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भारत
राजनीति
जातिवार जनगणना न कराने से जुड़े सरकार के तर्क बेहद बचकाना!
सरकार सुप्रीम कोर्ट से कह रही है कि प्रशासनिक जटिलताओं की वजह से जातिवार जनगणना कराना मुमकिन नहीं। क्या इस तर्क में दम है?
अजय कुमार
24 Sep 2021
supreme court on caste census
Image courtesy : Deccan Herald

सरकार अगर वाकई सरकार है तो उसे अपनी बात गंभीरता से रखनी चाहिए। लोगों के बीच ऐसे तर्क रखने से बचना चाहिए जो बेहद बचकाना लगते हैं।

सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने साफ तौर पर कहा कि पिछड़ा वर्ग की जाति जनगणना कराना प्रशासनिक तौर पर बहुत कठिन और जटिल काम है। पिछड़ा वर्ग से जुड़े आंकड़ों को साल 2021 की जनगणना में इकट्ठा करने के लिए महाराष्ट्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। इस याचिका पर सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दायर किया। एफिडेविट दायर करते हुए बताया कि पहले भी जाति जनगणना पर विचार करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि प्रशासनिक कठिनाई की वजह से पिछड़ा वर्ग की जनगणना करना मुमकिन नहीं है। साल 2011 में हुई सोशल इकनोमिक कास्ट सेंसस के आंकड़े कभी भी किसी आधिकारिक मकसद के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सके। उन आंकड़ों में कई तरह की तकनीकी खामियां थी इसलिए सार्वजनिक नहीं किए गए।

जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा दूसरी जाति समूह की गिनती न करना भारत सरकार की सोची-समझी नीति रही है। साल 1951 में ही भारत सरकार ने नीतिगत तौर पर जाति जनगणना न कराने का फैसला स्वीकार कर लिया था। इन सबके अलावा केंद्र सरकार ने यह भी बात रखी कि जनगणना की तैयारी पिछले 4 सालों से चल रही है। जनगणना से जुड़े सवालों को तैयार कर लिया गया है। पिछड़ा वर्ग की गिनती के लिए जनगणना की तैयारी का समय बीत चुका है। बहुत लेट हो चुका है। अब साल 2021 में यह संभव नहीं।

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केंद्र सरकार द्वारा पिछड़ा वर्ग की जनगणना न करवाने के लिए दिए गए तर्कों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आएगा तब आएगा। उससे पहले जिन कारणों का सहारा लेकर केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में पिछड़ा वर्ग की गिनती न करा पाने की दुहाई दे रही है, उन कारणों की छानबीन कर लेते हैं। क्या पिछड़ा वर्ग की गिनती न कराने के लिए दिए गए कारण असलियत में कारण है या कारण के नाम पर पेश की जाने वाली वही भ्रमित सूचनाओं  और तर्कों का वही हथकंडा है, जिसका इस्तेमाल सरकारें अक्सर लोगों को गुमराह करने की रणनीति के तौर पर करती आईं हैं।

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प्रोफेसर दिलीप मंडल कहते हैं कि सरकार का यह कहना कि पिछड़ा वर्ग की गिनती करना प्रशासनिक तौर पर बहुत कठिन काम है, यह झूठ के सिवाय और कुछ भी नहीं है। आजादी से पहले जब कंप्यूटर नहीं हुआ करता था गिनती करना बहुत मुश्किल काम था। उस समय भी घर-घर जाकर गिनती की गई थी। सरकार पूरी विश्वसनीयता के साथ सामाजिक न्याय से जुड़े कार्यक्रमों को लागू करवाने में उन आंकड़ों का इस्तेमाल करती है। जनगणना से जब भारत के सभी धर्मों के आंकड़े जुटाए जा सकते हैं, सभी भाषाओं के आंकड़े जुटाए जा सकते हैं, किसके पास कच्चा मकान है और किसके पास पक्का मकान है,यह जानकारी हासिल की जा सकती है तो कैसे पिछड़ा वर्ग की गिनती नहीं की जा सकती? सरकार चाहे तो यह कह सकती थी कि जातिगत जनगणना से समाज का संतुलन बिगड़ सकता है, आरक्षण के कोटे की मांग बढ़ सकती है लेकिन प्रशासनिक कठिनाइयों वाला तर्क बिल्कुल बचकाना तर्क है। ठीक वैसा ही तर्क है जैसे बच्चे लोग यह कहते हुए देते है कि पेट में दर्द हो रहा था, इसलिए होमवर्क नहीं कर पाया।

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प्रोफेसर योगेंद्र यादव समता मार्ग मे लिखे अपने लेख में जिक्र करते हैं कि जाति जनगणना से आप क्या आशय ले रहे है? इसी से जातिगत जनगणना की प्रक्रियागत बाधाओं का संबंध है। अगर जातिगत जनगणना का संबंध ओबीसी समूह में आने वाली जातियों की गिनती को लेकर के है तो इसमें कोई प्रक्रिया गत बाधा नहीं आने वाली। जिस तरह  से अनुसूचित जाति और जनजाति की गिनती हो रही है ठीक वैसे ही पिछड़ा वर्ग की भी गिनती हो जाएगी। बस जनगणना की गिनती के लिए इस्तेमाल होने वाले फर्रे पर आपको एक और कैटेगरी पिछड़ा वर्ग की बना देनी है। जिस तरह से अनुसूचित जाति और जनजाति में शामिल होने वाली जातियों की सूची केंद्र और राज्य सरकार के पास है, ठीक उसी तरह से पिछड़ा वर्ग में शामिल होने वाले जातियों की भी सूची सरकार के पास है। सरकार केंद्रीय सूची के तहत बनने वाली पिछड़ा वर्ग की गिनती जनगणना से कर सकती है। हां, ऐसा जरूर हो सकता है कि जब संपूर्ण जातिगत जनगणना करनी है तो जनगणना के बाद के वक्त में व्यापक तौर पर वर्गीकरण का काम करना पड़ेगा। क्योंकि अभी भी हमारे पास सवर्ण कैटेगरी के अंतर्गत आने वाली जातियों की सूची नहीं है। इस वजह से जातियों से संबंधित तालिका को पेश करने में वक्त लग सकता है। लेकिन यहां भी कोई बड़ी बात नहीं। यह भी  पहले से ही होते आ रहा है कि जनगणना से संबंधित कुछ तालिकाएं अपनी तकनीकी जटिलताओं की वजह से चार से पांच साल बीतने के बाद सार्वजनिक हो पाती हैं।

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सरकार ने अपनी बात को असरकारी दिखाने के लिए यह तर्क रखा कि साल 2011 में किए गए सोशियो इकनोमिक कास्ट सेंसस के आंकड़े टेक्निकल कमियों की वजह से सार्वजनिक नहीं किए गए। लेकिन यह हकीकत नहीं है। हकीकत वही है जिसकी वजह से मौजूदा वक्त में जाति जनगणना नहीं कराई जा रही है। उस  वक्त भी सरकार के नीयत में खोट था।

जरा सोच कर देखिए कि जिस साल 2011 के जनगणना से अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़े पेश कर दिए जाते हैं, ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े स्थिति के आंकड़े पेश कर दिए जाते हैं, उस जनगणना से जब ओबीसी का आंकड़ा मांगा जाता है तब वह आंकड़ा नहीं मिलता है। तो इसका मतलब क्या है? क्या इसका यह मतलब है कि तकनीकी खामियों की वजह से ओबीसी के आंकड़े पेश नहीं हुए? ऐसा कहना तो झूठ बोलना और झूठ बोलकर सीनाजोरी करना होगा।

यह आंकड़े उस वक्त भी वोट बैंक का हिसाब किताब लगाकर जारी नहीं किए गए। साल 2011 में सामाजिक आर्थिक जनगणना करवाने में तकरीबन 4800 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। जनगणना पर संसदीय सीमित ने सदन के पटल पर रिपोर्ट पेश करते हुए कहा था कि इस जनगणना के 98.87 फ़ीसदी आंकड़ों में किसी भी तरह की टेक्निकल खामी नहीं। तो सरकार की बात कैसे स्वीकारी जा सकती है?

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सरकार का यह कहना है कि साल 1951 के बाद से सरकार की सोची समझी यह नीति बनी कि जातिगत आधार पर जनगणना नहीं होगी। लेकिन सरकार से पूछना चाहिए क्या नीतियां पत्थर की लकीर जैसी होती हैं कि एक बार खींच दी गई तो कभी मिटाई नहीं जाएंगी। अगर सरकार ऐसे तर्क देती हैं तो सरकारों से पलटकर पूछना चाहिए कि 5 साल बाद नई सरकार के लिए चुनाव कैसे होता है? वही साल 1950 में बनी सरकार हमेशा हमेशा रहनी चाहिए। जनता को मूर्ख समझ कर जनता को बरगलाने का काम सरकार करने लगती है तो वह वाकई सरकार की भूमिका नहीं निभा रही होती है।

जातिवार जनगणना का मुद्दा भले जनगणना के ठीक पहले उछलता हो लेकिन इसकी सलाह बहुत लंबे समय से दी जाती रही है। साल 1953 में सरकार द्वारा बनाई गई काका केलकर समिति ने जातिवार जनगणना में ओबीसी की गिनती करने को कहा। साल 1980 में फिर से मंडल आयोग ने इस सुझाव को दोहराया। साल 2001 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने ओबीसी की गिनती के लिए कहा। साल 2006 में भाजपा की सरकार के सामाजिक न्याय मंत्रालय ने ओबीसी की गिनती का सुझाव दिया। साल 2008 में योजना आयोग ने फिर से इस बात को दोहराया। साल 2015 में नीति आयोग ने भी जाति जनगणना की बात कही। इन सबके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में यह कहा कि सामाजिक न्याय की नीति को पुख्ता करने के लिए जातिवार जनगणना की जरूरत है। सरकार से पूछना चाहिए कि इन सारे सलाहों का क्या मायने है? क्या यह भी वही बात दोहरा रहे हैं जो साल 1951 में कही गई थी या उसे बदल कर जातिवार जनगणना की बात कह रहे हैं?

सरकार कह रही है कि 2021 में जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती है। बहुत लेट हो चुका है। यह पूरी प्रक्रिया 4 साल पहले से शुरू हो जाती है। लेकिन सरकार से पूछना चाहिए कि उन्हीं के कैबिनेट मंत्री राजनाथ सिंह ने साल 2018 में तब कैसे वादा कर दिया कि साल 2021 में जातिवार जनगणना होगी? कौन झूठ बोल रहा है? सरकार या सरकार के कैबिनेट मंत्री राजनाथ सिंह।

इस तरह की हरकत फिर से यही बता रहे हैं कि सरकार हर संभव कोशिश कर रहे हैं कि कैसे भी करके जातिवार जनगणना का मुद्दा अगले 10 सालों के लिए फिर से लटका दिया जाए। जैसा हर बार होते आ रहा है वहीं इस बार भी कर दिया जाए। इस बार की चर्चा बहुत हो गई। अगले 10 साल बाद चर्चा की जाएगी। अब सुप्रीम कोर्ट पर है कि क्या वह क्या फैसला लेता है, क्या आदेश देता है।

इसे भी पढ़ें : अगर मुस्लिमों के भीतर भी जाति है तो इनकी आवाज़ जातिवार जनगणना की मांग में क्यों दब रही है?

इसे देखें: जनगणना-2021में जाति-गणना के वादे से क्यों मुकर रही मोदी सरकार?

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