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कोविड-19
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क्या भारत महामारी के बाद के रोज़गार संकट का सामना कर रहा है?
भारत का रोजगार बाजार लगातार संकुचित होता जा रहा है, और कुशल कामगारों के लिए कार्यबल में प्रवेश कर पाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। सरकार की ओर से की जाने वाली नौकरी की मुहिम और अनौपचारिक अर्थव्यस्था इस खाई को पाट पाने में असमर्थ रही है।

मुरली कृष्णन
04 May 2022
unemployment

इन दिनों कोलकाता की सड़कों पर रहने वाले श्रमिकों के पास काम पाने का संकट बना हुआ है

उत्तरी भारत के 23 वर्षीय प्रमोद लाल ने हाल ही में बिजनेस ग्रेजुएट की शिक्षा हासिल की है, जिन्होंने कयास लगा रखा था कि जॉब मार्किट में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए उनके पास दिखाने के लिए काफी कुछ है। हालाँकि, कैरियर शुरू कर पाने के लाल के प्रयास अभी तक सफल नहीं हो पाए हैं। 

डीडब्ल्यू से अपनी बातचीत में लाल ने बताया, “नौकरी पाने के लिए शिक्षा अब कोई गारंटी नहीं रह गई है, और पिछले साल मुझे सिर्फ अस्वीकृति पत्र ही प्राप्त हुए हैं।”

इस बीच, ऐसे लोगों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है जो लंबे अर्से से रोजगारशुदा थे जिन्हें अब निठल्ला बनाया जा रहा है।

मध्यप्रदेश जैसे केंद्रीय राज्य की एक रिसेप्शनिस्ट, लता जैन को 2020 में कोरोनावायरस महामारी के दौरान छंटनी का सामना करना पड़ा था। आज उनके पास वर्षों के कार्य अनुभव होने के बावजूद बेहतर रोजगार के अवसर नहीं मिल पा रहे हैं।  

जैन ने डीडब्ल्यू को बताया, “मैं दोबारा से सफेदपोश नौकरी पाने के लिए कम तनख्वाह और अधिक घंटे तक काम करने के लिए तैयार थी। लेकिन यह काफी कठिन साबित हो रहा है। मुझे नहीं पता कि मेरा खराब समय कब तक जारी रहने वाला है। 

भारत की आर्थिक स्थिति और दीर्घावधि कोविड काल 

आर्थिक डेटा संग्रह के मामले में विशेषज्ञता वाले थिंक-टैंक, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के अनुसार, ऐसे लोगों की संख्या में ;लगातार इजाफा होता जा रहा है जिन्होंने अब काम की तलाश तक को बंद कर दिया है। 

नई दिल्ली में रोजगार मेले में लोगों की कतार  

दिसंबर 2021 तक, सीएमआईई के अनुमान के मुताबिक हर पांच लोगों में से एक स्नातक बेरोजगार है। 

अप्रैल में, भारत की कुल बेरोजगारी की दर मार्च के 7.60% से बढ़कर 7.83% पहुँच गई है।

34.5% बेरोजगारी के साथ उत्तरी राज्य हरियाणा सबसे बुरी तरह से प्रभावित है।

2020 के बाद से ही कोरोनावायरस महामारी ने भारत के नौकरी के बाजार को बुरी तरह से प्रभावित किया है, और इसके दुष्प्रभाव अभी भी अर्थव्यस्था में दिखाई पड़ रहे हैं, विशेषकर अनौपचारिक क्षेत्र में। 

जहाँ एक तरफ दो साल पहले लागू किये गए प्रतिबंधों और लॉकडाउन, जिनके कारण बड़े पैमाने पर नौकरियों का नुकसान हुआ था, को काफी हद तक हटा लिया गया है, इसके बावजूद श्रमिकों को नौकरी बाजार में वापस आने में हिचक बनी हुई है।

लेकिन वास्तव में देखें तो इन आंकड़ों से पता चलता है कि महामारी से पहले ही लोग कार्यबल छोड़ रहे थे। सीएमआईई के अनुसार 2017 से लेकर 2022 के बीच में, समग्र श्रम भागीदारी की दर 46% से घटकर 40% हो चुकी है।

सीएमआईई के प्रबंध निदेशक, महेश व्यास ने डीडब्ल्यू को बताया, “ये हताश लोग हैं। जैसे ही इन हताश लोगों के द्वारा नौकरियों की तलाश बंद कर दी जाती है, उन्हें ‘श्रम बल से बाहर” के तौर पर वर्गीकृत कर दिया जाता है और बेरोजागारी की दर में इनकी गिनती नहीं की जाती है। लेकिन उनके बाहर निकल जाने से बेरोजागारी की दर में गिरावट दिखने लगती है, जो कि सही तस्वीर नहीं पेश करती है।”

यही कारण है कि सीएमआईई समग्र बेरोजगारी की दर को श्रम बाजार के तनाव को आंकने का एक विश्वसनीय उपाय नहीं मानता है।

व्यास ने अपनी बात में आगे कहा, “इस परिघटना के बाद से बेरोजगारी की समस्या काफी बढ़ गई है। इनमें से कई लोग अपनी शिक्षा और नौकरी की तलाश में अब तक व्यर्थ किये गए समय को लेकर खुद के फैसले से नाराज हैं।”

भारतीय श्रमिकों ने किया अनौपचारिक क्षेत्र का रुख 

भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के समक्ष रोजगार की समस्याएं काफी बढ़ जाती हैं, जैसे कि निर्माण या खेतीबाड़ी के कामों में श्रमिक के बतौर काम की तलाश कर रहे लोगों के पास न तो काम की गारंटी है और न ही वेतन की ही कोई गारंटी है।

गिग श्रमिक नौकरी की सुरक्षा, रोजगार के लाभ और वेतन की कमी की भी शिकायत करते हैं, जो अक्सर न्यूनतम मजदूरी की जरूरतों को पूरा कर पाने में विफल साबित होते हैं।

विभिन्न वाणिज्य मंडलों का अनुमान है कि महामारी की चपेट में घिरने से पहले भारत में 1.5 करोड़ गिग वर्कर्स थे। 

भारत में ओला, उबर, ज़ोमैटो और स्विगी जैसे कुछ मशहूर यूनिकॉर्न सहित कई स्टार्ट-अप्स इस बीच गिग इकॉनमी के प्रमुख वाहक के तौर पर उभरकर सामने आये हैं। इनके द्वारा लागत को कम करने के लिए कुशल और अकुशल दोनों प्रकार की नौकरियों में संविदा के आधार पर फ्रीलांसरों को काम पर नियुक्त किया जाता है। 

हालाँकि, आधिकारिक तौर पर इस बात को निर्धारित कर पाना काफी कठिन है कि ये तकनीक-संचालित गिग नौकरियां वास्तव में समग्र बेरोजगारी को कैसे प्रभावित कर रही हैं।

राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त एवं नीतिगत संस्थान में प्रोफेसर, लेखा चक्रवर्ती ने कहा, “अनौपचारिक क्षेत्र की आर्थिक गतिविधि पर एक भी ठोस आंकड़ा मौजूद नहीं है।

डीडब्ल्यू के साथ अपनी बातचीत में चक्रवर्ती ने बताया, “फिन-टेक, एआई, मशीन लर्निंग, बिग डेटा एनालिटिक्स, ई-कामर्स की क्षमता आजकल मांग में है और ऐसे नए सामान्य जॉब मार्केट्स तक पहुँच बनाने के लिए कुशलता हासिल करना एक महत्वपूर्ण निर्धारक होगा।”

उन्होंने आगे कहा, “इतना कहने के साथ ही हमें इस तथ्य को स्वीकार करने की जरूरत है कि भारत में समूचे कार्यबल का 10% से भी कम हिस्सा संगठित क्षेत्र में कार्यरत है।”

सरकार ने इस कमी को रोकने का यत्न बंद कर दिया है 

चक्रवर्ती ने कहा, “एक नियोक्ता के तौर पर नौकरी की गारंटी कार्यक्रमों के लिए वित्तीय स्थान को उपलब्ध कराकर अंतिम उपाय के रूप में सरकार की भूमिका को मजबूत करने की जरूरत है।” 

भारत में कुल कार्यबल का 10% से भी कम संगठित क्षेत्र में कार्यरत है 

नौकरियों की कमी के चलते इस साल जनवरी माह में बड़े पैमाने पर युवाओं के बीच में हताशा को स्पष्ट रूप से देखा गया था।

भारत के उत्तरी राज्यों बिहार और उत्तरप्रदेश में एक रेलवे की नौकरी में भर्ती की मुहिम तब हिंसक हो गया, जब बड़े पैमाने पर बेरोजगारी का विरोध कर रहे समूहों ने सड़कों और रेलवे लाइनों को जाम कर दिया था।

यह पाया गया कि भारत के सबसे बड़े रोजगार प्रदाता, भारतीय रेलवे में 1.2 करोड़ से अधिक लोगों ने 35,000 लिपिकीय नौकरियों के लिए आवेदन किया था।

यद्यपि फरवरी में घोषित सरकार के बजट में पांच वर्षों के दौरान 60 लाख नौकरियों को सृजित किये जाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था, लेकिन इसने रोजगार की मांग और सरकार की नीतिगत प्रतिक्रिया के बीच के तनावों को भी उजागर करके रख दिया है।

आर्थिक मामलों के विश्लेषक एम के वेणु का इस बारे में कहना था कि वास्तविक बेरोजगारी दर की गणना करने के लिए वास्तव में नौकरियों की तलाश करने वालों के अनुपात के आधार पर तय की जानी चाहिए। 

उन्होंने बताया, “चीन में, मोटे तौर पर 60% से अधिक रोजगार योग्य आबादी [18 से 65 वर्ष के बीच की] जॉब मार्किट में है। भारत में जब मोदी सत्ता में आये, तो उस दौरान करीब 1 अरब लोग रोजगार के योग्य आबादी का लगभग 46% हिस्सा जॉब मार्केट में कार्यरत था।”

वेणु ने कहा, “जाहिर सी बात है कि अर्थव्यस्था इतनी सुस्त है कि लोग जॉब मार्केट से बाहर हो गए हैं। बेरोजगारी की दर में एक प्रतिशत की गिरावट से कोई फर्क नहीं पड़ता है यदि लोग जॉब मार्केट से बाहर फेंक दिए जाते हैं।”

संपादन कार्य: वेस्ले रहन 

सौजन्य: डीडब्ल्यू

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Is India Facing a Post-pandemic Employment Crisis? | NewsClick

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