NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
शिक्षा
समाज
साहित्य-संस्कृति
भारत
राजनीति
हिंदी में नए विचार नहीं आ रहे हैं तो इसे बढ़ावा कैसे मिलेगा?
भूमंडलीकरण के इस मीडियामय वक्त में हिंदी बढ़ रही है, लेकिन यह भी सच है कि ऊपर बढ़ती हुई हिंदी भी भीतर से रोज मर रही है। भाषा के बढ़ने और होने के लिए जितना जरूरी भाषा का प्रसार है, उतना ही जरूरी भाषा के अंदर विचार का भी होना है। ज्यादातर भारतीय भाषाएं तुरत-फुरत सूचना के दौर में अनुवाद की भाषा बन कर रह गई हैं।
अजय कुमार
14 Sep 2020
हिंदी
Image courtesy: The Economic Times

देश दुनिया को सही तरीके से समझने के लिए अंग्रेजी आना बहुत जरूरी है। अंग्रेजी की कमी बहुत सारे मुद्दों पर अपंग बना देती है। लेकिन अंग्रेजी केवल ज्ञान का जरिया हो तो बढ़िया लेकिन वह खुद ज्ञान निर्माण का साधन बन जाए तब एक गैर अंग्रेजी देश में बहुत सारी परेशानियां पैदा होना शुरू होती हैं।

सबसे पहली परेशानी है कि ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया अपने आप को बहुत सारे लोगों से दूर करती रहती है। ज्ञान इकहरा, एलीट और जमीन से बहुत कटा हुआ बन जाता है। ज्ञान आम जनता तक अपनी बात पहुंचा नहीं पाता है। आम जनता के मुहावरे से दूर होता चला जाता है और आम जनता ज्ञान को ही द्वेष भरी नजरों से देखने लगती है।

इसे समझने के लिए एक बहुत बढ़िया उदाहरण आप नियम कानून और संविधान से जुड़ी बहसों को खंगाल कर देखिए। आप पाएंगे कि धर्म, जातियों और समुदायों के नियमों से संचालित होने वाले भारतीय समाज का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी संविधान के नियमों कानूनों और प्रावधानों से खुद को नहीं जोड़ पाता है।

इसकी बहुत बड़ी वजह यह भी है कि आजादी के बाद शानदार मूल्यों वाले संविधान को अचानक अपनाया गया। जरूरत यह थी कि संविधान के तर्क लोक भाषाओं और मुहावरों में में सज कर आम जनता तक पहुंचे। लेकिन वह पहुंचे तो केवल किताबों के माध्यम से वह भी केवल स्कूल और कॉलेजों तक और संविधान से जुड़े तर्कों का निर्माण हुआ भी तो केवल अंग्रेजी में।

हिंदी के अखबार ही उठाकर देख लीजिए उस पर एक पन्ना अब भी परंपराओं और धर्म का होता है। धर्म और परंपराओं से जुड़ी कथा कहानियों के जरिए आम लोगों को नैतिक मूल्य सिखाने की कोशिश की जाती है। लेकिन हिंदी का ऐसा कोई अखबार नहीं है या हिंदी की ऐसी कोई मीडिया नहीं है जो संविधान पर बात करती हो।

इसकी साफ वजह है क्योंकि संविधान को समझने और पढ़ने वाले लोग इतनी ज्यादा तादाद में नहीं है जितनी ज्यादा तादाद में धर्म और परंपराओं से चलने वाले नियमों और मूल्यों को समझने वाले लोग हैं। और इसकी वजह साफ है कि संविधान से जुड़े नियम कानून और मूल्य को लोक भाषा में आम लोगों तक नहीं पहुंचाया गया।

अब आप पूछेंगे कि हिंदी दिवस पर मैंने लोक भाषा क्यों कहा? हिंदी क्यों नहीं लिखा? इसकी वजह है कि जब भी मैं हिंदी कहकर अंग्रेजी वर्चस्व हटाने की वकालत करता हूं तो कोई तमिल, मलयालम, उड़िया, मराठी भाषी जैसे गैर हिंदी प्रदेशों से जुड़े साथी नाराज हो जाते हैं। उनकी जगह जब खुद को रखता हूं तो मुझे भी लगता है कि अंग्रेजी वर्चस्व हटाने की वकालत करते हुए अनजाने में ही सही लेकिन मैं हिंदी वर्चस्व थोपने की बात कर रहा हूं। और हिंदुस्तान जैसे बहुरंगी देश के लिए यह बेहद गलत है कि उसे किसी एक ढांचे में ढाला जाए या ढालने की कोशिश भी की जाए।

इस बात को योगेंद्र यादव बड़े सुंदर ढंग से कहते हैं कि सच यह है कि अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई अकेले हिंदी लड़ नहीं सकती। जब तक सभी भारतीय भाषाएं एक दूसरे का हाथ नहीं पकड़ती, यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। हिंदी को विशेष अधिकार नहीं बल्कि विशेष जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वह सभी भारतीय भाषाओं को जोड़ें।

यह तभी संभव होगा अगर हिंदी छोटी मालकिन बनने का लालच छोड़, बाकी भारतीय भाषाओं की सास और खुद अपनी बोलियों की सौतेली मां बनने की बजाय उनकी सहेली बने। हिंदी देश की सभी भाषाओं के बीच पुल का काम कर सकती है लेकिन तभी अगर वह खुद इसकी मांग ना करें, बस बाकियों को अपने ऊपर से आने जाने का मौका दें, अगर वह अपने भीतर हिंदी देश की विविधता को आत्मसात कर पाए।

यानी अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने के लिए हिंदी दिवस की परंपराओं की नहीं बल्कि लोक भाषा दिवस की जरूरत है। अगर यही बात है तो आप पूछेंगे कि लोक भाषा के तौर पर हिंदी का विस्तार कैसे हो? तो सबसे पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर नकारते हुए भारत की दूसरी भाषाओं के साथ सहेली का रवैया अपनाकर सोचा जाए तो बेहतर हो।

तीसरी भाषा के तौर पर पूरी तरह से जनमानस से कट चुकी संस्कृत की बजाए बिहार बांग्ला सीखें, आंध्र प्रदेश भोजपुरी सीखें, छत्तीसगढ़ मराठी सीखें, पंजाबी मलयालम सीखे, कश्मीरी तमिल सीखें तो एक ऐसा रंग जमेगा जिसमें अंग्रेजी के वर्चस्व की लड़ाई बिना हिंदी वर्चस्व स्थापित किए हुए अपने आप टूटती चली जाएगी।

इसी रास्ते पर चलते हुए अब भारत की दूसरी बोलियों और भाषाओं की सहेली हिंदी की बात कर लेते हैं।

गांव के एक नौजवान से बात हुई तो उसने कहा कि हिंदी पढ़ कर ना कलेक्टर बना जा सकता है, ना ही वकील बना जा सकता है, ना ही डॉक्टर बना जा सकता है और ना ही इंजीनियर बना जा सकता है। ऐसे में कोई अंग्रेजी की कोचिंग छोड़कर हिंदी की किताबें क्यों पड़े?

हिंदी मीडियम स्कूल में क्यों पढ़ाई करें? इतिहास, भूगोल समाजशास्त्र, विज्ञान अब सब कुछ तो अंग्रेजी में ही पढ़ाया जाता है, ऐसे में हिंदी का रोना क्यों रोया जाए? हिंदी रहे या ना रहे इस देश को कोई फर्क नहीं पड़ता? इसमें जो गुस्सा है वह इस बात का है कि हिंदी में रोजगार नहीं है। हिंदी पढ़ कर एक ठीक-ठाक नौकरी नहीं मिल सकती है।

यह बात ठीक है लेकिन तकनीक और नॉलेज क्रिएशन के कुछ क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो अंग्रेजी की जरूरत दूसरी जगहों पर ना के बराबर है। एक तरह की रौबदार ही है कि एक होटल में वेटर का काम करने वाला साथी भी अंग्रेजी की जानकारी लेने के बाद ही होटल में नौकरी हासिल कर पाता है। सरकार की बहुत सारी नौकरियों में भी अंग्रेजी केवल पासिंग मार्क का हिस्सा बने तो समझ में आता है लेकिन यह भी कंपटीशन का हिस्सा बन जाए।

ग्रेजी के नंबर यह कार्य करने लगे कि कौन नौकरी के लायक है और कौन नहीं है तो यह बात समझ से बिल्कुल परे है। भारतीय प्रशासनिक अधिकारी बनने के लिए ली जाने वाली परीक्षा में अंग्रेजी की थियोरेटिकली इतनी ही जरूरत होती है कि अंग्रेजी का पेपर पास कर लिया जाए तो स्टाफ सिलेक्शन सर्विस जैसी परीक्षाओं में अंग्रेजी एक ऐसे पेपर के तौर पर क्यों होती है जिसके नंबर किसी को नौकरी देने या ना देने के तौर पर काम करती है।

लेकिन यह सारी बातें सिद्धांत पर हैं। थियोरेटिकली हैं। बिहार में सारी बातें तभी लागू हो पाएगी जब व्यवहार में हिंदी का चलन बढ़ेगा। अभी तो स्थिति ऐसी है कि भारत की सारी संस्थाएं अंग्रेजी की गुलाम हैं। आंकड़ों से समझिए तो स्थिति यह है कि यूपी एसएससी परीक्षा में जहां अंग्रेजी का केवल एक पासिंग पेपर होता है वहां पर हिंदी माध्यम से परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों की कामयाबी दर एक से दो फीसदी के बीच में रहती है।

तो भारतीयों की हिंदी का चलन बढ़ेगा कैसे? इसके बहुत सारे उपाय हो सकते हैं। बहुत सारे जानकारों को पढ़ने के बाद कुछ उपायों की लिस्टिग करूं तो वह यह है कि हिंदी केवल दिलचस्पी की भाषा ना बने। हिंदी में केवल कथा, कहानी, कविता ना लिखी जाए। बल्कि हिंदी में देश दुनिया की गंभीर बातें भी लिखी जाए।

इन बातों को केवल जटिल बातें कहकर हिंदी के पाठकों से दूर ना रखा जाए। जरा सोच कर देखिए कि हिंदी भाषा में ऐसा क्या नहीं है कि मानविकी के सारे अकादमिक पर्चे केवल अंग्रेजी में छपते हैं। अगर यह तर्क है कि हिंदी का पाठक इतनी बोझिल बातों को नहीं पढ़ता तो यह हिंदी के पाठकों से दूर भागने वाला तर्क है।

ऐसे लोगों से पूछना चाहिए कि क्या इसका मतलब यह है कि अंग्रेजी में बोझिल बातें लिखी जाती हैं। और अंग्रेजी में ही लोग बोझिल बातें पढ़ पाते हैं? यह बिल्कुल गलत बात है क्योंकि अगर भाषा सरल सहज और सरल नहीं होती है तो वह पाठकों तक नहीं पहुंच पाती है। हिंदी लिखने वालों को गंभीर लेखन के नाम पर क्लिष्ट लेखन की आदत को पूरी तरह से छोड़ना होगा। इसमें सबसे बुरी स्थिति सरकारी लेखन की है।

संविधान की एक अच्छी सी किताब सरल सरल और सहज भाषा में भी लिखी जा सकती है लेकिन जैसे ही वह भारत सरकार द्वारा छप कर आती है तो पूरी तरह से क्लिष्ट हो जाती है। जैसे ही कोई योजना भारत सरकार की वेबसाइट पर लिखी जाती है वैसे ही हूबहू उसी तरीके से उस योजना को आम लोगों तक पहुंचाने में दिक्कत आने लगती है। भाषा की कठिनता भाषा के पाठक को भाषा से दूर करती हैं और भाषा को मरने के लिए छोड़ देती हैं। हिंदी के साथ यही हो रहा है।

इसलिए शुद्ध हिंदी के नाम पर हिंदी की पंडिताई को तोड़ना बहुत जरूरी है। हिंदी को अलग-अलग स्वर और व्याकरण में सुनने पढ़ने की आदत डालना बहुत जरूरी है। कोई भी भाषा तभी बड़ा बनती है जब वह बड़ा दिल रखती है। स्कूल, कॉलेज, मीडिया, सरकार, किताब हिंदी लेखन में अगर हिंदी के साथ उर्दू भी घुली मिली हो, दर्जन बोलियों के शब्द आते जाते हैं तो कोई नाक भौं ना सिकुड़े तो हिंदी का चलन अपने आप बढ़ता रहेगा।

कोई भाषा तब बढ़ती है जब उसकी शब्द चलन में होते हैं, नए शब्द गढ़े जाते हैं, साहित्य रचा जाता है और ज्ञान का निर्माण होता है। छपरा के जयप्रकाश नारायण कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर चंदन श्रीवास्तव लिखते हैं कि लग सकता है कि हिंदी का काम अनुवाद के सहारे खूब चल रहा है। यह दावा भी किया जा सकता है कि भूमंडलीकरण के इस मीडियामय वक्त में हिंदी बढ़ रही है, लेकिन यह भी सच है कि ऊपर बढ़ती हुई हिंदी भी भीतर से रोज मर रही है। भाषा के बढ़ने और होने के लिए जितना जरूरी भाषा का प्रसार है, उतना ही जरूरी भाषा के अंदर विचार का भी होना है। ज्यादातर भारतीय भाषाएं तुरंत फुरंत सूचना के दौर में अनुवाद की भाषा बन कर रह गई हैं। उनकी चिंता किसी अंग्रेजी शब्द का हिंदी, तमिल, तेलुगू अनुवाद गढ़ने का ज्यादा है। और उस मौलिक अवधारणा का गढ़ने की कम, जो शब्दों को नए सिरे से संस्कार देते हैं और नए शब्दों का निर्माण करते हैं।

(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।) 

HINDI DIWAS hindi
Sanskrit
urdu
Indian Languages
National language
Hindi as National Language
English
हिंदी दिवस

Related Stories

भोपाल के एक मिशनरी स्कूल ने छात्रों के पढ़ने की इच्छा के बावजूद उर्दू को सिलेबस से हटाया

हिंदी की इस रात की सुबह कब होगी?

संस्कृत के मोह में रुक गया हिंदी का विकास

भाषा का सवाल: मैं और मेरा कन्नड़ भाषी 'यात्री-मित्र'


बाकी खबरें

  • भाषा
    ईडी ने फ़ारूक़ अब्दुल्ला को धनशोधन मामले में पूछताछ के लिए तलब किया
    27 May 2022
    माना जाता है कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला से यह पूछताछ जम्मू-कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन (जेकेसीए) में कथित वित्तीय अनिमियतता के मामले में की जाएगी। संघीय एजेंसी इस मामले की जांच कर रही है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    एनसीबी ने क्रूज़ ड्रग्स मामले में आर्यन ख़ान को दी क्लीनचिट
    27 May 2022
    मेनस्ट्रीम मीडिया ने आर्यन और शाहरुख़ ख़ान को 'विलेन' बनाते हुए मीडिया ट्रायल किए थे। आर्यन को पूर्णतः दोषी दिखाने में मीडिया ने कोई क़सर नहीं छोड़ी थी।
  • जितेन्द्र कुमार
    कांग्रेस के चिंतन शिविर का क्या असर रहा? 3 मुख्य नेताओं ने छोड़ा पार्टी का साथ
    27 May 2022
    कांग्रेस नेतृत्व ख़ासकर राहुल गांधी और उनके सिपहसलारों को यह क़तई नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई कई मजबूरियों के बावजूद सबसे मज़बूती से वामपंथी दलों के बाद क्षेत्रीय दलों…
  • भाषा
    वर्ष 1991 फ़र्ज़ी मुठभेड़ : उच्च न्यायालय का पीएसी के 34 पूर्व सिपाहियों को ज़मानत देने से इंकार
    27 May 2022
    यह आदेश न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बृजराज सिंह की पीठ ने देवेंद्र पांडेय व अन्य की ओर से दाखिल अपील के साथ अलग से दी गई जमानत अर्जी खारिज करते हुए पारित किया।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    “रेत समाधि/ Tomb of sand एक शोकगीत है, उस दुनिया का जिसमें हम रहते हैं”
    27 May 2022
    ‘रेत समाधि’ अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाला पहला हिंदी उपन्यास है। इस पर गीतांजलि श्री ने कहा कि हिंदी भाषा के किसी उपन्यास को पहला अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिलाने का जरिया बनकर उन्हें बहुत…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License