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भारत
राजनीति
यह एक विडंबना ही है कि एक ओबीसी प्रधानमंत्री आरक्षण ख़त्म करना चाह रहा है : न्यायमूर्ति ईश्वरैया
रोहिणी आयोग आरक्षण के मामले में केंद्रीय सूची में ओबीसी जातियों की उपश्रेणी तैयार करने के तरीक़े की खोज में आंखें मूंदे हुए है।
एजाज़ अशरफ़
03 Mar 2021
Translated by महेश कुमार
ओबीसी प्रधानमंत्री

पिछले तीन वर्षों से न्यायमूर्ति जी॰ रोहिणी आयोग अन्य पिछड़ा वर्ग, जिसे पिछड़ी जातियों के रूप में भी जाना जाता है, को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में उनके लिए आवंटित 27 प्रतिशत आरक्षण को समान रुप से बांटने के लिए उपलब्ध डेटा पर विचार कर रहा है।

मीडिया रिपोर्टों के हवाले से कहा जा रहा है कि ओबीसी में शामिल जातियों को चार समूहों- 1, 2, 3 और 4 में विभाजित किया जा सकता है और 27 प्रतिशत आरक्षण को 2, 6, 9 और10 प्रतिशत में विभाजित किया जा सकता है। इस प्रकार, 2 प्रतिशत सरकारी नौकरियां विशेष रूप से समूह 1 की जातियों के लिए आरक्षित होंगी। आयोग को जुलाई तक अपनी रिपोर्ट पेश करने की उम्मीद है।

रोहिणी आयोग ने ओबीसी को उपश्रेणी में बांटने की जो पद्धति अपनाई है, उसके बारे में संदेह जताया गया है। संदेह व्यक्त करने वालों में जस्टिस वी॰ ईश्वरैया भी शामिल हैं, जो सितंबर 2013 से अक्टूबर 2016 के बीच राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष थे। वे 14 साल तक आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी रहे हैं और 2013 में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे। वे अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग महासंघ के संस्थापक अध्यक्ष भी हैं।

न्यायमूर्ति ईश्वरैया को हाल ही में यह कहते हुए उद्धृत किया गया कि रोहिणी आयोग की कार्यप्रणाली "अवैज्ञानिक, नृशंश और अवैध है।" इस साक्षात्कार में वे बता रहे हैं कि उन्हें क्यों लगता है कि आयोग की कार्यप्रणाली दोषपूर्ण है, और यह कैसे ओबीसी आरक्षण को कम करने की प्रक्रिया में एक खास तत्व के रूप में काम करेगी। 

आपने हाल ही में मीडिया को यह क्यों कहा कि केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग पर न्यायमूर्ति जी रोहिणी की अध्यक्षता में बने आयोग द्वारा अपनाई गई विधि "अवैज्ञानिक, नृशंस और अवैध" है?

रोहिणी आयोग ने केंद्रीय सूची [जिसे केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण के लिए इस्तेमाल किया जाता है] में ओबी सी जातियों की उपश्रेणी बनाने के लिए 2011 में आयोजित किए गए सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना को ध्यान में नहीं रखा है। आयोग केवल जाति-वार जानकारी देख रहा है जो केंद्र सरकार की नौकरियों के बारे में विभिन्न सरकारी विभाग में उपलब्ध है। या, इसे दूसरे तरीके से देखा जाए कि आयोग जो गणना कर रहा है वह कि ओबीसी जाति के पास केंद्र सरकार की नौकरियों का कितना प्रतिशत है। यह संवैधानिक रूप से अविवेकपूर्ण और अवैज्ञानिक विधि है।

क्यों?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 340 भारत के राष्ट्रपति को आदेश देता है कि "भारत के भीतर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थितियों की जाँच करने के लिए आयोग को नियुक्त करे और उन मुश्किलों का पता लगाए जिनमें वे काम करते हैं"। अनुच्छेद 340 इस बात को स्पष्ट करता है कि कोई भी आयोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों [जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में जाना जाता है] की उचित जांच के बाद ही सिफारिशें कर सकता है।

हालांकि, रोहिणी आयोग ने उन खास जातियों और समुदायों की स्थितियों का जायजा लेने के लिए कोई राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण नहीं किया है, और न ही ये जांच की गई है कि वे किस किस्म की कठिनाइयों को झेलते हैं। इस तरह के महत्वपूर्ण सर्वेक्षण के बिना, आयोग आँख मूँद कर केंद्र सरकार की नौकरियों में कुछ जातियों को नौकरियों के अवसर न मिलने या कुछ के उचित  प्रतिनिधित्व की समस्या का हल ढूंढ रहा है।

लेकिन केंद्र सरकार के पास इस बात का डेटा जरूर होगा कि किस जाति में 27 प्रतिशत नौकरियां हैं जो ओबीसी के लिए आरक्षित हैं?

ऐसा कोई डेटा उपलब्ध नहीं है।

क्या मतलब?

ऐसी कई जातियां मौजूद हैं जो चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में भी प्रवेश नहीं कर पाई है। इसलिए, यह गणना करना संभव नहीं है कि ओबीसी में किस जाति के पास कितने प्रतिशत नौकरियां हैं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष के रूप में, मुझे कई जातियों के बारे में पता चला  जो घुमक्कड़ या खानाबदोश वर्ग की जातियाँ थीं। उनके पास कोई निश्चित निवास स्थान नहीं था, न ही वे शिक्षित हैं। उन्हें इस बात का भी इल्म नहीं था कि उनके लिए एक आरक्षण की नीति है। लगभग 50 प्रतिशत खानाबदोश लोग ओबीसी की केंद्रीय सूची में आते हैं। वे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की तुलना में कहीं अधिक पिछड़े हैं।

केंद्र सरकार को कम से कम इतना तो पता होगा कि ओबीसी जातियां उनकी नौकरियों में कितना प्रतिनिधित्व करती है?

ज़रुरी नहीं। जब कोई व्यक्ति केंद्र सरकार की नौकरी के लिए आवेदन करता या करती है, तो उसे केवल यह बताना होता है कि वह ओबीसी है या नहीं। निश्चित तौर पर, आवेदन करने वाले व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र देना होता है, जो उसकी जाति के बारे में जानकारी देता है, जैसे कि वह यादव या कुर्मी जाति से है या नहीं। व्यक्ति को अपने माता-पिता ला आय प्रमाण पत्र भी देना होता है, ताकि यह यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी आय क्रीमी लेयर की निर्धारित सीमा के नीचे है। [ओबीसी तबके के सदस्य जिनके माता-पिता की आय तय सीमा से उपर हैं, वे आरक्षित पदों के लिए आवेदन नहीं कर सकते हैं और उन्हे सामान्य वर्ग के साथ में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।]

तो सरकार उपलब्ध जाति प्रमाणपत्रों की गणना कर सकती है और पता लगा सकती है कि ओबीसी में किस जाति से कितने प्रतिशत नौकरियों में है, है कि नहीं?

पहले बता दूँ कि इस तरह के प्रमाणपत्र सार्वजनिक डोमेन में नहीं हैं। इसे जानने का कोई तरीका नहीं है कि कोई सरकारी विभाग किसी जाति की नौकरियों की सही संख्या सही रिपोर्ट कर रहा है या नहीं। जबकि उपश्रेणीकरण को सुनिश्चित करने का यह सबसे बड़ा उपकरण है ताकि आरक्षण के लाभों को यथासंभव समान रूप से फैलाया जा सके, यह भी सच है कि इसका उपयोग अक्सर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है जैसे कि सत्ताधारी पार्टी दूसरी जातिरों की कीमत पर कुछ सामाजिक समूहों को खुश करना चाहती है।

नौकरशाह अपने राजनीतिक आकाओं से प्रेरणा लेते हैं। जाति प्रमाण पत्र के आधार पर एकत्रित किए गए आंकड़ों की वास्तविकता के बारे में संदेह बना रहेगा। लेकिन किसी भी बात से अधिक होना यह चाहिए कि किसी भी जाति के पास नौकरियों का प्रतिशत या उसकी आबादी के प्रतिशत से जुड़ा होना चाहिए।

क्यों?

एससी और एसटी तबके को उनकी आबादी के अनुपात में नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और संसद/विधानसभाओं में आरक्षण दिया गया है। यह संविधान द्वारा अनिवार्य है। मेरा अपना विचार है कि प्रत्येक जाति की आबादी के कारक को नजरअंदाज करके ओबीसी को उपश्रेणी बनाना ठीक नहीं है। अगर ओबीसी के भीतर उन्नत समूहों या जातियों ने अपने हक़ से अधिक हासिल किया है, तो इसका क्या मतलब है? क्या आप उन्हें आरक्षण देने से इनकार करेंगे?

हम हकदारी को कैसे परिभाषित करते हैं?

हकदारी जनसंख्या से जुड़ा हुआ मसला है। मान लीजिए जाति एक्स ओबीसी आबादी का 15 प्रतिशत हैं और उसके लिए 10 प्रतिशत आरक्षित नौकरियां हैं। दूसरे शब्दों में, जाति एक्स को अभी भी अपनी आबादी और नौकरियों के अधिकार के बीच 5 प्रतिशत के अंतर को पाटना है। प्रत्येक जाति की आबादी को ध्यान में रखे बिना उपश्रेणीकरण से नौकरियों के प्रतिशत में कमी आ सकती है, जिसके चलते उस जाती के सदस्यों को आरक्षण पूल में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ सकती हैं। अगर जाति एक्स की आबादी को ध्यान में नहीं रखा जाता है तो ये आरक्षण की परिधि से बाहर हो सकते हैं जैसे कि मलाईदार परत के मामले में हुआ है। 

फिर, प्रत्येक जाति की आबादी को ध्यान में रखे बिना, उपश्रेणीकरण की प्रक्रिया सामाजिक वास्तविकता को छिपा सकती है। उदाहरण के लिए, जाति एक्स की आबादी 10 लाख है और 10 प्रतिशत नौकरियां ओबीसी के लिए आरक्षित हैं; एक लाख की आबादी वाली जाति वाय में सिर्फ एक प्रतिशत नौकरियां हैं। यदि आप केवल नौकरी के आंकड़ों के आधार पर जाते हैं, तो यह प्रतीत होता है, कि जाति एक्स, जाति वाय से बेहतर है। लेकिन एक बार जब आप उनकी आबादी को जान लेते हैं, तो आपको पता चलता है कि वे बराबर हैं। इस उदाहरण से आपको यह पता चलना चाहिए कि उपश्रेणी समूहों के बीच 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को विभाजित करते समय, उनके अधिकारों को उनकी आबादी के अनुपात में जोड़ा जाना चाहिए। यह तभी संभव होगा जब उपश्रेणियाँ आरक्षण को खत्म करने की तरफ न बढ़े। 

आपने उपश्रेणीकरण पर एक रिपोर्ट जमा की, है कि नहीं?

मुझे 13 फरवरी 2014 सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के संयुक्त सचिव से एक पत्र मिला था। तब यूपीए सरकार सत्ता में थी। सरकार ने पत्र के माध्यम से मुझे ओबीसी की केंद्रीय सूची को उप-वर्गीकृत करने की संभावना की जांच करने को कहा था। मैंने 2 मार्च 2015 को उपश्रेणीकरण पर अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी थी, तब तक मोदी सरकार सत्ता में आ गई थी।

उपश्रेणी पर काम करने के आपके तर्क क्या थे?

संविधान की प्रस्तावना सभी नागरिकों को न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की गारंटी देती है। मैंने अनुच्छेद 14 (कानून के सामने समानता), अनुच्छेद 15 (भेदभाव के खिलाफ रोक), अनुच्छेद 16 (सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता और नागरिकों के पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण) और अनुच्छेद 340 का हवाला दिया था। मैंने इंद्र साहनी केस 1992 का ध्यान दिलाया जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "नागरिकों के पिछड़े वर्ग" का मतलब अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग है।

चूंकि "पिछड़े वर्गों के नागरिकों" को पहले से ही एससी और एसटी में उप-वर्गीकृत किया जा चुका था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को भी उप-वर्गीकृत किया जाना चाहिए ताकि आरक्षण का लाभ सबसे पिछड़े तबके तक पहुंच सके।

इंद्र साहनी मामले में, न्यायाधीशों ने कहा कि मंडल ने सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए कुछ मानदंडों का उपयोग किया था, लेकिन ऐसा करने के लिए अन्य मानदंड या संकेत भी हो सकते हैं। अपनी रिपोर्ट में, मैंने कहा कि नौ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों- आंध्र प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, पुडुचेरी, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र ने पहले ही ओबीसी को उप-वर्गीकृत कर दिया है। इसके बाद यह पाया गया कि सर्वेक्षण के माध्यम से एकत्र किए गए वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर, राष्ट्रीय स्तर पर उपश्रेणीकरण भी किया जाना चाहिए।

आपने ओबीसी की केंद्रीय सूची में उप-श्रेणी बनाने के लिए क्या मानदंड सुझाए?

मैंने ओबीसी को तीन समूहों में विभाजित किया था। समूह ए अत्यंत पिछड़ा वर्ग, समूह बी अधिक पिछड़ा वर्ग और समूह सी में पिछड़ा वर्ग था। समूह ए या अत्यंत पिछड़े वर्गों में आदिवासी जनजातियाँ, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियाँ, निरंकुश जनजातियाँ, घुमक्कड़ जातियाँ जैसे कि भीख माँगना, साँप पकड़ना आदि शामिल किए थे। इन जातियों के नाम और उनके व्यवसायों को देखकर लगता है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये जातियाँ अत्यंत पिछड़े तबकों से आती हैं।

अधिक पिछड़े वर्गों में बुनकर, नाई, कुम्हार आदि जैसे व्यावसायिक समूह वाली जातियाँ शामिल होती हैं। पिछड़े वर्गों में भूमि के मालिक और छोटे व्यवसाय आदि से जुड़े लोग शामिल होंगे, मैंने उनकी जनसंख्या और सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के बारे में गहन सर्वेक्षण करने की सिफ़ारिश की थी।

क्या आपने तीनों श्रेणियों में से प्रत्येक के लिए आबादी के सर्वेक्षण की सिफारिश की थी?

हाँ, मैंने की थी। मैं ये कैसे नहीं कर सकता? आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट ने इंद्र साहनी और अन्य निर्णयों में बार-बार सुझाव दिया था कि आरक्षण और उपश्रेणी नीतियों के निर्धारण के लिए एक जातिगत जनगणना की जानी चाहिए।

वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के माध्यम से एकत्र किए गए आंकड़ों के महत्व को देखते हुए, आपको क्या लगता है कि रिपोर्ट अभी तक क्यों सार्वजनिक नहीं की गई है?

यूपीए नहीं चाहती थी कि लोग जमीनी तथ्यों को जानें। यह मोदी सरकार के मामले में भी सच है। एक बार अगर ओबीसी की वास्तविक आबादी का पता चल जाता है, तो उन्हें डर है कि ये समुदाय फिर आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की मांग करेगा। 

अंतिम जाति आधारित जनगणना 1931 में की गई थी। 1931 के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए, मंडल आयोग ने अनुमान लगाया था कि ओबीसी भारत की आबादी का 52 प्रतिशत है। हालांकि, मंडल ने कहा कि कई न्यायिक आदेशों ने आरक्षण की मात्रा पर 50 प्रतिशत की सीमा लगा दी है। एससी और एसटी के लिए पहले से ही 22.5 प्रतिशत कोटा लागू था। यह न्यायिक आदेशों का सम्मान करना ही था कि मंडल ने ओबीसी तबके के लिए केवल 27 प्रतिशत आरक्षण की ही सिफारिश की थी। यदि 2011 की जनगणना से पता चलता कि ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत नहीं और मान लो कि 70 प्रतिशत है, तो ओबीसी तबके के लिए कोटा बढ़ाने की मांग तीव्र हो जाती। 

जाहिर है, ऐसा हुआ तो सरकारी नौकरियों में अगड़ी जातियों या ऊंची जातियों की हिस्सेदारी घट जाएगी। सरकारी नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी उनकी आबादी से कई गुना अधिक है। यदि एससी और एसटी के लिए आरक्षण की मात्रा उनकी जनसंख्या के अनुपात में है, तो यह ओबीसी के मामले में भी समान होनी चाहिए। यह तर्क दोषपूर्ण नहीं हो सकता। उच्च जातियां भी अपनी आबादी के अनुपात में आरक्षण ले सकती है, जैसा कि एससी और एसटी के मामले में है।

उपश्रेणीकरण के लिए सरकार इतनी उत्सुक क्यों है?

ऐसा कर सरकार सबसे पिछड़े वर्गों को खुश करना चाहती है- और उनके वोट हासिल करना चाहती है। इससे भी बदतर बात यह है कि रोहिणी आयोग द्वारा अपनाई गई अवैध और अवैज्ञानिक पद्धति के माध्यम से ये सब किया जा रहा है। डर है कि ओबीसी कोटा के उपश्रेणीकरण से उन्नत समुदायों या उच्च जातियों को लाभ होगा। आपको आश्चर्य हो सकता है कि ऐसा क्यों कर होगा। मान लें कि ओबीसी चार समूहों में विभाजित हो जाते हैं, जिनमें से एक सबसे पिछड़ा है। यह संभव है कि तय श्रेणी के उम्मीदवार उनके लिए आवंटित नौकरियों को भरने में असमर्थ होंगे। फिर क्या ऐसी नौकरियां ओबीसी या जनरल कैटेगरी के भीतर उच्च श्रेणी में जाएंगी? हमारे पास इस चिंता का कोई जवाब नहीं है।

हालांकि मंडल ने 50 प्रतिशत कैप को हटाने की सिफारिश नहीं की थी, लेकिन क्या यह अजीब नहीं लगता कि मोदी ने उच्च जातियों से संबंधित आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10 प्रतिशत कोटा देने के लिए ऐसा किया?

यह एक विडंबना है कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण की शुरुआत की है। आपको इसे समझने के लिए समय में वापस जाने की जरूरत है। 2006 में, केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए मेजर जनरल (रिटायर्ड) एसएन सिंहो के तहत एक आयोग का गठन किया था, जिन्हे मौजूदा आरक्षण नीति कवर नहीं करती थी। आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (ईबीसी) वही हैं जिन्हें हम अब आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के रूप में जानते हैं। 2010 में, आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें विभिन्न मुख्यमंत्रियों की भी राय ली गई है कि क्या आरक्षण को ईबीसी तबके तक बढ़ाया जाना चाहिए।

गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ईबीसी आरक्षण को लेकर उत्साहित नहीं दिखे थे। मोदी ने आयोग से कहा कि ईबीसी आरक्षण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा की अनिवार्यता से परे होगा। उन्होंने यह भी कहा कि "पिछड़े वर्गों में शामिल होने की दौड़ लगी थी जो उचित नहीं थी।"

मैंने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को चुनौती देने वाली सर्वोच्च न्यायालय में दायर अपनी रिट याचिका में यह सब कहा है। सिंहो आयोग ने ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण की सिफारिश नहीं की थी। यह भी अनुमान लगाया गया कि ईडब्ल्यूएस भारत की आबादी का मात्र 5 प्रतिशत है। उस पांच प्रतिशत आबादी के लिए उन्होंने 10 प्रतिशत आरक्षण दिया है। वे लोग जिनके माता-पिता साल में 8 लाख रुपए कमाते हैं, जिनके पास खुद की 5 एकड़ जमीन है और एक घर या फ्लैट है वे ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आवेदन कर सकते हैं। इसका मतलब है कि ऊंची जातियों का 95 प्रतिशत तबका आरक्षण का इस्तेमाल कर सकता हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो यद्द्पि ओबीसी ने अपनी आबादी के अनुपात में आरक्षण के लिए दबाव नहीं डाला है, लेकिन वे क्या पाते हैं कि जो हिस्सा उनका होना चाहिए थे वह उच्च जातियों को दे दिया गया। 

क्या आपको लगता है कि सरकारी सेवाओं में लेटरल एंट्री की नीति और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रत्याशित निजीकरण से आरक्षण की नीति कमजोर होगी?

निश्चित रूप से ऐसा होगा। सरकारी सेवाओं में लेटरल एंट्री या प्रत्यक्ष एंट्री के लिए कोई कोटा  नहीं है। निजी क्षेत्र में वैसे भी आरक्षण नहीं है। जो लोग ओबीसी कोटा के जरिए केंद्र सरकार की सेवाओं में प्रवेश करते हैं उनकी संख्या मात्र 14 प्रतिशत हैं। लेटरल एंट्री और निजीकरण की नीतियों के कारण और सरकारी नौकरियों में सिकुड़न के कारण, आगे चलकर 14 प्रतिशत का यह आंकड़ा भी नीचे आ जाएगा। साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र की कई नौकरियां निजी क्षेत्र में चली जाएंगी, जहां आरक्षण का प्रावधान नहीं है। ये सवर्ण तबका हैं जिन्हें निजीकरण का फायदा होगा। यही कारण है कि मैंने प्रस्तावित किया कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू होना चाहिए।

आज हम जो देख रहे हैं वह यह कि मलाईदार परत, ईडब्ल्यूएस आरक्षण, उपश्रेणीकरण, केंद्र सरकार की नौकरियों में लेटरल एंट्री और निजीकरण की आड़ में आरक्षण को खत्म किया जा रहा है। विडंबना यह है कि एक ओबीसी प्रधानमंत्री आरक्षण को खत्म कर रहा है।

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