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हरियाणा चुनाव : भट्टा मालिक आर्थिक मंदी से परेशान, मज़दूर बदतर हालत में जीने को मजबूर
ग्राउंड रिपोर्ट: हरियाणा का झज्जर ज़िला राज्य में सबसे बड़ा ईंट उत्पादक ज़िला है। झज्जर में 350 से अधिक भट्टे हैं ,जिसमें लगभग 70,000 से अधिक कुशल और अकुशल मज़दूर काम करते हैं। लेकिन इनके मुद्दे चुनाव से पूरी तरह गायब हैं!
मुकुंद झा, रौनक छाबड़ा
18 Oct 2019
haryana bhatta labour

झज्जर: हरियाणा राज्य के 22 जिलों में से एक है झज्जर ज़िला। यह जुलाई 1997 को रोहतक ज़िले से अलग हुआ। झज्जर ज़िला मुख्यालय दिल्ली से 29 किलोमीटर की दूरी पर है और अब यह भी हरियाणा के एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ है। ज़िले में मुख्यत चार शहर हैं -झज्जर, बहादुरगढ़, बादली और बेरी। 21 तारीख को राज्य में चुनाव होने हैं और यह ज़िला भी राज्य के अन्य हिस्सों की तरह उसके लिए तैयार है। चुनाव में ज़िले के सबसे बड़े उद्य़ोग ईंट भट्टे के मुद्दे पूरी तरह से गायब हैं।

झज्जर ज़िला राज्य में सबसे बड़ा ईंट उत्पादक ज़िला है। झज्जर में 350 से अधिक भट्टे हैं ,जिसमें लगभग 70,000 से अधिक कुशल और अकुशल मज़दूर काम करते हैं। बताया जाता यहाँ भट्टों की संख्या कहीं अधिक थी लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के आदेश पर प्रदूषण के नियंत्रण के लिए यहां कई भट्टों को बंद करा दिया गया। यहां निर्मित ईंटों की सप्लाई दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में की जाती है।

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आर्थिक मंदी से परेशान ईंट भट्टा उद्योग

ईंट भट्टा उद्योग आज भारी आर्थिक मंदी की मार झेल रहा है। आम तौर पर नवरात्र या उसके बाद से यह भट्टे शुरू हो जाते हैं लेकिन इसबार अभी तक यह भट्टे बंद हैं। इसमें काम करने वाले मज़दूर प्रवासी होते हैं तो वो भी इस समय तक यहां पहुंच चुके होते है लेकिन अभी तक वह भी नहीं आये हैं और जो कुछ लोग आ भी आ गए हैं वो भी खाली बैठे हैं।

लेकिन यह मुद्दा पूरी तरह से हरियाणा चुनाव से गायब है। किसी भी राजनीतिक दल ने इसे गंभीरता से नहीं लिया है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि यहां काम करने वाले मज़दूर उनके चुनाव को प्रभावित नहीं करते हैं, क्योंकि इनमें ज़्यादातर हरियाणा के मतदाता नहीं है। इस संकट को समझने के लिए न्यूज़क्लिक की टीम ने ज़िले के ईंट भट्टों का दौर किया और भट्टा मालिकों और वहां काम करने वाले मज़दूरों से बात की।

भट्टा मालिकों ने बताया कि हमारा काम पूरी तरह से खत्म हो गया है, बाज़ार में मांग है ही नहीं तो हम ईंटों का उत्पादन किसके लिए करें!
उनके मुताबिक नोटबंदी और जीएसटी के बाद से ही काम कम होना शरू हो गया था और यह गिरावट आज तक रुकने का नाम नहीं ले रही है

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एक भट्टा मालिक सतपाल बताते हैं कि इस समय उनके पास लगभग 50 हज़ार ईंटों की रोज मांग होती थी लेकिन इस बार 10 हज़ार ईंटे भी नहीं बिक रही हैं। जहाँ तक नए ईंटो के उत्पादन की बात है जब हमारा पुराना ही स्टॉक खत्म नहीं हो रहा है तो हम नया उत्पादन करके क्यों करेंगे?

उन्होंने बताया कि एक भट्टे पर 250 -300 मज़दूर काम करते हैं। लेकिन अभी सारे भट्टे खाली हैं। कहीं किसी भट्टे कुछ लोग काम कर रहे हैं, वो भी पुरानी ईंटो के लोडिंग का काम कर रहे हैं।

मज़दूरों के बदतर हालत

ऊपर बात हुई भट्टा मालिकों की, लेकिन इसमें काम करने वाले मज़दूरों कि हालत और भी बदतर है। जब हम भट्टे के अंदर गए तो देखा की ईंटों के दीवार बनी हुई थी जिसके ऊपर लोहे की टिन शेड थी, जिसे मालिकों ने मज़दूरों के रहने के लिए तैयार कराया था। यह अभी अधिकतर खाली पड़े थे, क्योंकि अभी मंदी के कारण भट्टे शुरू नहीं हुए हैं। कुछ में मज़दूर उसी हालत में रह रहे थे, जहाँ न तो उचित पीने का पानी था, न ही शौचालय की व्यवस्था। मज़दूरों के सभी परिवार लकड़ी जलाकर ही खाना पकाते हैं।

एक मज़दूर जिनका नाम रणविजय था, उन्होंने हमें बताया कि हम 12 -14 घंटे काम करते हैं और हमें 500 रुपये मिलते हैं। न कोई छुट्टी और न ही स्वाथ्य सेवा का लाभ मिलता है। वहां कई और मज़दूर थे लेकिन मालिक के डर से कुछ बोल नहीं रहे थे।

इसके आलावा हमने बिहार से आई एक महिला से पूछा कि ऐसे हालत को लेकर मालिक को शिकायत नहीं करतीं तो उन्होंने दबे स्वर में कहा, "सुनता कौन है? वैसे भी हम यहां कमाने आये है।" उनकी बातों से लगा कि उन्होंने इस हालत से समझौता कर लिया है। ये अधिकतर मज़दूर बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से आते हैं। दलित और पिछड़े वर्ग के मज़दूर होते हैं।

लाल झंडा भट्ठा मजदूर यूनियन के नेता विनोद ने बताया कि पूरे हरियाणा में तीन लाख भट्ठा मजदूरों के लिए कोई श्रम कानून लागू नहीं है।

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मजदूरों को सरकारी डिपो के माध्यम से राशन नहीं मिलता और मजदूरों के बच्चों के लिए स्कूल व आंगनवाड़ी की व्यवस्था भी नहीं है। प्रदेश के सबसे कुपोषित बच्चों को किसी प्रकार का पौष्टिक आहार नहीं मिलता हैं। भट्ठा मजदूरों के लिए स्वास्थ्य का कोई भी प्रबंध नहीं है। भट्ठा मालिक, पक्की ईंट महंगे दामों पर बेचकर आम जनता व भट्ठा मजदूरों का शोषण करते हैं। लेकिन यह मज़दूर उसका विरोध नहीं कर पाते हैं क्योंकि यह प्रवासी हैं मालिक स्थानीय दबंग होता है।

मज़दूर यूनियनों की काफी समय से मांग रही है कि इन भट्ठा मजदूरों को महंगाई मुताबिक रेट बढ़ोतरी दी जाए। अस्थायी राशन कार्ड बनाकर राशन उपलब्ध करवाने, भट्ठों पर भट्ठा पाठशाला व आंगनवाड़ी केन्द्र खोले जाने, भट्ठों पर पक्के मकान, बिजली, पानी, शौचालय जैसी नागरिक सुविधाएं लागू की जाएं।

इसको लेकर यूनियनों ने कई बार प्रदर्शन भी किया लेकिन कभी किसी भी दल की सरकार ने इनकी मांगो पर ध्यान नहीं दिया। क्योंकि यह मज़दूरों उनके मतदाता नहीं है जबकि मालिक स्थानीय मतदाता होता है। इसके अलावा वो इन दलों को आर्थिक रूप से भी सहयोग करता है। इसलिए कोई भी दल मज़दूरों के हक में और मालिक के खिलाफ नहीं होना चाहता है।

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