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कोरोना वायरस से पहले भूख हमें मार देगी
यदि त्वरित कार्रवाई नहीं की जाती है' तो साल 2020 के अंत तक कोविड-19 के कारण दुनिया भर में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या दोगुनी हो जाएगी।
ट्राईकोंटिनेंटल : सामाजिक शोध संस्थान
29 Sep 2020
कोरोना वायरस से पहले भूख हमें मार देगी
कोरोनावायरस से पहले भूख हमें मार देगी: 39वाँ न्यूज़लेटर (2020)

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा अप्रैल 2020 में महामारी घोषित करने के एक महीने बाद संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफ़पी)  ने चेतावनी जारी की थी कि ‘यदि त्वरित कार्रवाई नहीं की जाती है' तो साल 2020 के अंत तक कोविड-19 के कारण दुनिया भर में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या दोगुनी हो जाएगी।  ग्लोबल नेटवर्क अगेंस्ट फ़ूड क्राइसिस -जिसमें विश्व खाद्य कार्यक्रम, फ़ूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइज़ेशन (एफ़एओ) और यूरोपीय यूनियन शामिल हैं- की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि महामारी के कारण खाद्य असुरक्षा साल 2017 के बाद से अब तक के सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँच जाएगी।

इनमें से कोई भी रिपोर्ट अख़बारों की सुर्ख़ियाँ नहीं बनीं। और न ही इस बात पर ही ध्यान दिया गया कि यह संकट खाद्य उत्पादन का संकट नहीं -क्योंकि दुनिया की पूरी आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन का उत्पादन तो होता ही है- बल्कि सामाजिक असमानता का संकट है। भूख की महामारी के इस संकट की ओर हर देश का ध्यान जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चीन, वियतनाम, क्यूबा और वेनेजुएला जैसे कुछ देशों को छोड़कर (एफ़एओ की मई में दी गई चेतावनी के अनुसार) अकाल जैसी परिस्थितियों को रोकने के लिए दुनिया के अधिकतर देशों ने बड़े पैमाने पर भोजन कार्यक्रम चलाने की दिशा में बहुत कम काम किया है।

महामारी के छह महीने के बाद भी, भूख का सवाल एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। सितंबर में, ग्लोबल नेटवर्क अगेंस्ट फ़ूड क्राइसिस ने इस गहराते संकट पर एक नयी रिपोर्ट जारी की है। एफ़एओ के महानिदेशक क़ू डोंग्यू ने दुनिया के कई हिस्सों में, और विशेष रूप से बुर्किना फ़ासो, दक्षिण सूडान और यमन में ‘भयावह अकाल’ पड़ने की चेतावनी दी है। अनुमान यह है कि दुनिया के हर दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति भूख से जूझ रहा है। जबकि कोई भी भूखा नहीं रहना चाहिए।

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शाइमा अल-तमीमी (यमन), काफ़ी नज़दीक, पर फिर भी बहुत दूर, 2019। 

सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमारात के (पश्चिमी देशों व हथियार निर्माताओं द्वारा समर्थित) युद्ध का सामना कर रहा यमन, अकाल और टिड्डियों के साथ-साथ अब महामारी से भी लड़ रहा है। क़ू के द्वारा दी गई चेतावनी के दो दिन बाद, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने यमन पर चल रहे युद्ध को समाप्त करने की गुहार लगाई। गुटेरेस ने कहा कि युद्ध ने ‘देश की स्वास्थ्य सुविधाएँ बरबाद कर दी हैं।’ यमन कोविड-19 के लगभग 10 लाख मामलों से निपटने में असमर्थ है। उन्होंने कहा कि युद्ध ने ‘करोड़ों यमन निवासियों का जीवन तबाह कर दिया है।’

यह समझना महत्वपूर्ण है कि 2015 में सऊदी-अमाराती युद्ध शुरू होने से पहले यमन की जनसंख्या केवल 2.8 करोड़ थी। इसका मतलब है कि इस युद्ध ने यमन की लगभग पूरी आबादी को तबाह कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र की एक नयी रिपोर्ट से पता चलता है कि कनाडा, फ़्रांस, ईरान, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका ने हथियारों की बिक्री के द्वारा इस युद्ध को बरक़रार रखा हैं। यमनी लोगों के ख़िलाफ़ जारी इस युद्ध को समाप्त करने के लिए सऊदी अरब और अमारात के साथ-साथ पश्चिम देशों के हथियार डीलरों पर दबाव बनाना इस समय की ज़रूरत है। इस युद्ध ने ही यमन में भुखमरी फैलाई है।

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तशिबंबा कांडा-मतुलु (DRC), यूरोप के शेर, 1973। 

यमन के ख़िलाफ़ चल रहे युद्ध की ही तरह लोकतांत्रिक गणराज्य कौंगो (डीआरसी) में चल रहा युद्ध भी दुनिया के लोगों की आम चेतना से बाहर है। इस युद्ध का कारण है देश में कोबाल्ट, कोल्टन, तांबा, हीरा, सोना, तेल और यूरेनियम जैसे संसाधनों की अथाह मौजूदगी। युद्ध, आर्थिक संकट और भारी बरसात के परिणामस्वरूप दिसंबर 2019 में, देश की 8.4 करोड़ की कुल आबादी में से 2.18 करोड़ लोग भयावह भुखमरी की चपेट में थे; कोविड​​-19 के उद्भव के बाद इस संख्या में बढ़ौतरी हुई हैं। कौंगो देश के सामाजिक संकेतक दयनीय हैं: 72% आबादी राष्ट्रीय ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है, और 95% आबादी बिजली के बिना। लेकिन कौंगो के संसाधनों का अनुमानित धन 24 ट्रिलियन डॉलर है। इस धन का शायद ही कोई हिस्सा कौंगो की जनता पर ख़र्च होता है।

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लुमुम्बा। 

30 जून 1960 को प्रधानमंत्री पैट्रिस लुमुम्बा ने बेल्जियम से डीआरसी की स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए कहा था कि ‘कौंगो की स्वतंत्रता पूरे अफ़्रीकी महाद्वीप की मुक्ति की दिशा में एक निर्णायक क़दम है’ और नयी सरकार ‘अपने देश की सेवा करेगी’। यह देश और पूरे महाद्वीप से किया गया वादा था; लेकिन 17 जनवरी 1961 को साम्राज्यवादी ताक़तों ने लुमुम्बा की हत्या कर दी और देश को पश्चिमी बहुराष्ट्रीय निगमों को सौंप दिया गया। मरने से पहले लुमुम्बा ने एक कविता लिखी थी। उनकी उम्मीद आज भी ज़िंदा है:

दोपहर के दयाहीन सूरज की भयंकर गर्मी से

जल जाने दो तुम्हारे दुःख!

चिरस्थायी धूप में वाष्पित हो जाने दो,

इन शोकाकुल ज़मीनों पर मौत तक सताए गए 

तुम्हारे बाप दादाओं के आँसू।

हालाँकि बहुत बार इस उम्मीद में उम्मीद रख पाना मुश्किल हो जाता है; ख़ासतौर पर तब जब दुनिया में भूख से पीड़ित लोगों की आबादी बड़े पैमाने पर बढ़ रही हो।  उत्तरी नाइजीरिया में महामारी के दौरान भूख से पीड़ित लोगों की आबादी में 73% की वृद्धि देखी गई है, सोमालिया में 67% की वृद्धि हुई है, और सूडान में 64% वृद्धि के साथ देश की एक चौथाई आबादी अब पूरी तरह से भूखी है। बुर्किना फ़ासो, जिसका अर्थ है ‘ईमानदार लोगों की जगह’, में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या में 300% की वृद्धि देखी गई है। 1983 से जब बुर्किना फ़ासो में थोमस संकारा के नेतृत्व में सरकार बनी, तो सरकार ने पूरी जनता को ज़मीन की गारंटी देने के लिए भूमि का राष्ट्रीयकरण किया और भूमि की उत्पादकता बढ़ाने और मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए वृक्षारोपण और सिंचाई परियोजनाओं की शुरुआत की। 1984 में सरकार द्वारा कृषि सुधार क़ानून पारित करने के बाद, संकारा डीबाउगौ गए, जहाँ उन्होंने एक किसान रैली को संबोधित करते हुए वादा किया, ‘अपनी ज़मीनों को सुधारें और शांति से खेती करें। वह समय अब समाप्त हुआ जब लोग अपनी बैठक में बैठ कर, सट्टेबाज़ी से ज़मीन ख़रीद बेच सकते थे।’ लेकिन 1987 में संकारा की हत्या कर दी गई और ये सभी वादे उनकी मौत के साथ ख़त्म हो गए।

इन देशों में अकाल वहाँ पर संसाधनों की कमी के कारण नहीं आया। कौंगो में 8 करोड़ एकड़ कृषि योग्य भूमि है, जो कृषि-पारिस्थितिक तरीक़े से खाद्य फ़सलों की खेती की जाने पर 200 करोड़ लोगों को खिला सकती है; लेकिन, देश की कृषि योग्य भूमि के केवल 10% हिस्से पर ही खेती होती है। जबकि, देश खाद्य आयात में प्रति वर्ष 150 करोड़ डॉलर ख़र्च करता है। इस धन का उपयोग कृषि क्षेत्र में निवेश करने के लिए किया जा सकता है, जिस क्षेत्र में मुख्यत: महिलाएँ (जो खेती योग्य ज़मीन के 3% से भी कम हिस्से की मालिक हैं) कृषि पर निर्वाह करती हैं। कृषि श्रमिकों और किसानों की राजनीतिक शक्ति कम होने के कारण एक ऐसी प्रणाली विकसित होती है, जो सहकारी खेतों और पारिवारिक खेतों के बजाय मुट्ठी भर कृषि-व्यवसायियों को लाभ देती है।

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परमार (भारत), दंगा, 1965-1975। 

अब हम भारत आते हैं। नरेंद्र मोदी की दक्षिणपंथी सरकार ने राज्य सभा में तीन कृषि विधेयकों को बिना बहस किए केवल ध्वनि मत से पास करवा लिया है। किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और सेवा समझौता विधेयक, और आवश्यक वस्तुएँ (संशोधन) विधेयक: इन विधेयकों के नामों से लगता है कि ये छोटे किसानों के हित में हैं, जबकि ये कृषि के व्यवसायीकरण की नीतियाँ लागू करेंगे। ये तीनों विधेयक संपूर्ण कृषि प्रणाली को ‘व्यापारियों’ -यानी बड़ी कंपनियों- के हवाले कर देंगे, जो अब मूल्य और मात्रा की शर्तें तय करेंगे। सरकार के हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में, बड़े निगम न केवल मनमाने ढंग से काम करेंगे बल्कि पारिवारिक खेती करने वाले किसान इन बड़े निगमों के अनुसार खेती करने को मजबूर हो जाएँगे। इसका खाद्य उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और भारत का छोटे किसान और कृषि श्रमिक और ग़रीब होता जाएगा। 

एक ओर भुखमरी बढ़ रही है तो दूसरी ओर खेती करने वालों पर हमला बढ़ रहा है। यही कारण है कि भारत के किसानों और कृषि श्रमिकों का कहना है कि कोरोनावायरस से पहले भूख उन्हें मार देगी। ब्राजील के किसानों और कृषि श्रमिकों का भी यही कहना है। अपने डोजियर संख्या 27 ‘पॉप्युलर अग्रेरीयन रेफ़ॉर्म एंड द स्ट्रगल फ़ोर लैंड इन ब्राज़ील’ में हमने दिखाया है कि ब्राज़ील के किसान और कृषि मज़दूर लम्बे समय से ज़मीन के लोकतांत्रीकरण की लड़ाई लड़ रहे हैं। संकारा के बुर्किना फ़ासो की तरह, ब्राज़ील के बहादुर भूमिहीनों [सेम टेर्रास] की अपनी परियोजना है: कृषि-विषाक्त पदार्थों से संतृप्त ज़मीन पर फिर से फ़सलें उगाना, ख़ाली पड़ी ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर वहाँ कृषि-पारिस्थितिक तरीक़े से खेती करना, और ‘पूरे देश के लिए एक नये दृष्टिकोण की व्यापक माँग’ उठाना।

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