NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
गुजरातः ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ बचाने में जुटे हैं मोदी-आरएसएस 
भूपेंद्र पटेल पहली बार के विधायक हैं। उन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है। उनकी एक ही ख़ासियत है कि वह पटेल समुदाय से आते हैं और अगले साल हो रहे विधानसभा चुनावों के लिए जाति-समीकरण साधने में काम आएंगे।
अनिल सिन्हा
13 Sep 2021
भूपेंद्र पटेल
गुजरात के नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल। फोटो साभार: पीटीआई

अब गुजरात में भी मुख्यमंत्री बदल दिया गया है। नए मुख्यमंत्री का नाम कहीं से चर्चा में नहीं था। वह पहली बार के विधायक हैं। उन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है। उनकी एक ही खासियत है कि वह पटेल समुदाय से आते हैं और अगले साल हो रहे विधानसभा चुनावों के लिए जाति-समीकरण साधने में काम आएंगे।  लेकिन इसी समाज के कई कद्दावर और वरिष्ठ नेताओं को छोड़ कर उन्हें मौका देना एक चौंकाने वाला कदम जरूर है। इसके पहले कि इस कदम के पीछे की राजनीति को समझने की कोशिश की जाए, गोदी मीडिया के रिपोर्टरों के चेहरे से झांक रही बेचारगी की थोड़ी चर्चा कर ली जाए।

किसी ने भी नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल की घोषणा के पहले तक इस नाम को सुना भी नहीं था। यह पहली बार नहीं हुआ है। कर्नाटक और उत्तराखंड में हो चुका है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के समय भी यही हुआ था। किसी रिर्पोटर को पता ही नहीं था कि कई दिग्गज मंत्रिमंडल से बाहर होने वाले हैं। इससे पता चलता है कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी से इन रिर्पोटरों का क्या रिश्ता है। उनका काम बधाई के गीत गाने का है और विपक्षी पार्टियों से बदसलूकी करने का है। उनके साथ कोई भाजपा नेता सूचना साझा नहीं कर सकता है क्योंकि उसका अपना कैरियर डूब जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के अलावा सूचना लेने-देने का अधिकार किसी को नहीं है। भले ही गोदी मीडिया को इसमें कुछ बुरा नहीं लगता हो, भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बहुत बुरा है। सूचनाओें का लेन-देन लोकतंत्र के लिए जरूरी है।

नए मुख्यमंत्री के चयन के तरीके से यह अंदाजा भी होता है कि राज्य के नेताओं के साथ भी सलाह-मशविरा नहीं हुआ है। साफ है कि मोदी-शाह ने तय कर दिया। शायद गुटबाजी से ग्रस्त पार्टी में पुराने नेता एक-दूसरे को स्वीकार भी नहीं करते। वैसे अब इन बातों को लेकर लोगों ने चर्चा करना ही बंद कर दिया है कि इन फैसलों में विधायकों की कोई भूमिका नहीं रह गई है। कुछ लोग तो कांग्रेस में मुख्यमंत्री बदलने का इतिहास बतलाने लगते हैं और कहने लगते हैं कि इंदिरा गांधी भी ऐसा करती थीं। लेकिन यह आधा सच है। लेकिन पहली बार विधायक चुने गए नेता को मुख्यमंत्री बनाने का उदाहरण ध्यान में नहीं आता है। वैसे भी कांग्रेस ने गलती की तो इसे दोहराने की छूट सभी पार्टियों को क्यों दी जाए? क्या हमें लोकतंत्र की प्रक्रियाओं खासकर पार्टी के भीतर लोकतंत्र जैसे मुद्दों पर सोचना ही छोड़ देना चाहिए।

इस बदलाव में यह बात तो साफ दिखती है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने गृह-राज्य में अपने इशारे पर चलने वाला ही मुख्यमंत्री चाहते हैं और किसी दूसरे को ताकतवर होने देना नहीं चाहते हैं। उनकी रणनीति यही है कि किसी को यह न लगे कि उसके नाम पर चुनाव जीता गया है। इस बदलाव के जरिए उन्होंने फिर पक्का कर लिया है कि राज्य विधान सभा के आने वाले चुनाव उनके चेहरे पर ही लड़ा जाएगा। उन्होंने तसल्ली कर ली है कि गुजरात में कोई वैकल्पिक नेतृत्व नहीं उभरा है। उनका आदेश पाते ही खड़ाऊं रख कर राज कर रहे विजय रूपाणी ने सत्ता की कमान दूसरे के हाथ में सौंप दी। मोदी ने अपना यह अहंकार फिर दिखाया कि पार्टी का अस्तित्व उनकी लोकप्रियता पर टिका है।

लेकिन इस बदलाव के पीछे काम कर रही हताशा को छिपाया जा रहा है। विकास के गुजरात-मॉडल की असलियत दुनिया के सामने खुल चुकी है। नीति आयोग ने सस्टेनेबल (टिकाऊ) डेवलपमेंट लक्ष्य (एसडीजी) इंडेक्स के ताजा आंकड़े कुछ महीने पहले ही जारी किए हैं। मोदी करीब डेढ़ दशक तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे और अभी भी वहां का राज उनके ही इशारे पर चल रहा है। लेकिन वहां का हाल ये आंकड़े बता रहे हैं। राज्य गरीबी, भुखमरी, शिक्षा तथा औरतों की बराबरी में काफी पीछे है। केरल तथा दक्षिण के राज्यों से तो उसका कोई मुकाबला ही नहीं है। अच्छे स्वास्थ्य के मामले में वह जरूर नंबर एक पर है। लेकिन कोविड की महामारी में उसकी स्वास्थ्य-व्यवस्था का क्या हाल हुआ, इसे सब देख चुके हैं। स्वास्थ्य के मामले में उससे काफी पीछे रहने वाले केरल से उसका कोई मुकाबला नहीं है। कोविड से बुरी तरह प्रभावित होने के बावजूद इसके बेहतर प्रबंधन में वह सभी राज्यों से बेहतर रहा। वहां मौतों के आंकड़े काबू से बाहर नहीं हुए और ऑक्सीजन तथा दूसरी सुविधाओं के लिए भी कोई मारामारी नहीं हुई। 

मीडिया ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि किसी भी राजनीतिक विश्लेषण में लोगों की सामाजिक-आर्थिक हालत की बात नदारद रहती है। मोदी गुजरात या दूसरे राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने की राजनीतिक कलाबाजी कर रहे हैं और चर्चा इसी पर टिकी है कि मोदी किस तरह राज्यों की राजनीति पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए हैं और वह जो चाहे कर सकते हैं। सच्चाई तो यही है कि सत्ताधारी पार्टी में महानगरपालिका से लेकर लोकसभा तक उनका ही चेहरा है। लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों को छोड़ दें तो कोई भी चुनाव याद नहीं आता जिसमें उन्हें कोई ऐसी सफलता मिली हो जिससे मान लिया जाए कि उनका चेहरा जीत की गारंटी है। पश्चिम बंगाल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। धन-बल, सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, चुनाव आयोग और राज्यपाल के इस्तेमाल के बावजूद वहां क्या हासिल हुआ? बिहार में भी आरजेडी के नौसिखुआ नेता तेजस्वी यादव ने उन्हें पानी पिला दिया। वहां नीतीश कुमार को समाप्त कर भाजपा के नेतृत्व में राज लाने का उनका सपना फेल हो गया। उन्हें झक मार कर नीतीश के नेतृत्व में सरकार बनाने का फैसला करना पड़ा।

मामूली से दिखने वाले गुजरात के बदलाव में नेता के रूप में सिर्फ खुद को दिखाने  की हद तक पहुंच गई मोदी की बीमारी के अलावा भी कई बातें नजर आती हैं। आरएसएस ने गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाया है और वह इसी मॉडल को देश में फैलाने का काम कर रहा है। विकास का गुजरात- मॉडल कारपोरेट घरानों के लिए सबसे सही है। नफरत का जहर पीकर बेसुध पड़ी जनता को अपने संसाधन और श्रम लूटे जाने का एहसास ही नहीं होता है। लघु उद्योगों का जाल बिछा कर संपन्न हुआ पटेल समुदाय तो ऐसा विपन्न हुआ कि उसे आरक्षण की मांग को लेकर सड़क पर आना पड़ा। बड़े पंजीपतियों ने राज्य के संसाधनों और उद्योगों पर ऐसा कब्जा जमाया कि मध्यम दर्जे के पूंजीपति पैदल हो गए। लेकिन पटेलों का बड़ा हिस्सा अभी भी पार्टी के साथ माना जाता है। असल में हिंदुत्व का असर गया नहीं है। बाकी समुदाय खासकर आदिवासी, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक किस तरह भाजपा को उखाड़ना चाहते हैं यह विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी ने दिखा दिया था। उन्होंने कड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी।

क्या इन बदलावों से यह नहीं लगता कि हिंदुत्व की प्रयोगशाला में बिखराव तेज है? बात यहीं तक नहीं है कि मोदी पोस्टरों पर अपने अलावा किसी और का चेहरा नहीं देखना चाहते हैं। राज्य में खिसकती जमीन को पास रखना भाजपा के लिए अब आसान नहीं रह गया है। समाज को सांप्रदायिक आधार पर कुछ समय के लिए बांट देना आसान है, लेकिन नफरत की आग सदा के लिए जलाए रखना बेहद कठिन है। यही वजह है कि चुनाव  के साल भर पहले से यह सब नौटंकी चलने लगी है। आम आदमी पार्टी और असुद्दीन ओवैसी की सक्रियता भी इसी का हिस्सा है। इस सारी कहानी में उसी किरदार की चर्चा नहीं है जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। हिंदुत्व की प्रयोगशाला को कांग्रेस के हमले से बचाने की किलेबंदी हो रही है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Gujrat
Bhupendra Patel
VIJAY RUPANI
BJP
RSS
Narendra modi

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति


बाकी खबरें

  • विकास भदौरिया
    एक्सप्लेनर: क्या है संविधान का अनुच्छेद 142, उसके दायरे और सीमाएं, जिसके तहत पेरारिवलन रिहा हुआ
    20 May 2022
    “प्राकृतिक न्याय सभी कानून से ऊपर है, और सर्वोच्च न्यायालय भी कानून से ऊपर रहना चाहिये ताकि उसे कोई भी आदेश पारित करने का पूरा अधिकार हो जिसे वह न्यायसंगत मानता है।”
  • रवि शंकर दुबे
    27 महीने बाद जेल से बाहर आए आज़म खान अब किसके साथ?
    20 May 2022
    सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान अंतरिम ज़मानत मिलने पर जेल से रिहा हो गए हैं। अब देखना होगा कि उनकी राजनीतिक पारी किस ओर बढ़ती है।
  • डी डब्ल्यू स्टाफ़
    क्या श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट की तरफ़ बढ़ रहा है बांग्लादेश?
    20 May 2022
    श्रीलंका की तरह बांग्लादेश ने भी बेहद ख़र्चीली योजनाओं को पूरा करने के लिए बड़े स्तर पर विदेशी क़र्ज़ लिए हैं, जिनसे मुनाफ़ा ना के बराबर है। विशेषज्ञों का कहना है कि श्रीलंका में जारी आर्थिक उथल-पुथल…
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: पर उपदेस कुसल बहुतेरे...
    20 May 2022
    आज देश के सामने सबसे बड़ी समस्याएं महंगाई और बेरोज़गारी है। और सत्तारूढ़ दल भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस पर सबसे ज़्यादा गैर ज़रूरी और सांप्रदायिक मुद्दों को हवा देने का आरोप है, लेकिन…
  • राज वाल्मीकि
    मुद्दा: आख़िर कब तक मरते रहेंगे सीवरों में हम सफ़ाई कर्मचारी?
    20 May 2022
    अभी 11 से 17 मई 2022 तक का सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का “हमें मारना बंद करो” #StopKillingUs का दिल्ली कैंपेन संपन्न हुआ। अब ये कैंपेन 18 मई से उत्तराखंड में शुरू हो गया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License