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महामारी के वक़्त विदेशी सहायता में आ रही अड़चनेः एफसीआरए में कड़े संशोधन के कारण रास्ता रुका
एनजीओ सेक्टर के लिए निगरानी कड़ी हो गई है और इंस्पेक्टर राज लौट सा आया है। जनाधिकारों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों को तो सरकार जैसे अपना शत्रु ही मानती है।  
अरुण कुमार त्रिपाठी
15 May 2021
महामारी के वक़्त विदेशी सहायता में आ रही अड़चनेः एफसीआरए में कड़े संशोधन के कारण रास्ता रुका
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: India Today

कोविड-19 के संकट ने आत्मनिर्भर भारत और हिंदू राष्ट्रवाद की कलई उतार दी है। एक ओर भारत सरकार और कारपोरेट जगत अपने बूते पर इतना सक्षम नहीं है कि वह 135 करोड़ जनता की परवाह कर सके और दूसरी ओर यूरोप और अमेरिका जैसे देशों की दानदाता संस्थाएं अगर भारत की जनता की सहायता भी करना चाहें तो सरकार की विदेशी चंदे वाली एनजीओ विरोधी नीतियां आड़े आ रही हैं।

इस तरह की शिकायतें अमेरिकन इंडिया फाउंडेशन, सेंटर फार एडवांसमेंट आफ फिलेंथ्रोपी, नेशनल फाउंडेशन आफ इंडिया, चैरिटीज एड फाउंडेशन आफ अमेरिका और सेंटर फार सोशल इम्पैक्ट एंड फिलेंथ्रापी जैसे संगठनों ने की है। कई संगठनों ने भारत में अस्पताल खोलने के लिए धन भेजा लेकिन वह यहां तक पहुंचा ही नहीं। वजह साफ है कि सितंबर 2020 के महीने में विदेशी सहायता नियमन अधिनियम 1976 में सरकार ने जो संशोधन किया उसके तहत अब विदेश से सहायता लेने के लिए हलफनामा, नोटरी के साथ ही स्टेट बैंक आफ इंडिया में खाता खोलना जरूरी हो गया है। विडंबना देखिए कि मौजूदा सरकार ने यह संशोधन उस समय किया जब कोविड-19 की पहली लहर धीमी पड़ गई थी लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में दूसरी लहर उठ रही थी और भारत में भी वैज्ञानिकों ने सरकार को भेजी रपट में कहा था कि दूसरी लहर अगले साल आ सकती है।

सरकार ने एफसीआरए कानून में यह कहते हुए संशोधन किया था कि इससे जवाबदेही और पारदर्शिता आएगी लेकिन उल्टे दिक्कत आ रही है। एनजीओ सेक्टर से जुड़े कई अनुभवी लोगों का कहना है कि सरकार चाहती है कि अब विदेशी दानदाता संस्थाओं का पैसा किसी समाज सेवी संस्था की बजाय पीएम केयर फंड को जाए। हालांकि उसकी भी कौन सी जवाबदेही और पारदर्शिता है। हाल में तो उसके द्वारा कई राज्यों में सप्लाई किए गए वेंटीलेटर और दूसरे उपकरणों में भारी गड़बड़ियां पाई गई हैं। लेकिन न तो उनकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई दिख रहा है और न ही उन्हें ठीक करने के लिए विधिवत तैयारी है। पीएम केयर फंड की देखभाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे नेता कर रहे हैं।

उधर बाहर की दानदाता संस्थाओं का कहना है कि गृहमंत्रालय न तो फोन का जवाब देता है और न ही ई मेल का। आज भारत के तमाम एनजीओ समाज की सेवा में अपना समय लगाने की बजाय सरकार की कागजी औपचारिकताओं को पूरा करने में लगे रहते हैं। वजह साफ है कि एनजीओ के बाबत आयकर अधिनियम में भी संशोधन किया गया है। एक प्रकार से एनजीओ सेक्टर के लिए निगरानी कड़ी हो गई है और इंस्पेक्टर राज लौट सा आया है। जनाधिकारों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों को तो सरकार जैसे अपना शत्रु ही मानती है। पिछले साल अमनेस्टी इंटरनेशनल के दफ्तर पर छापा डाला गया और उसे बंद करा दिया गया। यानी अमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी प्रतिष्ठित संस्था का भारत में कोई कार्यालय नहीं है।

एनडीए सरकार ने एनजीओ पर जो कड़ाई की उसके तीन प्रमुख उद्देश्य बताए जाते हैं। पहला उद्देश्य चर्च से जुड़ी उन ईसाई संस्थाओं की फंडिंग को रोकना था जो विकास का काम करने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में दान देते हैं। सरकार और दक्षिणपंथी संगठनों का आरोप था कि वे धर्मपरिवर्तन कराती हैं। ऐसे संगठन पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में काफी सक्रिय हैं। इसलिए उन जगहों से दक्षिणपंथी राजनीति का विरोध भी होता रहा है। दूसरा मकसद विदेशी चंदे को दक्षिणपंथी संगठनों की ओर मोड़ना था। एकता विद्यालय, वनवासी कल्याण परिषद जैसी संघ की संस्थाएं उन चदों को लपकने के लिए बैठी थीं और संघ चाहता है कि सहायता उन्हें मिले न कि ईसाई संगठनों को। तीसरा उद्देश्य उन संगठनों के काम को रोकना था जो चैरिटी करने के बजाय शोध, एडवोकेसी, साक्ष्य जुटाने जैसा काम करते थे। उनसे सरकार को विशेष परेशानी होती थी। क्योंकि उससे जनमत बनता था और अन्याय का विरोध भी होता था। चौथे नंबर पर उस काम को रोकना था जो कि तमाम संगठन मिलकर करते थे। इसे सांगठनिक सामूहिकता कहते हैं।

आर्गनाइजेशन कलेक्टिव के काम में सब ग्रांटिंग होती थी। एक बड़ा संगठन धन प्राप्त कर लेता था और वह जमीन पर काम करने वाले छोटे संगठनों को फंड ट्रांसफर करता था। इससे राहत का काम तेजी से होता था। अभी यह काम सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। बल्कि इस तरह का काम 90 प्रतिशत बंद है। आज अगर देश में कोरोना के कारण हाहाकार मचा है तो इसकी एक वजह सब-ग्रांटिंग का बंद होना है। उदाहरण के लिए विदेशी संस्थाओं से चंदा लेने के लिए जिस तरह की सुपरस्पेशलिटी की जरूरत होती है वैसी विशेषज्ञता छोटे संगठनों के पास नहीं होती है। जैसे कि एनएफआई 66 संगठनों को सपोर्ट करता था लेकिन आज सब ग्रांटिंग बंद होने से वे सारे संगठन ठप पड़े हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि प्रशासनिक व्यय की सीमा 50 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर दी गई है। इसलिए वेतन पर काम करने वाले लोग मिल नहीं रहे हैं। प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण जैसे काम बंद पड़े हैं।

भारत में धार्मिक काम के लिए चंदा देने का चलन तो है लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और राहत के काम के लिए मदद करने की परंपरा बहुत कम है। विशेष तौर पर अगर वह काम सामाजिक परिवर्तन की ओर जाते हों तब तो एकदम नहीं है। यही वजह है कि राम मंदिर के नाम पर चंदा देने वाले जिस तरह से फेसबुक पर अपनी रसीदें लगा रहे थे उस तरह से कोविड के मामले में बहुत कम लोग आगे आ रहे हैं। यह सही है कि सिख संगठन और कुछ लोग अपनी पहल पर मदद कर रहे हैं लेकिन यह दायरा उतना बड़ा नहीं है जितना पश्चिम में है। ब्रिटेन और अमेरिका में संस्थाएं और व्यक्तिगत तौर पर लोग शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए न सिर्फ अपने देश के लिए चंदा देते हैं बल्कि बाहर के लिए भी देते हैं। भारत का एनजीओ सेक्टर इन्हीं दानदाता संस्थाओं के बूते पर फलफूल रहा है।

इसका मतलब यह नहीं कि भारत के एनजीओ बहुत साफ सुथरे हैं और उनके काम में भ्रष्टाचार नहीं हैं। भारत में तीस लाख एनजीओ हुआ करते थे और उनमें कई सारे एनजीओ फर्जी तरीके से सिर्फ चंदा खाने के लिए काम करते हैं। इसलिए उनकी छवि खराब है। यही कारण है कि सरकार ने जब एनजीओ के विदेशी चंदे पर अंकुश लगाने के लिए कड़े संशोधन किए तो कहीं बड़ा विरोध नहीं हुआ। यानी भारत में डेवलपमेंट के नाम पर होने वाला संचार इतना कमजोर है कि जनता अभी भी उसका महत्व समझ नहीं पाई है। उल्टे वह घटिया दर्जे का राजनीतिक संचार सुनने और करने में यकीन करती है।

सरकारें और विभिन्न राजनीतिक दल समय समय पर एनजीओ की आलोचना करते हैं। उन पर अंकुश लगाने की मांग उठती है और अंकुश लगाए भी जाते हैं। इसके बावजूद वैश्विक स्तर पर नीतियों में होने वाले परिवर्तन के कारण वे समय समय पर राहत पाते रहे हैं। जैसे कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने 1976 में विदेशी चंदे के नियमन के लिए एफसीआरए कानून पास किया। उसके बाद जब 1980 में कांग्रेस की सरकार फिर बनी तो उन्होंने कुदाल आयोग बनाया और यह सिद्ध करना चाहा कि जेपी आंदोलन विदेशी चंदे के माध्यम से भारत सरकार को अस्थिर करने की साजिश थी। एफसीआरए में 1986 में भी संशोधन हुआ और कुछ नियमन लागू किए गए। उसके बाद पीवी नरसिंह राव की सरकार ने जब विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियां लागू कीं तो एनजीओ को काफी बढ़ावा दिया गया। बल्कि उन्होंने एनजीओ के लिए दरवाजे खोल दिए। इसी दौरान एनजीओ सेक्टर में वामपंथी राजनीति से जुड़े लोग भी बड़ी तादाद में जुड़े और उन्होंने साक्षरता और मानवाधिकार के क्षेत्र में काम किया। पर्यावरण के क्षेत्र में भी एनजीओ ने काम किया। तमाम बड़े पर्यावरण आंदोलनों में एनजीओ की घुसपैठ रही और साथ ही उसमें विश्व बैंक वगैरह का हाथ भी बताया जाता रहा। स्वयं प्रकाश करात ने भी एनजीओ की साम्राज्यवादी भूमिका को लेकर एक पुस्तिका भी लिखी।

इन तमाम आलोचनाओं के बावजूद फोर्ड फाउंडेशन और राकफेलर फाउंडेशन जैसी संस्थाओं ने भारत के लोकतांत्रीकरण के लिए भी अध्ययन और शोध में मदद की है। वह मदद केरल की वाममोर्चा सरकार से लेकर तमाम मध्यमार्गी सरकारों ने ली है। इस बीच एनडीए सरकार ने कारपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी के तहत बड़ी कंपनियों के लिए भी मदद की राशि तय की है। लेकिन वह मदद शायद ही विधिवत हो पा रही है।

कुल मिलाकर आज हिंदू राष्ट्रवाद के दकियानूसी प्रभाव के कारण भारत महामारी के समय मदद पाने से वंचित हो रहा है। यह ऐसा मौका है जब एनजीओ और सरकार दोनों को अपनी नीतियों और कार्यशैली पर विचार करना चाहिए। उन्हें ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जिससे देश की लाचार जनता को राहत मिले, सार्थक विकास संचार बने और लोकतंत्र मजबूत हो। 

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़ें : राष्ट्रीय आपदा में नागरिक समाज की मदद, अमिताभ कान्त की पहल और कुछ ज़रूरी सुझाव

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