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भारत
राजनीति
बिहार चुनाव में अवैध शराब, अपराध और राजनीति का खेल
किसी भी ग़ैर-एनडीए शासित राज्य को उन सामाजिक तनावों का मुक़ाबला करना होगा जिसे पैदा करने या हवा देने के लिए शराब माफ़िया धन मुहैया करवाता है।
मोहम्मद सज्जाद
04 Nov 2020
Translated by महेश कुमार
बिहार चुनाव

बिहार विधानसभा चुनाव के मतदान के दो चरण समाप्त हो चुके हैं; 243 सीटों में से 165 पर चर्चा समाप्त हो गई है। इतना चुनाव निकल गया पर मुख्यधारा के प्रिंट मीडिया ने शराब माफिया के बारे में बमुश्किल ही कोई चर्चा की है और न ही यह बताया कि इसने बिहार में संगठित अपराध को कैसे बढ़ावा दिया है, यहां तक कि ग्रामीण इलाकों में भी इसका बड़ा प्रभाव है। कई पेशेवर अनुसंधान निकायों ने भी शराब से जन्मे संकट को नजरअंदाज कर दिया है, जो 1 अप्रैल 2016 को नीतीश कुमार सरकार द्वारा राज्य में शराबबंदी लागू करने के बाद बिहार में एक सामाजिक और राजनीतिक कारक बन गया है।

वामपंथी ताकतों के एकमात्र अपवाद को छोडकर, विपक्ष ने भी इस पर काफी हद तक चुप्पी बनाए रखी है। इससे पता चलता है कि शासन में बदलाव भी इस गैंगस्टरवाद से नहीं निपट सकता है, जिसने बिहार में अपनी मज़बूत पकड़ बना ली है। यह बड़ी चिंता का विषय है, क्योंकि इसका अंदाज़ा अन्य राज्यों के अनुभवों से लगाया जाना चाहिए। हर जगह शराब का सेवन किया जाता है, लेकिन केवल कुछ प्रांतों, जैसे गुजरात, बिहार, मिजोरम, नागालैंड और लक्षद्वीप में यह प्रतिबंधित है। पहले दो राज्यों में शराब पर प्रतिबंध लगने से शराब माफिया और जुए के अड्डों को बढ़ावा मिला है। चिंता की बात यह है कि इन अवैध व्यापारों को राजनीतिक वैज्ञानिक वार्ड बेरेन्सचॉट ने "दंगा नेटवर्क" के रूप में माना है।

बेरेन्सकोट ने अपनी इस अभिव्यक्ति को गुजरात के संदर्भ में गढ़ा था। उन्होंने पॉल ब्रास के सांप्रदायिक राजनीति पर किए गए काम से इसे लिया था, जिसमें यह माना गया है कि सांप्रदायिक दंगे अचानक या स्वतः घटित होने वाली घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि एक संस्थागत दंगा प्रणाली, या आईआरएस का हिस्सा हैं। जब संगठित अपराध ग्रामीण इलाकों में पहुंचता है और "दंगा नेटवर्क" के साथ हाथ मिलाता है, तो हुडलूम और गैंगस्टर चुनावी मशीन बन जाते हैं। वे राजनीतिक नेताओं को संसाधन, भीड़ और बहुत कुछ मुहैया करवाते हैं। बिहार में 2018 में हुई सांप्रदायिक हिंसा के उदाहरणों से पैदा हुए खतरे की पूरी तस्वीर खींची जा सकती है, जिसमें हिंदू और मुस्लिम हुड़दंगी- जो चुने हुए प्रतिनिधि बनने के इच्छुक भी थे- या तो अवैध शराब के धंधे से जुड़े थे या उनका संबंध शराब माफिया के साथ था।

मिसाल के तौर पर, मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के पारू का एक मुस्लिम मुखिया, जो इस समय हत्या के आरोपों में जेल में बंद है, जिसने शराब माफिया के साथ अपने संबंधों के जरिए भारी मुनाफा कमाया था। जिस हत्या के आरोप में वह बंद है वह भी अवैध शराब के धंधे की वजह से हुई। माना जाता है कि उसे एनडीए के विधायक का समर्थन हासिल था जो दो बार चुना जा चुका है और अब विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। यह नेता दिल्ली में अपने फार्म हाउस में एक सेलिब्रिटी की हत्या का आरोपी भी था। 2018 में, पारू के सामुदायिक विकास खंड के विकास अधिकारी को भी निलंबित कर दिया गया था, क्योंकि उनके सरकारी आवास पर शराब पाई गई थी। मुजफ्फरपुर जिले के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को भी निलंबित किया गया क्योंकि उसके सरकारी आवास से नकदी की भारी मात्रा मिली (जिसमें 1000 और 500 रुपये के नोट भी मिले जिन्हे 2016 में अवैध घोषित कर दिया गया था)। मुज़फ़्फ़रपुर और ग्रामीण बिहार के कई गाँव इस तरह से अवैध शराब के अड्डे बन गए हैं।

सरकारी एजेंसियां शराब-अपराध-राजनीतिक सांठगांठ की कम ही जांच करती है। मीडिया भी इस बात को अक्सर दर्ज़ करता है। जिसके परिणामस्वरूप इस धंधे को चलाने वाले किंगपिन दाग मुक्त रहते हैं जबकि वंचित तबकों को निषेधाज्ञा के उल्लंघन पर भी गिरफ्तारियों का खामियाजा भुगतना पड़ता है। यह मुख्यमंत्री के मूल समर्थक अति पिछड़ा और महादलित मतदाताओं की भी  शिकायत है।

स्थानीय व्यापारियों, भवन निर्माण ठेकेदारों और ईंट बनाने वाले पूंजीपतियों के साथ, अब, शराब माफिया भी बिहार के चुनावों में धन मुहैया कराने वाला बन गया है। बताया जाता है कि पंचायत प्रतिनिधियों के साथ एक गठजोड़ तैयार किया गया है, जो मौजूदा फाइनेंसरों के नेटवर्क के साथ ओवरलैप करता है। इस तरह का नेटवर्क स्थानीय पुलिस की मिलीभगत के बिना कामयाब नहीं हो सकता है। इस गठजोड़ को न तोड़ना केवल यह बताता है कि राजनीतिक सत्ता और उसके दलाल और मीडिया का इसमें बड़ा हाथ है। यह तर्क दिया जा सकता है कि यह नेटवर्क राजनीतिक पार्टियों का बड़ा वित्तीय आधार है, और यही कारण है कि विपक्ष भी उतने जोर-शोर से नहीं बोल रहा है जितने कि वाम दल अपवाद के तौर पर बोल रहे हैं।

शराबबंदी लागू होने से पहले महिलाओं ने बिहार के कई हिस्सों में शराब बंदी की मांग को लेकर आंदोलन किया था। हालाँकि, अपने पहले के कार्यकालों (2005 से 2015) में नीतीश कुमार प्रशासन ने बिहार के नुक्कड़ और गलियों में लाइसेंस प्राप्त शराब की दुकानों के जाल को फैला दिया था। उस समय सरकार का राज्य का दावा था कि शराब ने राज्य के राजस्व को बढ़ाया था।

यह सिर्फ शराब माफिया नहीं है: नीतीश कुमार के दौर में पूरे बिहार में राजनीतिक दल्ले भी बढ़ा गए हैं और उनमें से कई गंभीर किस्म के अपराधी हैं। एक आम नागरिक की नज़रों में बिहार सरकार एक भय फैलाने वाली, असंवेदनशील और असुरक्षा की पहचान बन गई है। इसीलिए राजनीतिक दल्लों की जरूरत पैदा हुई।

2005 और 2013 के बीच मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए-एक और यूपीए-दो सरकारों द्वारा शुरू की गई गरीब-कल्याण की कल्याणकारी योजनाओं की एक श्रृंखला के कारण हाल के दशकों में ये संख्याएँ बढ़ी हैं। ये योजनाएँ जीवन के लगभग हर पहलू को छूती हैं। गरीब: आवास, राशन, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, सड़क परिवहन, बिजली, पोषण, पेयजल, बैंकिंग, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट और वीजा इत्यादि। लोगों को अक्सर पहचान पत्र और इसी क्रम में अन्य सभी प्रकार के पेपर हासिल करने की जरूरत होती है, लेकिन बिहार प्रशासन यह सब आसानी से उपलब्ध नहीं कराता है और गरीब जनता को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसलिए दलाल पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। राजनीतिक मनोवैज्ञानिक जेफरी विटसोई ने बिहार में रोजमर्रा के भ्रष्टाचार और राजनीतिक दलाली पर अपने निबंध में, दलालों को राज्य के फ्रंटलाइन कार्यकताओं की विशेषता बताई है। बिहार और पड़ोसी पश्चिम बंगाल में इस तरह के दलालों को "मस्तान" कहा जाता है, जो पुरुष और महिलाएं सत्ता में बैठी पार्टी की नैया को पार कराने वाले बन जाते हैं। बिहार में विटसॉ का अध्ययन बताता है कि सत्ता का बनाना और बिगड़ना सब दलालों की जातिगत पहचान पर निर्भर करता है, जिन्हें लिंक के रूप में देखा जाता है, उनकी पहचान के आधार पर, सत्ता में पार्टी के साथ।

बिहार में हुए अधिकांश अध्ययनों से यह पता चलता है कि वास्तव में कितने दलाल अपराधी या बदमाशों में बदल जाते हैं और कैसे शराब माफिया, भू-माफिया, बालू माफिया, पत्थरबाज माफिया के साथ उनका गठबंधन हो जाता हैं और वे राजनेताओं और पुलिस के साथ सांठगांठ कर लेते हैं।

बिहार में, शराब माफिया और दलाल आपस में जुड़े हुए हैं, और कई मामलों में उनके गठजोड़ ओवरलैप करते हैं। बेरेन्सचॉट अपनी पुस्तक द राओट पॉलिटिक्स में लिखते हैं कि राजनीतिक मध्यस्थता या दलाली पर नागरिकों की निर्भरता "सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने और संगठित करने की राजनीतिक अभिनेताओं की क्षमता और उनके हितों को साधने के मामले में रेखांकित करती है"। इस तरह की हिंसा "विभिन्न स्थानीय नेताओं-गुंडों-अपराधियों, पार्टी कार्यकर्ताओं, पुलिस अधिकारियों, आदि" को प्रोत्साहन हो सकती है। इन एजेंसियों के माध्यम से, राजनीतिक नेता "सांप्रदायिक दंगों को व्यवस्थित और भड़काने" की क्षमता हासिल करते हैं। "राजनीतिक नेता राज्य के संसाधनों पर नियंत्रण का इस्तेमाल अपने समर्थकों को स्थानीय समर्थन तैयार करने के लिए कर सकते हैं जो अफवाहें फैलाने और तनाव पैदा करने में सहायक होते हैं,"। वे  यह भी बताते हैं कि जिन संगठनों के पास राजनीतिक समर्थन नहीं है, वे शायद ही कोई घातक जातीय दंगे पैदा कर सकते हैं।

एक दंगा नेटवर्क "रोजमर्रा की सांप्रदायिकता" के माध्यम से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने में मदद करता है, जिसे 2012-17 के दौरान उत्तर प्रदेश में सफलता के साथ हासिल किया गया था, और जिसने न केवल लोकसभा चुनाव में बल्कि राज्य में योगी राज लाने में भी मदद की थी। इस तरह एक मायने में, गुजरात और उत्तर प्रदेश में इसे लागू करने के बाद, भाजपा बे बिहार के लिए भी ऐसी ही योजना बनाई है, ये इसके शुरुआती उदाहरण हैं। इसमें सांप्रदायिक राजनीति भाजपा को जाति आधारित विरोधाभासों से उबरने में मदद करेगी और रोजगार, अर्थव्यवस्था और विकास के ठोस मुद्दों से भी ध्यान हटाएगी।

2018 के शुरुआती महीनों में बिहार में सांप्रदायिक तनाव और हिंसा (हालांकि, 2013 के बाद से, वास्तव में बढ़ी है), का "दंगा नेटवर्क" के उद्भव को ध्यान में रखते हुए विश्लेषण किया जाना चाहिए-जिसे राजनीतिक संरक्षण और तनाव के नेटवर्क के माध्यम से बनाया जा रहा है। प्रशासनिक मशीनरी पर नीतीश कुमार की पकड़ कम हो रही है और भाजपा की पकड़ तेज़ हो रही है ताकि वह बिहार में उसका आधिपत्य बन सके। भाजपा लंबे समय से चले आ रहे उसके "जरूरी" सहयोगियों-शिवसेना, अकाली दल सहित और अब, ऐसा लगता है, यह जद (यू) की बारी है को अपने पास से जाने दे रही है-क्योंकि अब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की "राजनीति" उसका मुख्य आधार बनता जा रहा है।

उदाहरण के लिए, फरवरी-मार्च 2018 के दौरान हुई सांप्रदायिक घटनाओं पर विचार करें, और 2013 के बाद हुई सांप्रदायिक झड़पों पर भी ध्यान दें। 2015 में पहली सांप्रदायिक झड़प तब हुई  जब नीतीश कुमार राजग से बाहर आए और दूसरी बार तब हुई जब वे राजद और कांग्रेस छोड़ वापस एनडीए के पाले में लौट आए। अपने यू-टर्न के मामले में मुख्यमंत्री वास्तव में कोई ठोस कारण देने में सक्षम नहीं हुए हैं। इसीलिए उनका नैतिक अधिकार तो गया साथ ही राजनीतिक क्षमता भी क्षीण हो गई और प्रशासनिक तंत्र पर उसकी पकड़ कमजोर हो गई।

बिहार की नौकरशाही के उच्च स्तर के अंदरूनी सूत्र यह स्वीकार करते हैं कि कई वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी अपने करियर को मजबूत करने के लिए भाजपा की ओर देखना शुरू कर दिया है। गरीब और हाशिए पर खड़े लोगों को नीतीश कुमार के शासन से कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि लोगों और राज्य के बीच भ्रष्ट नौकरशाही खड़ी है। यहां तक कि नीतीश कुमार के जनता दरबार-जिसमें लोगों की समस्याओं को मुख्यमंत्री और प्रशासन सीधे बातचीत के माध्यम से निबटाते हैं, फ्लॉप हो गया क्योंकि कोई भी विश्वसनीय या टिकाऊ तंत्र लोगों की शिकायतों के निवारण के लिए नहीं बनाया गया है। कई उदाहरणों में तो यह निकला कि मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बावजूद जो लोगों की शिकायतों पर आधारित थी उन्हे फाइलों पर भी दर्ज नहीं किया गया था।

इस प्रकार मौजूदा चुनाव अभियान में, नितीश को न केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से चुनौती मिल रही है, बल्कि उनके सहयोगी भी उन्हे निशाना बना रहे है; और यहां तक कि लोगों की नजर में वे अब विकास को संचालित करने या उसे आगे बढ़ाने वाले सक्षम नेता नहीं हैं। इसीलिए, परिणाम की परवाह किए बिना, इस चुनाव को नीतीश के ऊपर जनमत संग्रह की तरह खेला गया है। मुद्दा यह है कि अगर बीजेपी वापसी करती है अभी या भविष्य के चुनाव में- तो भाजपा गुजरात और अन्य जगहों की तरह अपनी पकड़ बनाने के लिए उसी माफिया-फिक्सर-संरक्षक सांठगांठ को बढ़ाना चाहेगी, जिसकी वजह से वह अन्य राज्यों में कामयाब हुई है। हालाँकि, अगर महागठबंधन सत्ता में आ जाता है, तो वामपंथियों को ही इस नेटवर्क को खत्म करने और इसे बदलने की चुनौती को अपने कंधों पर लेना पड़ेगा।

अफसोस की बात है कि न तो मीडिया और न ही बुद्धिजीवी तबका और न ही विपक्ष (वाम दलों को छोड़कर) वास्तव में माफिया-दलाल (फिक्सर) के खतरे को उतनी मजबूती से उजागर करने की कोशिश कर रहे हैं, जितना कि इसका व्यापक असर है। यही कारण है कि चुनाव के आखरी पड़ाव में भी बिहारवासी भविष्य के बारे में उतने ही परेशान हैं जितना कि वे पहले थे।

लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक और समकालीन भारतीय इतिहास पढ़ाते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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