NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
प्रिवेंटिव डिटेंशन क्या क़ानून के नाम पर भरपूर मनमानियां करने का ज़रिया है?
एहतियातन हिरासत को लेकर देश के 100 रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारियों ने केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू को एक खुली चिट्ठी लिखी है। चिट्ठी में कहा गया है कि इस अधिसूचना को जारी करने में 43 वर्षों की देरी की वजह से मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है।
सोनिया यादव
22 Oct 2021
jail
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

देश के नागरिकों के स्वतंत्रता के अधिकार को और मज़बूत बनाने के लिए 1978 में लाया गया संविधान का 44वां संशोधन आज 43 साल बाद भी पूर्ण रुप से लागू नहीं हो सका है। संशोधन की धारा तीन को प्रभावी करने के लिए अब तक कांग्रेस, बीजेपी समेत किसी भी सरकार ने नोटिफ़िकेशन ही जारी नहीं किया है। इस संशोधन में ये कहा गया है कि प्रिवेंटिव डिटेंशन या एहतियातन हिरासत के क़ानून के तहत किसी भी व्यक्ति को दो महीने से ज़्यादा हिरासत में रखने की अनुमति तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक एक एडवाइज़री या सलाहकार बोर्ड ऐसा करने के लिए ठोस और पर्याप्त कारण न दे।

अब भारत के 100 रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारियों ने केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू को एक खुली चिट्ठी लिखकर कहा है कि सरकार इस धारा को प्रभावी बनाने की तारीख़ तय करे। चिट्टी में कहा गया है कि इस अधिसूचना को जारी करने में 43 वर्षों की देरी की वजह से मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है।

बता दें कि सामान्य तौर पर जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो उसे संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार गिरफ्तारी के कारणों के बारे में जल्द से जल्द सूचित किए बिना हिरासत में नहीं रखा जा सकता और न ही उसे परामर्श करने और बचाव करने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। लेकिन एहतियातन हिरासत में पुलिस किसी भी व्यक्ति को इस शक के आधार पर हिरासत में ले सकती है कि वो अपराध करने वाला है। इसके लिए पुलिस को न तो कारण बताने की ज़रूरत है, न ही उसे वकील से परामर्श करने देने की ज़रूरत है और न ही मैजिस्ट्रेट के सामने 24 घंटे में पेश करने की ज़रूरत होती है।

चिट्ठी लिखने वालों का किसी भी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है

खुली चिट्ठी लिखने वाले सभी सेवानिवृत अधिकारी कॉन्स्टिटूशन कंडक्ट ग्रुप के सदस्य हैं और अपनी चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि उनका "किसी भी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है" लेकिन वे भारत के संविधान के अनुरूप निष्पक्षता, तटस्थता और प्रतिबद्धता में विश्वास करते हैं।

चिट्ठी पर दस्तख़त करने वालों में पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रॉ के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी एएस दुलत, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह, प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार टीकेए नायर और पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई जैसे बड़े नाम शामिल हैं।

दरअसल, प्रिवेंटिव डिटेंशन के दुरुपयोग को रोकने के इरादे से संविधान संशोधन में ये भी कहा गया है कि एडवाइजरी बोर्ड का अध्यक्ष हाई कोर्ट का एक सेवारत न्यायाधीश होगा और इस बोर्ड का गठन उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफ़ारिशों के अनुसार किया जाएगा। संशोधन के अनुसार इस बोर्ड के अन्य सदस्य किसी भी उच्च न्यायालय के सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे।

इन सेवानिवृत अधिकारियों का कहना है कि "इस प्रकार यह प्रावधान सरकारी दुरुपयोग की चपेट में है, जो बोर्ड में तटस्थ, स्वतंत्र सदस्यों को नियुक्त करने के बजाय, अपनी पसंद के व्यक्तियों को नियुक्त कर सकते हैं, जिनमें सत्ता या राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा रखने वाले भी शामिल हैं".

दरअसल, प्रिवेंटिव डिटेंशन के दुरुपयोग को रोकने के इरादे से संविधान संशोधन में ये भी कहा गया है कि एडवाइजरी बोर्ड का अध्यक्ष हाई कोर्ट का एक सेवारत न्यायाधीश होगा और इस बोर्ड का गठन उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफ़ारिशों के अनुसार किया जाएगा। संशोधन के अनुसार इस बोर्ड के अन्य सदस्य किसी भी उच्च न्यायालय के सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे।

क़ानून मंत्री को लिखी अपनी चिट्ठी में इस लोगों ने कहा है कि वर्तमान में कोई भी वकील जो किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के योग्य है, उसे सलाहकार बोर्ड में नियुक्त किया जा सकता है और इसका मतलब यह है कि दस वर्ष या उससे अधिक अनुभव वाला कोई भी वकील सलाहकार बोर्ड में बैठ सकता है।

एहतियातन हिरासत केवल सार्वजनिक अव्यवस्था को रोकने के लिए है

गौरतलब है कि इसी साल अगस्त में एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रिवेंटिव डिटेंशन या एहतियातन हिरासत "केवल सार्वजनिक अव्यवस्था को रोकने के लिए एक आवश्यक बुराई है। साथ ही, अदालत ने कहा था कि सरकार को क़ानून-व्यवस्था की समस्याओं से निपटने के लिए मनमाने ढंग से एहतियातन हिरासत का सहारा नहीं लेना चाहिए और ऐसी समस्याओं को सामान्य क़ानूनों से निपटाया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि नागरिक की स्वतंत्रता एक सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है जिसे हमारे पूर्वजों ने लंबे, ऐतिहासिक और कठिन संघर्षों के बाद जीता है और एहतियातन हिरासत की सरकार की शक्ति को बहुत सीमित होनी चाहिए।

आंकड़ों की बात करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में कुल 89,405 लोगों को विभिन्न क़ानूनों के तहत प्रिवेंटिव डिटेंशन में रखा गया। इसमें से 68,077 व्यक्तियों को एक महीने में, 2,651 व्यक्तियों को एक से तीन महीने के बीच और 4,150 व्यक्तियों को तीन से छह महीने के बीच एडवाइजरी बोर्ड की सिफ़ारिश पर रिहा किया गया. फिर भी वर्ष के अंत में 14,527 व्यक्ति फिर भी प्रिवेंटिव डिटेंशन में रहे।

अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से सैकड़ों लोगों को एहतियातन हिरासत में रखा जा चुका है

लोगों को प्रिवेंटिव डिटेंशन में रखने के लिए जिन क़ानूनों का इस्तेमाल हुआ उनमें मुख्यतः राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून, कालाबाज़ारी की रोकथाम का कानून, आवश्यक सेवा रखरखाव अधिनियम और गुंडा एक्ट शामिल थे। अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से सैकड़ों लोगों को एहतियातन हिरासत में रखा जा चुका है।

इस साल अप्रैल में छपी अंग्रेजी अख़बार 'द इंडियन एक्सप्रेस' ने एक पड़ताल में पाया कि जनवरी 2018 और दिसंबर 2020 के बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने नेशनल सिक्यॉरिटी एक्ट या राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत एहतियातन हिरासत को चुनौती देने वाली 120 बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर फ़ैसला सुनाया और 94 मामलों में ज़िलों में डीएम के आदेशों को रद्द करते हुए बंदियों को रिहा करने का आदेश दिया।

इस कानून के आलोचकों का कहना है कि एहतियातन हिरासत के प्रावधान असंवैधानिक है क्योंकि इन पर रूल ऑफ़ लॉ या क़ानून के शासन के सिद्धांत लागू नहीं होते और इनका दुरुपयोग होता है। इन क़ानूनों का दुरुपयोग करके लोगों को हिरासत में ले लिया जाता है और बिना किसी सुनवाई के उनकी आज़ादी छीन ली जाती है। वे कहते हैं कि इस मनमानी पर अदालतें कभी-कभी ही सख़्त रवैया अपनाती हैं।

"अब ऐसे क़ानूनों की ज़रूरत नहीं रही है"

सेवानिवृत आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह उन 100 पूर्व अधिकारियों में शामिल हैं जिन्होंने कॉन्स्टिटूशनल कंडक्ट ग्रुप की इस मसले पर लिखी चिट्ठी पर दस्तख़त किए हैं। हबीबुल्लाह ने बीबीसी  से बात करते हुए कहा कि इस तरह के क़ानूनों की ज़रूरत तब थी जब भारत एक नए राष्ट्र के तौर पर उभर रहा था और बहुत सारी सुरक्षा की चुनौतियाँ थीं। "हम ये नहीं कहते कि ऐसे क़ानूनों के पीछे देश की सुरक्षा से जुड़े कारण गलत हैं। लेकिन अब ऐसे क़ानूनों की ज़रूरत नहीं रही है।"

वे मानते हैं कि सर्वोच्च न्यायलय ने भी इन क़ानूनों को जायज़ ठहराया है लेकिन उनका कहना है कि "ये सब होते हुए भी हम अपने अनुभव के आधार पर ये कहना चाहते हैं कि अब एक लोकतंत्र के लिए ये अनुचित है क्यूंकि ये रूल ऑफ़ लॉ का उल्लंघन है।"

बहरहाल, ये सोचने वाली बात है कि आखिर संवैधानिक संशोधन के 43 साल बाद भी आज तक किसी सरकार ने इन बदलावों को लागू क्यों नहीं किया? इसका जवाब शायद ये है कि सरकार कोई भी हो लेकिन ये साफ़ है कि इस मसले में बहुत स्पष्ट राज्य हित शामिल है, सभी सरकारें ऐसे क़ानूनों को पसंद करती हैं, जिनका व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर सीधा असर पड़ता है और जिसे सरकारें अपने तरीके से जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर सकें।

Preventive Detention
Law
constitution
Supreme Court
constitutional amendment
Draconian law
civil servants

Related Stories

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल

मायके और ससुराल दोनों घरों में महिलाओं को रहने का पूरा अधिकार

जब "आतंक" पर क्लीनचिट, तो उमर खालिद जेल में क्यों ?

विचारों की लड़ाई: पीतल से बना अंबेडकर सिक्का बनाम लोहे से बना स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी

विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा

ज्ञानवापी कांड एडीएम जबलपुर की याद क्यों दिलाता है

तेलंगाना एनकाउंटर की गुत्थी तो सुलझ गई लेकिन अब दोषियों पर कार्रवाई कब होगी?


बाकी खबरें

  • कैथरीन स्काएर, तारक गुईज़ानी, सौम्या मारजाउक
    अब ट्यूनीशिया के लोकतंत्र को कौन बचाएगा?
    30 Apr 2022
    ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति धीरे-धीरे एक तख़्तापलट को अंजाम दे रहे हैं। कड़े संघर्ष के बाद हासिल किए गए लोकतांत्रिक अधिकारों को वे धीरे-धीरे ध्वस्त कर रहे हैं। अब जब ट्यूनीशिया की अर्थव्यवस्था खस्ता…
  • international news
    न्यूज़क्लिक टीम
    रूस-यूक्रैन संघर्षः जंग ही चाहते हैं जंगखोर और श्रीलंका में विरोध हुआ धारदार
    29 Apr 2022
    पड़ताल दुनिया भर की में वरिष्ठ पत्रकार ने पड़ोसी देश श्रीलंका को डुबोने वाली ताकतों-नीतियों के साथ-साथ दोषी सत्ता के खिलाफ छिड़े आंदोलन पर न्यूज़ क्लिक के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ से चर्चा की।…
  • NEP
    न्यूज़क्लिक टीम
    नई शिक्षा नीति बनाने वालों को शिक्षा की समझ नहीं - अनिता रामपाल
    29 Apr 2022
    नई शिक्षा नीति के अंतर्गत उच्च शिक्षा में कार्यक्रमों का स्वरूप अब स्पष्ट हो चला है. ये साफ़ पता चल रहा है कि शिक्षा में ये बदलाव गरीब छात्रों के लिए हानिकारक है चाहे वो एक समान प्रवेश परीक्षा हो या…
  • abhisar sharma
    न्यूज़क्लिक टीम
    अगर सरकार की नीयत हो तो दंगे रोके जा सकते हैं !
    29 Apr 2022
    बोल के लब आज़ाद हैं तेरे के इस अंक में अभिसार बात कर रहे हैं कि अगर सरकार चाहे तो सांप्रदायिक तनाव को दूर कर एक बेहतर देश का निर्माण किया जा सकता है।
  • दीपक प्रकाश
    कॉमन एंट्रेंस टेस्ट से जितने लाभ नहीं, उतनी उसमें ख़ामियाँ हैं  
    29 Apr 2022
    यूजीसी कॉमन एंट्रेंस टेस्ट पर लगातार जोर दे रहा है, हालाँकि किसी भी हितधारक ने इसकी मांग नहीं की है। इस परीक्षा का मुख्य ज़ोर एनईपी 2020 की महत्ता को कमजोर करता है, रटंत-विद्या को बढ़ावा देता है और…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License