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भारत
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सुप्रीम कोर्ट का रोहिंग्या मुसलमानों को वापस भेजने का फ़ैसला कितना मानवीय?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हम यह निश्चित तौर पर कहते हैं कि पृथ्वी पर कहीं भी नरसंहार नहीं होना चाहिए। लेकिन दूसरे देशों में जो हो रहा है, हम इसकी निंदा नहीं कर सकते हैं।”
अजय कुमार
10 Apr 2021
सुप्रीम कोर्ट का रोहिंग्या मुसलमानों को वापस भेजने का फ़ैसला कितना मानवीय?
Image courtesy : New Indian Express

"म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार को लेकर पिछले साल 23 जनवरी को अंतरराष्ट्रीय अदालत ने अपना फैसला दिया। इसमें कहा था कि म्यांमार में सेना ने निर्दोष लोगों की हत्याएं की हैं। इससे करीब 7.44 लाख रोहिंग्या बेघर होकर पड़ोसी देशों में भागने को मजबूर हुए। रोहिंग्या मुसलमानों की जान को म्यांमार में खतरा है, इसलिए इन्हें डिपोर्ट नहीं किया जाना चाहिए। ये मानव अधिकारों का उल्लंघन है।" यह वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के वकालत के शब्द हैं।

सुप्रीम कोर्ट में जम्मू के डिटेंशन सेंटर में रखे गए 170 रोहिंग्या मुसलमानों को फिर से म्यांमार भेजने से रोकने के खिलाफ दायर की गई याचिका पर सुनवाई चल रही थी। उसी दौरान डिटेंशन सेंटर में शरण लिए रोहिंग्या मुसलमानों की सुरक्षा का पक्ष लेते हुए प्रशांत भूषण ने यह बात कही।

सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को नहीं माना। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली 3 सदस्यों की बेंच ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि इस मामले में राहत देना मुमकिन नहीं है। निर्धारित प्रक्रियाओं के पूरे होने के बाद कैंप में रह रहे शरणार्थियों को फिर से अपने मूल देश यानी म्यांमार भेज दिया जाएगा। भारत दुनिया के सभी अवैध प्रवासियों के लिए राजधानी नहीं हो सकता है। संभवत यह डर है कि जब वह अपने मुल्क वापस लौटेंगे तो उन्हें मार दिया जाए। लेकिन हम उन सभी को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। हम यह निश्चित तौर पर कहते हैं कि पृथ्वी पर कहीं भी नरसंहार नहीं होना चाहिए। लेकिन दूसरे देशों में जो हो रहा है, हम उसकी निंदा नहीं कर सकते हैं। भारत शरणार्थियों से जुड़े अंतरराष्ट्रीय रिफ्यूजी कन्वेंशन का हिस्सा नहीं है। हम अंतरराष्ट्रीय कानूनों से वहीं तक प्रेरणा लेते हैं जहां तक वे कानून हमारे कानूनों के खिलाफ नहीं जाते। हम यह भी मानते हैं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन की स्वतंत्रता का अधिकार केवल भारत के नागरिकों को ही नहीं बल्कि भारत की सीमा क्षेत्र में रहने वाले हर एक व्यक्ति को मिला है। लेकिन किसी को अपने देश वापस डिपोर्ट यानी भेजा जाए या नहीं का मसला भारत में रहने और निवास करने से जुड़ता है। भारत सरकार की तरफ से यह गंभीर आरोप लगाया गया है कि अवैध प्रवासी भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। इसलिए भले अनुच्छेद 19 के तहत भारत में कहीं भी रहने और बसने का अधिकार मिलता हो लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 19 पर प्रतिबंध भी लगते हैं। इस लिहाज से इन्हें फिर से अपनी मूल देश म्यानमार वापस जाना ही होगा।

कानूनी मामलों के जानकारों का कहना है कि यह फैसला अमानवीय तो है ही लेकिन इसके साथ कानून की तार्किकता के मूलभूत सिद्धांत के खिलाफ भी जाता है।

इस पूरे मसले को कोई इस तरह भी कह सकता है कि अपनी जान बचाने के लिए वह किसी गांव में शरण की गुहार लगाए और गांव की पंचायत मिलकर बड़ी निष्ठुरता से यह फैसला करे कि हम जानते हैं कि आपकी जान को खतरा है, लेकिन हम गांव में आपको शरण नहीं दे सकते हैं। आपको वहीं जाना होगा जहां आपकी जान का खतरा है। उपयुक्त अधिकारियों की कागजी कार्रवाई पूरी होने के बाद आपको उस जगह पर मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा। इससे हमारा कोई लेना देना नहीं। आप कह सकते हैं कि यह एक ही देश के दो गांवों का मामला नहीं, बल्कि दो देशों का मामला है। यही वह पेच है जिसे अलग-अलग स्तर पर मानवतावादी और सुप्रीम कोर्ट देख समझ रहे हैं। 

रोहिंग्या मुसलमान दुनिया में सबसे अधिक सताया जा रहा मुस्लिम समूह है। यह राज्यविहीन है। इसके पास किसी राज्य की नागरिकता नहीं है। न ही मूलभूत सुविधाएं हैं और न ही इतनी क्षमता है कि वह अपने बुनियादी अधिकारों को फिर से हासिल कर सके। साल 2017 में म्यांमार के सैनिकों ने इन पर क्रूर तरीके से हमला किया। खुद को बचाने के लिए यह लोग पैदल और समुद्र के रास्ते अपना देश छोड़कर दूसरे देश में भाग गए। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग के कमिश्नर ने इस भयावह जुल्म को नृजातीय संहार का नाम दिया। साल 2017 में भारत सरकार की तरफ से भारत में घुसने वाले रोहिंग्या मुसलमानों का रजिस्ट्रेशन शुरू हो गया। मौजूदा गृह राज्य मंत्री ने कहा कि वह अवैध अप्रवासी हैं और उन्हें यहां रहने का कोई अधिकार नहीं है।

कानूनी मामलों के जानकार सुरहित पार्थसारथी अपने ब्लॉग में लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर कि भारत रिफ्यूजी कन्वेंशन का सदस्य नहीं है, रोहिंग्या मुसलमानों को लौटने का आदेश दे दिया। रिफ्यूजी कन्वेंशन के मुताबिक यह प्रावधान है कि किसी ऐसे देश से आए शरणार्थियों को फिर से उस देश में नहीं भेजा जाएगा जहां पर शरणार्थियों को किसी भी आधार पर जान का खतरा हो। 

लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि भारत इस अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन का सदस्य नहीं है इसलिए वह ऐसा कर सकता है। सुरहित पर्थसारथी का कहना है कि यह बात बिल्कुल सही है कि भारत रिफ्यूजी कन्वेंशन का सदस्य नहीं है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कई प्रथाएं, नियम और कानून हैं जिन पर भारत की सहमति है और जिनके मुताबिक रोहिंग्या मुसलमानों को फिर से म्यांमार भेजना सही नहीं है।

सबसे बड़ी बात यह कि भारत के घरेलू कानून में ऐसा कोई कानून नहीं है जो रिफ्यूजी कन्वेंशन के खिलाफ जाता है, बल्कि असलियत तो यह है कि रिफ्यूजी कन्वेंशन का विचार भी भारत के कानूनों का सिद्धांत है। इस लिहाज से यह उचित नहीं लगता कि शरण मांगने वाले लोगों को फिर से वही भेज दिया जाए जहां उन्हें जान का खतरा है।

कानूनी मामलों की जानकार गौतम भाटिया अपने ब्लॉग पर लिखते हैं  कि सुप्रीम कोर्ट की यह बात समझ से परे है कि वह दूसरे देशों में हो रहे नरसंहार पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकती। जबकि हकीकत यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले दूसरे देशों के कई मामलों पर अपनी राय दी है। इस याचिका के मूलभूत मुद्दे से खुद को अलग रखना संविधान द्वारा न्यायालय को मिले कर्तव्य की भूमिका निभाने से खुद को अलग करने जैसा है। याचिकाकर्ता म्यांमार भेजने से रोकने की याचिका नहीं कर रहा बल्कि उस देश में भेजने से रोकने की याचना कर रहा है जहां पर उसे अपनी जान का खतरा है। इस तरह से रोहिंग्या मुसलमानों को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन की स्वतंत्रता का अधिकार के तहत सुरक्षा मिलनी चाहिए।

कोर्ट का कहना है कि सरकार का गंभीर आरोप है कि इन शरणार्थियों से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा है। लेकिन  कोर्ट का काम आरोपों को वैसे ही स्वीकार कर लेना नहीं होता बल्कि उन्हें परखना होता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे के आधार क्या हैं? इसका साक्ष्य क्या है? किन प्रमाणों के आधार पर इनसे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा है? इन सारे सवालों का कोई जवाब कोर्ट से नहीं मिलता। इसलिए यह फैसला कानून की तार्किकता के आधार पर भी उचित नहीं लगता है।

इसे भी पढ़िए: रोहिंग्या शरणार्थी : डर के साये में जीने को मजबूर! 

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