NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
मुद्दा: हमारी न्यायपालिका की सख़्ती और उदारता की कसौटी क्या है?
कुछ विशेष और विशिष्ट मामलों में हमारी अदालतें बेहद नरमी दिखा रही हैं, लेकिन कुछ मामलों में बेहद सख़्त नज़र आती हैं। उच्च अदालतों का यह रुख महाराष्ट्र से लेकर पश्चिम बंगाल, पंजाब, दिल्ली और दूसरे राज्यों में भी एक जैसा है।
अनिल जैन
22 Apr 2022
Judiciary

पिछले कुछ वर्षों से देश की अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह न्यायपालिका भी संक्रमण के दौर से गुजर रही है। न सिर्फ उसकी कार्यशैली और फैसलों पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि उसकी हनक भी लगातार कम हो रही है। यह बात सर्वोच्च और उच्च अदालतों के कई पूर्व और वर्तमान न्यायाधीश भी कई मौकों पर कह चुके हैं। इसके बावजूद लगता नहीं कि देश की उच्च अदालतें न्यायपालिका की साख और विश्वसनीयता पर गहरा रहे संकट को महसूस कर रही हैं।

करीब साढ़े चार दशक पहले आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तो महज मंशा जाहिर की थी कि न्यायपालिका को सरकार के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए, लेकिन उनकी यह मंशा पिछले कुछ वर्षों से मूर्तरूप लेती दिख रही हैं। सर्वोच्च और उच्च अदालतों के न्यायाधीश न सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी करते हुए प्रधानमंत्री की तारीफ कर रहे हैं बल्कि उनके फैसले भी सरकार और सत्तारूढ़ दल की मंशा के मुताबिक आ रहे हैं। ऐसा सिर्फ संवैधानिक और नीतिगत मामलों में ही नहीं बल्कि आपराधिक मामलों में भी हो रहा है।

पिछले कुछ दिनों का रिकॉर्ड उठा कर देखें तो पता चलता है कि कुछ उच्च अदालतें तो भाजपा नेताओं और भाजपा से करीबी संबंध रखने वाले पूर्व नौकरशाहों व अन्य लोगों को राहत देने और विपक्षी पार्टियों के नेताओं की नकेल कसने के लिए ही बैठी हैं। अपवाद के तौर पर भी किसी भाजपा नेता या भाजपा से जुड़े व्यक्ति को अदालत ने निराश नहीं किया है। गंभीर से गंभीरतम आपराधिक मामले फंसे जिस भी व्यक्ति ने राहत मांगी है, उसे राहत मिली है। उसी तरह अपवाद स्वरूप भी किसी विपक्षी नेता को राहत मिलना तो दूर, उलटे उसे अदालत की सख्ती का सामना करना पड़ा है।

यह भी देखने में आ रहा है कि भाजपा विरोधी राज्य सरकारें अगर किसी भाजपा नेता, अधिकारी, पूर्व अधिकारी या कारोबारी के खिलाफ कोई भी कार्रवाई शुरू करती है तो उसे आनन-फानन में अदालतों से राहत मिल जाती है। लेकिन उसी राज्य सरकार के किसी नेता या अधिकारी के खिलाफ सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी और आयकर जैसी केंद्रीय एजेंसियां कार्रवाई करती है तो उनको कोई राहत नहीं मिलती है। हो सकता है कि यह संयोग हो लेकिन एक-दो नहीं, अनेक मामलों में यह संयोग हुआ है।

ताजा मामला महाराष्ट्र के भाजपा नेता किरीट सौमेया और उनके बेटे का है। पूर्व सांसद किरीट सौमेया और उनके बेटे पर राष्ट्रीय धरोहर रहे विमान वाहक जहाज 'आईएनएस विक्रांत’ का कबाड़ बेचे जाने के मामले में करीब 75 करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप है। निचली अदालत ने उन्हें अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था, लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने पिता-पुत्र दोनों को तत्काल राहत दे दी। इसी तरह केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता नारायण राणे तथा उनके बेटे नीलेश राणे के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार ने मानहानि का मुकदमा किया और कुछ अन्य मुकदमे भी उनके खिलाफ दर्ज हुए तो उनको निचली अदालत ने ही गिरफ्तारी से राहत दे दी।

मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह हालांकि भाजपा के नेता नहीं हैं, लेकिन सब जानते हैं कि महाराष्ट्र सरकार और उसके मंत्रियों के खिलाफ उनकी बयानबाजी किसके इशारे पर हो रही थी। उन पर घूस लेने से लेकर रंगदारी वसूलने और मनी लॉन्ड्रिग सहित कई आरोप हैं। वे खुद भी अपने पर लगे आरोपों की गंभीरता को समझ रहे थे और इसीलिए कई महीनों तक तक लापता रहे थे। केंद्रीय जांच एजेंसियों ने उनके देश से भाग जाने का अंदेशा जताया था और जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी तीखी टिप्पणी की थी। बाद में वे किसी तरह अदालत में पेश हुए, लेकिन उनकी गिरफ्तारी नहीं हो सकी। हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने हर मामले में उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी, जिसकी वजह से महाराष्ट्र पुलिस चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही है। संभव है कि उनका मुकदमा ही राज्य सरकार से लेकर सीबीआई को दे दिया जाए।

ऐसा ही मामला महाराष्ट्र काडर की आईएएस अधिकारी रश्मि शुक्ला का है। उन पर आरोप है कि उन्होंने भाजपा की देवेंद्र फड़नवीस सरकार के समय विपक्षी नेताओं और अन्य लोगों के फोन टेप कराए थे। इस मामले में राज्य सरकार मामला दर्ज कर कार्रवाई शुरू करने जा ही रही थी कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनके खिलाफ कार्रवाई पर रोक लगा दी और उन्हें गिरफ्तारी से भी राहत दे दी। रश्मि शुक्ल इस समय केंद्रीय प्रतिनियुक्ति होते हुए हैदराबाद में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के रूप में तैनात हैं।

रिपब्लिक टीवी के मालिक और संपादक अर्नब गोस्वामी और अभिनेत्री कंगना रनौत को भी बॉम्बे हाई कोर्ट से राहत मिली हुई है। अर्नब गोस्वामी के खिलाफ व्हाट्सएप चैट के जरिए देश की सुरक्षा से संबंधित कुछ गोपनीय जानकारियां लीक करने और टीआरपी घोटाले का मामला दर्ज है, जबकि कंगना रनौत के खिलाफ किसान आंदोलन के दौरान सिख समुदाय के खिलाफ आपत्तिजनक ट्वीट करने का मामला है।

उपरोक्त सारे मामलों के ठीक उलट महाराष्ट्र सरकार के मंत्रियों अनिल देशमुख और नवाब मलिक को कोई राहत नहीं मिली है। नवाब मलिक ने अब राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। दोनों नेता जेल में बंद हैं। राज्य पुलिस के अधिकारी सचिन वझे और शिव सेना की ओर से विधानसभा का चुनाव लड़ चुके पूर्व पुलिस अधिकारी प्रदीप शर्मा भी किसी अदालत से राहत नहीं हासिल कर पाए हैं। ये दोनों भी जेल में हैं।

उच्च अदालतों का यह रुख महाराष्ट्र से लेकर पश्चिम बंगाल, पंजाब, दिल्ली और दूसरे राज्यों में भी एक जैसा है। पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी पर जब राज्य सरकार ने भ्रष्टाचार के मामले दर्ज कर कार्रवाई शुरू की तो अदालत से उन्हें तत्काल राहत मिल गई। पिछले दिनों हाई कोर्ट ने पांच मामले राज्य पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंप दिए। इनमें से ज्यादातर मामलों में तृणमूल कांग्रेस के नेता आरोपी हैं।

पंजाब के अकाली नेता बिक्रम सिंह मजीठिया का मामला भी कम हैरान करने वाला नहीं है। उनके खिलाफ नशे की तस्करी कराने और तस्करों को शरण देने जैसे गंभीर आरोप हैं। इसीलिए हाई कोर्ट ने उनकी अग्रिम जमानत खारिज कर दी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 31 जनवरी को उनकी गिरफ्तारी पर 23 फरवरी तक के लिए रोक लगा दी थी ताकि वे विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया में हिस्सा ले सकें। उन्हें राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र की दुहाई दी और कहा, ''हम एक लोकतंत्र हैं, जहां राजनेताओं को चुनाव में नामांकन दाखिल करने की अनुमति दी जानी चाहिए और ऐसी धारणा नहीं बनना चाहिए कि दुर्भावना से प्रेरित होकर मुकदमे दायर किए गए हैं।’’

इन तमाम मामलों और बिक्रम सिंह मजीठिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट की दलील के बरअक्स देश भर से गिरफ्तार सामाजिक कार्यकर्ताओं का मामला देखें तो हैरानी होती है। बेहद बूढ़े हो चुके सामाजिक कार्यकर्ता सालों से जेल में बंद हैं। पुलिस उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत आज तक पेश नहीं कर पाई है, फिर भी उन्हें जमानत नहीं मिल रही है। 80 साल के बुजुर्ग कवि वरवर राव को जेल में नजर का चश्मा हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और पार्किंसन के शिकार 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी पानी पीने के लिए सीपर की मांग करते हुए जेल में ही दम तोड़ देते हैं। ऐसे मामलों में हमारी अदालतों को न तो लोकतंत्र याद आता है और न ही मानवता।

दिल्ली में साल 2020 में हुए सांप्रदायिक दंगे के मामले में दंगा भड़काने के आरोपी भाजपा नेताओं के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका की पिछले दिनों सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने जो दलील दी है वह बेहद शर्मनाक है। गौरतलब है कि दिल्ली में दंगे से पहले एक केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने आम सभा में भाषण देते हुए लोगों से नारा लगवाया था- 'देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को।’ इसी तरह दिल्ली के भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने भी भड़काऊ और नफरत फैलाने वाला भाषण दिया था। इस संदर्भ में अदालत ने कहा, ''अगर मुस्कुराते हुए कुछ कहा जाता है तो वह अपराध नहीं है, लेकिन अगर वही बात आक्रामक रूप से गुस्से में कही जाए तो उसे अपराध माना जा सकता है।’’

अदालत की इस दलील को नजीर मान कर भविष्य में तो कोई व्यक्ति हंसते हुए अपने भाषण में लोगों के घरों में आग लगाने और उन्हें जिंदा जलाने की अपील भी कर सकता है। हालांकि हाई कोर्ट ने याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा है लेकिन अदालत की उपरोक्त टिप्पणी से जाहिर है कि वह क्या फैसला सुनाएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि अदालत ने प्रकारांतर से आरोपियों का बचाव किया है और ऐसा करते हुए जो बेहूदा दलील दी है, वैसी दलील तो आरोपियों के बचाव में उनके वकीलों ने भी नहीं दी होगी।

'सुल्ली डील’ और 'बुल्ली डील’ एप पर मुस्लिम समुदाय की बुद्धिजीवी महिलाओं, महिला पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की तस्वीरें डाल कर उनकी बोली लगाने जैसे घृणित अपराध के दो आरोपियों को जमानत देते हुए भी दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने बेहद अजीब दलील दी। अदालत ने कहा कि चूंकि आरोपियों ने पहली बार कथित रूप से कोई अपराध किया है और मुकदमे के ट्रायल में काफी समय लगेगा, इसलिए उन्हें लंबे समय तक हिरासत में रखना उनके भावी जीवन की भलाई के लिए 'मानवीय आधार’ पर उचित नहीं होगा। कोई आश्चर्य नहीं कि जिस आधार पर अदालत ने दोनों आरोपियों को जमानत दी है, उसी आधार पर कुछ समय बाद उन्हें बरी भी कर दिया जाए।

अदालतों ने ऐसी उदारता भाजपा और आरएसएस से जुड़े उन कथित साधु-संतों के बारे में भी दिखाई है, जिन्होंने कुछ समय पहले हरिद्वार और रायपुर में धर्म संसद के नाम से आयोजित जमावड़े में महात्मा गांधी की हत्या को जायज ठहराते हुए नाथूराम गोडसे के समर्थन में नारे लगाए थे और हिंदू युवकों से आह्वान किया था कि वे कॉपी-किताब छोड़ कर हथियार उठाए और मुसलमानों का देश से नामोनिशान मिटा दें। जिन-जिन साधुओं के खिलाफ इस मामले में मुकदमा कायम हुआ था, उन सभी को अदालत ने जमानत पर रिहा कर दिया है।

इस तरह के तमाम मामले हैं जिनसे अदालत की विश्वसनीयता और साख पर सवाल खड़े होते हैं। देश की शासन व्यवस्था तो जैसी है, वैसी है ही लेकिन न्याय व्यवस्था से तो यही अपेक्षा की जाती है कि वह शासन व्यवस्था की पिछलग्गू नहीं बन सकती। अपनी तमाम विसंगतियों और गड़बड़ियों के बावजूद हमारी न्यायपालिका अब भी हमारे लोकतंत्र का सबसे असरदार स्तंभ है और हर तरफ आहत और हताश-निराश-लाचार देशवासियों की उम्मीदों का आखिरी आसरा भी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Indian judiciary
Judiciary
Judiciary System
Judiciary in India
Supreme Court
high court

Related Stories

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल

2019 में हुआ हैदराबाद का एनकाउंटर और पुलिसिया ताक़त की मनमानी

मायके और ससुराल दोनों घरों में महिलाओं को रहने का पूरा अधिकार

जब "आतंक" पर क्लीनचिट, तो उमर खालिद जेल में क्यों ?

विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा

तेलंगाना एनकाउंटर की गुत्थी तो सुलझ गई लेकिन अब दोषियों पर कार्रवाई कब होगी?

मलियाना कांडः 72 मौतें, क्रूर व्यवस्था से न्याय की आस हारते 35 साल


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License