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भारत
राजनीति
भारत का संचालन किसके हाथ — शास्त्र/धर्मपुस्तकें या संविधान?
विगत कुछ सालों के विभिन्न अदालतों के फैसलों की थोड़ी-सी बेतरतीब चर्चा करते हुए हम इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि अदालतों ने किस तरह समय-समय पर कानून की हिफाजत का काम किया है।
सुभाष गाताडे
15 Jul 2021
भारत का संचालन किसके हाथ — शास्त्र/धर्मपुस्तकें या संविधान?
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

कभी कभी बेहद सरल बातें भी दोहराते रहना जरूरी होता है, खासकर उन दिनों जब समूचा समाज उथल-पुथल से गुजर रहा हो।

यह एक हक़ीकत है कि हम विगत 70 साल से अधिक समय से एक गणतंत्र हैं — जहां संप्रभुता लोगों में निहित होती है न कि शास्त्रों में। यह दूसरा सच है कि यह देश संविधान और उसके तहत बने कानूनों से संचालित होता है। 

उत्तराखंड उच्च अदालत ने दरअसल यही किया जब राज्य सरकार ने ‘चार धाम यात्रा’ के लाइव स्ट्रीम करने के उसके प्रस्ताव पर आपत्ति प्रकट की और कहा कि हमारे धर्मग्रंथां में इसकी इजाजत नहीं है। राज्य सरकार की इस दलील को सिरे से खारिज करते हुए अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि मुल्क पर कानून का राज चलता है और न ही शास्त्रों/धर्मपुस्तकों का।

निश्चित तौर पर यह पहली दफा नहीं था कि सूबे की उच्च अदालत ने हस्तक्षेप किया था और हुकूमत को उनके संवैधानिक कर्तव्यों की याद दिलायी थी और जनभावनाओं को प्रश्रय देने की उसके कदमों को प्रश्नांकित किया था।  सभी को याद होगा कि जब राज्य सरकार और केंद्र सरकार मिल कर कुंभ मेला में पहुंचने के लिए तमाम उद्यम में जुटे थे। यहां तक कि कुंभ मेला में पहुंचने के लिए जनता का आह्वान करते हुए तमाम अख़बारों, पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन छापे जा रहे थे। उन्हीं दिनों इसी अदालत ने कहा था कि ऐसी कार्रवाई से कुंभ मेला कोविड संक्रमण के सुपरस्प्रेडर में तब्दील हो जाएगा।

महज कुछ दिन पहले उच्च अदालत ने चार धाम यात्रा आयोजन की राज्य सरकार की योजना पर स्थगनादेश दिया था क्योंकि उसे वाजिब चिंता थी कि ऐसे आयोजनों में लोगों के बड़े पैमाने पर जुटने से कोविड संक्रमण की रफतार तेज हो सकती है। उसका तर्क इस बार भी बेहद सरल था। चंद लोगों की भावनाओं का खयाल करने के बजाय यह अधिक महत्वपूर्ण है कि हरेक को डेल्टा वेरियंट के कोरोना संक्रमण के खतरे से बचाया जाए।

आज जब चंद लोगों की भावनाओं को जनभावनाओं के तौर पर पेश किया जा रहा है, जो एक तरह से व्यापक जनहित पर हावी होती दिख रही है। हम पा रहे हैं कि न केवल उत्तराखंड उच्च अदालत बल्कि अन्य जगहों की अदालतों ने भी शासन को सही सीख देने की कोशिश जारी रखी है।

कर्नाटक के हालिया अनुभव को भी देखें जब अदालतों के सामने अलग-अलग धार्मिक स्थानों पर लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का मसला आया और उच्च अदालत ने पुलिस को आदेश दिया कि वह इनके खिलाफ तत्काल कार्रवाई करे। जब उसने पाया कि पुलिस इस मामले में आनाकानी कर रही है और कुछ नए बहाने ढूंढ रही है, तो उसने तत्काल फिर पुलिस अधिकारी को बुला कर उन्हें निर्देश दिया कि वह तत्काल इस मामले में कार्रवाई करे और न कि इसके लिए ध्वनि प्रदूषण के नियमों में तब्दीली की जरूरत को रेखांकित करते हुए टालमटोल करे।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर दो साल से अधिक कार्यरत रहे गोविंद माथुर — जो अप्रैल माह में रिटायर हुए — उनका यह कार्यकाल इसी बात को रेखांकित करता है। याद रहे यही वह कालखंड है जब राज्य सरकार की अपनी कथित मनमानी कार्रवाइयों और नीतियों के चलते जबरदस्त आलोचना का शिकार हो रही थीं। 

एक पत्रकार ने मुख्य न्यायाधीश के तौर पर उनके कार्यकाल में निपटाये गए बारह महत्वपूर्ण मसलों की सूची का जिक्र करते हुए एक लेख लिखा है जिसमें शामिल हैं : अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कथित तौर पर पुलिस ज्यादती का मसला, किसी नागरिक को गैरकानूनी ढंग से सर्विलांस में रखने की राज्य द्वारा कोशिश; घर घर जाकर वैक्सिनेशन करने की जरूरत को रेखांकित करना, कैदियों के मानवाधिकार आदि। लेख में डॉ. कफील खान की राष्टीय सुरक्षा कानून के तहत हुई गिरफतारी के प्रसंग का भी उल्लेख है, जिसे अदालत ने ‘मनमाना’ और ‘गैरकानूनी’ घोषित करते हुए उनकी तत्काल रिहाई के आदेश दिए थे। जहां सरकार ने डॉ. कफील खान के इस भाषण को विवादास्पद माना था। वहीं अदालत ने कहा था कि वह भाषण राष्टीय एकता और अखंडता को मजबूत करने वाला था। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के नाम से जारी ‘नेम एण्ड शेम’ पोस्टर्स के बारे में अदालत ने उन्ही दिनों ही खुद संज्ञान लिया था और सरकार को यह आदेश दिया था कि वह उन्हें तत्काल हटा दे क्योंकि वह लोगों की निजता में गैरजरूरी हस्तक्षेप है और संविधान द्वारा प्रदत्त धारा 21 के अधिकारों का उल्लंघन है।

वैसे विगत कुछ सालों के विभिन्न अदालतों के फैसलों की थोड़ी सी बेतरतीब चर्चा करते हुए हम इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि अदालतों ने किस तरह समय-समय पर कानून की हिफाजत का काम किया है।

मिसाल के तौर पर सबरीमाला मामले में हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बहुमत के आधार पर दिए फैसले को (4 बनाम 1) देखें, जिसके तहत माहवारी वाली महिलाओं को ‘रिवाज’ के नाम पर केरल के एक मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं थी, उसे अदालत ने खारिज किया था और मंदिर में सभी के प्रवेश के लिए रास्ता सुगम किया। इस रिवाज को — जिसके तहत स्त्रियों को मंदिर प्रवेश से रोका जा रहा था — असंवैधानिक घोषित करते हुए उसने बताया कि किस तरह “केरल हिंदू प्लेसेस आफ पब्लिक वर्शिप की धारा 3 बी” असंवैधानिक है।

इस बहुमत के फैसले को लेकर असहमति रखनेवाली जज सुश्री इंदु मल्होत्रा का कहना था कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में अदालतों को धर्म से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और उसे उन्हीं लोगों पर छोड़ना चाहिए जो धर्म का पालन करते हैं।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने देश के अन्य भागों में भी मंदिरों या अन्य पवित्र स्थलों से महिलाओं को विभिन्न आधारों पर रोक को लेकर बने अन्य रिवाजों को भी चुनौती देने को प्रेरित किया।

यदि हम जाने माने क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के मामले को देखें, जिनके खिलाफ ‘आहत भावनाओं’ के तौर पर मुकदमा दर्ज हुआ था। इसमें यह दावा किया गया था कि किसी पत्रिका के कवर पर छपे उनके फोटो के चलते जिसमें उन्हें भगवान विष्णु के रूप में दिखाया गया था, उससे याचिकाकर्ता की ‘धार्मिक भावनाएं आहत’ हो गई थीं। धोनी के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने, जिसमें न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, ए एम खानविलकर और एम एम शांता नागौदार शामिल थे, कहा, “बेइरादे और लापरवाही से या बिना किसी सचेत या विद्वेषपूर्ण इच्छा के जब किसी तबके की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं” तब उन्हें धार्मिक भावनाओं का आहत होने की श्रेणी में शुमार नहीं किया जा सकता।

निचोड़ के तौर पर कहें तो एक ऐसे वक्त़ में जब हम ‘बहुसंख्यकवादी कार्यपालिका’ का सामना कर रहे हैं,  जब खुद पा रहे हैं कि खुद राज्य नागरिक अधिकारों पर हमले करने वालों के साथ खड़ा हो रहा है, तब अदालतों द्वारा संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों की हिफाजत के लिए आगे आने की अधिक से अधिक जरूरत महसूस हो रही है।

इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ हम उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कांवड यात्रा को दी गई मंजूरी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खुद किए हस्तक्षेप से रूबरू हैं। इसमें उसने सरकार को यह नोटिस भेजा है कि वह इस मामले में तत्काल जवाब दें। यह जानने योग्य है कि एक तरफ जहां उत्तराखंड सरकार ने कोविड संक्रमण के फैलाव के डर से यात्रा को मंजूरी देने से इनकार किया है, वहीं उत्तर प्रदेश सरकार इसे सीमित दायरे में ही सही करने पर आमादा है।

याद रहे वर्ष 2020 में जहां कोविड संक्रमण के खतरे के मद्देनजर कांवड यात्रा स्थगित की गयी थी। वहीं वर्ष 2019 में लगभग साढ़े तीन करोड़ कांवडियों ने हरिद्वार की यात्रा की थी और दो से ढाई करोड़ लोगों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विभिन्न पवित्र स्थानों की यात्रा की थी।

निश्चित तौर पर यह विचलित करने वाला है कि जहां खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत में कोविड की दूसरी लहर के लिए देश में हुए धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों को प्रेरित करने वाला बताया है। खुद इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने वैश्विक अनुभवों के आधार पर और महामारियों के इतिहास को देखते हुए-अपील की है कि ‘‘तीसरी लहर आ रही है’’ और इसके चलते ‘‘धार्मिक स्थलों की यात्रा और पर्यटन रुक सकता है’’। ऐसे वक्त़ में उत्तर प्रदेश का यह निर्णय चौंकाने वाला है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि व्यापक पैमाने पर वैक्सिनेशन कार्यक्रम जहां कोविड संक्रमण के फैलाव को रोकने में कारक हो सकते हैं। वह तमाम प्रचार के बावजूद भारत में अभी भी जोर नहीं पकड़ रहा है। आंकड़े यहीं बताते हैं कि भारत अपनी महज 4 फीसदी आबादी को पूरी तरह कोविड के दोनों डोस लगा पाया है, जबकि अमेरिका जैसे मुल्क में आबादी का 46 फीसदी से अधिक हिस्से को दोनों कोविड के जरूरी डोस लग चुके हैं।  कुंभ मेला जिसने बड़े पैमाने पर कोविड -19 हॉटस्पॉट का रूप ले लिया था, वो फिर से दोहराए जाने से ज़्यादा दूर नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के सामने अब सवाल है कि क्या अब वो ज़िंदगियां बचाने के लिए एक बार फिर सक्रियता के साथ हस्तक्षेप करेगी या फिर इस मुद्दे पर एक सलाहकारी की भूमिका निभाएगी जब कंवर यात्रा की तैयारी पूरी हो चुकी है या एक बार फिर जन-साधारण को व्यापक सार्वजनिक धार्मिक उत्सवों की आग में झोंक देगी। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Governments Must Implement the Constitution, Not Religious Texts

Kumbh Mela Judicial activism
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