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आईआर नियमावलि: कोविड-19 लहर के बीच केंद्र का उद्योगों में सामूहिक मोल-भाव की गुंजाइश को सीमित करने का प्रस्ताव
'... पारंपरिक औद्योगिक विरोध वाले किसी परिदृश्य में कोई नियोक्ता एक समझौता निकाय के रूप में 'ट्रेड यूनियन' को मान्यता देने की प्रक्रिया क्यों शुरू करेगा जिससे वह ख़ुद को पहले से ज़्यादा चुनौतीपूर्ण स्थिति में पाएगा?’
रौनक छाबड़ा
07 May 2021
आईआर नियमावलि: कोविड-19 लहर के बीच केंद्र का उद्योगों में सामूहिक मोल-भाव की गुंजाइश को सीमित करने का प्रस्ताव

अगर यह भारत सरकार की उदासीनता नहीं है, तो यह मामला अनुपयुक्त प्राथमिकताओं का एक और बड़ा मामला नज़र आता है। यह सब तब किया जा रहा है, जिस समय देश भर में कोविड-19 महामारी उस उफ़ान पर है जिस स्तर पर यह इससे पहले कभी नहीं रही। हालांकि,सरकार के इस क़दम से आलोचकों में कोई हैरानी नहीं है और वे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली व्यवस्था पर श्रमिकों के ख़िलाफ़ एक "आपराधिक क़दम" उठाने का आरोप लगा रहे हैं।

बुधवार को केंद्रीय श्रम और रोज़गार मंत्रालय ने देश भर के प्रतिष्ठानों में सामूहिक मोल-भाव के दायरे की गुंज़ाइश को कम करने का प्रस्ताव रखा, जिससे श्रमिकों के हितों की अनदेखी करते हुए श्रम नियमन व्यवस्था को नियोक्ताओं के पक्ष में मोड़ दिया।

इस प्रस्ताव में दिये गये सुझाव औद्योगिक सम्बन्ध (मालिक-मज़दूर सम्बन्ध) यानी आईआर संहिता, 2020 के लिए मसौदा नियमों के नवीनतम समूह का हिस्सा हैं। इसके अलावा ये सुझाव नियोक्ताओं को अपनी तरह के एक ऐसी पहली राष्ट्रव्यापी प्रणाली के तहत सशक्त बनाता है, जो एक ट्रेड यूनियन को वार्ता करने वाले निकाय के तौर पर "मान्यता" तो देता है, जबकि औद्योगिक संरचना के भीतर ट्रेड यूनियन के अधिकारों और देनदारियों पर ख़ामोश है।

इसके तहत श्रमिकों से जुड़े मामले पर बातचीत करने वाले जो निकाय, यानी यूनियन या काउंसिल नियोक्ता के साथ मध्यस्थता करेंगे, उनके दायरे को "सेवा की शर्तों" और "रोज़गार की शर्तों" के साथ सीमित कर दिया गया है। इस आईआर संहित की धारा 14 और 22 पर मसौदा नियमों के मुताबिक़, दूसरे मामलों के बीच श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा जैसे मामलों से भी हाथ खींच लिये गये हैं।

इस नियमावली के उपर्युक्त भाग क्रमशः समझौता वार्ता यूनियन या काउंसिल की "मान्यता" और एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में ट्रेड यूनियनों के विवादों के न्यायिक निर्णय से जुड़े हुए हैं।

प्रस्तावित नियम के मुताबिक़, सिर्फ़ मज़दूरी, काम के घंटे, छुट्टियां, काम का परिवेश और श्रमिकों की सुरक्षा से जुड़े अन्य मामलों को लेकर ही उन प्रतिष्ठानों में बातचीत हो पायेगी, जिसमें श्रमिकों की ओर से इस तरह की वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन या कई यूनियनों को मान्यता दी जाती है।

इस मसौदा नियमों में कहा गया है कि किसी एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन को "श्रमिकों की एकमात्र बातचीत करने वाले यूनियन" के तौर पर मान्यता प्राप्त होने के लिए कुल कार्यबल के कम से कम 30% सदस्यता की आवश्यकता होती है; इस आईआर नियमावलि के मुताबिक़ कई यूनियनों के मामले में यह सीमा 51% है। अगर दोनों ही प्रावधान पूरे नहीं होते हैं, तो उस स्थिति में गठित काउंसिल में सभी पंजीकृत ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे, जिसे प्रतिष्ठान के भीतर कम से कम 1/5 वां कार्यबल का समर्थन हासिल होना चाहिए।

हालांकि, सूचीबद्ध मामलों को छोड़कर "किसी भी अन्य मामले" पर बातचीत तभी संभव है, जब "औद्योगिक प्रतिष्ठान के नियोक्ता और वार्ताकार यूनियन या काउंसिल के बीच सहमति" हो। इस मसौदा नियम में इस बात का उल्लेख है कि केंद्र द्वारा 30 दिनों की अवधि के भीतर हितधारकों के सुझावों को आमंत्रित करने के लिए इसे सार्वजनिक किया जायेगा।

श्रमिकों से जुड़े मामलों के जानकारों ने चेताया है कि पहली बार देश की औद्योगिक संरचना में सामूहिक सौदेबाज़ी के संदर्भों को परिभाषित करते हुए अपने मौजूदा रूप में ये मसौदा नियम वास्तव में उनके दायरे को "सीमित" कर देते हैं।

जमशेदपुर स्थित एक्सएलआरआई के प्रोफ़ेसर और श्रमिकों से जुड़े अर्थशास्त्री के.आर. श्याम सुंदर कहते हैं, "क़ानून बनाने वालों को सामूहिक सौदेबाज़ी के दायरे का परिसीमित करने से पहले ऐतिहासिक सामूहिक समझौतों का अध्ययन करना चाहिए था। अपने मौजूदा रूप में यह मसौदा नियम सामूहिक सौदेबाज़ी के लिहाज़ से बहुत सारे संस्थानों के लिए नुकसानदेह है।"

सुंदर के मुताबिक़, श्रमिकों की "सामाजिक सुरक्षा" या दूसरी तरह के "लाभ" से जुड़े वे मामले, जो एकदम "स्पष्ट" रहे हैं, इन मसौदा नियमों की धारा 3 में शामिल ही नहीं हैं।

इसके अलावा, यह मसौदा नियम नियोक्ता को एक "सत्यापन अधिकारी" नियुक्त करने का अधिकार देते हैं, जिसे औद्योगिक प्रतिष्ठान में एक समझौता निकाय के गठन के लिए समयबद्ध तरीक़े से ट्रेड यूनियनों की सदस्यता की पुष्टि करने का काम सौंपा गया है।

सुंदर इस क़दम को "मूर्खतापूर्ण" ठहराते हुए श्रमिकों के प्रबंधन के साथ सामूहिक रूप से बातचीत करने के उनके अधिकार को छीन लेने के लिए सरकार की कटु अलोचना करते हैं। वह कहते हैं, “ज़रा सोचिए कि पारंपरिक औद्योगिक विरोध वाले किसी परिदृश्य में कोई नियोक्ता एक समझौता निकाय के रूप में 'ट्रेड यूनियन' को मान्यता देने की प्रक्रिया क्यों शुरू करेगा और इस तरह वह ख़ुद को एक पहले से ज़्यादा चुनौतीपूर्ण स्थिति में भला क्यों डालेगा ?"

इन मसौदा नियमावली के मुताबिक़, किसी समझौता यूनियन को बनाने की प्रक्रिया मौजूदा निकाय की समाप्ति से तीन महीने पहले शुरू होगी। इस ट्रेड यूनियन की सदस्यता एक गुप्त मतदान के ज़रिये दी जायेगी, इसकी प्रक्रिया नियोक्ता की तरफ़ से चुने गये अधिकारी द्वारा तय की जायेगी।

सुंदर कहते हैं कि केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और ओडिशा जैसे राज्यों में पहले से ही कुछ नियम हैं, जिनमें एक ट्रेड यूनियन सदस्यता के सत्यापन को विनियमित करने का अधिकार राज्य सरकार द्वारा नियुक्त रजिस्ट्रार को दिया जाता है।

हालांकि, जैसा कि इन मसौदा नियमों के प्रस्ताव से साफ़ है कि ये नियोक्ताओं के पक्ष में बदलाव लाने वाले ऐसे नियम हैं, जो अब अप्रत्यक्ष रूप से सदस्यता सत्यापन प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं क्योंकि चुने हुए सत्यापन अधिकारी द्वारा खारिज कर दिये गये कर्तव्यों की "स्वतंत्र" प्रकृति पर सवाल अब भी बने हुए हैं।

ये मसौदा नियम ‘मान्यता प्राप्त’ ट्रेड यूनियन के अधिकारों, ज़िम्मेदारियों और यहां तक कि देनदारियों पर भी ख़ामोश हैं। सुंदर कहते हैं, "यह एक ऐसा ज़रूरी घटक है, जिसे इस क़ानून (आईआर नियमावली) में सबसे पहले शामिल किया जाना चाहिए था...यह सब उस सरकारी नज़रिये की ओर इशारा करता है, जिसका एक ख़ास मक़सद है और व्यापक नहीं है और क़ानून के दायरे में शामिल भी नहीं है।

सुंदर का कहना है कि कुल मिलाकर नतीजा यही है कि यह नियमावली और आख़िरकार इसके नियम "उल्लेखनीय तौर पर अधूरा है।"  

‘यह सचमुच आपराधिक है'

अन्य दो संहिताओं-सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा,स्वास्थ्य और कार्य शर्तों से जुड़ी नियमावली के साथ यह आईआर नियमावली संसद द्वारा पिछले साल सितंबर में पारित की गयी थी। एक अन्य नियमावली,जो पारिश्रमिक से जुड़ी हुई थी,उसे 2019 में ही अधिनियमित कर दिया गया था। कुल मिलाकर,इन क़ानूनों के तहत 29 मौजूदा केंद्रीय श्रम अधिनियम होंगे,जो श्रमिक अधिकारों और विशेषाधिकारों की सुरक्षा से जुड़े हुए हैं।

इस आईआर नियमावली के तहत ट्रेड यूनियन अधिनियम,1926; औद्योगिक रोज़गार (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 और औद्योगिक विवाद अधिनियम,1947 होंगे। इस नियमावली के लिए नियमों का पहला समूह पिछले साल अक्टूबर में सामने रखा गया था। संयोग से तब ट्रेड यूनियनों से जुड़े नियमों के बनाने का काम राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया था।

सेंट्रल ट्रेड यूनियन  (CTUs) का आरोप है कि मौजूदा श्रम क़ानूनों को इस नियामवली में शामिल से श्रम विनियमन व्यवस्था कमज़ोर होती है, सेंट्रल ट्रेड यूनियन केंद्र सरकार का कड़ा विरोध तबसे करता रहा है,जब पहली बार मोदी सरकार की पहली पारी के दौरान इसे लेकर विचार सामने आया था।

बुधवार को ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) ने कहा कि केंद्र ने इस नियमावली को सामने लाने के ज़रिये " इज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नस " के नाम पर श्रम क़ानूनों के सुरक्षात्मक आवरण को सीमित कर दिया है।

सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन (CTU) के महासचिव,तपन सेन ने गुरुवार को न्यूज़क्लिक को बताया कि जिस समय देश के श्रमिक कोविड-19 की दूसरी लहर के प्रकोप के दबाव में जी रहे हों, उस समय मंत्रालय की तरफ़ से नियमों के अस्थायी मसौदा तैयार करने की यह प्रक्रिया श्रमिकों के ख़िलाफ़ केंद्र के "आपराधिक रुख़" को दर्शाती है।

सेन ग़ुस्से में कहते हैं, “कोविड-19 के फैलने से जब पूरा देश तक़रीबन पंगु हो चुका हो और जिस समय श्रमिक बढ़ती बेरोज़गारी और मज़दूरी में कटौती का सामना कर रहे हों, ऐसे समय में केंद्रीय श्रम मंत्रालय का यह क़दम किस तरह की प्राथमिकता वाला क़दम है। ऐसा करना तो उनके प्रति सचमुच अपराध है।”

ग़ौरतलब है कि केंद्र की हाल ही में शुरू की गयी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की आलोचना होती रही है, मगर फिर भी इस प्रोजेक्ट पर काम जारी है और इससे पहले कुंभ के आयोजन को भी स्थगित नहीं किया था,देश में कोविड-19 के मामलों में तेज़ी से बढ़ोत्तरी भी हो रही है।

इसके अलावे बहुत ही कम समय में देश के स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे भारी दबाव में है।

आर्थिक मोर्चे पर भी स्थिति गंभीर दिख रही है। देशव्यापी लॉकडाउन भले ही नहीं लगाये गये हों, मगर शायद स्थानीय लॉकडाउन लगाये जाने के चलते सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक़ अप्रैल के महीने में 75 लाख से ज़्यादा लोगों की नौकरियां चली गयी हैं।

स्वयंसेवियों की तरफ़ से चलाये जा रहे नेटवर्क स्ट्रैंड्ड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (SWAN) नामक एक नेटवर्क ने बुधवार को प्रेस को जारी अपने एक बयान में दावा किया है कि पिछले दो सप्ताह में वह जिन 150 प्रवासी श्रमिकों के संपर्क में था, उनमें से 81% श्रमिकों ने बताया कि काम-काज "बंद" है। यह स्थिति औद्योगिक शहरों में एक संभावित आर्थिक तबाही की तरफ़ इशारा करती है।

देश में हालात दिन-ब-दिन “बदतर” होते जा रहे हैं, सेन ने गुरुवार को अफ़सोस जताते हुए कहा कि पिछले महीने की शुरुआत में सेंट्रल ट्रेड यूनियन  (CTUs) ने केंद्र से आग्रह किया था कि वह पिछले साल के "ऐडवाइज़री" के उलट तुरंत छंटनी और वेतन कटौती के ख़िलाफ़ "सख़्त से लागू किये जाने वाला एक आदेश" जारी करे।

उन्होंने कहा, "इस समय ऐसा करना केंद्र की प्राथमिकता में होना चाहिए था। मगर दुर्भाग्य से ऐसा है नहीं।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

IR Code: Amid COVID-19 Surge, Centre Proposes to ‘Limit’ Scope of Collective Bargaining in Industries

Industrial Relations Code
Draft Rules
Union Ministry of Labour & Employment
Narendra modi
COVID-19
All India Trade Union Congress
Centre of Indian Trade Unions
CITU
Labour Laws
Labour Codes

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