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कश्मीरी अख़बारों के आर्काइव्ज को नष्ट करने वालों को पटखनी कैसे दें
सेंसरशिप अतीत की हमारी स्मृतियों को नष्ट कर देता है और जिस भविष्य की हम कामना करते हैं उसके साथ समझौता करने के लिए विवश कर देता है। प्रलयकारी घटनाओं से घिरे हुए कश्मीर में, लुप्त होती जा रही खबरें मानवाधिकारों के संरक्षण की चाह को बाधित कर रही हैं।
एजाज़ अशरफ़
29 Dec 2021
कश्मीरी अख़बारों के आर्काइव्ज को नष्ट करने वालों को पटखनी कैसे दें
फाइल फोटो

23 नवंबर को आकाश हसन के द्वारा अपनी स्टोरी, कश्मीर के अखबारों के अभिलेखागारों का विलुप्त होते जाना को ट्वीट करने के एक महीने बाद भी इसे सोशल मीडिया में व्यापक तौर पर साझा किया जा रहा है। हसन की स्टोरी यदि संक्षेप में कहें तो, उन पत्रकारों के बारे में बताती है जो उन लेखों को इंटरनेट पर ढूंढ पाने में असमर्थ हैं जिसे उन्होंने 5 अगस्त 2019 से पहले कश्मीरी अखबारों में लिखा था, जिस दिन अनुच्छेद 370 को निरस्त और जम्मू-कश्मीर की स्वायतत्ता खत्म कर दी गई थी।

यह कहानी उस अदृश्य किंतु सर्वशक्तिमान हाथ की कहानी को बयां करती है जिसने विभिन्न मीडिया संस्थानों के डिजिटल आर्काइव्ज से यूआरएल को चुनिंदा तरीके से हटा दिया है। इनमें से कई यूआरएल कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की दास्तां के थे। प्रभावित लोगों में से एक हिलाल मीर भी थे, जो 2016 में कश्मीर रीडर के संपादक बनाये गये थे - और उस पद पर एक साल से कुछ अधिक समय तक बने रहे। मीर ने पाया कि उनके सभी लेखों को रीडर के डिजिटल आर्काइव से मिटा दिया गया था।

हसन की कहानी में ऐसे कई सुराग मिलते हैं जिनसे संकेत मिलता है कि वो कौन हो सकता है जिसने डिजिटल आर्काइव्ज में साफ़-सफाई का आदेश दिया होगा। उदाहरण के लिए, ग्रेटर कश्मीर के लिए काम करने वाले पत्रकारों ने बताया कि आर्काइव से ये लेख एक के बाद एक तब गायब होने लगे थे, जब अखबार के मालिक और प्रधान संपादक, फ़याज़ कालू से जुलाई 2019 में अधिकारियों द्वारा 2016 में प्रकाशित कुछ स्टोरी के बारे में पूछताछ की गई थी। यह वह साल था जिसमें उग्रवाद के पोस्टर-ब्वाय, बुरहान वानी की हत्या पर कश्मीर भड़क उठा था।

कालू से पूछताछ और उनके अखबार के आर्काइव से गायब होने वाले लेखों के बीच की कड़ी संयोगवश भी हो सकती है। इसके बावजूद यह एक परिकल्पना को भी प्रस्तुत करता है, भले ही यह अनजाने में हो, कि राज्य से संकट को दूर रखने की चाहत रखने वाले अखबार के मालिकों और संपादकों की पूर्व सहमति या आदेश के बिना यूआरएल के गायब होने की संभावना काफी मुश्किल है। या फिर सरकार को खुश रखकर अपने लिए विज्ञापनों को हासिल करने की उनकी बाध्यता ने, संसाधनों की कमी वाले क्षेत्रीय अखबारों के लिए वास्तविक जीवनरेखा खींच दी हो।

कश्मीर टाइम्स की स्टोरी

लेकिन यह संभावना कश्मीर टाइम्स के साथ हुए उस विचित्र वाकये की व्याख्या कर पाने में विफल साबित होती है, जिसकी देखरेख अनुराधा भसीन और प्रबोध जामवाल की पत्नी-पति की टीम करती है। वे दोनों भारत के कहीं अधिक दमदार पत्रकारों में से एक हैं। अनुच्छेद 370 को निरस्त किये जाने के बाद और महीनों तक इंटरनेट उपलब्ध नहीं था, उस दौरान भसीन ने न्यायिक आधार पर कश्मीर में संचार बंदी को चुनौती दी थी। कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक भसीन का कहना था, “नौकरशाहों की तरफ से संदेश आ रहे थे कि मुझे इसके लिए अदालत जाना पड़ेगा।” लेकिन वह नहीं मानी।

यही वजह है कि अधिकांश लोगों के लिए यह चीज समझ से परे है कि भसीन और जामवाल ने शक्तिशाली लोगों के कहने पर अपने अखबार के आर्काइव का सफाया किया होगा। अखबार के संपादक जामवाल ने अफ़सोस जताते हुए कहा, “2011 से लेकर 2016 तक का हमारा डिजिटल आर्काइव गायब हो गया है।” ऐसा करने वाला कौन अपराधी हो सकता है इसके बारे में पूछने पर जामवाल का कहना था, “या तो हैकर्स हो सकते हैं या हमारी तकनीकी टीम का कोई सदस्य इसके पीछे हो सकता है।”

इस तरह कुछ तो मामला है।

किसी भी वेबसाइट के अंदरूनी हिस्से तक पहुंच को किसी पासवर्ड से नियंत्रित किया जाता है, जिसे अक्सर किसी सॉफ्टवेयर द्वारा तैयार किया जाता है, जिसकी जानकारी आमतौर पर दो स्टाफ के सदस्यों के पास होती है। जामवाल बताते हैं कि संभव है कि कोई नाराज राजकीय अधिकारी हो या ईर्ष्यालु प्रतिस्पर्धी हो, जिसने वेबसाइट के साथ छेड़छाड़ करने के लिए पासवर्ड रखने वाले को खरीद लिया हो या डरा दिया हो।

हसन की गायब होते जाने वाली आर्काइव वाली स्टोरी में कश्मीर आब्जर्वर के संपादक सजाद हैदर ने अपने अख़बार की वेबसाइट से गायब होने वाले डेटा का कारण हैकर्स को बताया है, जिसने अतीत में कई बार सिस्टम में सेंध लगाने का काम किया था। हैकर्स अक्सर मजे के लिए ऐसा करते हैं और अपने हुनर की शेखी बघारने के लिए उनके द्वारा अजीबोगरीब मैसेज अपलोड कर दिए जाते हैं या पोर्नोग्राफिक साइटों से लिंक्स कर देते हैं।

लेकिन राज्य और नॉन-स्टेट किरदार भी हैकर्स को भाड़े पर लेने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें आप प्रयोजित हैकर कह सकते हैं। उनका एक निश्चित उद्देश्य होता है। कश्मीर टाइम्स मामले में, उनका लक्ष्य था इसके डिजिटल आर्काइव से डेटा को नष्ट कर देने का। जिस प्रकार से अनुभवी चोर अपनी लूट के माल के साथ अपनी उंगलियों के निशान को भी मिटा देते हैं, ठीक उसी तरह से प्रायोजित हैकर भी सिस्टम में घुसने के सभी सबूत मिटा देते हैं। जब तक वेबसाइट की तकनीकी टीम सभी खामियों को दुरुस्त नहीं कर लेती है, ये प्रायोजित हैकर्स अपनी गुप्त यात्राओं, डेटा की चोरी या नष्ट करने के क्रम को जारी रखेंगे, जैसा कि कश्मीर टाइम्स के साथ हुआ है।

यही वह वजह है जिसके चलते जामवाल और भसीन इस बात को ठीक-ठीक बता पाने की स्थिति में नहीं हैं कि 2011 से लेकर 2016 के बीच ठीक कब उनके अखबार के डिजिटल आर्काइव से प्रकाशित लेख गायब हो गए थे।

कश्मीर टाइम्स के साथ ऐसा तब हुआ, जो कि सभी मीडिया आउटलेट्स के लिए उदाहरण है, कि उन्हें उन वकीलों के नोटिस प्राप्त हुए, जिनके मुवक्किल उनके खिलाफ लगाये गये आपराधिक आरोपों से बरी हो गये थे। इन मुविक्क्लों को पुलिस के बयानों के आधार पर अखबार की रिपोर्टों में आरोपी के तौर पर नामित किया गया था। वकील चाहते थे कि या तो पिछली रिपोर्टों को हटा लिया जाये या फिर उनमें आवश्यक बदलाव किया जाए, जिसमें रिहाई के तथ्यों को शामिल किया जाये, क्योंकि वेब स्टोरीज, उनके प्रिंट संस्करण के विपरीत हमेशा सुलभ रहते हैं और इस प्रकार उनके मुवक्किलों की प्रतिष्ठा को स्थायी तौर पर नुकसान पहुंचा सकते हैं। लगभग उसी दौरान, कश्मीर टाइम्स के पास उन लेखकों के सवाल आने लगे जिन्होंने अतीत में अखबार के लिए इन स्टोरीज को किया था, लेकिन इंटरनेट सर्च के दौरान उन्हें इनका कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था।

दोनों ही दृष्टान्तों में, जामवाल ने पूछे गए यूआरएल की खोजबीन की कोशिश की। नतीजा सिफर निकला। शंकाकुल, जामवाल ने 2011 से 2016 के बीच की प्रलयकारी घटनाओं का मिलान किया और पता लगाने की कोशिश की कि क्या उनपर की गई स्टोरीज को कश्मीर टाइम्स में छापा गया था या नहीं। एक बार फिर, सब कुछ खाली था। यह नामुमकिन था कि कश्मीर टाइम्स ने उन लोमहर्षक घटनाओं पर अपनी कहानियां न पकाशित की हों।

कश्मीर टाइम्स की वेबसाइट को कैलिफोर्निया स्थित एक कंपनी के स्वामित्व के वाले सर्वर के द्वारा होस्ट किया जाता है। लेकिन अखबार के पास कंपनी से बैकअप हासिल करने की कोई व्यवस्था नहीं है। न ही इसके द्वारा अपने डेटा को क्लाउड पर संग्रहित किया जाता है, जो कि अनिवार्य रूप से एक दूरस्थ स्थान पर परस्पर सम्बद्ध विभिन्न सर्वरों की एक प्रणाली है। कश्मीर टाइम्स की टीम अपने लेखों का बैक-अप लेती है और इनके संग्रहण का काम दो कंप्यूटरों पर होता है, जिसमें से एक जम्मू कार्यालय में और दूसरा श्रीनगर शाखा में है। लेकिन 19 अक्टूबर, 2019 को इसे सील किये जाने के बाद से श्रीनगर कार्यालय जामवाल और भसीन की पहुंच से बाहर हो चुका है।

जामवाल ने बताया, “हमारे पास डेटा जम्मू में मशीन में पड़ा हुआ है। लेकिन इसे तिथि के हिसाब से अलग नहीं किया गया है, क्योंकि लंबे समय तक इंटरनेट बंद रहने की वजह से हम दैनिक आधार पर वेबसाइट पर सामग्री को अपलोड नहीं कर पाते थे।” क्लाउड स्टोरेज सुविधा का चयन न करने या कैलिफोर्निया स्थित कंपनी को अपने सर्वर पर बैक-अप लेने के लिए न कहने के लिए उन्हें दोष दिया जा सकता है। लेकिन जामवाल का कहना है, “हर चीज के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है। हमें बड़ी आसानी से हैक किया जा सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के विपरीत हम एक मजबूत सुरक्षा प्रणाली का खर्च वहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं।”

वैसे भी, 2008 से कश्मीर टाइम्स को सरकारी विज्ञापन से वंचित कर दिया गया था। इसे आयकर विभाग, श्रम विभाग, भविष्य निधि संगठन और कर्मचारी राज्य बीमा निगम से इसे कई दफा नोटिस आ चुके हैं। इनमें से प्रत्येक नोटिस में उन्हें अदालत में पेश होने और पैसे खर्च करने पड़ते हैं। भसीन ने कहा, “प्रबोध को इतना ज्यादा समय अदालतों में बिताना पड़ता कि मैं उन्हें चिढ़ाया करती कि वह अब पत्रकार नहीं बल्कि एक वकील बन गये हैं।”

यह देखते हुए कि कश्मीर टाइम्स के पास 1991 के बाद से अपने सभी दैनिक संस्करणों की हार्ड कॉपी है, जो इसके ईंट-गारे से बने अभिलेखागार में संगृहीत हैं, किसी के लिए भी अपने डिजिटल आर्काइव में से कुछ हिस्से को गायब कर देने का कोई मतलब नहीं बनता है। लेकिन डिजिटल आर्काइव का फायदा यह है कि इसे दुनिया के किसी भी हिस्से से इसे हासिल किया जा सकता है। यह इंसानों की तुलना में फौरन और कहीं अधिक सटीक तरीके से खोजबीन करने में सहायक है।

डिजिटल आर्काइव विशेष तौर पर अधिकार समूहों के लिए बेहद उपयोगी होते हैं, विशेषकर जो विदेशों में हैं, यह उनकी रिपोर्टों से जाहिर होता है जिसमें मीडिया स्टोरीज के लिए यूआरएल की भरमार होती है। जिस किसी ने भी पुस्तकालयों में अख़बारों की नत्थी की हुई प्रतियों को देखा है, वे इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि ऐसी खबरों को खोजने में कितना समय और उर्जा खर्च होती है। यहां तक कि दिल्ली स्थित किसी नागरिक अधिकार समूह के लिए भी कश्मीर में रहकर साक्ष्य सामग्री को इकट्ठा करने के लिए खर्च कितना भारी पड़ सकता है। डिजिटल आर्काइव से चुनिंदा लेखों को निकाल बाहर करना, वास्तव में, उन लोगों के सामने बाधाएं खड़ी करता है जो राज्य के आख्यान को चुनौती देने की इच्छा रखते हैं।

वेबैक मशीन नामक चमत्कार

मैंने यह पता लगाने के लिए वेबैक मशीन की पड़ताल की कि क्या मैं कश्मीर टाइम्स के लिए डेटा फिर से प्राप्त कर सकता हूं या नहीं। मैं 2016 से इसके सात यूआरएल निकाल पाने में सफल रहा। मैंने इन यूआरएल को जामवाल को सुपुर्द कर दिया। उन्होंने भी वेबैक मशीन का सहारा लिया और कश्मीर टाइम्स की वेबसाइट के 2011-2016 की अवधि के 50 से अधिक यूआरल को वापस हासिल कर लिया। मुझे हिलाल मीर की 2016 से चार लेखों को भी फिर से हासिल कर पाने में सक्षम रहा। वे उन्हें यहां पढ़ सकते हैं।

1996 से स्थापित और 2001 से आम लोगों के लिए उपलब्ध वेबैक मशीन एक क्रॉलर को जारी करती है, जो कि एक सॉफ्टवेयर प्रोग्राम है जो वर्ल्डवाइड वेब पर चलता है। यह क्रॉलर विभिन्न वेबसाइटों पर जाता है, वो चाहे प्रसिद्ध हों या अल्पज्ञात हों, और उनके डेटा को कैप्चर कर लेता है। किसी खास दिन पर एक विशेष समय पर डेटा को कैप्चर करने को स्नैपशॉट कहा जाता है, जो उपयोगकर्ताओं को वेबैक मशीन पर कॉपी और जमा की गई यूआरएल प्रतियों को हासिल करने में सक्षम बनाता है।

जब आप किसी वेबसाइट के यूआरएल को वेबैक मशीन के सर्च फील्ड में डालते हैं, तो आपको यह कुछ निश्चित वर्षों के कैलेंडर पर ले जाता है। प्रत्येक कैलेंडर में निश्चित तिथियों पर रंगीन बिंदु होते हैं। नीले बिंदु वाले प्रतीक चिन्ह को दबाएं- तो आप उस दिन के वेबसाइट को देख सकते हैं। उस तिथि की सभी स्टोरी के लिए नए यूआरएल मिलेंगे, जो कि उस वेबसाइट के द्वारा बनाये गए लिंक से भिन्न होंगे जहां इन्हें मूलतः प्रकशित किया गया था। वेबैक मशीन द्वारा उत्पन्न किये गए यूआरएल तक पहुंच बनाई जा सकती है, उसे पढ़ा और संरक्षित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मैंने हिलाल मीर के लेखों को हासिल कर लिया था, जो कश्मीर रीडर वेबसाइट के डिजिटल आर्काइव से गायब थीं, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे नए यूआरएल के साथ वेबैक मशीन पर मौजूद थीं।

अपने काम को नष्ट कर खुश होने वाले, समझौता कर चुके संपादकों और मालिकों से बचाने के लिए यह एक लाजवाब सिस्टम है। वास्तव में, कोई भी व्यक्ति अपनी स्टोरी को वेबैक मशीन पर आर्काइव कर सकता है।

लेकिन यहां पर एक समस्या है।

कोई वेबसाइट, जिसके पास उसके द्वारा प्रकाशित सभी सामग्री का सर्वाधिकार है, वह चाहे तो वेबैक मशीन के आर्काइव से अपने यूआरएल को हटाए जाने के लिए कह सकती है। क्या इससे वेबैक मशीन के आर्काइव का मूल उद्देश्य ही खत्म नहीं हो जाता है, जब आप इसमें लॉग इन करते हैं, तो यह आपका इस संदेश के साथ स्वागत करता है: “वे इतिहास को बदलने की कोशिश में हैं – उन्हें ऐसा न करने दें। द वेबैक मशीन दुष्प्रचार से लड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है... अभी हम, इतिहास को संरक्षित कर रहे हैं जैसे जैसे यह खुद को उजागर कर रहा है...।”

मैंने उपरोक्त प्रश्न के लिए इंटरनेट आर्काइव में वेबैक मशीन के निदेशक मार्क ग्राहम को ईमेल किया, जो एक डिजिटल लाइब्रेरी है जो सभी को मुफ्त में पहुंच प्रदान करता है। ग्राहम का जवाब था, “हम एक जटिल दुनिया में रह रहे हैं जहां पर बारीकियों, संतुलन और कभी-कभार विरोधाभासी मूल्यों, कानून और व्यवहार की भूमिका होती है। [जबकि] हम जितना संभव हो सकता है उसे आर्काइव करने, संरक्षित करने और इसे उपलब्ध कराने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, और साथ ही हम इस बात को भी मान्यता देते हैं कि वेबैक मशीन अन्य लोगों के काम का एक संग्रह है। वे उस काम के मालिक हैं, हम नहीं।”

मार्क ग्राहम की पेशकश

लेकिन याद रखें, चूंकि सरकार के पास मीडिया संस्थानों के द्वारा प्रकाशित सामग्री का कोई सर्वाधिकार नहीं होता, ऐसे में वे वेबैक मशीन को इसे हटाने की सिफारिश नहीं कर सकती हैं। इसका अर्थ यह है कि न सिर्फ कश्मीर टाइम्स जैसी संस्थाओं द्वारा ही अपने अखबार के हर संस्करण को वेबैक मशीन पर सहेजा जा सकता है और इसे प्रायोजित हैकर्स से बचाकर रखा जा सकता है- भले ही सत्ता को खुश रखने के इच्छुक संपादकों के द्वारा भी डबल गेम खेला जा सकता है। इसलिए अपने डिजिटल आर्काइव से यूआरएल को डिलीट करने से पहले वे इसे वेबैक मशीन पर अपलोड कर सकते हैं ताकि भावी पीढ़ी के लिए इसे गुप्त रूप से सहेज कर रखा जा सके।

ग्राहम ने मुझे लिखा, “मुझे उनकी [न्यूज़ वेबसाइट] की मदद करना अच्छा लगेगा। इसके लिए किसी शुल्क की जरूरत नहीं है।” वेबैक मशीन उपयोगकर्ताओं से सिर्फ चंदे की मांग करता है। ग्राहम ने तो यह तक पेशकश कर दी कि, “कृपया मुझे न्यूज़ वेबसाइट की सूची दे दीजिये, मैं इस बात को सुनिश्चित करूंगा कि हम प्रतिदिन उनकी खबरों को आर्काइव कर सकें।” याद रखें, वे बैक मशीन का क्रॉलर रोज-रोज हर न्यूज़ वेबसाइट पर नहीं जाता है।

द वेबैक मशीन फ्रीलांस या स्वतंत्र पत्रकारों के लिए एक सच्चा उपहार है, जो भारत में अपने लेखों के कॉपीराइट के मालिक तब तक हैं जब तक कि उन्होंने इसे प्रकाशित करने वाले मीडिया संस्थानों के पक्ष में बेच नहीं दिया हो। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई भी वेबसाइट वैधानिक रूप से वेबैक मशीन से संपर्क नहीं कर सकती है, जिससे कि वह पत्रकारों के यूआरएल को हटा सके, जिन्होंने अपने काम के अधिकारों को अपने पास बरकरार रखा है।

इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक एवं वकील अपार गुप्ता ने मुझसे कहा कि स्वतंत्र पत्रकारों को विभिन्न मीडिया संस्थानों के साथ अपने अनुबंधों में एक धारा को जोड़ना चाहिए कि वे अपने काम के लिए अपने “नैतिक अधिकार” का दावा अपने पास रखते हैं। गुप्ता ने मुझसे कहा, “या उनके पास कहने के लिए एक पंक्ति यह हो सकती है कि वेबसाइट किसी तीसरे पक्ष – उदाहरण के लिए, द वेबैक मशीन से - संग्रहण के उद्देश्य से रखे गए यूआरएल को हटाने के लिए नहीं कह सकती है।”

लेकिन इस मुद्दे को द वेबेक मशीन के द्वारा अभी भी हल करना शेष है क्योंकि, जैसा कि ग्राहम ने कहा था, इसके द्वारा “अभी तक भारत में किसी भी न्यूज़ साइट से हटाने जाने के अनुरोध को संसाधित नहीं किया गया है।” समाचार पत्रों के आर्काइव के गायब होने के इन शुरुआती दिनों में, पत्रकारों के लिए अपने अधिकारों का दावा करना और अपने काम को स्थायी रूप से मिटाए जाने से बचाना बेहद अहम है।

स्मृति का महत्व

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जो कुछ दांव पर लगा है वह राष्ट्र की स्मृति का प्रश्न है, जिसकी वर्तमान की वैचारिक लड़ाई में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सत्य को जानने और ग्रहण करने के बारे में भी महत्वपूर्ण है। जैसा कि भसीन ने कहा था, “गायब हो चुके आर्काइव्स की कहानी हमें बताती है कि वे न सिर्फ वर्तमान के बारे में बल्कि अतीत को लेकर भी असहज हैं। समाचार पत्रों के आर्काइव्स हमारे अतीत की यादें हैं। वे हमारी स्मृतियों को मिटा देना चाहते हैं।”

कश्मीर की स्मृति को धो-पोंछकर मिटा देने का अर्थ होगा वहां पर अंतहीन अनंत विक्षोभ के कारणों को मिटा देना, इसे भड़काने में अपनी भूमिका निभाने वाले उन लोगों के नामों को मिटा देना, और जिन्होंने अपने लोगों को पीड़ा पहुंचाई थी। यह मानवाधिकारों के हनन के पंजीकरण और सुरक्षा प्रतिष्ठानों के अतिरेक के उदाहरणों को मिटा देगा, जिसने न सिर्फ कश्मीरी मुसलमानों और हिंदुओं को समान रूप से घाव पहुंचाए हैं, बल्कि वहां पर तैनात सैनिकों को भी जख्म दिए हैं। यह हमें मौजूदा स्थिति की अतीत से तुलना करने के पैमाने से भी वंचित कर देगा। भविष्य में संभव है कि यहां तक दावा किया जा सकता है कि न तो भारत और न ही कश्मीर में कभी खून बहा था।

सर्वप्रमुख, यह राजनितिक खिलाडियों, विशेषकर भारतीय जनता पार्टी को एक मिथक बनाने में मदद कर सकता है। भसीन चेतावनी देते हुए कहती हैं, “कश्मीर भाजपा की प्रायोगिक प्रयोगशाला है, और हालांकि कश्मीर में जो हो रहा है उसकी तुलना में भारत के अन्य हिस्सों में उसका मात्र 10 प्रतिशत ही देखने को मिल रहा है, लेकिन यह वजह भी सभी के लिए चिंता करने के लिए पर्याप्त है।” भसीन की मीडिया पर मोदी सरकार की गिरफ्त को कड़ा करने की पृष्ठभूमि में सच जान पड़ती है।

कश्मीर हमारे लिए एक शिक्षाप्रद सबक के तौर पर क्षेत्रीय यादों को मिटा दिए जाने या उसमें हेरफेर करने का उदाहरण बन सकता है। ऐसा कहा जा सकता है कि हमारे छोटे से इतिहास को नष्ट किया जा सकता है। इसके स्थान पर एक अनोखे इतिहास, अपूर्ण इतिहास का उदय हो सकता है। विविध स्मृतियों को वापस हासिल करने के लक्ष्य में अतीत में लेखकों के द्वारा ईंट-गारे के अभिलेखागार में अकेले घंटों बिताते हुए क्षेत्रीय प्रकाशनों को उलटते हुए देखा गया है, जिनमें शैली और आवेग की कमी हो सकती है, लेकिन कभी भी सार में नहीं रही होगी। क्षेत्रीय समाचार पत्रों के आर्काइव को मिटाने का अर्थ है बेहद जरुरी भारतीय व्यक्तित्व को मिटा देना, जो विरोधाभासी यहां तक कि परस्पर-विरोधी लक्षणों को लिए हुए हो, जिसमें से प्रत्येक पुष्प-पल्लवित होने के लिए संघर्ष कर रहा है।

उपन्यासकार मिलान कुंद्रा ने लिखा है, “सत्ता के लिए संघर्ष असल में भुला दिया जाने के खिलाफ स्मृति का संघर्ष है।” चूंकि सर्वशक्तिमान अपनी उंगलियों को चुपके से आर्काइव में घुसाकर यूआरएल का शिकार कर उसे हमेशा के लिए समाप्त करना चाहता है, उसी प्रकार से वेबैक मशीन या इसका कोई विकल्प भी भुला दिए जाने के खिलाफ स्मृति के संघर्ष में हमारा हथियार साबित हो सकता है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License