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भारत
राजनीति
जम्मू कश्मीर : धारा 370 हटाने के बाद भी वन अधिकार क़ानून लागू करने की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई
इससे पहले, पूर्ववर्ती पहाड़ी राज्य के पास भारतीय संविधान में मौजूद धारा 370 के तहत विशेष प्रावधान थे जो उसे ख़ुद के लिए क़ानून बनाने का अधिकार देते थे और राज्य में केंद्रीय क़ानूनों को लागू करने या न करने का विवेक भी देते थे।    
सुमेधा पाल
22 Jan 2020
Translated by महेश कुमार
JAAMU AND KASHMIR

धारा 370 को निरस्त करने के छह महीने बाद, जिसके कारण जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन राज्य में भूमि का पुनर्गठन शुरू हुआ है, अब इस क्षेत्र के आदिवासी अपनी मान्यता और वन अधिकार अधिनियम को लागू करने की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो वन अधिकार क़ानून अब इस क्षेत्र में लागू है।

2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में गुर्जरों और बक्करवालों की आबादी लगभग 11.9 प्रतिशत है – यानी कुल 1 करोड़ 20 लाख 50 हज़ार की कुल आबादी में से 15 लाख हैं। बड़ी तादाद यानी क़रीब दस लाख गुर्जर पर्वतीय क्षेत्रों में रहते हैं जहाँ वे पशुधन पालन और छोटे पैमाने पर कृषि पर निर्भर हैं। वर्षों से, कश्मीर में चल रहे सशस्त्र संघर्ष के कारण कई चारागाह के क्षेत्र इन घुमंतू आदिवासियों की पहुँच से बाहर हो गए हैं।

5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार ने उत्तर भारत के प्रदेश जम्मू और कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त कर दिया गया था, इस राज्य में अनुसूचित जनजाति के लोगों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों (वन अधिकार की मान्यता) अधिनियम, 2006 (जिसे वन अधिकार अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है) के लिए लागू नहीं था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जम्मू इकाई ने जम्मू-कश्मीर में इस क़ानून को लागू न करने के लिए पूर्व विशेष दर्जे को मुख्य कारण बताया था।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए, ट्राईबल रिसर्च एंड कल्चरल डेवलपमेंट के जावेद राही ने बताया, "पुनर्गठन के अलावा एफ़आरए के साथ-साथ कई अन्य क़ानून जैसे कि संरक्षण अधिनियम 1980 इस क्षेत्र में लागू हो जाएगा। हम ज्ञापन के ज़रिये इसके बारे में गवर्नर को लिख रहे हैं और उन्हे इन क़ानूनों को लागू करने के लिए आग्रह कर रहे हैं। गुर्जर-बकरवाल, ख़ानाबदोशों और ग्रामीण लोगों को इससे भारी नुक़सान हो रहा हैं, जबकि इन क़ानूनों को लागू करने की प्रक्रिया अभी शुरू भी नहीं हुई है।”

एक्टिविस्ट लोगों का कहना है कि अधिनियम को लागू करने की ज़िम्मेदारी अब जनजातीय मंत्रालय पर है।

केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा एक आउटरीच कार्यक्रम (लोगों से मिलने) के तहत नवगठित केंद्र शासित प्रदेश के दौरे पर हैं, आदिवासी समूह अपनी मांगों पर विचार करने के लिए दबाव बनाने के लिए कमर कस रहे हैं।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए, क्षेत्र के एक एक्टिविस्ट मसूद ने बताया, "इस मुद्दे पर यथास्थिति बने रहने के अलावा कुछ नहीं हो रहा है, और इसके बारे में कोई चर्चा भी नहीं है।"

वन अधिकार अधिनियम पारंपरिक वनवासियों को जबरन विस्थापित किए जाने के ख़िलाफ़ संरक्षित करता है और उनके पास अन्य अधिकार भी होते हैं, जिसमें चराई के अधिकार, जल संसाधनों और वन उत्पादों का इस्तेमाल (लकड़ी को छोड़कर) शामिल हैं। केंद्रीय वन अधिकार अधिनियम के लागू होने से आदिवासी समुदायों और वनवासियों को वनों पर अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का अधिकार मिल जाता है। अब तक, राज्य के वन क़ानून, आदिवासी एकटीविस्ट के अनुसार केवल वनवासियों को चराई का अधिकार देते थे।

अधिनियम को लागू करने में केंद्र सरकार की पहल में कमी राज्य की भूमि में उनकी इच्छा की पृष्ठभूमि में आती है। हाल ही में जंगलों की भूमि पर सौ से अधिक परियोजनाओं को हरी झंडी दिखा दी गई और वहाँ अवैध निर्माण तेज़ हो गया है।

5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार ने संसद में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम पारित किया था। इस अधिनियम के ज़रिये पूर्व में जम्मू और कश्मीर के 153 अधिनियमों को निरस्त कर दिया गया है, और 166 अधिनियमों को बरक़रार रखा गया है और 106 नए क़ानून लागू किए गए हैं।

इससे पहले, पूर्ववर्ती पहाड़ी राज्य भारतीय के पास संविधान में मौजूद धारा 370 के तहत विशेष प्रावधान थे जो उसे ख़ुद के लिए क़ानून बनाने का अधिकार देते थे और राज्य में केंद्रीय क़ानूनों को लागू करने या न करने का विवेक भी देते थे।

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