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राजनीति
लचर पुलिस व्यवस्था और जजों की कमी के बीच कितना कारगर है 'महाराष्ट्र का शक्ति बिल’?
न्याय बहुत देर से हो तो भी न्याय नहीं रहता लेकिन तुरत-फुरत, जल्दबाज़ी में कर दिया जाए तो भी कई सवाल खड़े होते हैं। और सबसे ज़रूरी सवाल यह कि क्या फांसी जैसी सज़ा से वाक़ई पीड़त महिलाओं को इंसाफ़ मिल पाएगा और भविष्य में अपराध रुकेंगे?
सोनिया यादव
24 Dec 2021
Uddhav Thackeray

20 मार्च 2020 को जब निर्भया के सभी चार दोषियों को एक साथ फांसी के फंदे पर लटका दिया गया, तब कई लोगों के मन में सवाल था कि क्या ये सज़ा महिलाओं खिलाफ अपराधों पर रोक लगा पाएगी? अब इसी कदम को आगे बढ़ाते हुए महाराष्ट्र सरकार शक्ति आपराधिक कानून (महाराष्ट्र संशोधन) बिल लेकर आई है। ये बिल गरुवार, 23 दिसंबर को महाराष्ट्र विधानसभा में पास हो गया। अब ये बिल महाराष्ट्र की विधान परिषद में पेश किया जाएगा। दोनों सदनों में बिल पास होने के बाद, इसे राज्यपाल के पास भेजा जाएगा। जिसके बाद ये बिल कानून की शक्ल ले लेगा।

बता दें कि इस बिल में रेप के गंभीर मामलों में फांसी की सज़ा के अलावा महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए कड़ी सज़ा और भारी जुर्माने का प्रावधान है। इसके साथ ही ये बिल मामलों के फास्ट ट्रैक निपटारे की भी बात करता है। बिल के बाकि प्रावधानों पर तो निश्चित ही कोई विवाद नहीं है, ये एक अक अच्छा, स्वागत योग्य कदम है, लेकिन फांसी जैसे मामले में जरूर कहा जा सकता है कि आनेे वाले दिनों में इस पर बहस तेज़ हो सकती है।

क्या है पूरा मामला?

महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए आंध प्रदेश के दिशा कानून की तर्ज पर महाराष्ट्र में संशोधित शक्ति फौजदारी कानून विधेयक विधानसभा में पेश किया गया था। महा विकास आघाडी सरकार द्वारा विधानसभा में पेश शक्ति कानून विधेयक बलात्कार, एसिड अटैक और सोशल मीडिया पर महिलाओं और बच्चों के खिलाफ आपत्तिजनक सामग्री डालने जैसे अपराधों के लिए मृत्यु दंड एवं 10 लाख रुपये तक के जुर्माने समेत कठोर सजाओं की वकालत करता है।

शक्ति बिल में नए प्रावधान क्या हैं?

बलात्कार, सामूहिक बलात्कार के गंभीर मामलों में या नाबालिगों के साथ गंभीर यौन हमलों के मामलों में सज़ा-ए-मौत।

दोषी पाए जाने वालों पर 10 लाख रुपये तक का भारी जुर्माना लगाने का प्रस्ताव है। मौजूदा कानून में जुर्माने का प्रावधान था, लेकिन अधिकांश धाराओं में ये साफ नहीं था कि कितने का जुर्माना लगाया जाएगा।

एसिड अटैक के मामलों में, पीड़ित की प्लास्टिक सर्जरी और इलाज के लिए 10 लाख रुपये तक का जुर्माना देना होगा।

ऐसे मामलों में FIR दर्ज होने के बाद 15 दिनों के भीतर जांच पूरी करने का निर्देश है, जिसे केवल सात दिनों के लिए बढ़ाया जा सकता है। अगर इस समय में जांच पूरी नहीं हुई तो जांच अधिकारी पर कार्रवाई होगी।

किसी आरोपी के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाखिल होने के 30 दिनों के अंदर ट्रायल पूरा करना होगा।

उच्च न्यायालय में दायर एक अपील को 45 दिनों के भीतर निपटाना होगा। इसके लिए विशेष अदालतें स्थापित की जा सकती हैं।

किसी को केवल अपमानित करने, जबरन वसूली, धमकी देने, बदनाम करने या परेशान करने के इरादे से झूठी शिकायत करना या झूठी जानकारी देना दंडनीय अपराध होगा। इसमें एक साल तक की जेल या जुर्माना, या दोनों भुगतने पड़ सकते हैं।

महिलाओं से जुड़े ऑनलाइन अपराध

शक्ति विधेयक में किसी भी माध्यम से महिलाओं के उत्पीड़न से निपटने के लिए सीआरपीसी में एक नई धारा जोड़ने का प्रस्ताव है। संशोधन के अनुसार टेलीफोन, ईमेल, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल मोड से कोई भी “ऑफ़ेंसिव मैसेज” अधिनियम के तहत दंडनीय होगा। अगर कोई मेसेज ख़तरनाक, अलार्मिंग या कामुक प्रकृति का है, तो ऐक्ट के तहत दंडनीय है। ऐसे अपराधों के लिए अधिकतम 5 साल की जेल और 5 लाख रुपये का जुर्माना देना होगा।

नए संशोधन के मुताबिक किसी भी महिला को धमकी देकर रोमांटिक जवाब देने के लिए मजबूर करने पर भी सज़ा है। पहली बार दोषी पाए जाने पर एक लाख रुपये के जुर्माने के साथ तीन साल तक की क़ैद और बाद के मामलों में पांच लाख रुपये के जुर्माने के साथ पांच साल तक की कैद हो सकती है।

शक्ति विधेयक आईपीसी और सीआरपीसी के मौजूदा मामलों के मुकाबले तो सख्त कानून की मांग करता है। लेकिन जब बात ऑनलाइन अपराधों की आती है तो हम पाते हैं कि शक्ति बिल में प्रस्तावित सज़ा की तुलना में मौजूदा आईटी एक्ट ज्यादा सख्त है।

आईटी एक्ट की धारा 67-ए और 67-बी के तहत यौन सामग्री (बच्चों को शामिल करने वाले सहित) को इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रसारित करने की सज़ा पांच से सात साल तक की जेल है। जबकि शक्ति विधेयक में इसे घटाकर एक से दो साल कर दिया गया है।

सख़्त क़ानून के बावजूद नहीं रुक रहे अपराध

गौरतलब है कि दिसंबर, 2012 में निर्भया कांड के बाद देश में रेप के खिलाफ बने कानूनों को और मजबूत बनाने की मांग तेज़ हुई। साल 2013 में क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट पास हुआ। इसमें रेप के ऐसे मामलों में रेपिस्ट को फांसी की सज़ा देने का प्रावधान है जिसमें पीड़ित के साथ हुई बर्बरता के चलते उसकी मौत हो गई हो या फिर बर्बरता की वजह से विक्टिम का शरीर विक्षिप्त हो गया हो।

इसके बाद साल 2018 में क्रिमिनल लॉ में एक बार फिर संशोधन किया गया। जिसके बाद कानून में 12 या उससे कम उम्र की किसी भी बच्ची के साथ रेप या गैंगरेप करने पर आरोपी या आरोपियों को फांसी की सज़ा देने का प्रावधान जुड़ा। मालूम हो कि राज्य सरकारें केंद्र के इतर भी कानून बना सकती हैं, जो उस राज्य विशेष में हुई घटनाओं पर ही लागू होगा। महाराष्ट्र से पहले दिसंबर, 2019 में आंध्र प्रदेश में दिशा ऐक्ट पारित हुआ था। ये कानून एक मेडिकल स्टूडेंट को रेप के बाद जलाकर मार देने की घटना के बाद बना था। हालांकि इस पर भी कई सवाल उठे थे।

जाहिर है निर्भया से लेकर दिशा तक के इंसाफ से पूरे देश की आंखें नम थीं, लेकिन सच्चाई ये भी है कि ये सज़ा किसी गुनाह का अंत नहीं है। कई प्रगतिशील संगठन और समाजिक कार्यकर्ता अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्यवाई का मांग तो करते हैं लेकिन फांसी की सजा को अपराधों की रोकथाम में सार्थक नहीं मानते। कई लोगों का ये मानना है कि सख़्त सज़ा से अपराधियों के मन में डर बैठेगा और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध पर रोक लगेगी।

इसे भी पढ़ें: निर्भया के दोषियों को फांसी, क्या अब अपराधों पर लगेगी रोक?

फांसी का डर महिलाओं को सुरक्षित करने की बजाय ख़तरे में डाल सकता है

तो वहीं, ऐसा मानने वाले भी लोग हैं कि फांसी का डर महिलाओं को सुरक्षित करने की बजाय ख़तरे में डाल देगा। अपराधी पकड़े जाने के डर से उन्हें जान से मारने की कोशिश करेंगे। हाल-फिलहाल के कई मामलों में ऐसा देखा भी गया है। ऐसे सभी लोगों का मानना है कि ज़रूरत ऐसे मामलों में तत्काल सुनवाई और जल्द से जल्द सज़ा सुनाए जाने की है, क्योंकि हमारे देश में दोषसिद्धि की दर (Conviction rate) बेहद कम है। निर्भया मामले के बाद सरकार ने जस्टिस वर्मा कमेटी बनाई जिसने कानून में कई सुधार किए और पॉक्सो एक्ट भी अस्तित्व में आया लेकिन तमाम दावों और वादों के बाद भी फास्ट ट्रैक अदालत और जल्द-जल्द से सज़ा सुनाए जाने की दर में कोई बदलाव नहीं आया।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल पूरे देश में 2020 में बलात्कार के हर दिन औसतन करीब 77 मामले दर्ज किए गए और कुल संख्या 28 हजार 46 रही। इनमें से 295 मामलों में पीड़िताओं की उम्र 18 साल से कम थी। यानी हर 18 मिनट में एक लड़की यौन हिंसा और बलात्कार का शिकार होती है। जानकारों और खुद महिला आयोग के अनुसार ये संख्या असल मामलों से कहीं दूर है क्योंकि कोरोना और लॉकडाउन के चलते पुलिस और सहायता दोनों महिलाओं से दूर हो गई थी।

वहीं अगर बलात्कार मामलों में सज़ा के दर की बात करें, तो एनसीआरबी रिपोर्ट 2018 के मुताबिक दुष्कर्म के दोषियों को सजा देने की दर देश में मात्र 27.2% है। 2017 में दोषियों को सजा देने की दर कुछ ज्यादा 32.2 फीसदी थी। हालांकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बीते 17 सालों की तुलना में बलात्कार के मामले दोगुने हो गए हैं। 2001‐2017 के बीच पूरे देश में कुल 4,15786 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए हैं। इस लिहाज से देखें तो इन मामलों में सज़ा दर बेहद कम है।

इसे भी पढ़ें: निर्भया कांड के नौ साल : कितनी बदली देश में महिला सुरक्षा की तस्वीर?

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