

बिपिन चंद्र ने अपनी पुस्तक कम्युनलिज्म इन इंडिया में पृष्ठ 140 पर भारत छोड़ो आंदोलन के ठीक पूर्व कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे व्यक्तिगत सत्याग्रह के संबंध में आरएसएस की भूमिका के विषय में लिखा है- "इससे पहले 2 दिसंबर 1940 को जब कांग्रेस द्वारा चलाया जा रहा व्यक्तिगत सत्याग्रह अपने चरम पर था, अभ्यंकर तथा अन्य नेताओं ने आरएसएस की ओर से बॉम्बे के गृह विभाग के सेक्रेटरी से मुलाकात की। होम डिपार्टमेंट ने इस बैठक के संबंध में एक नोट लिखा जिसके अनुसार अभ्यंकर ने आरएसएस की ओर से यह आश्वासन दिया कि वे सरकार द्वारा जारी निर्देशों और प्रतिबंधों का पालन करेंगे। प्रतिनिधिमंडल ने सचिव महोदय से यह भी वादा किया था कि वे संघ के सदस्यों को अधिक से अधिक संख्या में सिविल गार्ड के रूप में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।"

स्वाधीनता आंदोलन से दूरी बनाए रखने की यह नीति श्री गोलवलकर की अपनी नहीं थी। बल्कि वे श्री हेडगेवार द्वारा अपनाई गई नीति का ही अनुसरण कर रहे थे। स्वयं श्री गोलवलकर के शब्दों में- "अपने दैनिक कार्य में हमेशा लगे रहने की आवश्यकता के पीछे एक और कारण है। देश में समय समय पर बनने वाली परिस्थितियों के कारण मन में कुछ उथलपुथल मची रहती है। ऐसी ही उथलपुथल 1942 में मची थी। इसके पहले 1930-31 में आंदोलन हुआ था। इस समय बहुत सारे अन्य लोग डॉक्टरजी (डॉ हेडगेवार) से मिलने गए। इस प्रतिनिधि मंडल ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया कि यह आंदोलन देश को आजादी दिलाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। इस समय जब एक सज्जन ने कहा कि वे जेल जाने को तैयार हैं तो डॉक्टरजी ने उनसे पूछा- निश्चित रूप से तुम जेल जाओ। लेकिन तब तुम्हारे परिवार की देखभाल कौन करेगा? उस सज्जन ने कहा- मैंने पर्याप्त संसाधन एकत्रित कर लिए हैं। यह संसाधन न केवल 2 वर्ष तक मेरे परिवार का खर्च चलाने के पर्याप्त हैं बल्कि आवश्यकता के अनुसार दंड राशि पटाने के लिए भी काफी हैं। तब डॉक्टरजी ने उससे कहा- यदि तुमने दो वर्ष के लिए पर्याप्त साधन इकट्ठा कर लिए हैं तो आओ और दो वर्ष संघ के लिए काम करो।" (श्री गुरुजी समग्र दर्शन, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खण्ड चार, पृष्ठ 39- 40) 

यह भी सत्य है कि प्रारंभ में स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लेने वाले श्री हेडगेवार ने संघ की स्थापना के बाद स्वाधीनता संग्राम से दूरी बना ली थी। प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम ने संघ परिवार की पुस्तक संघ वृक्ष के बीज  के पृष्ठ 24 पर अंकित एक अंश की ओर ध्यान दिलाया है- "संघ की स्थापना के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में केवल हिन्दू संगठन की चर्चा किया करते थे। (उनके भाषणों में) सरकार पर सीधी टिप्पणी लगभग नहीं होती थी।" (शम्सुल इस्लाम, द आरएसएस वे, पृष्ठ 13 में उद्धृत)

कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा के एक अन्य प्रमुख प्रतिपादक श्री विनायक दामोदर सावरकर की स्थिति कुछ भिन्न नहीं थी। जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया-  हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो। सावरकर ने 1941 में हिन्दू महासभा के भागलपुर अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा कि- हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जापान के युद्ध में प्रवेश से हम पर ब्रिटेन के शत्रुओं द्वारा हमले का सीधा और तत्काल खतरा आ गया है। इसलिए हिन्दू महासभा के सभी सदस्य सभी हिंदुओं को और विशेषकर बंगाल और असम के हिंदुओं को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे सभी प्रकार की ब्रिटिश सेनाओं में बिना एक मिनट भी गंवाए प्रवेश कर जाएं।  भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने में लगे अंग्रेजों को सावरकर के इस अभियान से सहायता ही मिली। जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1942 में जर्मनी से जापान जाकर आजाद हिंद फौज की गतिविधियों को परवान चढ़ा रहे थे तब सावरकर ब्रिटिश सेना में हिंदुओं की भर्ती हेतु  उन मिलिट्री कैम्पों का आयोजन कर रहे थे जिनके माध्यम से ब्रिटिश सेना में प्रविष्ट होने वाले सैनिकों ने आजाद हिंद फौज का उत्तर पूर्व में दमन करने में अहम भूमिका निभाई।

प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम ने हिन्दू महासभा आर्काइव्ज के गहन अध्ययन के बाद बताया है कि ब्रिटिश कमांडर इन चीफ ने हिंदुओं को ब्रिटिश सेना में प्रवेश हेतु प्रेरित करने के लिए बैरिस्टर सावरकर का आभार व्यक्त किया था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सावरकर ने हिन्दू महासभा के सभी सदस्यों से अपील की थी कि वे चाहे सरकार के किसी भी विभाग में हों ( चाहे वह म्यूनिसिपैलिटी हो या स्थानीय निकाय हों या विधान सभाएं हों या फिर सेना हो) अपने पद पर बने रहें उन्हें त्यागपत्र आदि देने की कोई आवश्यकता नहीं है (महासभा इन कॉलोनियल नार्थ इंडिया-1915-1930, प्रभु बापू)। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हुआ। इसी कालखंड में जब विभिन्न प्रान्तों में संचालित कांग्रेस की सरकारें अपनी पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र दे रही थीं तब सिंध, उत्तर पश्चिम प्रांत और बंगाल में हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चला रही थी। (सावरकर: मिथ्स एंड फैक्ट्स, शम्सुल इस्लाम)।

सावरकर गांधी जी की अहिंसक रणनीति से इस हद तक असहमत थे कि गांधी जी की आलोचना करते करते कई बार वे अमर्यादित लगने वाली भाषा का प्रयोग करने लगते थे। सावरकर की पुस्तक गांधी गोंधल पूर्ण रूप से गांधी की कटु आलोचना को समर्पित है। यह पुस्तक द गांधियन कन्फ्यूजन के नाम से अनूदित भी हुई है।  गांधी गोंधल पुस्तक सावरकर के उन आलेखों का संग्रह है जो उन्होंने गांधी की आलोचना में लिखे थे। इनमें से अधिकांश आलेख 1928 से 1930 की कालावधि में लिखे गए हैं किंतु कुछ 1940 के बाद के भी हैं। इन आलेखों को यदि व्यंग्यात्मक कहा जाए तो यह भी जोड़ना पड़ेगा कि यह अनेक बार शिष्टता की सीमा को लांघ जाते हैं और गांधी के प्रति कटुता इनका स्थायी भाव है। 

द गांधियन कन्फ्यूजन के प्रथम आलेख द वे टु फ्रीडम (11 अगस्त 1927) में सावरकर लिखते हैं-  "किन्तु जब आप अपने एक पत्र में लिखते हैं कि – एक सत्याग्रही इस प्रकार से हथियार का प्रयोग नहीं करेगा। वह सत्य का व्यवहार करते हुए अपनी जान दे सकता है। तब यह भी कहा जा सकता है कि सत्याग्रही किसी पागल कुत्ते को मारने के लिए भी किसी हथियार या बंदूक का प्रयोग नहीं करेगा। हो सकता है कि जब ऐसा सत्याग्रही किसी पागल कुत्ते के काटने से स्वयं पागल हो जाए तब कहीं जाकर शायद उसके द्वारा दांतों का प्रयोग पवित्र सत्याग्रह की परिधि में आएगा। बिना किसी हथियार के पागल कुत्ते का मुकाबला करने का मतलब और कुछ नहीं है बल्कि इतना ही है कि पागल कुत्ते के सामने जाकर कहा जाए कि – हे आदरणीय कुत्ते! काटना अच्छी बात नहीं है। इसलिए कृपा कर हमें मत काटो। लेकिन तब भी यदि तुम काटने पर आमादा हो तो यह रहा मैं- एक सत्याग्रही-  जब तुम काटोगे तो मैं पीड़ा से  प्रतिक्रिया भी नहीं करूंगा न ही किसी हथियार से तुम्हारा मुकाबला ही करूंगा बल्कि तुम्हें अन्य लोगों को काटने के लिए स्वतंत्र छोड़ दूंगा। एकदम शुद्ध सत्याग्रह!"

इसी आलेख में सावरकर आगे लिखते हैं- "बाद में जब पागल कुत्ते के संदर्भ में गांधी जी ने माना कि यदि बड़ी हिंसा को टालने के लिए छोटी हिंसा आवश्यक है तो वह स्वीकार्य है तो मुझे लगा कि मूर्खताओं के आजीवन ट्रैक रिकॉर्ड के बाद अंततः उन्हें सच्ची अहिंसा की कुछ समझ आ गई है। मुझे लगा कि अपने सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन में जो बहुत थोड़ी सी समझदारी भरी बातें गांधी जी ने की हैं यह उनमें से एक है। किन्तु सच यह है कि ऐसी समझदारी गांधी जी की स्थायी जड़ता के बीच आने वाला एक अस्थायी दौर है। जिस प्रकार कोई नौसिखिया बच्चा बॉल को अचानक अच्छे से हिट कर लेता है उसी प्रकार गांधी जी राजनीति के खेल में कुछ सही कह या कर लेते हैं। लेकिन अगले ही पल संयोग से उठाए गए अपने सही कदम को गलत बता कर वे एक और गलती कर लेते हैं।"(पृष्ठ 4-5)।

इसी आलेख में सावरकर आगे लिखते हैं-" गांधी जी का संकुचित और अपरिपक्व मस्तिष्क उनके उदात्त  और विशाल हृदय की तुलना में बहुत कमजोर है। उनका हृदय अहिंसा, दया,करुणा, क्षमाशीलता जैसे आकर्षक शब्दों की ओर  खिंचने लग जाता है किन्तु इन सिद्धांतों के मर्म को समझने हेतु नाकाबिल होने के कारण और अपनी अयोग्यता  को महसूस करने की क्षमता समाप्त हो जाने के कारण वे असम्बद्ध प्रलाप करते रहते हैं।"(पृष्ठ 5)।

आज जब सत्तारूढ़ भाजपा भारत के स्वाधीनता संग्राम के नायकों पर अपना दावा पेश कर रही है और स्वयं को सर्वाधिक देशभक्त दल के रूप में प्रचारित कर रही है तब उससे यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि श्री गोलवलकर और श्री सावरकर की स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका एवं इस आंदोलन के प्रति इनके विचारों से क्या आज की भाजपा सहमत है? यह सवाल भी पूछना होगा कि जिस अर्थ में राष्ट्र और राष्ट्रवाद को परिभाषित करते हुए महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम को अब तक सबसे बड़े और अनूठे अहिंसक जन आंदोलन का रूप दिया था क्या आज की भाजपा उससे सहमत है? इन प्रश्नों के उत्तर आम जनता को मिलने चाहिए जिससे वह यह जान सके कि  वह अभी भी गांधी के भारत में ही निवास कर रही है।

(डॉ. राजू पाण्डेय वरिष्ठ लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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