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क्या लूट का दूसरा नाम है ‘मेक-इन-इंडिया’!
इस लेख में हम फिनसेन पेपर्स पर नहीं, बल्कि मोदी के मेक-इन-इंडिया के खोखलेपन पर बात केंद्रित करेंगे और दिखाएंगे कि कैसे एचएएल के लेन-देन संबंधी फिनसेन पेपर्स के खुलासों से पता चलता है कि वह किस तरह कथित भ्रष्टाचार व अन्य अनियमितताओं में लिप्त है।
बी सिवरामन
12 Oct 2020
मेक-इन-इंडिया
फोटो साभार: hal-india.co.in

द इंटरनेशनल कॉन्सोर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स या आईसीआईजे (National Consortium of Investigative Journalists, ICIJ) 100 देशों में फैले 100 अखबारों और समाचार पत्रिकाओं के 267 खोजी पत्रकारों का एक ग्लोबल नेटवर्क है, जो सरकारों, वित्तीय व कॉरपोरेट संस्थाओं में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश करता है। बीबीसी, न्यू यार्क टाइम्स, द गार्जियन यूके, जापान का असाही शिम्बुन, इस नेटवर्क में शामिल हैं। भारत में इंडियन एक्सप्रेस ने इनके खुलासों को सार्वजनिक किया है।

ठीक उसी तरह जैसे जूलियन असांजे ने करीब 2.5 लाख राजनयिक केबलों को उजागर किया था और जैसे उसके विकीलीक्स ने अमरीकी राज्य की वैश्विक अवैधताओं को उजागर किया था; जैसे एडवर्ड स्नोडेन, सीआईए ऑपरेटिव व व्हिस्लब्लोअर (CIA Operative and whistleblower) ने अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के हजारों गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनिक कर सीआईए के राजकीय अपराधों का खुलासा किया था, यह मेगा ग्लोबल नेटवर्क भी बड़ी पूंजी की दुनिया के शक्तिशाली व अमीर घरानों के काले करतूतों का पता लगाता है। वह काले धन को सफेद बनाने (money-laundering) और आतंकी-फंडिग (terror-funding), घूसखोरी जैसे भ्रष्टाचार और व्यापारिक सौदों में रिश्वत (kickbacks) अथवा कानून के उलंघन के अन्य कृत्यों में सीमा पार के वित्तीय अपराधों की जांच करता है।

यूएस ट्रेज़री विभाग में एक ब्यूरो है फिनसेन, यानी फाइनेंसियल क्राइम्स इन्वेस्टिगेशन नेटवर्क (FinCEN or Financial Crimes Investigation Network); यह अमेरिका के वित्त मंत्रालय के समकक्ष है, और विश्व के अधिकतर वित्तीय लेन-देन के बारे में सूचनाओं की निगरानी करता है, ताकि वह अंतर्राष्ट्रीय मनी लॉन्डरिंग, साइबर अपराध, अतंकी वित्तपोषण व टैक्स की चोरी तथा व्यापारिक सौदों में रिश्वत व अन्य वित्तीय अपराधों का पता लगा सके। 2001 में 9/11 के आतंकी हमले के बाद ही यूएसए पेट्रियट ऐक्ट पारित किया गया था। इस अधिनियम की धारा 314 ए के तहत विदेशी बैंकों सहित यूएस में कार्यरत बैंकों व समस्त वित्तीय संस्थाओं के लिए कानूनी बाध्यता है कि वे उनके माधम से हो रहे सभी वित्तीय लेन-देन के बारे में सारी सूचनाएं फिनसेन के साथ साझा करें। इस कानून के तहत फिनसेन 27,000 वित्तीय संस्थाओं सहित, जिनमें बैंक और नॉन-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं आती हैं, 45,000 सूत्रों से सूचना एकत्र करता है व उसका विश्लेषण करता है। अन्य व्यावसायिक संस्थाओं के अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय लेन-देन के बारे में भी वह पता लगाता है।

फिनसेन नियमित रूप से सस्पिशस ऐक्टिविटी रिपोर्ट या एसएआरएस (Suspicious Activity Reports or SARs) यानी संदिग्ध गतिविधि रिपोर्ट प्रकाशित करता है, जिसमें वह उन लेन-देन के मामलों की सूचि तैयार करता है जो संदेहास्पद हैं, और जो वित्तीय तथा अन्य किस्म के अपराधों से जुड़े हैं। यह रिपोर्ट तीन अन्य किस्म की रिपोर्टो के अलावा है, और वह यूएस के कानून लागू करने वाली एजेंसियों, जैसे एनएसए (NSA), एफबीआई (FBI)और सीआईए (CIA) के साथ इन्हें साझा करता है। जबकि विशेष अधिवक्ता रॉबर्ट म्यूलर 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प के चुनाव अभियान में रूसी फंडिंग के आरोपों की जांच कर रहे थे, फिनसेन दस्तावेज और SARs म्यूलर की टीम को सौंपे गए थे। वहीं से 2657 फिनसेन दस्तावेज, जिनमें 2121 SARs शामिल थे, आईसीआईजे को सितम्बर 2020 में लीक कर दिये गए; इन्हें ‘फिनसेन पेपर्स’ कहा जाता है।

इन फिनसेन पेपर्स में शामिल थे भारत के कई संस्थाओं के संदिग्ध लेन-देन (transactions) की रिपोर्ट जो भारत में कार्यरत डॉयश बैंक (Deutsche Bank) सहित 44 बैंकों के जरिये संभव हुए। 22 सितम्बर 2020 से शुरू करते हुए, इंडियन एक्सप्रेस ने किश्तों में इन संदिग्ध सौदों का खुलासा किया। ऐसे लेन-देन के मामलों की सूची में कुछ बड़े नाम सामने आए, जैसे अनिल अंबानी, अडानी, भारती एयरटेल के सुनील मित्तल, दाउद इब्राहिम, एक कांग्रेसी सांसद, आंध्र प्रदेश का एक खनन माफिया, तमिल नाडु से काम कर रहा एक मूर्ति स्मगलर, मैक्स ग्रुप, एस्सार, भूषण स्टील और यहां तक कि इफको व एचएएल जैसे सार्वजनिक क्षेत्र संस्थान भी।

इस लेख में हम फिनसेन पेपर्स पर नहीं, बल्कि मोदी के मेक-इन-इंडिया के खोखलेपन पर बात केंद्रित करेंगे और दिखाएंगे कि कैसे एचएएल के लेन-देन संबंधी फिनसेन पेपर्स के खुलासों से पता चलता है कि वह किस तरह कथित भ्रष्टाचार व अन्य अनियमितताओं में लिप्त है। एचएएल (HAL) का मामला सबसे सटीक तरीके से मोदीजी के मेक-इन-इंडिया देशभक्ति के दोमुंहेपन की पोल खोलता है; उनके ‘‘न खाएंगे, न खाने देंगे’’ के जुमले को तार-तार करके रख देता है।

रिपोर्ट के अनुसार फिनसेन पेपर्स ने खुलासा किया था कि 2014 में एचएएल के 607 लेन-देन (14.9 मिलियन डॉलर) के मामलों को डॉयश बैंक ट्रस्ट कंपनी अमेरिकाज़ या डीबीटीसीए (DBTCA), जो कि जर्मनी की डॉयश बैंक की यूएस सहायक कंपनी या सब्सिडियरी ने रेड-फ्लैग किया था। इंडियन एक्सप्रेस ने इसके बारे में अधिक कुछ नहीं बताया था। उसने मात्र 2 पैरा लिखा था, जिसके अनुसार 38 लेन-देन (4.07 मिलियन डॉलर) के मामले यूएस-स्थित हनीवेल इंटरनेशनल और 13 लेन-देन (2.1 मिलियन डॉलर) के मामले इज़रायल स्थित एलबिट सिस्टम्स के संग थे। दरअसल हनीवेल इंटरनेशनल ने एचएएल के साथ साझेदारी या कोलैबोरेशन आरंभ किया था और वह भारतीय वायुसेना, जलसेना व कोस्ट गार्ड को एचएएल के माध्यम से टर्बोप्रॉप इंजन (turboprop engines) सप्लाई करता है। एचएएल ने इज़रायल की कंपनी एलबिट सिस्टम्स (Elbit Systems ) के साथ एक एमओयू पर हस्ताक्षर करके डिजिटल हेड-अप डिस्प्ले सिस्टम्स (digital head-up display systems) को ‘प्रमोट और मार्केट’ करने का समझौता किया। ये डिस्प्ले सिस्टम्स लड़ाकू विमानों के लिए होता है; और अब दोनों कंपनियां संयुक्त रूप से ड्रोन विकसित करने की योजना बना रहे हैं; ये मानव-रहित हवाई वाहन (unmanned aerial vehicle or UAV) भारतीय सेना के लिए होंगे। इत्तेफाक से, इसके बाद एलबिट सिस्टम्स ड्रोन निर्माण के लिए अडानी के साथ भी ऐसे कोलैबोरेशन में गया।

यह सूचना केवल हिमशैल का शीर्ष भर है, क्योंकि इंडियन एक्सप्रेस ने अब तक खुलासा नहीं किया कि बाकी के 556 लेन-देन किन कंपनियों के साथ और किन सौदों के लिए हुए। 2014 में या उसके बाद एचएएल कई विदेशी कंपनियों के साथ कोलैबोरेशन में गया, जैसे इज़रायल ऐरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड या आईएआई, फ्रेन्च ऐरोस्पेस कंपनी साफरान हेलीकॉप्टर इन्जिन्स (Safran Helecopter Engines) (पहले टर्बोमीका नाम से था), रशन हेलिकॉप्टर्स, यूएस स्थित एजवुड टेक्नोलॉजीज़ लिमिटेड, यूके की बीएई सिस्टम्स, इन्डो-रशन एवियेशन, यूके स्थित रोल्स रॉयस और कुछ और। एचएएल की एयरबस इंडस्ट्रीज़ और बोइंग के साथ भी बिज़नेस डीलिंग है। यद्यपि फिनसेन द्वारा खुलासा किए गए इन 556 सौदों को सार्वजनिक नहीं किया गया है, ये सारे जॉइन्ट वेंचर्स मीडिया की नज़र में आ गए हैं। रोचक बात यह है कि यह सब तब हुआ जब कांग्रेस के एके ऐंटनी और भाजपा के अरुण जेटली व मनोहर परिक्कर उसी चुनाव वर्ष में रक्षा मंत्री थे। ये सौदे किसके शासन काल में हुए यह एक रहस्य है और यह राज खुलने पर राजनीतिक रूप से विस्फोटक साबित हो सकता है।

यह ध्यान देने की बात है कि ये लेन-देन के मामले केवल ‘‘संदिग्ध गतिविधियों’’ के रूप में रेड-फ्लैग यानी चिन्हित किये गए है, जिनकी जांच जरूरी है, पर अभी कोई आधिकारिक प्रमाण नहीं हैं कि वे घोटाले हैं। फिर, एचएएल में ही 200 करोड़ रुपयों के सौदे एचएएल बोर्ड के स्तर पर रक्षा मंत्रालय की निगरानी में तय होते हैं और इससे भी बड़े सौदों को मंत्री के अफसरों द्वारा अंतिम रूप दिया जाता है। पर अदायगी क्योंकि एचएएल के बैंक खातों से ही होती है, इन घपले वाले सौदों में एचएएल के कुछ अधिकारी जरूर संलिप्त हो सकते हैं।

आश्चर्य है कि मोदी, जो अपने को भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा बताते हैं, अब तक इन सनसनीखेज फिनसेन पेपर्स के खुलासों पर मुंह नहीं खोल रहे। न ही वित मंत्रालय और न ही रक्षा मंत्रालय ने इनपर कोई जांच का आदेश दिया है, जबकि ये खुलासे केवल मीडिया की अटकलें नहीं हैं, बल्कि यूएस ट्रेज़री दस्तावेजों पर आधारित हैं। केवल न्यायमूर्ति एमबी शाह, जो काले धन पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एसआईटी के अध्यक्ष हैं, ने कहा है कि वे संबंधित एजेंसियों की बैठक जल्द बुलाएंगे, जिनमें हैं सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेस (CBDT), इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट (ED), सीबीआई (CBI)और आरबीआई (RBI), और इन खुलासों पर चर्चा करेंगे। इसके अलावा कोई अन्य सरकारी प्रतिक्रिया नहीं है और किसी मीडिया ने भी स्वंत्र रूप से फिनसेन पेपर्स के खुलासों को गंभीरता से नहीं लिया।

यह याद किया जाए कि इससे पहले 2016 में ICIJ ने 1 करोड़ 15 लाख लीक हुए दस्तावेजों को उजागर किया जिनमें भारत सहित कई देशों से 214,448 सरहद-पार संस्थाओं से वित्तीय सौदों और अटॉर्नी-क्लाइंट के बीच आदान-प्रदान का ब्योरा था-ये पनामा पेपर्स के नाम से जाने जाते हैं। इन दस्तावेजों ने विदेशी बैंकों में धनाड्य व्यक्तियों, मस्लन राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और क्रोनी पूंजीपतियों द्वारा धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, टैक्स चोरी और काले धन को सफेद बनाकर अर्जित धन जमा किया गया था। और 12 लाख नए दस्तावेजों का खुलासा 2018 में हुआ, जिनमें 12,000 भारतीय नागरिकों से संबंधित थे। भारतीयों से जुड़ी कंपनियां ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स और बाहामाज़ जैसे टैक्स-हेवेन्स पर हुई जांच में प्रमुख थे।

अप्रैल 2016 में मोदी ने एक मल्टी-एजेंसी टीम का गठन किया, जिसमें सीबीडीटी, ईडी, आरबीआई और फाइनेंसियल इन्वेस्टिगेशन यूनिट से सदस्य थे, जो एक स्वायत्त संस्था है और जिसे सीधे वित्त मंत्री के अधीन इकनॉमिक इंटेलिजेंस काउंसिल को रिपोर्ट करना होता है। चार वर्ष बीतने के बाद भी इससे कुछ नहीं हासिल हुआ। आइसीआईजे ने 2017 में पैराडाइज़ पेपर्स के नाम से जाने जाने वाले 1 करोड़ 34 लाख दस्तावेजों का खुलासा किया था, जिसमें 700 ऐसे भारतीयों के नाम थे जिनके व्यापारिक सौदे विदेशी टैक्स-हेवन्स में हैं।

इसी तरह 2013 में आईसीआईजे ने जांच कर 612 भारतीयों के विदेशी बैंकों में जमा पूंजी के बारे में खुलासा किया था, जिनमें 434 ऐसे थे जो उस समय भारत में रह रहे थे। यूपीए सरकार ने तब कहा था कि संबंधित एजेंसियां इसकी जांच कर रही हैं। 2014 में मोदी ने इसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था और भाजपा के सत्ता में आने के बाद अरुण जेटली ने कुछ भी बताने से इन्कार कर दिया क्योंकि बड़े लोगों के बारे में संवेदनशील विवरण पर जांच जारी थी, पर अबतक कुछ भी सामने नहीं आया है। कानून लागू करने और काले धन का पता लगाने के मामले में मोदी सरकार के ‘शानदार इतिहास’ को देखते हुए हम समझ सकते हैं कि फिनसेन पेपर्स के खुलासों का क्या हश्र होगा। पर राजनीतिक रूप से जो महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि ये सारे संदेहास्पद सौदे मोदी के मेक-इन-इंडिया नीति का परिणाम हैं क्योंकि इसमें न्यूनतम व्यापारिक संरक्षण है।

सिर्फ यही नहीं है मेक-इन-इंडिया में एचएएल-रक्षा मंत्रालय का एक घोटाला, जो उजागर हुआ। हम सभी जानते हैं कि एचएएल ने भारत में रफ़ाल इंजन निर्मित करने के लिए फ्रान्स के साफरान कंपनी के साथ समझौता ज्ञापन या एमओयू पर हस्ताक्षर किया था; साफरान डसॉल्ट का सहयोगी है। मोदी ने इस समझौते को रद्द कर दिया और भारत में बनाने की जगह फ्रान्स में निर्मित रफाल फाइटर एयरक्राफ्ट बहुत अधिक दाम पर सीधे डसॉल्ट से आयातित करना शुरू कर दिया। एक विवादास्पद निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने उसे क्लीन चिट भी दे दी। पर सच्चाई यह है कि यदि रफ़ाल फाइटर जेट भारत में निर्मित किये जाते, तो भारत को 2 लाख करोड़ के अतिरिक्त व्यापार का लाभ होता। और एचएएल 1 लाख करोड़ के व्यापार को एमएसएमईज़ (MSMEs) को आउटसोर्स करके फार्म आउट करता; ये MSMEs कम्पोनन्ट सप्लाई करके बहुत बड़े अतिरिक्त रोजगार के विकल्प को जन्म देते जिससे लाखों श्रमिकों की आय बनती। यही है मोदी के मेक-इन-इंडिया का फरेबी मॉडल!

मेक-इन-इंडिया से जुड़ा एचएएल-संबंधित एक और विवाद है। भारतीय जल सेना 3 अरब डॉलर एनयूएच खरीद मूल्य के नेवल युटिलिटी हेलिकॉप्टर (Naval utility helicopters) खरीदना चाहती थी। परंतु जल सेना अध्यक्ष ने भारतीय जल सेना की किसी गौण तकनीकी पसंद के आधार पर, जो एचएएल हेलिकॉप्टरों से मेल नहीं खा रहा था, घोषणा कर दी गई कि एचएएल को बोली लगाने या बिडिंग से बाहर रखा जाएगा। यद्यपि एचएएल, जो भारत की सार्वजनिक क्षेत्र रक्षा उत्पादन की बड़ी कंपनी है, ने ऑफर किया कि वह जल सेना की जरूरत के हिसाब से तकनीकी विवरण में बदलाव कर देंगे, अब तक भी एचएएल को बिडिंग (bidding) में शामिल नहीं किया गया। जब मोदी के पास 250 अरब डॉलर की रक्षा खरीद का एजेन्डा है, तो सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के उत्पादकों को दरकिनार करने के पीछे क्या रहस्य है?

\क्यों भगवा राष्ट्रवादियों के शासन में भारतीय पीएसयूज़ को वरीयता देने के बारे में कोई नियम नहीं है? इससे भी बुरा तो यह है कि जब एचएएल बिड करना चाहता था, तो रिलायंस, अडानी, टाटा ऐरोस्पेस, महिंद्रा डिफेंस सिस्टम्स, भारत फोर्ज और कोइम्बाटूर के लक्ष्मी मशीन वर्क्स ने एचएएल को शामिल किये जाने का विरोध किया। दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी के राज में प्राइवेट कंपनियां एचएएल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को दिये जा रहे सप्लाई ऑर्डरों को वीटो करने की हिमाकत करते हैं, जबकि उनके पास वैसी उड़ने की और वैमानिकी विशेषज्ञता नहीं है जैसी एचएएल और भारतीय वायु सेना के पास है। यह है मेक-इन-इंडिया, परंतु सार्वजनिक क्षेत्र को पूरी तरह बाहर रखते हुए!

एक और घोटाला है, जिसमें एचएएल का नाम आता है। एचएएल ने रोल्स रॉयस यूके के साथ 2014 में रोल्स रॉयस इंजन सप्लाई करने का एक सौदा किया था और जब कमीशनखोरी के आरोप सामने आए, यूपीए के रक्षा मंत्री एके ऐंटनी ने स्वयं जांच के आदेश दिये। 2014 में जब मोदी सत्ता में आए प्रारंभिक जांच के आदेश दिये गए। रोल्स रॉयस ने माना कि उसने कमिशन दिया था पर केवल 18 करोड़ जो वह भारत को लौटाने को तैयार था। पर रक्षा मंत्रालय ने पहले आरोप लगाया कि 10,000 करोड़ के सौदे में 10 प्रतिशत कमीशन दिया गया था, फिर उसने रहस्यमय तरीके से कमीशन की मात्रा को 1000 करोड़ से घटाकर 500 करोड़ की बात की, जिसकी कोई सफाई नहीं दी गई और रोल्स रॉयस (Rolls Royce) ने वादे के अनुसार 18 करोड़ वापस भी नहीं किये। फिर भी रोल्स रॉयस के साथ सौदे को खारिज नहीं किया गया। और अजीब बात तो यह है कि यद्यपि 2014 में प्राथमिक जांच के आदेश दिये गए थे, पांच साल तक इसमें कोई प्रगति नहीं हुई और केवल 2019 में जाकर कुछ एचएएल अधिकारियों के नाम के साथ एफआईआर दर्ज की गई। पर न ही किसी को गिरफ्तार किया गया न किसी से पूछताछ हुई। यह तो है हाल मोदीजी के भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान का!

मोदी का मंत्र है मेक-इन-इंडिया के नाम पर मेक-इट-बिग टू योर पॉकेट्स (make-it-big to your pockets) यानी अपनी जेब अच्छे से गरम करो!

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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