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चंदौली से ग्राउंड रिपोर्ट: ब्लैक राइस की खेती का यह रास्ता तो हताशा की ओर ले जा रहा है!
प्रधानमंत्री मोदी ने ब्लैक राइस की खेती करने वाले किसानों को खूब सपने दिखाए, मगर वो चूर-चूर हो गए। सरकार के झांसे में आकर ब्लैक राइस की बंपर पैदावार करने वाले किसानों की उपज नहीं बिक पा रही है। कर्ज के भारी बोझ से दबे किसानों के लिए यह रास्ता तबाही की ओर ले जा रहा है...!
विजय विनीत
01 Jul 2021
चंदौली में उगने वाला ब्लैक राइस
चंदौली में उगने वाला ब्लैक राइस

करीब 11 साल की पूजा के बदन पर फकत एक नीले रंग की कमीज है। वो कमीज भी जगह-जगह फट गई है। यूपी के चंदौली जिले के दुर्गम पहाड़ी इलाके नौगढ़ के सुदूरवर्ती गांव पंडी में पथरीली पहाड़ की चोटियों तक ले जाने वाले नुकीले कंकड़ भरे रास्ते में अपने भाई-अनिल (7 साल) और अजित (5 साल) के साथ नंगे पांव चढ़ना और फिर उस पार उतरना उसकी रोज की कहानी है। इस दौरान वो न बच्चों की तरह जिद करती है, न खेलती है, न भागती-दौड़ती है। पूजा पढ़ाई नहीं करती, लेकिन उसके चेहरे की पर स्कूल न जा पाने की उदासी साफ-साफ पढ़ी जा सकती है। पंडी गांव में पांचवीं तक स्कूल है, लेकिन टीचर नहीं आते। मां-बाप दोनों निरक्षर हैं।

पूजा के पिता राजेश खरवार किसान हैं। पांच बीघे पथरीली जमीन है। साल में सिर्फ धान की फसल होती है, वो भी प्रकृति के सहारे। पूजा की मां होशिला देवी कहती हैं, 'जमीन के अलावा आठ गाय-भैसे हैं। बस यही है जिंदगी की गाड़ी खींचने का जरिया। हम अपने बच्चों को घर पर अकेले नहीं छोड़ सकते। तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरे जंगली इलाके में भालुओं का आतंक है। बाघ और चीते भी हमारे मवेशियों को मारकर खा जाते हैं। जंगली जानवरों के खौफ के चलते बच्चों को घर पर अकेले नहीं छोड़ते। जब वो धान के खेतों में काम करने जाते हैं तो साथ में बच्चे भी होते हैं।'

दरअसल, दुर्गम पहाड़ी रास्तों को नापना और फिर खेतों में बचपन गुजार देना पंडी गांव के पूजा, अनिल, अजित ही नहीं, उन जैसे दूसरे कई बच्चों की मजबूरी है। जब उनके माता-पिता और परिवार के दूसरे बड़े लोग रोज़ाना सुबह खेतों में जाते हैं तो छोटे बच्चों की देखभाल करने वाला कोई घर में नहीं रहता। फिर भी गांव में ऐसे बच्चे दिख जाते हैं जिनके गले में सुतली के सहारे एक चाबी लटकी रहती है। आंखों पर लगभग हर वक्त मक्खियां चिपकी रहती हैं, जिन्हें उड़ाते-उड़ाते थक जाते हैं ये नौनिहाल।

पंडी गांव की आबादी महज सौ-सवा सौ है। खेती के नाम पर सिर्फ धान फसल ही उगती है। सरकारी सुविधाओं की बात मत कीजिए। गांव के ज्यादातर बच्चों ने अभी तक न रेल देखी है और न ही बसें। जंगलों में रहना। धान के खेतों में काम करना, रोजाना पहाड़ चढ़ना और फिर उतरना, गाय-भैसों के साथ दोस्ती...!  बस यही है पंडी गांव के बच्चों की जिंदगी।

चंदौली के सैयदराजा इलाके में धान की रोपाई करतीं महिलाएं

लाचारी की खेती

रुक-रुककर हो रही बारिश के बीच खेतों में काम कर रहे राजेश खरवार और उनकी पत्नी होशिला देवी धान की खेती की तैयारियों में जुटे हैं। होशिला कहती हैं, 'ये धान की खेती का काम है साहब...! इसके अलावा पंडी की जमीन पर कुछ उगाता ही नहीं है। कर्मनाशा नदी, समूचे चंदौली को सींचती है, लेकिन हमारे गांव से गुजरने वाली हमारी अपनी सरपीली नदी हमारे धान को सींच नहीं पाती। हम सिर्फ बारिश के भरोसे धान की खेती कर पाते हैं। मुनाफे की उम्मीद में दो साल पहले ब्लैक राइस की खेती की, लेकिन धान का एक दाना नहीं हुआ। लाचारी में अब सिर्फ सांभा मसूरी और सोनम धान की खेती करते हैं। जिंदा रहने का बस यही है एकमात्र जरिया।'

ब्लैक राइस की खेती से मायूस हो चुके राजेश कहते हैं, 'सिर्फ ब्लैक राइस ही नहीं, मोटे धान के सहारे भी हमारी तरक्की के सपने चूर हो रहे हैं। काले धान की खेती का रास्ता हमें हताशा की ओर ले जाता है। इसकी खेती के लिए न कर्ज मिल रहा है, न दूसरी सुविधाएं। साहूकारों की शरण में जाना हमारी मजबूरी है। हमारे हालत तो अनाथों की तरह हैं।'

चंदौली में धान की नर्सरी में काम करता किसान।

धान की फसल का बंपर उत्पादन किसी भी इलाके और जिले की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत माना जाता है। लेकिन धान का कटोरा माने जाने वाले चंदौली जिले में ब्लैक राइस की खरीद और उनके भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं है। पीएम नरेंद्र मोदी ने किसानों की आय दोगुना करने का सपना दिखाया तो चंदौली के किसानों ने बड़े पैमाने पर ब्लैक राइस की खेती शुरू कर दी। पिछले तीन सालों में किसानों ने कभी बैंकों से कर्ज लिया, तो कभी साहूकारों से। सरकार की मीठी बातों में आकर ब्लैक राइस भी उगाया। फसल अच्छी हुई, लेकिन विपणन की समस्या ने उनके सामने बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी। जिन किसानों ने पिछले साल काले चावल की खेती की थी, उनकी उपज आज तक नहीं बिक पाई है। सारे किसान कर्ज के भारी बोझ से दबे हुए हैं। ब्लैक राइस की बिक्री न होने की वजह से कई किसानों की बेटियों के हाथ पीले नहीं हो पा रहे हैं।

क्या है ब्लैक राइस, क्या है इसकी ख़ासियत

यह ब्लैक राइस यानी काला चावल मणिपुर से आया है। इसे सेहत के लिए गुणों की खान कहा जाता है। यह चावल सिर्फ सुपाच्य ही नहीं,  यह एंटी आक्सिडेंट से भरपूर है। शुगर, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों में भी यह लाभकारी है। इस धान की खेती जैविक खाद के सहायता से होती है। इससे इसकी खेती किफायती भी है।

चंदौली के कृषि रक्षा अधिकारी अमित जायसवाल बताते हैं कि काले चावल में “एंथोसायनिन” नामक एक यौगिक होता है, जिसकी वजह से इसका रंग काला होता है। यही इसे एंटी-इफ्लेमेटरी, एंटीऑक्सिडेंट और कैंसर रोधी गुण प्रदान करता है। इसमें महत्वपूर्ण कैरोटिनॉयड भी होते हैं जिन्हें आंखों की सेहत के लिए बहुत अच्छा माना जाता है। इसके अलावा यह प्राकृतिक तौर पर ग्लूटेन-फ्री और प्रोटीन, आयरन, विटामिन ई, कैल्शियम, मैग्नीशियम, नेचुरल फाइबर आदि से भरपूर है, इसलिए वजन घटाने में मददगार होता है। इसे एक नेचुरल डिटॉक्सिफायर माना जाता है। इसका सेवन एथेरोस्क्लेरोसिस, डायबिटीज, अल्जाइमर, हाइपरटेंशन जैसी बीमारियों को भी दूर रखता है।

खेती में मेहनत ज्यादा

काले चावल उगाने में कुछ कठिनाइयां भी हैं क्योंकि ये पूरी तरह से ऑर्गेनिक है जिसके लिए बहुत अधिक श्रम की जरूरत पड़ती है। यहां तक कि कुछ किसानों को शुरू में नुकसान का सामना करना पड़ा। उन्होंने आदतन रासायनिक सामग्री इस्तेमाल कर ली। हालांकि, अब इसकी खेती पर मिलने वाला रिटर्न असाधारण है क्योंकि काले चावल की उत्पादकता 25 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।

यह करीब पांच फीट की ऊंचाई तक बढ़ता है। अच्छे रिटर्न के बावजूद चंदौली के किसानों को काले चावल की मार्केटिंग में समस्याएं आ रही हैं क्योंकि इसके लिए इस क्षेत्र को जीआई (जियोग्राफिकल इंटीकेशन) टैग नहीं मिला है। काले चावल के लिए जीआई टैग पिछले साल मणिपुर को दिया गया था।

चंदौली से शुरू हुई ब्लैक राइस की खेती अब गाजीपुर, सोनभद्र, मीरजापुर, बलिया, मऊ व आजमगढ़ तक पहुंची है, लेकिन इसके खरीदार कहां है? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। इस मुद्दे पर सरकारी नुमाइंदों की बोलती बंद है। महंगा होने के कारण इलाकाई बाजार में ब्लैक राइस की बिक्री नहीं हो पा रही है।

ब्लैक राइस न बिकने पर अपना दुखड़ा सुनाता किसान।

वादे पर तेरे मारे गए

चंदौली के बरहनी ब्लाक के सिकठां गांव के रतन सिंह बताते हैं, 'पिछली दफा कुछ किसानों का ब्लैक राइस बिक भी गया, लेकिन इस साल करीब 8000 कुंतल काला धान किसानों के घरों में रखा हुआ है, जिसे चूहे और गिलहरी अपनी निवाला बना रहे हैं। साल 2020 में देव-दीपावली के मौके पर पीएम नरेंद्र मोदी बनारस आए तो उन्होंने चंदौली के किसानों की शान में खूब कसीदे पढ़े और हमारी कोशिशों को मील का पत्थर बताया। वाह-वाही में यहां तक कह दिया कि चंदौली के किसान 850 रुपये किलो की दर से ब्लैक राइस बेच रहे हैं और तीन गुना कमाई कर रहे हैं। ब्लैक राइस ने खुशहाली का बड़ी गलियारा खोला है। मगर ये सब खोखली बाते हैं। चंदौली के किसानों को ब्लैक राइस की कीमत 8500 रुपये प्रति कुंतल यानी 85 रुपये प्रति किलो से ज्यादा कभी नहीं मिली। कुछ किसानों को 3500 से 7000 रुपये प्रति कुंतल की दर से अपनी उपज बेचनी पड़ी थी। काफी जद्दोजहद के बाद साल 2020 में करीब 600 कुंतल ब्लैक राइस सुखबीर एग्रो कंपनी के जरिए न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कतर, आईटीसी, चौपाल सागर, जैविक हाट, आर्गेनिक बाजार मुंबई में बिका। बाकी किसान कई सालों से अपनी उपज लेकर सरकार के भरोसे बैठे हुए हैं। आखिर झूठे सब्जबाग में फंसे किसान कब तक साहूकारों के कर्ज की दलदल में फंसे रहेंगे?'

मोदी सरकार के झांसे में आकर चंदौली के किसानों ने चंदौली काला चावल कृषक समित की गठन किया, लेकिन नतीजा वही-ढाक के तीन पात। जिले के करीब डेढ़ हजार प्रगतिशील किसान इस समिति के सदस्य हैं। इन्हें यकीन नहीं आ रहा है कि उनका ब्लैक राइस कभी बिक पाएगा? किसानों के पास फंड नहीं, व्यापारी नहीं और एक्सपोर्ट का कोई जरिया नहीं है। सरकार और कृषि महकमे के अफसरों के झांसे में आकर जिन किसानों ने पिछले साल ब्लैक राइस की खेती की, वो अपना माथा पीट रहे हैं। इन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि अपनी उपज आखिर कहां बेचें?  ब्लैक राइस की खेती करने वाले किसानों के आंखों में सिर्फ आंसुओं की धुंध है। खेती का ये रास्ता तो इन्हें हताशा की ओर ले जा रहा है।

क्या कहा था मोदी ने...?

साल 2020 में देव दीपावली के मौके पर वाराणसी के दौरे पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काले चावल की खेती करने वाले किसानों की कामयाबी का जमकर महिमामंडन किया। ब्लैक राइस को इनकी आर्थिक मजबूती का आधार बताया। यह तक कहा, 'ब्लैक राइस यूपी के चंदौली की पहचान बन चुका है। चंदौली से पहली बार ऑस्ट्रेलिया को काला चावल निर्यात हुआ है। वह भी करीब साढ़े आठ सौ रुपये किलो के हिसाब से। चंदौली के किसानों की आय को बढ़ाने के लिए ब्लैक राइस की एक वैरायटी का प्रयोग यहां किया गया था। किसानों के लिए बाजार तलाश लिया गया। सरकार के प्रयासों और आधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर से किसानों को कितना लाभ हो रहा है, इसका एक बेहतरीन उदाहरण है चंदौली का काला चावल-ब्लैक राइस। ये चावल चंदौली के किसानों के घरों में समृद्धि लेकर आ रहा है।'

प्रधानमंत्री के मुंह से तारीफ के शब्द सुनकर पूर्वांचल के किसान गदगद हो गए, लेकिन इन की खुशी ज्यादा दिन नहीं रह पाई। ब्लैक राइस की खेती करने वाले किसान तो अब खून के आंसू रो रहे हैं।

मेनका की पहल पर शुरू हुई खेती

ब्लैक राइस की खेती की शुरुआत साल 2018 में भाजपा नेत्री मेनका गांधी के सुझाव पर प्रायोगिक तौर पर चंदौली जिले में की गई थी। उन्होंने मणिपुर की चाक हाउ (काले चावल) का बीज चंदौली के किसानों को मुहैया कराया था। किसानों की मेहनत रंग लाई और सेहत के लिए फायदेमंद समझे जाने वाले ब्लैक राइस की डिमांड विदेशों तक पहुंच गई।

चंदौली के तत्कालीन डीएम नवनीत सिंह चहल और तत्कालीन उपकृषि निदेशक आरके सिंह की पहल पर मणिपुर से 12 सौ रुपये प्रति किलो की दर से 12 किलो चाकहाउ के बीज लाकर यहां के किसानों को खेती के लिए वितरित किया गया। किसानों ने झूमकर ब्लैक राइस की खेती की। इस उम्मीद के साथ कि उनकी आय दो-तीन गुना बढ़ जाएगी। किसानों का प्रयोग सफल रहा। ब्रांडिंग की वजह से किसानों ने ब्लैक राइस की बंपर पैदावार हुई। बंपर पैदावार हुई तो खरीदार ही नहीं नहीं मिले।

मोदी-योगी सरकार और कृषि महकमे के अफसर अब इस बात से मगन है कि ब्लैक राइस को कलेक्टिव मार्क यानी विशेष उत्पाद की मान्यता मिल गई है। चंदौली कृषि उत्पाद में यह मार्क दिलाने वाला प्रदेश का इकलौता जिला है। अब इस चावल की तारीफ सयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था यूएनडीपी (UNDP) ने कर दी है जिसके बाद इस चावल की महत्ता और बढ़ गई है, लेकिन किसानों की मुश्किलें तनिक भी कम नहीं हुई हैं।

चंदौली के कांटा जलालपुर के किसान धनंजय वर्मा कहते हैं, 'ब्लैक राइस की खेती से सुनहरे भविष्य का जो सपना देखा था वो टूटकर बिखर गया। सारी उपज घर में पड़ी है। मेहनत बहुत की, पर मिला कुछ भी नहीं। हम भी चाहते हैं कि धान की खेती से अपनी तरक्की की पटकथा लिखें, लेकिन चाहने से होता क्या है?  ब्लैक राइस की अच्छी फसल उगती है तो वो औने-पौने दाम पर भी नहीं बिक पाती।'

साहूकारों के मकड़जाल में फंसे किसान

धनंजय रूंधे गले से बताते हैं, ‘पिछले दो सालों से वो ब्लैक राइस की खेती कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने पिछले साल खेत का एक बड़ा हिस्सा रेहन रखा और कुछ रकम बैंक से लोन ली। ब्लैक राइस की उपज अच्छी हुई, लेकिन बिक्री के लिए महीनों से खरीदारों की बाट जोह रहे हैं। सारी उपज बोरों में भरकर घर में रखी है। उम्मीद थी कि उपज बाजार में बेच करके रेहन का खेत छुड़ा लेंगे और बैंक का लोन भी भर देंगे। सरकार के बड़बोलेपन और प्रशासन के निकम्मेपन के चलते हम तबाही की कगार पर खड़े हैं। इस बार हमने ब्लैक राइस की खेती से तौबा कर लिया है।'

काला चावल कृषक समिति के महासचिव वीरेंद्र सिंह भी सरकारी रवैये के बेहद आहत हैं। वे कहते हैं कि मौजूदा कलेक्टर को ब्लैक राइस की खेती कराने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

वे कहते हैं, 'इस धान से आमदनी दोगुनी करने का हमने जो उम्मीद पाली थी, वो टूटकर बिखर गई है। पिछले साल उगाए गए ब्लैक राइस का अभी तक एक दान भी नहीं बिक पाया है। सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के चलते चंदौली के ज्यादातर किसानों ने अबकी ब्लैक राइस की खेती नहीं की। जिन किसानों ने नर्सरी भी डाली, उनमें से कुछ ने ब्लैक राइस का बेहन नष्ट कर दिया। जैविक विधि से उगाए जाने वाले इस धान की खेती के लिए अच्छी जमीन चाहिए। श्रम और समय दोनों ज्यादा लगता है। पिछले साल दिसंबर से किसान अपनी उपज लेकर बिकने के इंतजार में बैठे हैं। सरकार के साथ मिलकर नोएडा की आरकेबीएल कंपनी ने चंदौली के किसानों के साथ बड़ा धोखा किया। पिछले साल इस कंपनी ने चंदौली के किसानों से बड़े पैमाने पर ब्लैक राइस की खेती कराई। पौधों का सर्वे कराया और उपज होने पर सैंपल भी मंगा लिया। उपज खरीदने का खूब सपना दिखाया, लेकिन जब खरीदने की बात आई तो आरकेबीएल कंपनी वाले गायब हो गए। एग्रीकल्चर महकमे के नुमाइंदों ने भी दिल तोड़ दिया। अबकी हमने ब्लैक राइस का व्यावसायिक खेती पूरी तरह बंद कर दी है। बस बीज बचा रहे हैं। ब्लैक राइस की जगह सोनाचूर, राजेंद्र कस्तूरी, नाटी मंसूरी की खेती कर रहे हैं।'

ब्लैक राइस की ख़रीद का इंतजाम नहीं

दरअसल, चंदौली के ग्रामीण इलाकों की अर्थव्यवस्था का जटिल गणित ही किसानों की जान का दुश्मन साबित हो रहा है। ब्लैक राइस की खरीद की कोई पुख्ता नीति न होने से इनकी मुश्किलें बढ़ गई हैं। ब्लैक राइस तो बिचौलिए भी नहीं खरीद रहे हैं। चंदौली ही नहीं, समूचे पूर्वांचल में पर्याप्त कोल्ड स्टोरेज नहीं हैं, जहां ब्लैक राइस के बंपर उत्पादन को रखा जा सके। किसान को पूरे साल की मेहनत के बाद अपनी फसल बेच कर मुनाफ़ा नहीं मिले तो वह परिवार का पेट कैसे चलाएगा और कर्ज़ कहां से चुकाएगा?

चंदौली के बिसौरी गांव के किसान कमलेश सिंह कहते हैं, 'किसानों को आमतौर पर फसलों की बुवाई के सीज़न में पहले बीज और फिर खाद के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है। किसानों का काला चावल बिका नहीं। अब बैंक वाले भी आंख तरेर रहे हैं। आमतौर पर छोटे किसानों को खेती के लिए कर्ज़ देने में आनाकानी कर रहे हैं। ऐसे में उनके पास स्थानीय महाजनों से कर्ज़ लेना मजबूरी है। इस पर इन्हें ब्याज़ दर 120 प्रतिशत सालाना तक चुकानी पड़ रही है, यानी एक लाख के कर्ज़ पर उनको फसल कटने के बाद 2.20 लाख तक चुकाना पड़ सकता है।'

चंदौली के बरहनी इलाके के सिकठां गांव के प्रगतिशील किसान रतन सिंह कहते हैं, 'चंदौली जिले में जो लोग बीज और खाद का कारोबार करते हैं, 'चित भी मेरी और पट भी मेरी' की तर्ज़ पर वही ब्लैक राइस की खेती करने वाले किसानों को कर्ज़ भी मुहैया कराते हैं। बाद में यह लोग किसानों से लागत से भी कम क़ीमत पर उनकी फसलों को खरीद कर घर बैठे मोटा मुनाफा कमा लेते हैं।'

ब्लैक राइस की खेती करने वाले किसानों के इर्द-गिर्द महाजनों का मकड़जाल इस कदर उलझा है कि एक बार इनके जाल में फंसने वाला किसान चाहकर इससे मुक्त नहीं हो सकता। सालों की कोशिशों के बावजूद जब कर्ज़ की रकम लगातार बढ़ती जाती है, तब उसे हताशा में अपनी जान देने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं सूझता।

बनारस के रामकटोर पर धान के बीज की दुकान चलाने वाले राजन राय कहते हैं, 'सालों से डिमांड की जा रही है किसान आयोग बनाने के लिए, मगर अफसोस यह है कि कोई नहीं सुन रहा है। न सरकार के कानों पर जू रेंग रही है, न अफसरों के। सरकारी एजेंसियां अगर समय पर किसानों का ब्लैक राइस खरीद लें, तो किसानों पर मुसीबत का पहाड़ नहीं टूटेगा। उर्वरकों का दाम आसमान छू रहा है। कुछ किसानों को किसान निधि का लालीपाप देकर सरकार किसानों को बर्बाद करने पर तुली हुई है। धान के किसान खूब मेहनत कर रहे हैं। फसल भी उगा रहे हैं, लेकिन बिचौलियों का खेल किसानों की तबाही का सबब बन गया है। इसके लिए पहले स्थानीय साहूकारों और बिचौलियों का जाल ध्वस्त करना जरूरी है।'

पथराने लगीं किसानों की आंखें

चंदौली जिले के तमाम गांवों में लगभग हर घर के सामने लगे ब्लैक राइस के ढेर को ताकते हुए लोगों की आंखें अब पथराने लगी हैं। उनकी आंखों के आंसू भी सूखने लगे हैं। कांटा जलालपुर के युवा किसान बलवंत सिंह साल 2018 से काले धान की खेती कर रहे हैं। इनका शुरुआती अनुभव अच्छा रहा, लेकिन वक्त बीतने के साथ साल 2019 और साल 2020 पैदा किए गए ब्लैक राइस के खरीददार नहीं हैं। बलवंत कहते हैं, 'मोदी-योगी सरकार ने झूठा सब्जबाग दिखाया। काले धान को खरीदने की बात आई तो सरकार ने चुप्पी साध ली। ब्लैक राइस का देश में कोई ऐसा बाजार नहीं है,  जहां किसान अपने उत्पादन को आसानी से बेच सकें। किसानों के हौसले पस्त हो चुके हैं। धान की बोरियों को चूहे और गिलहरी नुकसान पहुंचा रहे हैं। सरकार हमें ब्लैक राइस पैदा करने के लिए प्रोत्साहित तो करती है, लेकिन जब बेचने की बारी आती है तो कोई उपाय नहीं बताती।'

चंदौली के जलालपुर गांव के किसान चंद्रशेखर कुमार मौर्य चंदौली काला धान समिति से जुड़े हैं। वो बताते हैं, 'शुरुआती दिनों में ब्लैक राइस की खेती का अनुभव अच्छा रहा, लेकिन सरकार ने कोई बाजार नहीं खोला। नतीजा, कर्ज के दलदल में फंसे तो फंसते ही चले गए।' चंद्रशेखर बताते हैं कि ब्लैक राइस की खेती के लिए उन्होंने कुछ पैसे बैंक से लेकर खेती की थी, लेकिन उपज बिक नहीं पाई। अब खाद, बीज और कीटनाशक खरीदने के लिए इनके पास पैसा नहीं है। कर्ज में डूबे होने के कारण बच्चों की पढ़ाई और बेटियों की शादियां रुक गई हैं। चंद्रशेखर पर बैंक का करीब ढाई लाख रुपये बकाया है। ब्लैक राइस सड़ रहा है और बैंक का ब्याज बढ़ रहा है। चंद्रशेखर सरकार को कोस रहे हैं। वो कहते हैं, 'जब सपना तोड़ना ही था तो दिखाया ही क्यों? हम तो मोटे अनाज से ही अपना पेट भर लेते थे। ब्लैक राइस लेकर हम कहां जाएं। सरकार के वादे का क्या...हम लोग तो सरकार की बातों में फंसकर ठग लिए गए। हमने काले धान की खेती करने का इरादा अब हमेशा के लिए छोड़ दिया है।'

एक नजरः चंदौली में ब्लैक राइस की खेती

स्रोतः कृषि विभाग, चंदौली।

पूर्वांचल में ब्लैक राइस के गढ़

चंदौली में चकिया, सैयदराजा, चंदौली, जौनपुर में धर्मापुर, सिरकोनी, खुटहन और गाजीपुर में मुहम्मदाबाद, जमानियां, जहूराबाद आदि।

(विजय विनीत वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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