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झारखंड : ‘भाषाई अतिक्रमण’ के खिलाफ सड़कों पर उतरा जनसैलाब, मगही-भोजपुरी-अंगिका को स्थानीय भाषा का दर्जा देने का किया विरोध
पिछले दिनों झारखंड सरकार के कर्मचारी चयन आयोग द्वारा प्रदेश के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों की नियुक्तियों के लिए भोजपुरी, मगही व अंगिका भाषा को धनबाद और बोकारो जिला की स्थानीय भाषा का दर्जा दिया है। इसके बाद से ही पूरे प्रदेश के आदिवासी-मूलवासियों में तीखा आक्रोश है।
अनिल अंशुमन
02 Feb 2022
jharkhand
झारखंड में भाषाई मुद्दा हमेशा संवेदनशील रहा है

देश की कोयला की राजधानी कहे जाने वाले धनबाद व उसके आस पास के इलाके आये दिन धरती के नीचे कोयले में लगी आग के कारण होने वाली दुर्घटनाओं को लेकर अक्सर चर्चाओं में रहते हैं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से पूरा इलाका ‘भाषायी अतिक्रमण’ को लेकर उपजे विवाद से सामाजिक तनावों की आग में घिरता जा रहें हैं।                                                                     

जिसका एक नज़ारा 30 जनवरी को उस समय दिखा जब धनबाद-बोकारो की तमाम सड़कों पर हजारों झारखंडी युवाओं और स्थानीय निवासियों का जन सैलाब सड़कों पर प्रदर्शित हुआ। कार्यक्रम था ‘झारखंडी भाषा संघर्ष समिति’ के आह्वान पर आयोजित हुआ प्रतिवाद ‘मानव श्रृंखला’ अभियान।

व्यापक चर्चा है कि लगभग 40 किलोमीटर लम्बी इस मानव श्रृंखला में डेढ़ लाख से भी अधिक लोग शामिल हुए। इस अभियान के तहत एक ओर, निकाले गए विशाल प्रतिवाद मार्च में न सिर्फ हजारों झारखंडी छात्र-युवा ढोल-नगाड़े बजाते और नाचते हुए चल रहे थे बल्कि आस पास के कई गावों कस्बों और इलाकों के मूल निवासी अपने अपने घरों से निकलकर पूरे परिवार के साथ ‘मानव श्रृंखला’ में शामिल हुए।

पूरे अभियान की सबसे बड़ी विशेषता ये रही कि सड़कों पर प्रदर्शित हुए इस जन अभियान में शामिल लोगों के चेहरों पर काफी आक्रोश और तेवर था। लेकिन कहीं भी किसी भी प्रकार की कोई हिंसा या उन्माद की घटना नहीं हुई। साथ ही दूसरी विशेषता यह भी रही कि यह पूरा जन अभियान ‘पहले माटी फिर पाटी’ के आह्वान के साथ बिना किसी स्थापित राजनितिक पार्टी-संगठन और नेता के संगठित हुआ।

इस विशाल जन विक्षोभ का मूल कारण है पिछले दिनों झारखण्ड सरकार के कर्मचारी चयन आयोग द्वारा प्रदेश के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों की नियुक्तियों के लिए भोजपुरी, मगही व अंगिका भाषा को धनबाद और बोकारो जिला की स्थानीय भाषा का दर्ज़ा दिया जाना। जिससे न इन इस दोनों जिलों में रहने वाले झारखंडी मूल के लोगों बल्कि पूरे प्रदेश के व्यापक आदिवासी-मूलवासियों में तीखा आक्रोश है। वे इसे ‘भाषाई अतिक्रमण’ करार देते हुए प्रदेश की सभी झारखंडी भाषाओं का सरासर अपमान और झारखंडी अस्मिता पर हमला मान रहें हैं।

भोजपुरी, मगही और अंगिका भाषाओँ को धनबाद और बोकारो जिले की स्थानीय भाषा का दर्जा दिए जाने का विरोध करने वालों आन्दोलनकारियों ने यह भी स्पष्ट किया है कि वे किसी भी भाषा विशेष के विरोधी नहीं हैं और ना ही उस भाषा के लोगों से कोई बैर है। लेकिन उक्त भाषाएँ ना तो यहाँ के किसी भी गाँव-घरों में बोली जाती हैं और ना ही यहाँ के मूल निवासियों की अपनी भाषा हैं। उक्त भाषाएँ बिहार की स्थानीय क्षेत्रीय भाषाएँ हैं इसलिए इन्हें झारखण्ड के मूल निवासियों पर थोपा जाना ‘भाषाई अतिक्रमण’ है।

‘झारखंडी भाषा संघर्ष समिति’ के अभियान में सड़कों पर आक्रोश प्रदर्शित कर रहे युवाओं और मूल निवासियों का यह भी गहरा दर्द है कि राज्य गठन के 20 वर्ष से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद अब तक यहाँ सही ‘स्थानीय व नियोजन निति’ नहीं बनायी जा सकी है। जिससे यहाँ के युवाओं को अपने ही राज्य में नौकरी नहीं मिल पा रही है। फलतः रोज़ी रोज़गार के लिये दूसरे राज्यों और महानगरों में जाकर धक्के खाने को अभिशप्त जीवन जी रहें हैं। देश के हर प्रदेश की अपनी स्थानीय व नियोजन निति है जिसके तहत उस प्रदेश के युवाओं को उनके प्रदेश की सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दिए जाने का प्रावधान है। लेकिन सिर्फ झारखण्ड राज्य ही ऐसा जो एक ऐसा खुला चौराहा बना हुआ है जहां आज दूसरे प्रदेशों के लोगों का ही यहाँ की नौकरियों पर कब्जा है, ऐसा कब तक चलेगा?

झारखण्ड क्षेत्र में एकीकृत बिहार के समय 1932 के खतियान को यहाँ का स्थानीय होने को सरकारी मान्यता मिली हुई थी। जिसे राज्य गठन उपरान्त भाजपा गठबंधन की सरकारों ने समाप्त कर दिया था। भोजपुरी, मगही और अंगिका को धनबाद-बोकारो क्षेत्र की स्थानीय भाषा बनाए जाने को लेकर सियासी चर्चा है कि हेमंत सोरेन गठबंधन सरकार में कांग्रेस कोटे से शामिल एक मंत्री और विधायक (बिहार मूलनिवासी) ने मुख्यमंत्री पर दबाव डालकर उक्त फैसला करवाया है। जिसे भाजपा के बोकारो विधायक (बिहार मूलनिवासी) ने खुला समर्थन दिया है। 

स्थानीयता और भाषा का सवाल झारखण्ड प्रदेश का अत्यंत ही संवेदनशील मामला बनता रहा है। प्रायः सभी सियासी दल और नेता हमेशा ही इसका राजनितिक इस्तेमाल करते रहें हैं। जिसका एक उदाहरण झारखण्ड राज्य गठन के उपरांत ही ‘डोमिसाइल विवाद’ के रूप में पूरे प्रदेश में एक सामाजिक हिंसक टकराव के रूप में दिखा था। यहाँ होने वाले किसी भी चुनाव में अपने पक्ष में मतदाताओं का ध्रुवीकरण कर विरोधी को परास्त करने के लिए यह अस्त्र खुलकर आजमाया जाता है। कड़वा सत्य है कि प्रदेश की राजधानी रांची समेत ऐसे कई इलाकों में आज भी वहां के वोटरों के मत विभाजन में उक्त मुद्दा एक अहम भूमिका निभाता है।

‘भाषा अतिक्रमण’ के मुद्दे पर जारी जन अभियान काफी तेज़ी से प्रदेश का मुख्य सियासी रंग लेता जा रहा है। जिसमें 30 जनवरी के ‘मानव श्रृंखला जन अभियान’ के दौरान भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व सांसद रविन्द्र राय साथ के साथ हुए आंदोलनकारियों के झड़प मामले को लेकर प्रदेश भाजपा हेमंत सरकार को घेरने में लगी हुई है। पार्टी के कई प्रदेश नेताओं समेत खुद उन्होंने उक्त मामले को सुनियोजित हमला बताते हुए ‘मॉबलिंचिंग’ की साजिश कहकर हेमंत सरकार को जिम्मेवार ठहराया है।

‘मानव श्रंखला’ में शामिल आन्दोलनकारियों ने भी सोशल मिडिया के द्वारा वीडियो फुटेज वायरल कर भाजपा के आरोपों का खंडन करते हुए मीडिया पर दुष्प्रचार करने के आरोप लगाया है। जिसमें साफ़ कहा गया है कि उक्त भाजपा नेता जबरन समर्थन देने के नाम पर उनके आन्दोलन में घुसकर अपनी पार्टी का झंडा व बैनर लहराना चाह रहे थे। जिसका स्थानीय युवाओं ने विरोध किया तो उक्त नेता के हथियारबंद अंगरक्षक ने उन लोगों पर फायरिंग कर दी। जिससे वहाँ इतना तीखा आक्रोश फ़ैल गया कि रविन्द्र राय जी को दल-बल लेकर तुरंत वहाँ से भागना पड़ गया।

प्रदेश भाजपा ने हेमंत सरकार पर भाषा विरोध के नाम पर उचक्कों को आन्दोलन के लिए उकसाने का आरोप लगाया है। वहीं पूर्व विधानसभा अध्यक्ष रहे पार्टी के वरिष्ठ नेता ने तो इस मामले को भी ‘हिन्दू-मुसलमान’ बनाने के लिए हेमंत सरकार पर तुष्टिकरण का आरोप लगाते हुए कहा है कि आन्दोलनकारियों को उर्दू से कोई चिढ़ नहीं है सिर्फ मगही भोजपुरी से विरोध है।

दूसरी ओर, सरकार के प्रमुख दल झामुमो प्रवक्ता ने भाजपा पर राज्य के स्थानीय युवाओं के शंतिपूर्ण आन्दोलन में दंगा भड़काने की सुनियोजित साजिश रचने का आरोप लगाते हुए कहा है कि अपने नेता रविन्द्र राय के माध्यम से भाजपा वहाँ का सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना चाह रही थी।

1 फ़रवरी को जारी ख़बरों के अनुसार हेमंत सरकार के स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता मंत्री मथुरा महतो व सरकार के ही विधायक योगेन्द्र प्रसाद ने संयुक्त प्रेस वार्ता कर कहा है कि राज्य में झारखंडी भाषा व संस्कृति को लेकर जो लड़ाई चल रही है वह जायज है और वे झारखंडियों के साथ हैं। यह संवेदनशील मसला सब भाजपा का ही बुना हुआ काँटा है जो अब उन्हें ही गड़ रहा है। हालाँकि उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि वे किसी भी भाषा के विरोधी नहीं हैं लेकिन जिस क्षेत्र में जो भाषा वहाँ के मूल निवासियों द्वारा बोली जाती है, उसे ही वहाँ लागू किया ही जाना चाहिए। आन्दोलनकारियों से भी उन्होंने अपील की है कि वे सरकार पर भरोसा रखें, सरकार उनकी भावनाओं के अनुरूप ही काम करेगी।

झारखंड प्रदेश के छात्र युवाओं के शिक्षा और रोज़गार के सवालों के लेकर पिछले कई महीनों से निरंतर अभियान संचालित कर रहे वामपंथी छात्र-युवा संगठन आइसा-इनौस ने भी 31 जनवरी को राज्यव्यापी प्रतिवाद अभियान संगठित किया। जिसके माध्यम से मोदी सरकार से देश के युवाओं को प्रतिवर्ष 2 करोड़ रोज़गार के वायदे को पूरा करने की मांग करते हुए हेमंत सरकार से झारखंड में 1932 के खतियान आधारित स्थानीयता नीति और 5 लाख रोज़गार देने के वायदे को पूरा करने की मांग की है। साथ ही हेमंत सरकार को राज्य के युवाओं के सब्र की परीक्षा नहीं लेने की चेतावनी देते हुए यह भी कहा है कि वह भाजपा-आजसू के नक्शे क़दम पर नहीं चलें।

उक्त सन्दर्भों में माना जा रहा है कि झारखंड विधान सभा का आगामी बजट सत्र काफी हंगामेदार रहेगा। तथापि इस सत्य और तथ्य से इंकार नहीं किया जाना चाहिए कि सात दशकों से भी अधिक समय तक चले झारखंड राज्य गठन के आंदोलन में यहाँ की देशज क्षेत्रीय और आदिवासी भाषा संस्कृति का सवाल एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। जिसका सम्यक समाधान इस प्रदेश के आदिवासी और सभी मूलवासियों का संवैधानिक-लोकतान्त्रिक हक बनता है।

ये भी पढ़ें: झारखंड-बिहार: स्थानीय भाषा को लेकर विवाद कहीं महज़ कुर्सी की राजनीति तो नहीं?

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