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जम्मू-कश्मीर: जब ‘फ़्री कश्मीर’ बन जाता है अपराध
महक मिर्ज़ा प्रभु सिर्फ़ इतना चाहती थीं कि कश्मीर पर लगाई गई तालाबंदी से मुक्ति मिले। हमें अपने-अपने तरीक़ों से महक का और कश्मीरियों का समर्थन करना चाहिए।
गौतम नवलखा
15 Jan 2020
जम्मू-कश्मीर

5 जनवरी को मुंबई की सीएएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी रैली में, सैकड़ों लोगों में से एक पोस्टर पर मात्र दो बेहद सामान्य शब्दों “ फ़्री कश्मीर” ने कुछ छद्म-राष्ट्रवादी नेताओं को “एंटी-इंडिया” साबित करने वाले ग़ुस्से की सनक से सराबोर कर दिया। मुंबई पुलिस ने भी बिना कोई देर लगाए आईपीसी की धारा 153 (बी) के तहत "राष्ट्रहित के लिए अभियोग या पूर्वाग्रह से भरा अभिकथन" एफ़आईआर दर्ज कर लिया। यह कोई 1.3 अरब भारतीय नहीं हैं जो पागल हो गए हैं, बल्कि ये सत्तारूढ़ और पूर्व सम्राट हैं जो अभिव्यक्ति के विचारोत्तेजक स्वरूपों से भयभीत हैं। विडंबना यह है कि एक पोस्टर को लेकर चल रहे इस उन्मादी दौरे के अलावा भी ढेर सारे अभियोग और विकृति मौजूद हैं।

अवसर चुक गया है

ज़ाहिर है, हम एक बेहद दिलचस्प दौर में हैं। और ऐसे समय में उनके साथ रहते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 10 जनवरी को एक फ़ैसला सुनाया है जिसे उसने 27 नवंबर  2019 से सुरक्षित रखा हुआ था। जबकि इस बीच कश्मीरी जनता अपनी संवैधानिक आज़ादी से महरूम रही, और उससे बचने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी, और वे ‘ज़ंजीरों में जकड़े नागरिकों’ वाली स्थिति में बने रहे। जबकि शीर्ष अदालत ने "स्वतंत्रता और सुरक्षा के बीच एक संतुलन" बनाने की बात कही थी, लेकिन जब मुश्किल की घड़ी आई तो इसने कार्यकारिणी और सुरक्षा के पक्ष में “संतुलन” को झुका दिया। जहाँ शीर्ष न्यायालय ने इस बात को माना कि इंटरनेट भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में आता है, लेकिन इस अधिकार को बहाल करने की पहल अपनी ओर से नहीं की। इसके बजाय जिस कार्यकारी शक्ति ने ख़ुद अपने हाथों संवैधानिक आज़ादी पर अंकुश लगाने का काम किया था, उसी कार्यकारी मशीनरी को अपने आदेश में कहा है कि वह समय-समय पर अपने आदेशों की समीक्षा करे और ख़ुद से यह तय करे कि क्या “इस प्रकार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के क्या स्पष्ट और वर्तमान ख़तरे हो सकते हैं।”

इसके साथ ही अदालत ने ख़ासतौर पर अधिकारियों से पूछा कि वे “अस्थाई” तरीक़े तैयार करें, और दूरसंचार सेवाओं के अस्थाई बंदी के अधिकतम शटडाउन की अवधि के बारे में (सार्वजनिक आपातकाल या सार्वजनिक सेवा) नियम 2017 के तहत तय करें। इसलिये, भविष्य में यदि कोई राहत मिलती भी है तो वह तभी संभव है जब इन आदेशों को सार्वजनिक कर दिया जायेगा।

दूसरे शब्दों में कहें तो एक तरह से यह अच्छा ही रहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को एक बार फिर से दोहराया है कि इंटरनेट तक की पहुँच अधिकार के दायरे में आती है, लेकिन इसे खोलने के अधिकार को भारत सरकार को देकर इसने नागरिकों को विफल कर दिया है। या यूँ कहें कि एक "मजबूत नेता" के नेतृत्व वाले केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय से निलंबन आदेशों को स्थगित करवा लिया है। और कुछ नहीं तो न्यायालय से कम से कम "नमूना आदेश" प्राप्त हो सकता था। यह बताता है कि सरकार को अब अदालतों का कोई भय नहीं रहा। ज़्यादा से ज़्यादा अदालत उनकी उँगलियों के पोरों पर थपकी ही मार सकती है। यह बात इससे और भी स्पष्ट हो जाती है जब कश्मीर में "आतंकवाद" के बारे में सरकार के प्रस्ताव को बिना किसी आलोचनात्मक समीक्षा के स्वीकृति प्राप्त हो जाती है:

''इस रौशनी में हम राज्य द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों पर ध्यान देना चाहेंगे जिसमें 1990 से लेकर 2019 तक आतंकवादी हिंसा की 32,71,038 घटनाएं दर्ज की गई हैं, जिसमें 14,038 नागरिकों की मौतें हुई हैं,  5292 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए हैं और 22,536 आतंकवादी मारे गए हैं। भू-राजनीतिक संघर्ष को कम करके या उसे अनदेखा करने का काम नहीं किया जा सकता है।”

इन आँकड़ों के पीछे के सच को जब उजागर किया जाता है तो राज्य सत्ता द्वारा प्रस्तुतीकरण से एक अलग ही तस्वीर निकल कर सामने आती है। क्योंकि हर चीज़ को "आतंकवादी हिंसा" की श्रेणी में शामिल कर देने से असली हक़ीक़त को ढक दिया जाता है। सुरक्षा बलों की भूमिका के चलते होने वाली मौतों और अन्य दूसरे कार्यों से हो सकने वाली वजहों, या यहाँ तक कि सरकार के लिए काम करने वाले आतंकवादियों द्वारा घटित की ज़िम्मेदारी भी "आतंकवादियों" के सर पर मढ़ दी जाती है।

1990 के बाद से 8,000 से 10,000 लोगों के लापता होने की रौशनी में देखें तो सभी नागरिकों और उग्रवादियों की मौतें पूरी तरह से "आतंकवादियों" की वजह से ही नहीं हुई हैं। इससे भी बदतर स्थिति यह है कि ये उबाऊ आँकड़े ज़मीनी हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ करते हैं, जहाँ उग्रवाद में कमी आई है, जबकि इसकी तुलना में 2001-02 तक हज़ारों की संख्या में उग्रवादियों, और हज़ारों उग्रवाद से सम्बन्धित घटनाएं और हज़ारों की संख्या में घुसपैठ की घटनाएं अपने चरम पर थीं। इसके बाद  इस तरह की घटनाओं में अब काफ़ी कमी आ चुकी हैं, और जिसे सुरक्षा बल एक ख़तरे के रूप में मानते हैं, उस सीमा से यह काफ़ी निचले स्तर तक पहुँच चुकी हैं।

लेकिन दुर्भाग्यवश जिस प्रकार की राहत कश्मीर के संकटग्रस्त लोगों को पहुंचाई जा रही है या कहें कि नहीं पहुँचाई जा रही है, ऐसे हालात में न्यायपालिका ने एक बार फिर से देश के "अशांत क्षेत्रों" में रहने वाले नागरिकों को असफल कर दिया है। ना तो जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय और ना ही शीर्ष अदालत ने कश्मीर में चल रही संपूर्ण बंदी को लेकर कोई गंभीर चिंता व्यक्त की है जहाँ पर सभी प्रकार की संवैधानिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लागू हैं, सैकड़ों की संख्या में लोगों की गिरफ्तारियाँ हुई हैं और बंदी बनाकर रखा गया है, और कई महीनों से बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई लटकी पड़ी हैं। इन सबके अलावा भी काफ़ी कुछ नागरिकों को झेलना पड़ रहा है लेकिन ऐसी बंदी बनाकर रखी गई नागरिकता के पास राहत की कोई सूरत नज़र नहीं आती दिखती।

सच्चाई तो यह है कि सैकड़ों बच्चों को अवैध तौर पर बंदी बनाए जाने के ठोस सबूतों के बावजूद, जिसमें बच्चों द्वारा हिरासत के दौरान यातना दिए जाने की दास्ताँ है, शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं की सुनवाई को ख़ारिज कर दिया और पुलिस की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया,  महज इसलिये क्योंकि इसे उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने निरीक्षण किया था। यहाँ तक कि इस “भरोसे के चलते” सरकार को और उसके लोगों को एक प्रमाण पत्र तक जारी कर दिया गया, जबकि आम नागरिक-याचिकाकर्ताओं के प्रति अदालत का रवैया इसके विपरीत संदेह का था। इस तथ्य के बावजूद कि प्रेस की स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है और सेंशरशिप लागू है, अदालत को उनकी बातों पर विश्वास करने का कोई कारण नज़र नहीं आया। और यह सब एक ऐसे दौर की बात हो रही है जब कश्मीर में मीडिया पर सबसे अधिक अपमानजनक हमले हुए हैं, उन्हें देश-द्रोही कहा गया, उनकी आवाजाही प्रतिबंधित रही और उनकी ख़बरों पर रोक लगी और मीडिया को मिलने वाले विज्ञापनों पर रोक लगा दी गई, और यह सब इसलिये किया गया ताकि उन्हें सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोगों के इशारे पर चलने के लिए बाध्य किया जा सके।

ऐसा लगता है कि इस निर्णय के चलते कश्मीर दो नैरेटिव के बीच फँस कर रह गया है, पहला यह कि राज्य इस मामले में निहत्थे लोगों के साथ क्या रुख अख़्तियार करता है (समूचे लोगों को बंदी बनाकर रखने) जो असमर्थ हैं (अपनी संवैधानिक स्वतंत्रता का उपयोग करने में), या राज्य ख़ुद को सैन्यबल और क़ानून से लैस रखता है, जिसके पास घायल करने और नुकसान पहुँचाने की अपार क्षमता है- बनाम निहत्थे नागरिकों की असहायता का। यह उन संस्थाओं की स्थिति पर एक दुखद टिप्पणी है, जिन पर हम नागरिक स्वतंत्रता को बुलंद रखने और सदैव उसकी रक्षा करने पर भरोसा जताते हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायपालिका पर हमारी यह आशा और अपेक्षा कि वह नागरिकों के अधिकारों को बुलंद रखेगी, बार-बार धराशायी हो रही हैं। कश्मीर में तालाबंदी को हुए अब 163 दिन बीत चुके हैं और इसे हटाये जाने की कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आ रही। तभी तक कश्मीर "शांत" है, लेकिन इसे "सामान्य" नहीं कहा जा सकता। लेकिन सुनश्चित रूप से यही कहा जा सकता है कि चुप कराकर रखे गए कश्मीरियों को बोलने की अपनी बारी का इंतज़ार करना ही पड़ेगा। सुर में सुर मिला रहे पैराशूट से उतारे गए नेतागण और प्रशासन किसी और का नहीं बल्कि खुद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। और जिन्हें नेताओं के रूप में तैयार किया जा रहा है, वे खुद अपने ही लोगों के बीच जाने में खौफ़ खाते हैं।

राजनयिकों को तफ़रीह पर लाना

इस पृष्ठभूमि में 15 ‘मित्र देशों’ के विदेशी दूतों की यात्रा, और उनकी अगुवाई कर रहे अमेरिकी राजनयिक की यात्रा को देखना दिलचस्प है। अब ज्यादातर भारतीयों को यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने “मित्र यात्रियों” को छोड़कर हर भारतीय को संदेह से देखती है। लेकिन यह बात अब और खुल कर सामने आ रही है कि सबसे पहले चुनिंदा राजनयिकों को आमंत्रित कर (यूरोपीय संसद के दक्षिणपंथी सदस्यों के आधिकारिक दौरे के बाद) सरकार ने यह संकेत दे दिया है कि ज़मीनी हक़ीक़त को अपने ख़ुद के लोगों से छिपाने के लिए सरकार के पास काफ़ी कुछ है।

ऐसी किसी भी स्थिति में, यदि बीजेपी असल में "राष्ट्रवादी" पार्टी होती तो सबसे पहले वह भारतीय सांसदों के प्रतिनिधिमंडल को, अपने ख़ुद के साथी नागरिकों को, कश्मीर यात्रा के लिए आमंत्रित करती। इससे जम्मू कश्मीर में ज़मीनी हालात को लेकर भारत में व्याप्त भ्रम को दूर करने में मदद ही मिलती, क्योंकि कॉर्पोरेट मीडिया की कवरेज झूठ का पुलिंदा है, जिसपर अधिकतर लोग अब यक़ीन नहीं करते। इसके अलावा भारत के प्रकाण्ड विद्वान विदेश मंत्री जो कभी इस बात का दावा करते नहीं थकते कि कश्मीर भारत का आंतरिक मसला है और उनकी सरकार को इस बात की कोई ख़ास परवाह नहीं कि अन्य लोगों का इसपर क्या कहना है। लेकिन देखिये, परवाह कुछ इस तरह से है कि अमेरिकी दूत के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल आता है, जिसे दो दिन के दौरे पर लाया जाता है, और वे एक-एक दिन कश्मीर और जम्मू में बिताते हैं। रिपोर्टों से जो पता चला है उसके अनुसार, ये "दोस्ताना" दूत कई "प्रतिनिधिमंडलों" से मिले हैं, जिसकी व्यवस्था अजनबी प्रशासन द्वारा की गई और जिसे पागल सुरक्षा तंत्र द्वारा हरी झंडी दी गई थी।

लेकिन इस बात को लेकर संदेह है कि यह बीजेपी सरकार को कुछ बेहतर नतीजा दे सके, जिसका मत है कि दक्षिणपंथी रिपब्लिकन "नरमपंथी" हैं और डेमोक्रेटिक दलों में जो भारत के आलोचक हैं वे “चरम-वामपंथी” हैं। डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के प्रति भारतीय सरकार की दीवानगी भी अमेरिका में कोई सुर्खियाँ न बटोर सकी।

दिलचस्प बात यह है कि इन राजनयिकों की टीम में एक भी यूरोपीय संघ का सदस्य शामिल नहीं था, और न ही रूस का। यूरोपीय संघ के इन्कार को इस आड़ में छुपाने की कोशिश की गई कि 28 यूरोपीय संघ के देशों से दूतों को ले जाने कई अड़चनें पेश आ रही थीं, लेकिन इसकी असली वजह तो ये थी कि यूरोपीय संघ इस बात पर अड़ा हुआ था कि वह लोगों से “बिना सुरक्षा घेरे के” खुलकर बातचीत करेगा, जिससे बीजेपी सरकार को डर लगता है। लेकिन इस सूची से रूस को क्यों हटाया गया, इसका खुलासा कभी नहीं किया गया।

इसलिये जो लोग शीर्ष अदालत के फ़ैसले या कश्मीर में राजनयिकों की यात्रा में कुछ सकारात्मक देख रहे हैं, उन्हें इस बारे में दोबारा विचार करना चाहिए। हालांकि उम्मीदें बढ़ने लगती हैं और फिर धराशायी हो जाती हैं, लेकिन गृह मंत्रालय अपनी ओर से इस बात को सुनिश्चित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है कि कश्मीर के लिए सत्ताधारी बीजेपी के जखीरे में जो कुछ है, वह कहीं घुलकर बर्बाद न होने पाए। जम्मू कश्मीर में स्थानीय लोगों के लिए ज़मीन और नौकरियों में सुरक्षा की बढ़ती मांग के बीच स्थानीय नागरिकता के सवाल पर गृह मंत्रालय की ओर से इस बात के सन्देश भेजे जा रहे हैं कि जहाँ कुछ मामलों में संरक्षण को जारी रखा जायेगा वहीँ इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड को मिलने वाले संरक्षण से इसे काफी कमतर रखा जाए। कश्मीर में केवल कृषि योग्य भूमि को ही संरक्षित रखा जाना है, किसी अन्य ज़मीन या संपत्ति को नहीं।

इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत के दौरान गृह मंत्रालय के एक अनाम "अधिकारी" ने बताया है: "भूमि अधिग्रहण पर ढेर सारे प्रतिबंधों को अगर लगा देंगे तो अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण का उद्येश्य ही बेकार चला जायेगा और औद्योगीकरण और विकास के उद्देश्य को धक्का पहुँचेगा। जबकि बाहरी लोगों को जमीनें खरीदने की अनुमति देने के चलते, स्थानीय लोगों को ज़मीन के भाव अच्छे मिलने में ही मदद होगी।”

इसलिए, लोगों को कश्मीर में अपनी ज़मीन में दूसरों को हिस्सेदारी करने के लिए तमाम तरह के प्रलोभन, बहकाना, ज़ोर-आज़माईश जैसे हथकण्डे मौजूद हैं और कुछ महीनों पहले जिस प्रकार के विज्ञापनों और पर्चे राज्य प्रशासन और भारतीय सेना की ओर से जारी किये गए थे, उसी दिशा के अनुरूप रुख बना रहेगा।

दिलचस्प बात यह है कि एमएचए ने लद्दाख को छठी अनुसूची का दर्जा देने की मांग को स्वीकार करने को भी नामंज़ूर कर दिया है। लद्दाख अब भारत के प्रत्यक्ष-शासन के तौर पर उपनिवेश के रूप में तब्दील हो चुका है, जिसके पास विधानसभा जैसे किसी प्रावधान की भी गुंजाईश नहीं रह गई है। जबकि जम्मू कश्मीर विधानसभा की हैसियत निचले दर्जे की हो चुकी है, जिसके पास भूमि या पुलिस के मामले पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होने जा रहा है। इसलिये जब अंधभक्त टकटकी लगाये अपने ही बंद कमरों में अपनी ही गूंज को सुनकर मुदित होते रहते हैं, जबकि ऐसे में उन्हें लोगों की ख़ामोशी से डरना चाहिए। क्योंकि ख़ामोशी गुस्से को छिपाकर रखती है, और सही समय के इंतज़ार में दिन काटती है।

कितना कुछ बदल चुका हैं इन 163 दिनों में, और इस बीच एजेंसियों और कॉर्पोरेट मीडिया के जरिये एक नए लचीले किस्म के नेताओं के जखीरे को रंगमंच के लिए तैयार किया जा रहा है। गौरतलब है कि ये सभी तथाकथित साख खो चुके ’भारत-समर्थक कश्मीरी राजनेताओं के झुण्ड में से आते हैं। इसलिए, जब सही या गलत वजहों से महबूबा और अब्दुल्ला को गालियाँ पड़ रही हैं, ऐसे में अल्ताफ बुखारी और मुजफ्फर बेगों और उन जैसे अन्य लोग उन्हीं बदनाम नेताओं की टोली का हिस्सा हैं, जिनका भारतीय कॉर्पोरेट मीडिया कभी खिल्ली उड़ाती थी, लेकिन आज उन्हीं को प्रमोट करने में लगी हुई है।

जहाँ एक तरफ अलगाववादी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को उत्तर भारत की जेलों में सड़ने के लिए छोड़ दिया गया है और उनमें से अधिकतर दयनीय परिस्थितियों में जी रहे हैं, वहीँ अन्य भारतीय समर्थक राजनीतिज्ञों को कश्मीर में बंद रखा गया है, जिनके सामने या तो बीजेपी के दल-बल में शामिल होने का विकल्प बचता है या राजनीति से सन्यास लेकर चुपचाप बैठ जाने का। इस बात की अफवाहें चल रही हैं कि अब्दुल्ला जन को लंदन में निर्वासन काटने के लिए मजबूर कराया जा सकता है, जबकि मेहबूबा अभी भी एक अवांछित व्यक्तित्व के के तौर पर हैं।

संक्षेप में कहें तो भारतीय राज्य एक लंबे अर्से तक खिंचे संघर्ष में शामिल हो चुका है, जिसमें बीच का कोई रास्ता नहीं बचा है। किसी भी हालत में कैद में रखे जाने और स्वतंत्रता के मध्य कोई आधा रस्ता नहीं बचा है। कश्मीरियों को जो झेलना पड़ रहा है उसमें उनके पास क्या विकल्प हैं। जम्मू और लद्दाख के लोगों की तरह उन्होंने न केवल उनके स्वामित्व के लिए कानून का संरक्षण और अपनी खुद की भूमि और संपत्ति पर कब्जे की अनुल्लंघनीयता को खो दिया है। बल्कि जम्मू-कश्मीर के विपरीत, कश्मीर अब 60 x 40 मील की घाटी है जिसमें 80 लाख लोग निवास करते हैं, और लाखों की संख्या में सैनिकों की भारी तैनाती है, जो कि एक गैर-निर्वाचित प्रशासन के द्वारा संचालित है, और जिसकी कमान काफी हद तक गैर-जम्मू कश्मीरी अधिकारियों के हाथ में है। विशेष राज्य के दर्जे को घटाकर केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया गया है, जिसके पास भूमि और पुलिस प्रशासन की कोई नीति निर्धारित करने का अधिकार नहीं है। जैसा कि पिछले समय भी हो चुका है, एक बार फिर से एक नए "नेतृत्व" को उनपर थोपना बाकी है, जो कि इस बार बंदी बनाकर रखे लोगों के ऊपर होगा।

धोखे का यह खेल जारी है, जिसका निशाना भारतीयों को मूर्ख बनाये रखने के लिए उन पर किया जाता है। महत्वपूर्ण पदों पर कब्जे को लेकर जम्मू-कश्मीर प्रशासन, सुरक्षा बलों और प्रचारकों के बीच बीजेपी में होड़ मची हुई है। यह सोचना कि जो लोग बीजेपी को अपनी सेवाएं दे रहे हैं वे “राष्ट्र” सेवा में लगे हैं, इसपर एक बार फिर से विचार करना चाहिए। क्योंकि "राष्ट्र" दो टुकड़ों में बीच से विभाजित हो चुका है, और "राष्ट्रीय" बहस पर अब बीजेपी का एकाधिकार नहीं रहा। एक राष्ट्र विभाजन का अर्थ है बुनियादी मुद्दों पर विभाजित राष्ट्र। इसीलिए, नागरिकता के लिए यदि संविधान और आज़ादी का कोई अर्थ है तो हमारी एकजुटता का यह विस्तार कश्मीरियों तक अवश्य जाना चाहिए और साथ ही कश्मीर के प्रति भाजपा की पैशाचिक योजनाओं को बेनकाब करने का काम करना होगा।

उन्नीस वर्षीय महक मिर्ज़ा प्रभु कि इच्छा बस इतनी सी थी कि कश्मीर में जो तालाबंदी जारी है उससे उसे मुक्ति मिल जाये। लाखों अन्य भारतीय भी ऐसी ही इच्छा रखते हैं। सिर्फ धर्मांध और अंधभक्त ही हैं जो सारे कश्मीर को जेल में बदल देने की चाहत रखते हैं, और दूसरे लोग क्या महसूस करते हैं उसे जाहिर करने से रोकने में लगे रहते हैं। इस अर्थ में, विरोधाभासी रूप से उस लड़की के पोस्टर में  "फ्री कश्मीर" के नारे में यह संभावना दिखती है कि यह कश्मीरियों को बंदियों की तरह रखे जाने से मुक्ति का नारा बन सकता है, और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उनकी चाहत को लोकतांत्रिक तरीके से समर्थन का बायस बन सकता है, बिलकुल उसी तरह जैसे कि हमें अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार है।

इसलिये यहाँ पर वह अवसर है जो हर भारतीय को एकजुट होने का आह्वान करता है। यदि हम ‘पराये’ होने पर यकीन नहीं करते हैं, तो इसकी पुष्टि करने का एक तरीका यह है कि हमें कश्मीर को अपने खुद के नैरेटिव का हिस्सा बनाना होगा। इसलिये कहिये हाँ, ‘फ़्री कश्मीर।’ मैंने इसे अपने तरीक़े से पढ़ा है। दूसरों को अपने अपने अर्थों में इसे व्याख्यायित करने दें। यह होगा उन लोगों तक पहुँचने और उनके पक्ष में बोलने के जरिये जिन्हें खामोश कर दिया गया है, कि हम आपसी समझ और करुणा का निर्माण करते हैं और ‘पराया’ बनाये जाने की प्रक्रिया का मुक़ाबला करते हैं। स्वतंत्रता को टुकड़ों में विभाजित नहीं किया जा सकता। हम तब तक खुद को आज़ाद नहीं कह सकते, जब तक देश के किसी अन्य हिस्से में साथी नागरिकों को बंदी बनाकर रखा गया हो।

Jammu and Kashmir
Abrogation of Article 370
BJP
Amit Shah
Narendra modi
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