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क्या अब देश अघोषित से घोषित आपातकाल की और बढ़ रहा है!
अपने शासन के खिलाफ बढ़ते  विरोध से मोदी परेशान हैं और उन्हें लगता है कि इन आंदोलनों को संविधान प्रदत्त अधिकारों से ताकत और वैधता हासिल हो रही है। इसीलिए अब वे इन अधिकारों के खिलाफ opinion building में उतर रहे हैं। इसका शुरुआती संकेत उनके संविधान दिवस के भाषण में आप पा सकते हैं।
लाल बहादुर सिंह
29 Nov 2021
Modi

देश में अघोषित आपातकाल तो पहले से लागू है ही, एक कारपोरेट-साम्प्रदायिक अर्ध-फासीवादी निज़ाम तो मोदी-शाह जोड़ी ने कायम कर ही रखा है, क्या अब वह inadequate साबित हो रहा है, क्या उससे काम नहीं चल पा रहा है? क्या अब मोदी इंदिरा गांधी के रास्ते संवैधानिक अधिकारों, सर्वोपरि अभिव्यक्ति की आज़ादी के औपचारिक खात्मे की ओर बढ़ रहे हैं ?

अपने शासन के खिलाफ बढ़ते  विरोध से वे परेशान हैं और उन्हें लगता है कि इन आंदोलनों को संविधान प्रदत्त अधिकारों से ताकत और वैधता हासिल हो रही है, इसीलिए अब वे इन अधिकारों के खिलाफ opinion building में उतर रहे हैं। इसका शुरुआती संकेत उनके संविधान दिवस के भाषण में आप पा सकते हैं।

दरअसल, शाहीन बागों से शुरू हुई संविधान-चर्चा और तेज हुई है। इस साल का संविधान दिवस नई हलचलों से भरा था, इसने भारतीय समाज में उभरते नए सामाजिक-राजनीतिक टकराव को प्रतिबिंबित किया। यह किसान-आंदोलन के एक साल पूरे होने का दिन भी था। किसानों ने पिछले साल इसी दिन को चुना था, मोदी सरकार के संविधान-विरोधी हमले के प्रतिकार के लिए।

संविधान ने किसानों को सत्ता के हर दमन का मुकाबला करते हुए अपने आंदोलन को हर हाल में जारी रखने की ताकत और प्रेरणा दी। बदले में किसानों ने भी संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा दी।

इस वर्ष का संविधान दिवस इसी ऐतिहासिक किसान आंदोलन के साये में हुआ और संविधान-दिवस के celebration के दौरान जो परस्पर विरोधी परिप्रेक्ष्य उभरे उन पर किसान आंदोलन का imprint बिल्कुल साफ देखा जा सकता है। 

संसद के सेंट्रल हाल से लेकर सुदूर गांवों और कस्बों तक इस बार लोगों ने संविधान-दिवस मनाया। जीवन के अधिकार, रोजगार, आरक्षण, सामाजिक-धार्मिक-लैंगिक समानता, नागरिक आज़ादी पर मोदी राज में बढ़ते हमलों से बेहाल जनता, मेहनतकशों, हाशिये के तबकों, उत्पीड़ित-दलित समुदाय, महिलाओं ने संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा का संकल्प लिया, जो उनके जीवन की बेहतरी, उनके अधूरे सपनों और उम्मीदों के लिए सबसे बड़ा आश्वासन और सम्बल हैं, जनविरोधी हुकूमत के खिलाफ उनकी लड़ाई की वैधता का स्रोत हैं। 

किसानों ने अपने जीवन को रौंदने वाले तानाशाह के घुटने टेकने पर-काले कानूनों से मुक्ति का जश्न मनाया और नागरिक- आज़ादी तथा अधिकारों के सबसे बड़े custodian  हमारे संविधान की रक्षा का संकल्प लिया।

लेकिन इसी अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने एक अलग ही राग छेड़ा, जो बेहद डराने वाला है। संसद के सेंट्रल हाल और फिर विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में मोदी ने कई ऐसी बातें कीं जो आपातकाल की इंदिरा गांधी की याद दिलाने वाली थीं।

दरअसल,भाजपा के allies और आंध्र-उड़ीसा-तेलंगाना की सत्तारूढ़ पार्टियों को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण विपक्ष ने इन सरकारी कार्यक्रमों का बहिष्कार किया, विपक्ष का तर्क था कि मोदी और भाजपा संविधान और लोकतंत्र की जड़ काट रहे हैं, इसलिए उनके साथ संविधान पर कार्यक्रम करने का कोई औचित्य नहीं है

मोदी ने विपक्ष के बहिष्कार को केंद्र कर उनके ऊपर, विशेषकर कांग्रेस-सपा-लालू आदि के  "लोकतन्त्र-विरोधी चरित्र" पर हमला बोला और उनकी जी-भरकर लानत-मलामत की।

जाहिर है, यह सब हमारे संसदीय लोकतंत्र का routine व्यवहार है, विशेषकर मोदी जी का प्रिय शगल है और इसमें उनको महारत भी हासिल है।

इसके बाद वे अपनी असली theme पर आ गए। उन्होंने कहा, " भारत के विकास के रास्ते में बाधा खड़ी की जा रही है, कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर, कभी किसी और नाम पर। "इसे उन्होंने औपनिवेशिक मानसिकता बताया। शुक्र है कि देशद्रोह नहीं कहा! 

इंदिरा गांधी की committed judiciary बनाने की याद दिलाते हुए विज्ञान भवन में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने कार्यपालिका के कामों में रोड़ा डालने के बहाने न्यायपालिका पर निशाना साधा। प्रत्युत्तर में चीफ जस्टिस रमना ने कहा कि न्यायिक हस्तक्षेप को कार्यपालिका को निशाना बनाने के रूप में पेश करने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

सेंट्रल हाल के कार्यक्रम में मोदी जी ने विस्तार से अधिकार की बजाय कर्तव्य पर जोर देने की अपनी doctrine की व्याख्या की। "आज़ादी के बाद शासन व्यवस्था ऐसी बनी कि उसने अधिकार की ही बातें करके लोगों को ऐसी मनःस्थिति में रखा कि हम हैं तो आपके अधिकार पूरे होंगे। अच्छा होता देश आजाद होने पर कर्तव्य पर बल दिया जाता तो अधिकारों की अपने आप रक्षा हो जाती। अधिकार से याचकवृत्ति पैदा होती है कि मुझे मेरा अधिकार मिलना चाहिए, यानी समाज को कुंठित करने की कोशिश होती है।"

"अधिकार से याचक-वृत्ति पैदा होती है", मोदी जी का यह दर्शन उनके ही "मल ढोने वालों को आध्यात्मिक सुख मिलने" के चर्चित आध्यात्मिक ज्ञान की याद ताजा करता है।

यह पूरा mindset जनता के नागरिक अधिकारों को अस्वीकार करता है। यह संविधान के preamble को, मूलाधिकारों की पूरी अवधारणा को सर के बल खड़ा कर देता है। इसमें निहित है कि इनका वश चले तो संविधान से मौलिक अधिकारों का पूरा अध्याय हटा दिया जाय। और यह सब देश के विकास में बाधा के नाम पर !

मोदी के इस पूरे वक्तव्य ने इंदिरा गांधी की याद ताजा कर दी है। याद करिये, 70 के दशक में जनांदोलनों के भंवर में फंसी इंदिरा गांधी ने ठीक इसी अंदाज में लोकतन्त्र पर हमला बोला था और अंततः आपातकाल लगाकर अभिव्यक्ति की आज़ादी समेत सारी नागरिक स्वतंत्रताएं छीन ली थीं।  "आपातकाल के अनुशासन-पर्व" में नागरिकों के अधिकार की बजाय कर्तव्यों पर जोर देते हुए उन्होंने 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से बाकायदा मौलिक कर्तव्यों (Fundamental Duties ) को संविधान में जुड़वा दिया था।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने हाल ही में- Civil Society-the new frontier of war- fourth stage warfare-का जो नया doctrine पेश किया है , वह मोदी जी की इसी philosophy का रणनीतिक expression है। जो सिविल सोसाइटी हमारे समाज की conscience-keeper है, जो लोकतान्त्रिक रास्ते से भारतीय राज्य के विचलन पर 75 वर्षों से अनवरत आईना दिखाती रही है और दबाव बनाकर पुनः लोकतन्त्र की राह पर लौटाती रही है, उसे आज सबसे बड़ा दुश्मन घोषित कर दिया गया है। दरअसल, मोदी राज में जब राजनीतिक विपक्ष लकवाग्रस्त था, तब मोदी सरकार के फासीवादी अश्वमेध के घोड़े की लगाम पकड़ने का काम नागरिक समाज के योद्धाओं ने ही किया और उसकी बहुत बड़ी कीमत भी उन्होंने चुकाई। जाहिर है वे ही मोदी सरकार के सबसे बड़े target हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में नागरिक आज़ादी और अधिकारों को लेकर देश के सर्वोच्च कार्यकारी प्रमुख की यह सोच है!

दरअसल, कर्तव्य (duty ) की पूरी बात ही बेईमानी और धूर्तता से भरी हुई है और जनता के अधिकारों को रौंदने के अभियान को न्यायसंगत ठहराने के लिए की जा रही है। सच्चाई यह है कि हर व्यक्ति समाज की उत्पादक इकाई के बतौर अपने बुनियादी कर्तव्य निभा रहा है। जहाँ तक उन्नत सामाजिक दायित्वबोध के विकास का सवाल है, यह नागरिक चेतना ( civic sense ) के विकास से जुड़ा हुआ है,जो किसी भी समाज में शैक्षणिक-सांस्कृतिक उन्नयन तथा राजनैतिक चेतना के विकास से पैदा होती है। जाहिर है नागरिकों के आजीविका-शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों की गारंटी करके ही इसे हासिल किया जा सकता है। 

नागरिक अधिकार की पूरी अवधारणा संगठित राज्य (जो सारतः ताकतवर सामाजिक हितों का प्रतिनिधित्व करता है) के अतिक्रमण से individual के हितों और आज़ादी की रक्षा का आधार है, जो लोकतन्त्र में हर नागरिक का inalienable right है।

यह अनायास नहीं है कि ठीक उसी समय जब मोदी जी यह अधिकार की जगह कर्तव्य का पाठ सिखा रहे थे, संविधान दिवस के दिन उसी समय प्रयागराज से वह खौफनाक खबर आ रही थी, हमारे समाज के आखिरी पायदान पर खड़े दलित समाज के एक पूरे परिवार को कत्ल कर दिया गया और नाबालिग बेटी के साथ गैंग रेप कर हत्या कर दी गयी क्योंकि दबंग उनकी जमीन कब्जाना चाहते थे और पुलिस उनके साथ खड़ी थी। 

संवैधानिक पद पर बैठकर उसी राज्य का मुखिया खुलेआम "ठोंक दो" और "परलोक भेजने " की  घोषणा करता है, उसके अनुपालन में न जाने कितनी फ़र्ज़ी एनकाउंटर और custodial हत्याएं होती हैं और लंगड़ा-एनकाउंटर नाम का एक नया मुहावरा पुलिस नृशंसता के शब्दकोश में जुड़ जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को टिप्पणी करनी पड़ती है,  "मानवाधिकारों को सबसे बड़ा खतरा पुलिस थानों में है।" 

कानून के राज के रखवालों पर जस्टिस रमना की यह टिप्पणी मोदी राज में हमारे लोकतंत्र की सेहत पर बहुत कुछ कह देती है।

जहां विराट आबादी के लिए जिंदा रहने के न्यूनतम बुनियादी अधिकार भी दांव पर लगे हों, वहां जनता के अधिकारों को खारिज कर उसे कर्तव्य का उपदेश देने की यह पूरी जुमलेबाजी, दरअसल देश के सारे संसाधनों, जनता की सारी कमाई पर कब्ज़ा जमाने के नंगे, खूनी अभियान में लगे देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों, वित्तीय पूँजी के धनकुबेरों के दिल की आवाज है, उनके मन के बात है जिसे मोदी जी स्वर दे रहे हैं।

आपातकाल के बाद की लगभग आधी सदी में गंगा-जमुना में बहुत पानी बह चुका है, देश-दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है। क्या आज इंदिरा गांधी की राह चलने का मोदी जी दुःसाहस करेंगे? क्या उनकी कोशिश कामयाब होगी ?

क्या देश की जनता जिसने ऐतिहासिक किसान-आंदोलन से अपने अधिकारों की नई चेतना और सत्याग्रह की ताकत की नई अनुभूति हासिल की है तथा कारपोरेट सत्ता को अभी अभी पटखनी दी है, वह नागरिक अधिकारों को कुचलने की इन लुटेरों की ख्वाहिशों को, उनके प्रतिनिधि मोदी जी के मंसूबों को पूरा होने देगी ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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