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भारत के लिए फ़रज़ाद-बी का नुक़सान केवल शुरूआत है
ऐसा लगता है कि ओएनजीसी विदेश और ईरान की राष्ट्रीय ईरानी तेल कंपनी के बीच बातचीत असफल हो गई है।
एम. के. भद्रकुमार
22 Oct 2020
Translated by महेश कुमार
ईरान के असालुएह में पेट्रोकेमिकल परिसर
ईरान के असालुएह में पेट्रोकेमिकल परिसर (फाइल फोटो) 

पीटीआई समाचार एजेंसी ने नई दिल्ली में ’सूत्रों’ के हवाले से बताया है कि ईरान में फरज़ाद-बी गैस क्षेत्र परियोजना भारत के हाथों से फिसल रही है। ऐसा लगता है कि ओएनजीसी विदेश और ईरान की नेशनल ईरानी ऑयल कंपनी के बीच की बातचीत असफल हो गई है।

आधिकारिक बात यह है कि मूल्य तय करने में फ़र्क था जिसका समाधान नहीं निकाला जा सका। जबकि अन्य का कहना है कि इस सौदे में ईरान ने अपनी रुचि खो दी है।

तेल और गैस रणनीतिक खनिज हैं और इसमें ऐसा बहुत कम ही होता है कि ’अनुकूल मूल्य’ की पेशकश की जाए। यदि ऐसा किया जाता है तो वह राजनीतिक कारणों से और असाधारण प्रकृति का मसला होता है। 

जब फरज़ाद-बी गैस दोहन के मैदानों की बात आती है, तो तीन अन्य कारक भी सामने आ जाते हैं। एक, गैस के मैदानों का बड़े पैमाने का भंडार (जिसके लगभग 21.7 ट्रिलियन क्यूबिक फीट होने का अनुमान है)। इसलिए यह कहना सही होगा कि मूल्य में छोटे से बदलाव से ईरान की आय में बड़ा नुकसान हो सकता हैं।

दूसरा, ईरान को फरज़ाद-बी को संभालने की ओएनजीसी की क्षमता के बारे में भी शक हो सकता है। ओएनजीसी विदेश, अपनी विदेशों की अधिकांश परियोजनाओं में एक छोटा शेयरधारक है। कई देशों में इसकी 14 उत्पादक परिसंपत्तियां/सुविधाएं हैं लेकिन यह अपने वार्षिक उत्पादन के मामले में मुख्य रूप से रूस पर (लगभग 60 प्रतिशत) निर्भर है।

हाल की रिपोर्टों के मुताबिक प्रमुख उत्पादकों (जिनमें ओपेक+निर्णयों के बाद) ने इन गॅस के मैदानों में प्राकृतिक गिरावट के कारण उत्पादन में तय सीमा से कटौती कर दी है, ओएनजीसी विदेश अपनी कैपेक्स योजनाओं (जैसा कि वास्तव में, दुनिया भर में सबसे बड़ी कंपनियां कर रही हैं) को कम कर रही है।

तीसरा, ओएनजीसी विदेश भी 25 प्रतिशत की हिस्सेदारी के तहत सरकारी कंपनियों के एक भारतीय कंसोर्टियम के रूप में इजरायल में अन्वेषण के काम में शामिल है। अब, फ़रज़ाद-बी फारस की खाड़ी में ईरान-सऊदी समुद्री सीमा पर स्थित है, जो बेहद संवेदनशील इलाका है।

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इज़राइल खाड़ी की भू-राजनीति में अब बढ़ता हुआ मुख्य कारक है। यह कहना सही होगा कि यह सरकार की ओर से एक अविश्वसनीय रूप से मूर्खतापूर्ण कदम था जिसने ओएनजीसी विदेश को इजरायल में अन्वेषण के काम में धकेल दिया था। (इसके बाद ही जुलाई 2017 में पीएम मोदी की इज़राइल यात्रा हुई थी।)

ऐसा लगता है कि मोदी सरकार को इज़राइलियों से धोखा मिला है वे मूर्ख बन गए। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू आमतौर पर त्वरित सोच रखते हैं, और उनका इरादा ओएनजीसी विदेश की फरज़ाद-बी परियोजना को रास्ते से हटाना हो सकता है, जहां भारतीय कंपनी ने 2008 में अब तक अन्वेषण काम को सफलतापूर्वक किया था, जिससे व्यापार की बहुत बड़ी संभावनाएं पैदा हो रही थी और अब यह हमारे पक्ष में था कि हम व्यापार और उत्पादन की शर्तों पर ठीक से बातचीत करते।

अनुबंध के अनुसार इजरायल में ओएनजीसी विदेश को 2021 तक काम करना है। आज तेल मूल्य पत्रिका की एक पत्रिका में एक शीर्षक के साथ सनसनीखेज रिपोर्ट कहती है कि इजरायल ने इस बात को सुनिश्चित किया कि भारत-ईरान मेगा ऊर्जा परियोजना को सफलतापूर्वक मार दिया जाए, जिससे भारत-ईरान संबंधों को न केवल बड़े पैमाने पर बढ़ावा मिलता बल्कि यह सौदा  बहुत लंबे समय तक काम करता। 

इस बीच गौर करने की बात यह है कि, चीन और ईरान के बीच 25 साल के लिए 400 बिलियन डॉलर का आर्थिक समझौता अंतिम चरण में है। ईरान की विदेश नीतियां व्यावहारिक और लचीली हैं, लेकिन तदर्थता से बहुत दूर हैं। ईरान एक क्षेत्रीय शक्ति है और विश्व स्तर पर लंबे खेल में मौजूद है।

अगर अंदाज़ा यह था कि सितंबर में विदेश मंत्री एस॰ जयशंकर के तेहरान में एक दिन का पड़ाव डालने से ईरान पिघल जाएगा तो यह काफी गलत अंदाज़ा था। फरज़ाद-बी का सबक यह है कि: दोस्ती को पक्का नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि एक फायदेमंद रिश्ता आपसी दिलचस्पी और आपसी सम्मान पर आधारित होना चाहिए।

लेकिन फरज़ाद-बी केवल नुकसान की शुरुआत है। भारत-ईरान संबंध को एक रणनीतिक झटका लगने वाला है। ईरान वैसे भी मालाबार में ऑस्ट्रेलिया के साथ होने वाली एक्सरसाइज पर नज़र रखे हुए है जिसके भविष्य में भारत और ईरान के मूल हितों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की दिशा में बड़ा रोड़ा बन कर उभरने की संभावना है।

बिना किसी संदेह के भारत की चार देशो (क्वाड) की रणनीति ईरान के साथ भारत के संबंधों को जटिल बनाएगी। फारस की खाड़ी का कोई भी राज्य (या इजरायल) इस क्वाड का हिस्सा नहीं बनना चाहेगा, क्योंकि वे चीन के साथ संपन्न आर्थिक साझेदारी में आसियान देशों के हितधारकों में से एक हैं।

जैसा कि क्वाड देश समुन्द्र में एक साथ मिलकर अपने ठिकानों से भारत या डिएगो गार्सिया, हिंद महासागर में "पनडुब्बी" ढूंढ रहे हैं, इस तरह का सैन्य गठबंधन ईरान के लिए एक सुरक्षा चुनौती के रूप में उभरेगा, विशेष रूप से अरब सागर के उत्तरी टीयर में जहां ईरानी नौसेना के ठिकाने है।

यह तय है कि हिंद महासागर के सैन्यीकरण को "मेजबान क्षेत्रीय शक्तियों द्वारा केवल एक विस्तारवादी नीति के रूप में देखा जाएगा- न केवल चीन बल्कि पाकिस्तान, ईरान और संभवतः, रूस- और अफ्रीका के पूर्वी तट के किनारे बसे देश भी इसे एक खतरा मान सकते हैं। 

यह भारत को खुद के मैदान में अलग-थलग कर देगा और अंततः अन्य देशों को भारत की महत्वाकांक्षाओं को रोकने के लिए एक विरोधी रणनीती बनाने के लिए उकसाएगा। आखिर पूर्ण सुरक्षा जैसी कोई बात होती नहीं है। क्वाड के बारे में भारतीय राजनयिकों की किसी भी प्रकार की लफ़्फ़ाज़ी या हल्की बात को भारत के पड़ोसी देश क्वाड को एक अन्य ब्रिक्स या एससीओ से अधिक कुछ नहीं मानते हैं।  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

India’s Loss of Farzad-B is Only the Beginning

National Iranian Oil Company
ONGC
IRAN

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