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क्या ‘अपमान’ अपमान नहीं रहता, अगर उसे निजी दायरों में अंजाम दिया जाए?
पिछले दिनों उत्तराखंड उच्च अदालत के एक फैसले को उलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय सुनाया, उसकी अनुगूंज लम्बे समय तक बनी रहेगी। मालूम हो आला अदालत अनुसूचित तबके के व्यक्ति को निजी दायरे में कथित तौर पर झेलनी पड़ी गाली गलौज, अवमानना आदि पर गौर कर रही थी।
सुभाष गाताडे
11 Nov 2020
क्या ‘अपमान’ अपमान नहीं रहता, अगर उसे निजी दायरों में अंजाम दिया जाए?

"All insults or intimidations to a person will not be an offence under the Act unless such insult or intimidation is on account of victim belonging to Scheduled Caste or Scheduled Tribe...Thus, an offence under the Act would be made out when a member of the vulnerable section of the society is subjected to indignities, humiliations and harassment,"

( Excerpts of the three becnh view)

आला अदालत की त्रिसदस्यीय पीठ - जिसमें न्यायमूर्ति हेमन्त गुप्ता, न्यायमूर्ति ए नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति अजय रोहतगी शामिल थे - ने पिछले दिनों उत्तराखंड उच्च अदालत के एक फैसले को उलटते हुए जो निर्णय सुनाया, उसकी अनुगूंज लम्बे समय तक बनी रहेगी। मालूम हो आला अदालत अनुसूचित तबके के व्यक्ति को निजी दायरे में कथित तौर पर झेलनी पड़ी गाली गलौज, अवमानना आदि पर गौर कर रही थी।

जिला पिथौरागढ़ ग्राम नयी बजेटी, तहसील पटटी चंडक में रहनेवाली अनुसूचित जाति से सम्बद्ध याचिकाकर्ता ने गांव के ही अन्य लोगों के खिलाफ यह प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की थी, जिनके साथ जमीन के एक टुकड़े को लेकर उसका विवाद चल रहा था। याचिकाकर्ता के मुताबिक वह लोग न केवल उनके पति और परिवार के अन्य सदस्यों से गालीगलौज करते थे बल्कि ‘जान से मारने की’ धमकियां देते थे। 10 दिसम्बर 2019 को कथित तौर पर इन अभियुक्तों ने याचिकाकर्ता के घर में गैरकानूनी ढंग से प्रवेश किया और फिर ‘मारने की धमकी’ दी तथा जातिसूचक गालियां दीं थीं। घटना के दूसरे ही दिन भारतीय दंड संहिता की धाराओं 452, 504, 506 और  अनुसूचित जाति जनजाति निवारण अधिनियम 1982 की धारा 3/1/एक्स के तहत उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था। मामले को संज्ञान में लेते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने भी अभियुक्तों पर कार्रवाई के आदेश दिए थे।

उच्च न्यायालय के फैसले पर गौर करते हुए आला अदालत ने बताया कि जिस धारा के तहत मुकदमा दर्ज हुआ है /अनुसूचित जाति जनजाति निवारण अधिनियम 1982 की धारा 3/1/एक्स के तहत / वह धारा ही 3/1/आर से प्रतिस्थापित हो गयी है जिसके मुताबिक उत्पीड़ित तबके के किसी व्यक्ति को किसी ‘सार्वजनिक निगाहों में’ /पब्लिक व्यू में अपमानित करने की बात समाविष्ट की गयी है। स्वर्ण सिंह और अन्य बनाम राज्य / (2008) 8 SCC 435    /के मामले का उल्लेख करते हुए अदालत ने स्पष्ट किया कि आखिर ‘सार्वजनिक निगाहों में’’ किसे कहा जाए। ‘स्वर्ण सिंह’ मामले में उच्चतम अदालत के फैसले को देखते हुए इस त्रिसदस्यीय पीठ ने कहा कि चूंकि घटना घर की चहारदीवारी के अंदर हुई है इसलिए उसे सार्वजनिक निगाहों में नहीं कहा जा सकता। न्यायमूर्ति राव, गुप्ता, रोहतगी की इस पीठ ने इसी आधार पर उत्तराखंड उच्च अदालत द्वारा अनुसूचित जाति जनजाति निवारण अधिनियम 1982 की धारा 3/1/ के तहत दायर मुकदमे को खारिज करने का आदेश देती है।  उच्चतम अदालत के मुताबिक भारतीय दंड विधान की अन्य धाराओं के तहत अभियुक्तों पर मुकदमा जारी रहेगा।

आप इसे चुनावों की सरगर्मी कह सकते हैं कि अनुसूचित तबकों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने अनुसूचित जाति जनजाति निवारण अधिनियम 1989 /संशोधित/ की एक खास ढंग से की गयी इस व्याख्या के महत्वपूर्ण मसले पर अधिक चर्चा न हो सकी है।

प्रश्न उठता है कि आखिर इसे कैसे समझा जाना चाहिए।

गौरतलब है कि उच्चतम अदालत के इस फैसले पर पहली संगठित प्रतिक्रिया दलित अधिकारों के लिए समर्पित तीन संगठनों - नेशनल दलित मूवमेण्ट फार जस्टिस, नेशनल कैम्पेन आन दलित हयूमन राइटस और अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की मजबूती के लिए बने नेशनल कोएलिशन की तरफ से संयुक्त रूप से आयी है जिन्होंने कहा है कि प्रस्तुत फैसला ‘‘अस्प्रश्यता के खिलाफ संघर्ष की जड़ों’ / @“the roots of fight against untouchability पर चोट करता है।

अपने साझा बयान में  उनकी तरफ से कुछ महत्वपूर्ण मुददों को उठाया गया है:

एक उन्होंने इस अधिनियम के उदात्त उददेश्यों के बावजूद इस अधिनियम पर अमल करने की रास्ते में आनेवाली बाधाओं को बताया है और कहा है कि इन उत्पीड़ित तबकों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ना आज भी कितना दुरूह है। बयान में इस बात का उल्लेख भी है कि अपने साथ हो रहे अन्याय अत्याचारों की शिकायत करने में भी किस तरह इन तबकों का बहुलांश आज भी हिचकता है क्योंकि उसे प्रतिमुकदमों का, प्रतिहिंसा का डर हमेशा रहता है। फिर इस प्रसंगविशेष पर अपने आप को फोकस करते हुए बयान बताता है किस तरह ग्राम बजेटी, जिला पिथौरागढ़ के इस मामले में पुलिस द्वारा अपनी जांच में भी कुछ लापरवाहियां बरती गयीं। उनके मुताबिक जांच के प्रारंभ से ही पुलिस अधिकारियों ने एससीएसटी एक्ट /1989/ से जुड़ी कुछ विशेष धाराओं को शामिल नहीं किया था जैसे धारा 3/1/यू/ और धारा 3/2/वीए आदि जबकि इन धाराओं को इसमें लगाना जरूरी था। इतना ही नहीं इसी अधिनियम की धारा 8 अपराध के अनुमान की बात करती है, जिसकी उपधारा /सी/ के मुताबिक ‘‘जब अभियुक्त को पीड़ित या उसके परिवार की निजी जानकारी होती है, तब अदालत यह अनुमान लगाती है कि अभियुक्त को उसकी जातीय या आदिवासी पहचान का अनुमान होगा ही’’। बयान के मुताबिक विडम्बना ही है कि उच्चतम अदालत ने इस केस के इन कानूनी पक्षों पर गौर नहीं किया और ऐसा फैसला सुनाया जो ‘‘सामाजिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ’’ पड़ता है।

प्रस्तुत फैसले के खिलाफ अपनी राय का इजहार करने के बाद इनकी तरफ से सर्वोच्च न्यायालय से अपील की गयी है कि वह इस पूरे मामले को संविधान पीठ को सौंपे। सरकार से भी यह गुजारिश की गयी है कि वह इस फैसले के बारे में एक पुनर्विचार याचिका दाखिल करे।

गौरतलब है कि फैसला सुनाने के दौरान उच्चतम अदालत ने अनुसूचित जाति जनजाति निवारण अधिनियम 1989 /संशोधित/ किस तरह अनुसूचित तबकों के नागरिक अधिकारों की बहाली के लिए समर्पित है, उसके बारे में विशेष तौर पर रेखांकित किया था। ध्यान रहे संविधान की धारा 21 - जो जिन्दगी और व्यक्तिगत गरिमा के अधिकार को सुनिश्चित करने की बात करती है, उसे अगर हम ठीक से देखें तो निश्चित ही किसी उत्पीड़ित व्यक्ति को अपमान, प्रताडना का शिकार बनाना, वह किसी भी सूरत में उसके इन अधिकारों का उल्लंघन समझा जाना चाहिए, फिर भले उसे इन शाब्दिक अपमानों का शिकार कहीं भी किया जाए या होना पड़े।

तय बात है कि त्रिसदस्यीय पीठ का फैसला अगर एक नज़ीर बन जाता है तो ऐसे कई मामले - जिसमें अनुसूचित तबके से आने वाले सदस्य शाब्दिक अपमान, तिरस्कार का शिकार हुए - कभी नहीं सुर्खियों में आ सकेंगे, ऐसे मामलों में कार्रवाई की मांग करना तो असंभव हो जाएगा, क्योंकि ऐसे तमाम प्रसंग बिल्कुल निजी दायरों में ही संपन्न हुए होंगे, सार्वजनिक निगाहों से बिल्कुल दूर घटित हुए होंगे।

पायल तडवी की आत्महत्या के प्रसंग को ही देखें जो आदिवासी मुस्लिम तबके से सम्बधित थी तथा जो मुंबई के टी एन टोपीवाला नेशनल मेडिकल कालेज में एम डी की दूसरे वर्ष की छात्रा थी, जिसे कथित तौर पर उसके तीन सीनियर छात्राओं ने ही जातीय प्रताड़ना का शिकार बनाया था। उसे किन किन स्तरों पर अपमानित किया गया, फिर चाहे अपमानित करनेवाली टिप्पणियां हों या आपरेशन थिएटर में आपरेशन करने का मौका न देना हो, इस पर बहुत लिखा जा चुका है। उसकी इस प्रताडना में उसकी तीन रूम पार्टनर ही कथित तौर पर संलिप्त थीं।

आप कल्पना करें कि भविष्य में कोई उत्पीड़ित तबके का कोई व्यक्ति ऐसी प्रताड़ना को लेकर जो बिल्कुल रूम की चहारदीवारी में ही हो रही हो, प्रशासन से शिकायत भी करना चाहें तो क्या वह अब शिकायत भी कर सकता है क्योंकि उसके लिए मुमकिन नहीं होगा यह प्रमाणित करना कि उसके साथ भेदभाव निजी दायरों में नहीं हो रहा है, बल्कि सार्वजनिक निगाहों में हो रहा है।  

पिछले साल किसी अख़बार ने डॉ. पायल तडवी की आत्महत्या के बाद प्रोफेसर थोरात का साक्षात्कार लिया था जिसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह ऐसे संस्थानों में हाशिये के छात्रों के प्रति एक किस्म का दुजाभाव मौजूद रहता है और यह सवाल पूछा था ‘‘विगत दशक में ऐसे अग्रणी शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत 25-30 छात्रों ने आत्महत्या की है, मगर सरकारों ने शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव की समाप्ति के लिए कोई ठोस नीति निर्णय लेने से लगातार परहेज किया है।’  

शुद्धता और प्रदूषण का वह तर्क - जो जाति और उससे जुड़े बहिष्करण का आधार है - आई आई टी जैसे संस्थानों में भी बहुविध तरीकों से प्रतिबिम्बित होता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि दलित आदिवासी अपमान में ऐसे प्रसंगों की भरमार रहती है जिसमें कथित वर्चस्वशाली जाति का व्यक्ति इशारों से या शब्दों पर खास जोर देने से या विशेष शब्दों के उच्चारण से ही आप को आप की हैसियत बता देता है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा कुछ साल पहले पेश की गयी ‘रिपोर्ट आन प्रिवेन्शन आफ एट्रासिटीज अगेन्स्ट एससीज्’ ( अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचारों के निवारण की रिपोर्ट) इन बातों का विवरण पेश करती है कि किस तरह नागरिक समाज खुद जाति आधारित व्यवस्था से लाभान्वित होता है और किस तरह वह अस्तित्वमान गैरबराबरीपूर्ण सामाजिक रिश्तों को जारी रखने और समाज के वास्तविक जनतांत्रिकीकरण को बाधित करने के लिये प्रयासरत रहता है।
संविधानसभा की आखरी बैठक में बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने शायद इसी स्थिति की भविष्यवाणी की थी। अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि

‘हम लोग अन्तर्विरोधों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धान्त को स्वीकार करेंगे। लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक लोग- एक मूल्य के सिद्धान्त को हमेशा खारिज करेंगे। कितने दिनों तक हम अंतरविरोधों का यह जीवन जी सकते हैं? कितने दिनों तक हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में बराबरी से इंकार करते रहेंगे।’’

भारत के हर इन्साफपसन्द व्यक्ति के सामने यह सवाल आज भी जिन्दा खड़ा है।

 

(सुभाष गाताडे स्वतंत्र लेखक-पत्रकार हैं)

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