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भारत
राजनीति
गुप्कर घोषणा की बहाली : जम्मू-कश्मीर में आशा और आशंका की लहर
जम्मू-कश्मीर की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को एक साथ लाने वाली गुप्कर घोषणा की बहाली ने धारा 370 को निरस्त करने के फ़ैसले के राजनीतिक विरोध को गति दे दी है।
अनीस ज़रगर
26 Aug 2020
Translated by महेश कुमार
गुप्कर घोषणा

श्रीनगर: कश्मीर के छह राजनीतिक दलों का ताजा संयुक्त प्रस्ताव, जिसके माध्यम से अनुच्छेद 370 और 35ए की बहाली की मांग की गई है, इस कदम को जम्मू-कश्मीर के संविधान और राज्य के दर्जे को भविष्य की राजनीति की 'आधारशिला' के रूप में देखा जा रहा है, यह जब संभव हैं तब तक कि मुख्यधारा का नेतृत्व अतीत के समान उदाहरणों की तरह 'एकता और विरोध' के सूत्र पर एक साथ आगे नहीं बढ़ता है।

जम्मू और कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक दलों को एक साथ लाने वाली गुप्कर घोषणा की बहाली ने एक साल पहले केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के फैसले के खिलाफ राजनीतिक विरोध करने रास्ता तय कर लिया है।

नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC), कांग्रेस पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP), पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (PC), अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस (ANC) और माकपा (CPIM) सहित 6 पार्टियों ने 4 अगस्त को आयोजित ऑल पार्टी मीटिंग में प्रतिबद्धता जताई, 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के सात एक दिन पहले केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटकर एकतरफा कार्रवाई की थी। तब से भाजपा के सहयोगियों सहित राजनीतिक नेतृत्व को इस फैसले के विरोध के सिलसिले में लगभग एक साल तक हिरासत में रखा गया हैः।

गुप्कर घोषणा के हस्ताक्षरकर्ताओं के लिए एक मजबूत एकजुट मोर्चे के रूप में उभरने के लिए, ऐसे किसी भी राजनीतिक सहयोग के बारे में उनके सामने जो चुनौती है वह खुद की गलतफहमी को दूर करने की है। पर्यवेक्षकों का मानना है, कि आशंका मुख्यधारा के दलों द्वारा ऐतिहासिक रूप से किए गए विभिन्न राजनीतिक दुराचरणों या गलत कदमों में निहित है, जो कि नीचे गिर कर मिलीभगत से दलबदल कर चुके हैं।

कश्मीर विश्वविद्यालय में कश्मीर स्टडी के सहायक प्रोफेसर एम॰ इब्राहिम वानी के अनुसार, यह अभी तक केवल एक ढीली सी सहमति है, जिसने "संयुक्त मोर्चा" का रूप नहीं लिया है।

“इस सहमति की असली परीक्षा विधानसभा चुनाव के दौरान होगी, जब भी यह चुनाव होता है। हालांकि, भले ही ये गठबंधन बन जाए, लेकिन यह कोई नई बात नहीं होगी। कश्मीर में राजनीति का इतिहास एक तरह से विभिन्न राजनीतिक समूहों और विचार प्रक्रियाओं का अलग-अलग संदर्भ में एक साथ आने का इतिहास रहा है, और फिर तात्कालिक संदर्भ में वे अलग भी हुए है।

वानी इसे 1947 से पहले की मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच की अंतर्कलह के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से देखते हैं, जो कि कश्मीर में एक प्रमुख राजनीतिक दोष रहा है, जो न केवल स्वतंत्रता के समय, बल्कि कई वर्षों तक इस पर हावी रहा।

उनके मुताबिक "अलगाववादी दलों सहित कई दल 1963 में ‘पाक़ मजहबी स्मारक’ (Holy Relic) विवाद जैसे कई राजनीतिक आंदोलनों में एक साथ आए। हालांकि, इस तरह के गठजोड़ और प्लेटफार्मों को गंभीर मतभेदों का सामना करना पड़ा क्योंकि प्लेटफॉर्म दीर्घकालिक संकल्पों के लिए कोई जरिया विकसित करने में विफल रहे। 

नेशनल कॉन्फ्रेंस को पहला झटका 1953 में तब लगा जब जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ जोड़ने वाले शेख अब्दुल्ला, जोकि कश्मीर के निर्विवाद रूप से काफी बड़े और सम्मानित नेता थे, गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी सरकार को खारिज कर दिया था। शेख अब्दुल्ला के करीबी सहयोगी बख्शी गुलाम मोहम्मद ने जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन, अगस्त 1953 में खुद की बर्खास्तगी से पहले, शेख अब्दुल्ला ने मई के महीने में राजनीतिक अनिश्चितता को देखते हुए और क्षेत्र में लोगों के भीतर जनमत संग्रह के विकल्प का पता लगाने के लिए एक समिति का गठन किया था। समिति में बख्शी, जीएम सादिक और कई अन्य नेता शामिल थे जो शेख की जगह सरकार चला रहे थे।

1953 की घटनाओं को श्रीनगर और नई दिल्ली के बीच टकराव के बड़े आघात के रूप में देखा गया और नए फेडरल ढांचे के तहत तत्कालीन राज्य को दिए गए 'विशेष दर्जे' का क्षरण या पतन शुरु हो गया, जिसकी वजह से शेख अब्दुल्ला को एक दशक से अधिक समय जेल में बिताना पड़ा। 

जारी किए गए संयुक्त बयान में, छह दलों ने दोहराया है कि वे "इस बात से पूरी तरह से बंधे हैं कि ‘गुप्कर घोषणा’ की लिखित सामग्री और उसकी अटूटता का पालन किया जाएगा।"

बयान में कहा गया है कि, "हम सभी जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को बहाल करने के लिए सामूहिक रूप से लड़ने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते हैं।"

शेख अब्दुल्ला की रिहाई के बाद, उन्होंने प्लीबसाइट फ्रंट (पीएफ) के तहत विरोध की लहर का नेतृत्व किया था और बाद में इसे "सियासी आवारागर्दी" कहकर बंद कर दिया। पीएफ को 1972 के राज्य विधानसभा चुनावों में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया था लेकिन तब तक शेख अब्दुल्ला 1975 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ एक समझौते पर पहुंच चुके थे और सत्ता में वापस आ गए। प्रधानमंत्री या सदर-ए-रियासत की पूर्ववर्ती राजकीय उपाधी को समाप्त कर दिया गया और उनकी जगह अब मुख्यमंत्री और राज्यपाल ने ले ली थी। नेशनल कॉन्फ्रेंस तब तक नई राजनीतिक वास्तविकता को स्वीकार कर चुकी थी और आगे बढ़ गई।

1982 में शेख के निधन के बाद, उनके बेटे डॉ॰ फारूक अब्दुल्ला तब तक मुख्यमंत्री बने रहे, जब तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा के साथ उनके रिश्ते में खटास नहीं आ गई। विभिन्न प्रशासनिक पदों पर रहकर कश्मीर में सेवा करने वाले पूर्व नौकरशाह वजाहत हबीबुल्लाह, जिन्होंने अपने संस्मरण में ‘माई कश्मीर: द डाइंग ऑफ द लाइट’ में लिखा हैं कि, फारूक “विपक्षी दलों के जमावड़े के साथ मिलकर देश के राज्यों में उभरे विभिन्न दलों के साथ 1977 के चुनाव में उतरे” और जब फारुख ने अक्टूबर 1983 में श्रीनगर में एक राष्ट्रीय स्तर का विपक्षी सम्मेलन का आयोजन किया, तो उसके लिए उन्हे अपनी गद्दी से हाथ धोना पड़ा। 

हबीबुल्लाह लिखते हैं, "1984 में फारूक की सरकार को अपदस्थ करना 1953 की घटनाओं की याद दिलाता था, जो केंद्र में सत्ताधारी दल के साथ उनके साथियों की मिलीभगत थी।"

फारूक की सरकार की जगह उनके बहनोई जी॰एम॰ शाह की सरकार बनी, जो शेख के एक अन्य करीबी लेफ्टिनेंट या सहयोगी थे। शाह सिर्फ दो साल सत्ता में रहे- उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और गवर्नर शासन थोपा दिया गया, उन्होने अपनी पार्टी अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस का गठन किया, जो गुप्कर घोषणा के हस्ताक्षरकर्ता भी थे।

उसके बाद हुए चुनावों में, विभिन्न राजनीतिक संगठनों ने एक मुस्लिम संयुक्त मोर्चा (MUF) का गठन किया, जिसमें प्रतिबंधित जमात ए इस्लामी (JeI) एक प्रमुख घटक था। इससे पहले, फारूक के नेतृत्व वाले नेकां ने नई सरकार का प्रभार संभाला था, अधिकांश एमयूएफ नेताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया गया और चुनावों में धांधली हुई माना गया, इस पल को कुछ ऐसा माना गया जिसने क्षेत्र के इतिहास में एक ऐसी धांधली देखी जिसने अगले दशक में अंततः एक विद्रोही तेवर को जन्म दिया। तब से कश्मीर की राजनीति में उग्रवाद के प्रकोप की घटनाएं हावी है।

कश्मीर विश्वविद्यालय के राजनीति और शासन विभाग के प्रोफेसर नूर मोहम्मद बाबा का कहना है, हालांकि, इस क्षेत्र में वर्तमान राजनीतिक स्थिति इतिहास की राजनीति से कोई मेल नहीं खाती है।

“यह एक पूरी तरह से भिन्न स्थिति है। इसका अतीत से कोई मेल नहीं है। मुख्यधारा की लीडरशिप को आज जिस तरह से कमतर आंका जा रहा है, पहले इतना नजरअंदाज कभी नहीं किया गया था, ”बाबा ने न्यूज़क्लिक को बताया।

इसे एक "महत्वपूर्ण" विकास बताते हुए, बाबा कहते हैं, "नेश्नल कॉन्फ्रेंस हमेशा से अनुच्छेद 370 के प्रति प्रतिबद्ध रही है, जबकि पीडीपी स्व-शासन चाहती है जिसमें 370 भी एक घटक है, सीपीआई-एम के तारिगामी भी स्वायत्तता के प्रति प्रतिबद्ध हैं। सजाद लोन विचार के एक बड़े ढांचे की बात करते हैं जिसमें स्वायत्तता भी एक महत्वपूर्ण कारक है। इसलिए, इन दलों के लिए, पूर्व-अगस्त 2019 की स्थिति की बहाली आम सहमति की न्यूनतम शर्त बन जाती है।"

Jammu and Kashmir
Gupkar Declaration
NC
PDP
CPI-M
Abrogation of Article 370
Article 35A
BJP
Amit Shah
Holy Relic controversy

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