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भारत
राजनीति
गुजरात में भय-त्रास और अवैधता से त्रस्त सूचना का अधिकार
हाल ही में प्रदेश में एक आरटीआई आवेदक पर अवैध रूप से जुर्माना लगाया गया था। यह मामला आरटीआई अधिनियम से जुड़ी प्रक्रियात्मक बाधाओं को परिलक्षित करता है। यह भी दिखाता है कि इस कानून को नागरिकों के वास्तविक मौलिक अधिकार बनने में अभी काफी लंबा सफर तय करना है।
अनुषा आर॰
03 Feb 2022
RTI

यह साल 2022 है। देश में सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 (आरटीआई अधिनियम) को पारित हुए आज लगभग 17 वर्ष बीत चुके हैं। यद्यपि,एक क्रियाशील लोकतंत्र में, उभरती हुई क्षेत्रीय वास्तविकताओं के परिणामस्वरूप समय-समय पर विधायी संशोधन-बदलाव होते रहते हैं, जो कानून को मजबूत करते हैं। लेकिन इस बारे में हमारा अनुभव कुछ और ही बताता है। इसी वास्तविकता के संदर्भ में यह लेख समय के साथ आरटीआई अधिनियम के व्यवस्थित रूप से कमजोर होते जाने या कमजोर किए जाने की प्रक्रिया पर रोशनी डालने की एक कोशिश है। लेख  में एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी के जरिए बताया गया है कि कैसे गुजरात में एक आरटीआई अपीलीय प्राधिकरण ने सूचना अधिकार कानून के तहत सूचना मांगने वाले पर ही 10,000 रुपये का जुर्माना ठोक दिया। 

यह वाकयात आरटीआई अधिनियम के क्रियान्वयन में अधिकारियों द्वारा डराने-धमकाने और अवैधताओं के बड़े पैटर्न का खुलासा करता है। यह भी जाहिर करता है कि भारत में सूचना के अधिकार को एक बुनियादी मौलिक अधिकार बनने के लिए अभी मीलों का फासला तय करना है।

सूचना अधिकार को मौलिक सिद्धांतों के साथ शुरू करते हुए इसे पीयूसीएल मामले, राज नारायण मामले, और विशेष रूप से एसपी गुप्ता मामले के जरिए स्थापित किया गया है, जहां सूचना के अधिकार को नागरिकों के मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। एसपी गुप्ता मामले में तो सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया था कि "एक खुली सरकार की अवधारणा सीधे-सीधे उसके नागरिकों के जानने के अधिकार देने से निकली है, जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति के गारंटीशुदा अधिकार में निहित है। इसलिए सरकार के अपने कामकाज के संबंध में सूचनाओं के खुलासे का जरूर ही एक नियम-कायदा होना चाहिए।" 

देश में आरटीआई अधिनियम-2005 पेश होने से काफी पहले,1976 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया था कि अनुच्छेद 19(1)(ए), भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी के अलावा, सार्वजनिक हित से संबंधित मामलों पर सूचना-जानकारी पाने के नागरिकों के अधिकार की गारंटी देता है।

इतने मजबूत न्यायिक सिद्धांत के बावजूद,पिछले कुछ वर्षों में,पीआइओ और अदालतों द्वारा कानून की संकीर्ण व्याख्या की जा रही है, रिक्त पदों को भरने में अत्यधिक देरी की जा रही और ताकादे के बावजूद सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं की जा रही है, आरटीआई संशोधन अधिनियम-2019 (जिसके तहत मूल कानून में संशोधन किया गया) ने इस कानून की मूल एवं स्वतंत्र भावना के साथ छेड़छाड़ की गई और उनके जरिए आरटीआई अधिनियम को शक्तिहीन बनाया गया। आज आलम यह है कि सूचना पाने के मामलों का अम्बार लग गया है और आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसा बढ़ गई है और कई मामलों में तो उनकी जान तक ली गई है।

सतर्क नागरिक संगठन और सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज द्वारा वर्ष 2018-19 में किए गए शोध से पता चला कि 45 फीसदी से भी कम लोगों को उनके द्वारा मांगी गई सूचना दी गई जबकि 55 फीसदी लोगों को सूचनाएं नहीं दी गई और ऐसे लोगों में महज 10 फीसदी ने ही सूचना पाने के लिए दोबारा अपील करने की हिम्मत जुटा सके। आरटीआई कानून की इस दयनीय स्थिति की अव्वल वजहों में एक है-आरटीआई आवेदनों का सही-सही और समय पर जवाब देने में विफल रहने वाले पीआइओ को दंडित करने में कोताही करना, जबकि इसके बारे में बकायादा दंडात्मक प्रावधान है। इधर, सरकार ने सूचना मांगने वालों की परेशानी को और बढ़ाते हुए आरटीआई अधिनियम-2005 की धारा 13, 16 और 27 में 2019 में एक संशोधन करके इस कानून की स्वायत्तता की भावना को ही समाप्त कर दिया। 

मूल अधिनियम-2005 में (2019 के संशोधन से पहले), केंद्र के साथ-साथ राज्यों में एक मुख्य सूचना आयुक्त और एक सूचना आयुक्त तय किया गया था और उनका कार्यकाल पांच साल (या 65 वर्ष की आयु तक, इनमें जो भी पहले हो) निर्धारित किया गया था। लेकिन 2019 के संशोधन में यह जोड़ा गया कि "ऐसी शर्ते केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जा सकती हैं।" इसी तरह, 2019 के संशोधन में यह भी प्रावधान कर दिया गया कि मुख्य सूचना आयुक्त और एक सूचना आयुक्त (केंद्र के साथ-साथ राज्यों के) के वेतन-भत्ते और उनकी अन्य सेवा शर्तें "केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित" होंगी। इस तरह, इन दोनों संशोधनों के जरिए केंद्र सरकार के अधिक प्रत्यायोजन (डेलीगेशन) और सत्ता-संकेंद्रण का मार्ग प्रशस्त हो गया। 

मूल अधिनियम की धारा 13 (2019 के संशोधन के पहले) में प्रावधान था कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के वेतन-भत्ते और सेवा के अन्य नियम एवं शर्तें क्रमशः मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के समान होंगी-जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष था। इसी संशोधित-प्रावधान के तहत सूचना आयुक्तों की उस वास्तविक ताकत और स्वतंत्रता को नष्ट कर दिया गया, जो मूल सूचना अधिकार कानून में उन्हें दी गई थी। इस तरह उनके पदों को देश की नौकरशाही में महज एक और पद बना दिया। 

यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि 2019 का संशोधन पूर्व-विधान परामर्श नीति-2014 का उल्लंघन करके पारित किया गया था, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि विधेयक के अंतिम प्रारूप पर निर्णय लेने और उसे संसद में पेश किए जाने से पहले इसकी पूर्व-विधायी जांच होनी चाहिए। इसमें जनता को आपत्तियां उठाने का उचित अवसर देने की गुंजाइश थी, जिसे 2019 के संशोधन अधिनियम में नहीं लागू किया गया। कुल मिलाकर, केंद्र अपनी इन मनमानी कार्रवाइयों के माध्यम से सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, शर्तों और वेतन को तय करने के लिए खुद को निरंकुश अधिकार दे दिया। यह सूचना अधिकारियों की स्वतंत्रता का हरण कर लेता है और उन्हें हमेशा सरकारी प्रतिबंधों से डराता रहता है। ये कारक सार्वजनिक जवाबदेही और पारदर्शिता के खिलाफ एक मजबूत निवारक के रूप में काम करना जारी रखते हैं-जो किसी भी लोकतंत्र के निर्माण में बाधक हैं। 

हिम्मत नगर मामला

आज से आठ महीने पहले गुजरात के साबरकांठा जिला न्यायालय के जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) के यहां आरटीआई अधिनियम की धारा 6 के तहत एक आवेदन दिया गया था। इसके तहत त्वरित अदालतों और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम-2012, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989, घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम-2005 के तहत गठित विशेष अदालतों में लंबित मुकदमों एवं COVID-19 की पहले लॉकडाउन की अवधि (2020) के दौरान जिला और सत्र न्यायालय में (दंड प्रक्रिया संहिता,1973 के अध्याय 33 के तहत) जमानत संबंधी सभी मामलों की जानकारी मांगी गई थी। यह जानकारी निचली न्यायपालिका के कामकाज को समझने और यह देखने के लिए मांगी गई थी कि प्राथमिकता वाले मामले (जो व्यक्तियों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करते हैं) को उचित रूप से सूचीबद्ध किया गया है और उन्हें नियमानुसार निपटाया गया है।

हालांकि, इस आवेदन को पीआइओ ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि मांगी गई जानकारी (अर्थात वाद-सूची) को "रिकॉर्ड पर जानकारी" या सार्वजनिक जानकारी के अंतर्गत नहीं है। इन्ही कारणों से वे सूचनाएं आवेदक को नहीं दी जा सकती हैं। दरअसल, उनका यह तर्क उस कानून की गलत समझ है, जिसके आधार पर आवेदक को मनमाने ढंग से जानकारी से वंचित किया गया है। मनीष खन्ना मामले में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वाद-सूची जैसे रिकॉर्ड, भले ही वे अस्थायी प्रकृति के हों, आरटीआई अधिनियम की धारा 2 (एफ) के तहत "रिकॉर्ड" के दायरे में आते हैं, और आवेदक उन वादों की सूचियों की प्रतियों को पाने का हकदार है, भले ही उनका अस्तित्व अल्पकालिक हों। 

यह माना गया कि जब तक कोई मामला है,वह आरटीआई अधिनियम के तहत उस अवधि के लिए निश्चित रूप से एक "सूचना" है और आवेदक को किसी भी अवधि के लिए वाद-सूची (ओं) तक पहुंच की अनुमति दी जानी चाहिए, जब ये सार्वजनिक प्राधिकरण या उसके किसी भी अधिकारी के नियंत्रण में हों, भले ही उसके बाद ऐसी वादों की सूची का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया हो। 

आवेदक/अपीलकर्ता ने आरटीआई की धारा 19 के तहत दर्ज आवेदन में उक्त सूचनाओं तक पहुंच के लिए मनीष केस का आधार लिया था। हालांकि, अपीलकर्ता को अपीलीय प्राधिकारी से गंभीर दुराव और धमकी तक झेलनी पड़ी। यह आरोप भी लगाया गया कि आवेदक ने आधारहीन दुर्भावनापूर्ण मंशा के तहत यह आरटीआई आवेदन दाखिल किया है। 

यह ध्यान रखना प्रासंगिक है कि यह आरटीआई आवेदन COVID-19 की चुनौतीपूर्ण अवधि के दौरान दिया गया था और जब चक्रवात तौकता ने तटीय गुजरात के इलाके में कहर बरपाया था। चूंकि आवेदक और उनकी टीम चक्रवात तौकते के पीड़ितों को कानूनी सहायता प्रदान करने में जुटी हुई थी, इसलिए ऑनलाइन अपील सुनवाई के दौरान ऑन-ग्राउंड कनेक्टिविटी एक मुद्दा था-जिसके बारे में अपीलीय प्राधिकारी को विधिवत सूचित भी कर दिया गया था। आवेदक की इस काम में तैनाती के बावजूद, अपीलीय प्राधिकारी ने अपीलकर्ता को नेटवर्क कनेक्टिविटी का मुद्दा उठाने और कृषि क्षेत्र की सुनवाई में भाग लेने के लिए उन्हें और अधिक परेशान किया। अपीलीय प्राधिकारी ने आगे कहा,"आप किसान को लानत है कि आपको इस अदालत के लिए कोई सम्मान नहीं है और आप फिल्ड से कार्यवाही में हिस्सा ले रहे हैं।" 

यह न्यायपालिका के उस रवैये को दर्शाता है,जब सामान्य नागरिकों द्वारा सूचना के अधिकार के तहत दायर उनके आवेदनों के निबटान की बात आती है। इससे भी अधिक उन नागरिकों के प्रति उनके रवैये का पता चलता है, जिनके पास ऑनलाइन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जैसे बुनियादी ढांचे तक पहुंच नहीं है या जिनके पास नहीं है। ऐसे समय में जब रोजमर्रा की चीजों की पूर्ति के लिए और यहां तक कि बुनियादी अस्तित्व (जैसे टीके) के लिए प्रौद्योगिकी पर बढ़ती निर्भरता की वजह से डिजिटल विभाजन तेजी से बढ़ा है, एक उचित कार्यालय के ढांचे में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आरटीआई सुनवाई में भाग लेने जैसी रवायत की उम्मीद करना नौकरशाही की अपने नागरिकों से एक नाजायज अपेक्षा है, जो देश की जमीनी हकीकत की उनकी नावाकिफी से पैदा हुई है। आखिरकार, यह जिला स्तर पर आरटीआई आवेदनों की सुनवाई या उन पर विचार के लिए नियुक्त अपीलीय प्राधिकारी की तरह सत्ता में बैठे किसी अधिकारी के लिए अत्यधिक अशोभनीय है।

इसके बावजूद आवेदक ने इस उम्मीद में कि अपीलीय प्राधिकारी उनका पक्ष ठीक से सुनेंगे, इसके लिए भौतिक सुनवाई करने का अनुरोध किया था। लेकिन इसके पहले कि उनकी अपील पर विचार किया जाता, आवेदन को खारिज कर दिया गया था। यह प्रक्रिया "ऑडी अल्टरम पार्टेम" सिद्धांत (जिसका अर्थ है,"दूसरे पक्ष को भी सुना जाए") के तीव्र उल्लंघन से कम नहीं थी। प्राधिकरण ने आवेदन दाखिल करने का बार-बार कारण पूछकर आवेदक को परेशान किया-जो कि आरटीआई अधिनियम की धारा 6 (2) धारा का स्पष्ट उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि सूचना मांगने वाले को सूचना मांगने या पाने के लिए अपने अनुरोध का कोई कारण बताना जरूर नहीं है। 

अपीलीय प्राधिकारी ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए कहा कि आवेदक को अदालत के कामकाज पर नजर रखने से संबंधित जानकारी मांगने का कोई अधिकार नहीं है। उनका गैरकानूनी व्यवहार यहीं नहीं रुका; प्राधिकरण ने इसके और आगे बढ़कर आवेदक के विरुद्ध 10,000/- रुपये का जुर्माना लगाया ताकि वे और उन्ही के जैसे आवेदक ऐसे आवेदन न दे सकें। यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि न तो आरटीआई अधिनियम और न ही गुजरात उच्च न्यायालय (सूचना का अधिकार) नियम-2005 ही किसी सार्वजनिक प्राधिकरण को किसी आवेदक पर जुर्माना ठोकने के लिए अधिकृत करता है। आरटीआई आवेदन प्रक्रिया नियमित अदालती सुनवाई के समान नहीं है, और इसलिए अपीलीय प्राधिकारी के पास जुर्माना लगाने की शक्ति नहीं है। 

वाद-सूची जैसी जानकारी सार्वजनिक जवाबदेही निर्धारित करने का अभिन्न अंग है और वास्तव में, उन सूचनाओं का खुलासा हिम्मत नगर जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) पीआइओ द्वारा आरटीआई अधिनियम की धारा 4 के तहत तत्परता से किया जाना चाहिए था। इस मामले की सुनवाई करने वाले अपीलीय प्राधिकारी के रूप में, जिला न्यायाधीश को पीआइओ को आरटीआई अधिनियम की भावना को बरकरार रखने के लिए अनुरोध की गई जानकारी को सक्रिय रूप से प्रकट करने का आदेश देना चाहिए था। इस तरह की महत्त्वपूर्ण जानकारी का तत्परतापूर्वक खुलासा न करके, पीआइओ ने आरटीआई अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन में भारी बाधाएं ही पैदा की हैं। लेकिन जो हुआ वह वास्तव में इस वैध अपेक्षा से काफी अलग था। सूचना देने का अनुरोध करने के लिए आवेदक पर गैरकानूनी रूप से जुर्माना (10,000 रुपये) लगाने की बजाए उनका त्वरित खुलासा किया जाना चाहिए था, लोक प्राधिकरण ने आवेदक को एक अवरोधक मानते हुए उनका नाम, पता और संपर्क विवरण सारा कुछ स्थानीय समाचार पत्र में प्रकाशित करा दिया। 

यह मामला, अखबार में इस हेडिंग के साथ छापा गया-आरटीआई आवेदक पर आरटीआई अधिनियम के दुरुपयोग के लिए 10,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया। यह न केवल आवेदक की निजता के अधिकार का गंभीर उल्लंघन है, बल्कि यह आम तौर पर अपीलकर्ता और आरटीआई आवेदकों को सार्वजनिक सूचना से इनकार करने के लिए प्रक्रियात्मक उपायों का पालन करने से भी गलत तरीके से धमकाता है। 

अपीलीय प्राधिकारी की इस कार्रवाई और सूचना देने से उनके इनकार करने के आदेश से व्यथित, उस अपीलकर्ता ने आरटीआई अधिनियम की धारा 18 (1) (एफ) के तहत गुजरात सूचना आयोग (जीआइसी) से शिकायत दर्ज की। इसके बाद जीआइसी ने अपीलीय प्राधिकारी हिम्मत नगर को निर्देश जारी कर उनसे निर्धारित समय के भीतर अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया,पर उन्होंने अभी तक अपना जवाब नहीं दिया है। अपीलीय प्राधिकारी के आदेश के 'अनुपालन के तहत' आवेदक ने इस उल्लेख के साथ 10,000/- रुपये का चेक भेजा कि उनकी शिकायत जीआइसी के पास लंबित है। इसलिए, अपीलीय प्राधिकारी को चेक को भुनाने से पहले मामले के निपटारे की प्रतीक्षा करनी चाहिए। 

शिकायत विचाराधीन होने के बावजूद और बिना किसी पूर्व सूचना के आवेदक के चेक का भुगतान कर लिया गया। इस अनुचित कटौती को तत्काल जीआइसी और मामले के अपीलीय प्राधिकारी (हिम्मत नगर, जिला न्यायालय) दोनों के संज्ञान में लाया गया। लेकिन जीआइसी और अपीलीय प्राधिकारी दोनों ही इस आवेदक की इस लिखा-पढ़ी के प्रति गैर-जिम्मेदाराना रवैया अपनाए हुए हैं। आवेदन की स्थिति जानने के लिए जब शिकायत संख्या दर्ज की जाती है तो जीआइसी वेबसाइट कहती है,"कोई रिकॉर्ड नहीं मिला।" यह भारत में आरटीआई की सचमुच गंभीर स्थिति का द्योतक है। 

दमघोंटू संवाद और असहमति के बढ़ते राजनीतिक माहौल के साथ, जनता के वैध हित में मांगी गई सूचनाएं देने से इनकार करना, इसकी बजाए आवेदक पर ही जुर्माना लगा देना और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को लेकर इसकी तदनंतर अस्पष्टता तो वाकई बेहद निराशाजनक और खतरनाक है।

अध्ययन बताता है कि आम लोगों की सूचना तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सरकारी कर्मचारियों को प्रोत्साहित करना कानून के सम्यक पालन कराए जाने के महत्त्वपूर्ण मुद्दों में से एक है। सार्वजनिक अधिकारियों को लोगों से यह सवाल कि "आप क्यों पूछ रहे हैं” करने की बजाए यह कहना चाहिए कि "यहां आप किस तरह से पूछ सकते हैं।" जाहिर है कि यह बदलाव लाने की महत्ती आवश्यकता है। इस कानून में और इसके कार्यान्वयन में मौजूदा खामियों को दूर किए बिना, सूचना का अधिकार एक अमूर्त अधिकार बना रहेगा और नागरिकों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए सत्ता द्वारा उत्पीड़ित करने का एक उपकरण मात्र होगा। 

(अनुषा आर सेंटर फॉर सोशल जस्टिस में रिसर्च एसोसिएट हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

Intimidation, Illegality Afflict Right to Information in Gujarat

RTI Act
Gujarat
Public Information Officer
district court
Fundamental Rights
Centre for Social Justice

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