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‘भारत एक पड़ोसी भी है, महज़ अमेरिकी समर्थन के सहारे नहीं रहा जा सकता'–एएस दुलता
'अफ़ग़ानिस्तान में सभी को एक उपयुक्त जगह मिल गयी है, लेकिन, इसमें भारत के लिए क्या है?'- अफ़ग़ानिस्तान में भारत के रणनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ जाने पर रॉ के पूर्व प्रमुख ए.एस.दुलत के साथ साक्षात्कार।
रश्मि सहगल
03 Sep 2021
एएस दुलता

25 वर्षों में दूसरी बार अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण है, क्योंकि पिछले साल दोहा में यूएस-तालिबान के बीच हुए समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने सैनिकों को 31 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकाल लिए और इसके साथ ही विदेशी सैनिकों की अराजक वापसी ख़त्म हो गयी है। रूस, चीन और पाकिस्तान सहित अफ़ग़ानिस्तान के बाक़ी पड़ोसी देश इस नयी हुक़ूमत का मूल्यांकन करने में लगे हैं और काबुल के साथ नये सिरे से रिश्ते बना रहे हैं। बहुत से लोगों को लगता है कि भारत इस प्रक्रिया में अलग-थलग हो गया है और कुछ क़ीमती पत्ते अब भी इसके पास है। इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निरेदशक, 1999-2000 तक रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख और 2000-04 तक कश्मीर पर प्रधानमंत्री कार्यालय के सलाहकार रहे एएस दुलत रश्मि सहगल के साथ अपनी बातचीत में बता रहे हैं कि भारत के लिए तालिबान की वापसी का क्या मतलब हो सकता है। दुलत का कहना है कि समस्या यह है कि भारत बहुत लंबे समय से संयुक्त राज्य अमेरिका पर निर्भर है, और घरेलू चिंताओं को विदेश नीति पर हावी होने दिया है। उनका कहना है कि कश्मीर में जो कुछ हो सकता है, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत बीतते समय के साथ पाकिस्तान और तालिबान के साथ किस तरह का रिश्ता बनाता है।

कई सुरक्षा विश्लेषकों का कहना है कि अमरीका के अफ़ग़ानिस्तान से निकल जाने से तालिबान आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक वैध भागीदार बन गया है। आपको क्या लगता है?

हमें इंतज़ार करना होगा और नज़र बनाये रखना होगा। लेकिन, इसमें तो कोई शक नहीं है कि तालिबान को यहां रहना है, क्योंकि इस इलाक़े की तमाम ताक़तों ने उन्हें स्वीकार कर लिया है। अगर चीन, रूस और पाकिस्तान तालिबान के साथ मिल जा रहे हैं, तो (भारत के लिए) दीवार पर लिखी इबार बहुत ही साफ़ है।

क्या आपको लगता है कि इसी इलाक़े का एक देश होने के नाते भारत का काबुल दूतावास को जल्दबाज़ी में ख़ाली कर देना एक ग़लती थी?

कोई शक नहीं कि हमने वहां से निकलने में बहुत जल्दबाज़ी की। इस क़दम ने शायद वहां मौजूद लोगों को छोड़कर अमेरिकियों सहित सभी को चौंका दिया है। मसला यह है कि हम बहुत लंबे समय से अमेरिकियों पर निर्भर हैं। वे इस झंझट से दूर हो चुके हैं। लेकिन, हमें तो इस खेल में दाखिल होने की ज़रूरत है।

हम इसे कैसे कर पायेंगे?

यह एक अच्छा सवाल है। इतने लंबे समय तक अमेरिकियों पर निर्भर रहने की वजह से शायद हमें तालिबान के साथ आगे बढ़ने के लिए अमेरिकी मदद की ज़रूरत है।

क्या आप यह कह रहे हैं कि हम अब अफ़ग़ानिस्तान में भूमिका निभाने की हालत में नहीं हैं?

यही तो इन हालात की त्रासदी है। हमें पिछले दो सालों से पता था कि अमेरिकी तालिबान से बात कर रहे हैं।ऐसे में सवाल पैदा होता है कि हम फिर भी उनसे बात क्यों नहीं कर रहे थे? ऐसे कई सवाल हैं, जो हमें अमेरिकियों से पूछने चाहिए थे;जैसे: 'क्या चल रहा है ?' 'आगे क्या होने जा रहा है?' 'आप हमें अधर में नहीं छोड़ सकते।' [आख़िरकार] यही हुआ भी, और मौजूदा हालात भी ऐसे ही हैं।

भारत ने तालिबान के साथ तो कुछ गुप्त वार्तायें तो की थी?

गुप्त वार्ता के साथ परेशानी यह है कि उसमें एक तरह की चुप्पी बनी रहती है। इस समय तमाम पड़ोसी देश तालिबान को लेकर खुलकर सामने आ रहे हैं। हमें भी इस प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए था।

हम एक जकड़ में फंसे रहे। मसलन, आ रही रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि हक़्क़ानी समूह ने काबुल में सुरक्षा को नियंत्रित किया हुआ है। यह वही समूह है, जिसने काबुल में भारतीय दूतावास पर हमला किया था और कश्मीर में कई हमले किये थे।

अब ये कहानियां पुरानी पड़ चुकी हैं। सच है कि उन्होंने कई लोगों और ठिकानों पर हमला किये थे, लेकिन यह भी तो एक हक़ीक़त है कि तालिबान अब काबुल के नियंत्रण में है। सवाल यह है कि अब स्थिति कैसी होगी। हमें इसका अंदाज़ा लगाना चाहिए था। हमें अपने घेरे को ठीक करने की ज़रूरत है, (हालांकि) अब थोड़ी देर हो चुकी है।

क्या आपको ऐसा भी लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम पाकिस्तान की एक अहम जीत है?

बिल्कुल, यह तो है ही। सालों से पाकिस्तान की बड़ी चिंता यही तो रही थी कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत का उनसे ज़्यादा प्रभाव न हो। हम हामिद करज़ई और अशरफ़ ग़नी दोनों सरकारों के क़रीब थे। अब अमेरिका की मदद से पाकिस्तान तालिबान के साथ बहुत ही सहज है। दूसरी त्रासदी यह है कि हम पाकिस्तान से बात भी नहीं कर रहे हैं। नियंत्रण रेखा (LOC) पर संघर्ष विराम फ़रवरी में हुआ था। वह एक शुरूआत थी। अगर हमने इस पर अमल किया होता, तो कम से कम पाकिस्तान के साथ हमारे कुछ रिश्ते तो होते। मैं इसे कश्मीर और पाकिस्तान के नज़रिए से देख रहा हूं।

क्या कश्मीर के लिए ख़तरा है? अफ़ग़ानिस्तान के कुछ आतंकवादी समूहों का कहना है कि कश्मीर उनका अगला निशाना है।

हमें इंतज़ार करना चाहिए और इस पर नज़र रखना चाहिए। यह तो बाद का सवाल है, लेकिन फिलहाल उनसे कश्मीर को कोई ख़तरा नहीं है। कश्मीर में सुरक्षा स्थिति नियंत्रण में है। तालिबान भारत की तरफ़ हाथ बढ़ा रहा है। उनके एक नेता ने कहा है कि वह भारत के साथ रिश्ता बनाना चाहेंगे। वे जानते हैं कि भारत इस इलाक़े की एक महत्वपूर्ण ताक़त है। इसका हिसाब-किताब तो हमें लगाना होगा। वे (तालिबान) भारत से मान्यता चाहते हैं। वे अंतर्राष्ट्रीय पहचान चाहते हैं। उन्होंने (भरोसा दिलया है कि वे) इसमें शामिल नहीं होंगे, या (कट्टरपंथी) समूहों को आतंकवादी गतिविधियों में मदद नहीं करेंगे।

मैं इस बात को फिर दोहराता हूं कि फिलहाल कश्मीर को लेकर उनसे तत्काल कोई ख़तरा नहीं है, हालांकि हम कभी भी इस संभावना से इन्कार नहीं कर सकते। यह बीतते समय के साथ पाकिस्तान और तालिबान के साथ हमारे बनते-बिगड़ते रिश्तों पर निर्भर करेगा। एलओसी पर संघर्ष विराम के बाद से घुसपैठ न्यूनतम स्तर पर है और आतंकवाद भी कम हुआ है। मुझे इसके ज़्यादा प्रचार-प्रसार करने का कोई कारण नहीं दिखता।

अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली की होती और वहां हमारी राज्य सरकार होती, तो क्या इससे भारत को कोई मदद मिल पाती?

बेशक। भारत सरकार जम्मू और कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने को लेकर प्रतिबद्ध है। चाहे वह चुनाव से पहले हो या बाद में, राज्य का दर्जा बहाल तो करना होगा।

क्या जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली से हमारे पड़ोसियों, पाकिस्तान, चीन या रूस को सकारात्मक संकेत मिलेगा?

मुझे ऐसा लग रहा था कि (जम्मू-कश्मीर में) चुनाव सितंबर-अक्टूबर में होंगे। लेकिन, अब ऐसा नहीं होने जा रहा है। जानकारों का कहना है कि चुनाव अगले साल मार्च या अप्रैल में आयोजित किये जायेंगे।

फिलहाल सरकार का ध्यान उत्तर प्रदेश के चुनावों पर है।

बेशक। इस पर दिल्ली का फ़ैसला ही आख़िरी फ़ैसला है और सरकार जो भी करेगी, वैसा ही होगा।

पिछले 20 सालों में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में जो पैसे लगाये हैं, उसका क्या होगा?

हम अफ़ग़ानिस्तान में भूमिका निभाने वालों में से एक थे और वहां काफ़ी पैसे लगे हैं। हमें किसी तरह वहां अपनी पहुंच बनानी होगी। उस देश में एक नया खेल खेला जा रहा है। हम रूस, चीन और पाकिस्तान को एक साथ मिलते हुए देख रहे हैं। हम रूसी विदेश मंत्री को यह कहते हुए सुन रहे हैं कि इस मेज पर भारत के लिए कोई जगह नहीं है। यह सब सुनते हुए हमारे कानों को तो नहीं ही सुहा रहा है।

क्या यह हमारी विदेश नीति का नतीजा तो नहीं है ? यदि हां, तो किस तरह ?

ये बात सही है। हम क्वाड का हिस्सा हैं, लेकिन क्वाड के सभी देश, चाहे वह संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान या ऑस्ट्रेलिया हो, हमसे बहुत दूर स्थित देश हैं। क्वाड में शामिल होने से संकेत तो यही मिलता है कि हम चीन विरोधी प्रचार-प्रसार का एक ज़रिया बनने को तैयार हैं। सवाल है कि हमें ऐसा क्यों करना चाहिए ? गुटनिरपेक्षता को लेकर सबसे बड़ी बात यही थी कि हमने वही किया, जो हमारे सर्वोत्तम राष्ट्रीय हित में था। इन सालों में रूस के साथ हमारे अच्छे सम्बन्ध बने रहे। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चीन एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण पड़ोसी है। हम कब तक उनके साथ शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध रख सकते हैं ?

हमारे दोनों ओर ऐसे पड़ोसी हैं, जिनसे हमारे शत्रुतापूर्ण रिश्ते हैं, जबकि हमें दोनों देशों के साथ अच्छे सम्बन्ध की ज़रूरत है। संभव है कि हम अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करें, लेकिन उनके साथ जुड़ने का और भी तो कारण है। दोनों शक्तिशाली देश हैं। दोनों परमाणु शक्तियां हैं।

फिर हमने ऐसा होने क्यों दिया?

बहुत लंबे समय से हमारी विदेश नीति घरेलू चिंताओं से प्रभावित रही है।

इसके बावजूद, भारत के चीन के साथ महत्वपूर्ण व्यापारिक रिश्ते हैं।

हमारे नेता जो सोचते और कहते हैं, उससे देश की भावना हमेशा प्रभावित होती है। जब (अटल बिहारी) वाजपेयी बस से लाहौर गये थे, तो इस बात को लेकर काफ़ी उत्साह था कि आख़िरकार, पाकिस्तान के साथ हमारी समस्यायें ख़त्म हो जायेंगी। दुर्भाग्य से कारगिल हो गया। इसके बाद, हम यह नहीं भूल सकते कि (पूर्व प्रधानमंत्री) मनमोहन सिंह और (पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति) जनरल (परवेज़) मुशर्रफ़ के बीच एक आपसी समझ बन चुकी थी।

भारत के सबसे वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी ने कहा था कि अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय सेना तालिबान के ख़िलाफ़ जमकर लड़ेगी। क्या यह अंदाज़ा ग़लत था?

जब उनके अपने राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ही भाग निकले, तो एएनए क्या लड़ाई लड़ सकता था ?

अमेरिका पर एएनए को पर्याप्त रूप से सुसज्जित नहीं करने का आरोप लगाया जा रहा है।

अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ लड़ने को लेकर सेना बनाना बहुत मुश्किल है। ये सबकुछ आसान नहीं है। एएनए को इसके बारे में पता था, और मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर उनमें से कई तालिबान में शामिल हो जायें।

क्या उत्तरी गठबंधन(Northern Alliance) तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ पायेगा?

हम जिस उत्तरी गठबंधन की बात करते हैं, वह 1990 के दशक का है, जब अहमद शाह मसूद ज़िंदा थे और उन्हें ईरान और रूस का समर्थन हासिल था। आज इसमें बहुत कुछ नहीं बचा है। ये सभी लोग आख़िरकार तालिबान के साथ शांति स्थापित कर लेंगे।

क्या तालिबान ने अमेरिका को पछाड़ दिया है?

मुझे नहीं लगता कि अमेरिका ने खुद को पछाड़ने दिया है। एक मायने में तो उन्होंने बाक़ी सभी को चतुरराई से पीछे छोड़ दिया है। यह तो ट्रम्प के समय से ही बाहर निकलना चाहता था। लोग इसके लिए बाइडेन (अमेरिकी राष्ट्रपति) को दोष देते हैं...पूरी अफ़ग़ान परियोजना ही विनाशकारी थी, और अमेरिकियों की इसी तरह की आदत रही है। वे जहां भी जाते हैं, उनकी लानत-मलानत होती है और दूसरों को उनके हाल पर छोड़कर चल देते हैं।

हम नहीं भूल सकते कि उन्होंने अपने पीछे कितनी बड़ी संख्या में हथियार छोड़ गये हैं।

यह सब सोच-समझकर किया गया है। तालिबान के साथ समझौता हो गया है। अगर आप ग़ौर करें, तो तालिबान ने एक भी अमेरिकी को नुक़सान नहीं पहुंचाया है। काबुल छोड़ने से पहले तालिबान ने (भी) हमें (भारतीयों) को अपनी सुरक्षा का आश्वासन दिया है। उन्होंने हमसे नहीं जाने को कहा है।

भारत सरकार एक जकड़ में फंस गया है। वह जानता है कि पाकिस्तान आतंकवाद का सबसे अहम ज़रिया रहा है।

काफ़ी सही है। यह एक हक़ीक़त है। हमें इससे निपटना होगा। ऐसा 1989-90 से हो रहा है। (फिर भी) यह एक अलग मामला है। अब चीज़ें बेहतर होने लगी हैं। 2003 से लेकर 2007 के बीच के साल शांतिपूर्ण रहे। अब, फिर से स्थिति बहुत बेहतर है। हमें कम से कम पाकिस्तान के साथ बातचीत करने की ज़रूरत है, चाहे हमारे बीच कोई समझौता हो या न हो। या तो हम उन्हें धरती के ऊपर से नीचे फेंक दें ! लेकिन, जब युद्ध कोई विकल्प ही नहीं है, तो तार्किक रूप से अक़्लमंदी तो यही है कि हमें बात करने की ज़रूरत है।

आपको क्या लगता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने तालिबान क़ैदियों को जेलों से रिहा करने के लिए पूर्व अफ़ग़ान सरकार पर दबाव क्यों डाला? उनमें से कई के सिर पर तो बड़ी फिरौती के आरोप थे।

वह तो सौदे का हिस्सा था। ये सभी ऐसे सवाल हैं, जो हमारी सरकार को संयुक्त राज्य अमेरिका से पूछना चाहिए था कि बताइये 'अब हम यहां से कहां जायें, जबकि आप बाहर निकल रहे हैं ?' हम संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ दैनिक आधार पर बातचीत कर रहे हैं। हमारे विदेश मंत्री हर दिन संयुक्त राज्य के विदेश मंत्री के साथ बात कर रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान में सभी के लिए सहूलियत भरे हालात हैं, लेकिन हमारा क्या ?

उस देश में हमारी भी बड़ी भूमिका है। हमें सिफ़र हो जाने को लेकर सहमत क्यों होना चाहिए? या इससे पहले कि हम कहें कि, 'हमने आपसे कहा था' ? क्या हम कश्मीर में आतंक(वाद) के आने का इंतज़ार कर रहे हैं, सभी को पता है कि आतंकवाद पाकिस्तान से आया है। 1989 से क्या किसी ने हमारी मदद की है ? क्या अमेरिकी या ब्रिटिश या रूसी हमारे बचाव में आये हैं? हमें अपनी मदद ख़ुद करनी पड़ी है।

मुद्दा यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हमारे ख़ास रिश्ते रहे हैं, जिसे हम रणनीतिक रिश्ता कहते हैं। हालांकि, हम इस दुनिया में सिर्फ़ अमेरिकी समर्थन के सहारे नहीं रह सकते। हम इसी पड़ोस में रहते हैं। अब ज़रा ईरान को देखिये। तालिबान सुन्नी हैं, और ईरानी शिया हैं, लेकिन तालिबान को ईरानियों से कोई समस्या नहीं है और तालिबानियों को भी ईरान से कोई समस्या नहीं है। तालिबान नेता शिया के मुहर्रम के जुलूस में शामिल हुए। हमें अफ़ग़ानिस्तान वापस जाने का रास्ता खोजना होगा। (इसे अंजाम देने का) तरीक़ा यही है हम उनसे बात करें, उनके साथ समझौते करे और उनके साथ कारोबार करें।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 ‘India has a Neighbourhood, Cannot Live on American Support Alone’—AS Dulat

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