कई अनुमानों के मुताबिक़ झारखंड के पास देश के 40 फ़ीसदी खनिज पदार्थ हैं। राज्य के पास भारत के कुल कोयला भंडार का 27.3 फ़ीसदी, लौह अयस्कों का 26 फ़ीसदी, तांबा अयस्क का 18.5 फ़ीसदी हिस्सा है। साथ में यूरेनियम, माइका, बॉक्साइट, ग्रेनाइट, लाइमस्टोन, सिल्वर, ग्रेफाइट, मैग्नेटाइट और डोलेमाइट का भंडार भी है। राज्य में बड़ी मात्रा में चूना पत्थर और रेत का जमाव भी है। झारखंड का 20 फ़ीसदी राजस्व खनिज गतिविधियों से आता है।
लेकिन इस प्रचुरता के बाद भी, जबकि वहां खनन गतिविधियां 20वीं सदी के पहले दशक में शुरू हो गई थीं, झारखंड देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। आर्थिक और सामाजिक पैमानों में इसकी रैंकिग काफी नीचे आती है। सन 2000 में बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद सोचा गया था कि वहां विकास हो पाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्यों?
विनाशकारी ढांचा
इसका मुख्य कारण है कि खनिज को राजनीतिक दल विनियोजित करने की नज़र से देखते हैं या उसे जब्त कर बेचने के लिए मानते हैं। उस ज़मीन पर रहने वाले लोगों को बाधा की तरह देखा जाता है, जिन्हें बड़ी खनन कंपनियों को जगह देने के लिए हटाने की जरूरत है। इसलिए खनन लोगों के लिए मुसीबत भरी गतिविधि बन गई।
उन्हें वहां से हटा कर कृषि दास बना दिया गया और उन्हें जबरदस्ती प्रवासन के लिए मजबूर किया गया या फिर उन्हें अमानवीय स्थितियों में गुजार-बसर करना पड़ा। इन सबके चलते खनन के खिलाफ स्वाभाविक प्रतिरोध पैदा हो गया और आगे समस्याएं पैदा हुईं।
निजी कंपनियों को खदान देने की नीति में भी बहुत गड़बड़ियां हैं। राज्य में 3,963 लीज़ और 6,647 डीलर्स के राज्य में खनन गतिविधियों में लग जाने के बाद लोगों का प्रतिरोध और तेज हो गया। इन बेशर्म लोगों का उद्देश्य किसी भी तरह केवल और केवल मुनाफ़ा कमाना था। इसके चलते खनन संसाधनों और लोगों के बीच खाई बढ़ती गई और रिश्ते बेहद बदतर होते चले गए।
कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि राज्य सरकार खदानों से रॉयल्टी या फीस नहीं लेती। तो इस ढांचे के साथ क्या दिक्कत है? जवाब बिलकुल सीधा है: राज्य सरकार (मौजूदा और पिछली) ने ऐसा खेल जमाया है कि रॉयल्टी और दूसरी शुल्क बहुत कम मात्रा में सरकार को प्राप्त होती हैं।
इससे खदान लेने वालों के पास और ज्यादा बड़ा हिस्सा होता है। यहां तक कि कैग ने भी झारखंड सरकार को बेहद कम, लगभग नगण्य शुल्क, उत्पाद के कम आंकलन और देरी से पैसा देने वालों पर सजा न लगाने के लिए लताड़ लगाई थी।
इसके चलते सबसे अमीर खनिज राज्य को कंपनियों से बहुत कम शुल्क मिल रहा है। जबकि वहीं कंपनियां खनिजों को बड़े फायदे के साथ बेच रही हैं। झारखंड की मौजूदा सरकार के बजट के मुताबिक़ 2018-19 में खदानों के अलग-अलग शुल्कों और किराए से राज्य सरकार 8,042 करोड़ रुपये कमाने की आशा कर रही है। 2018-19 में रेत खदानों से 299 करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी, इस साल यह बढ़कर 362 करोड़ रुपये का अनुमान है।
यह बहुत कम है। यह उस कीमत के तो आसपास भी नहीं है जो खनिजों को बेचकर कमाई जा रही है, जिन खनिजों का झारखंड से लगातार दोहन हो रहा है। इससे खनिज उद्योगपतियों के दबदबे का भी पता चलता है, जो सरकार पर दबाव बनाकर इतनी कम कीमत रखते हैं। ऐसा कुछ हद तक इसलिए भी है क्योंकि लोगों को विश्वास में नहीं लिया जाता और खनन का विरोध होता है, जिसके चलते खनिज उत्खनन का स्तर नीचे गिर जाता है।
डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड
2016 में मोदी सरकार ने ऐलान किया कि उत्खनन गतिविधियों के मुनाफे का 10 फ़ीसदी हिस्सा ठेकेदार को हर जिले के एक ट्र्स्ट में जमा करना होगा। इसे डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन (DMF) कहा गया। इस धन का इस्तेमाल संबंधित समुदाय के लिए रोड, शौचालय और पानी जैसे दूसरे कामों के लिए किया जाएगा।
प्रधानमंत्री खनिज क्षेत्र कल्याण योजना नाम से मशहूर इस कार्यक्रम का झारखंड में परिणाम देखिए। याद रहे 2014 से राज्य में भी बीजेपी की ही सरकार है, तो इसका केंद्र सरकार से बखूबी राजनीतिक तालमेल बैठ सकता है। कोई टकराव का सवाल ही नहीं है।

जैसा आप देख सकते हैं जितना फंड आया उसका केवल 24 फ़ीसदी हिस्सा विकास कार्यों के लिए खर्च किया गया। यह डेटा PMKKKY पोर्टल की से लिया गया है, जिसका प्रबंध खनन मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला खनन ब्यूरो करता है। झारखंड के खनिज विभाग के डाटा में बहुत गड़बड़ी है। इसमें पूरे आंकड़ों को नहीं दिखाया गया। खर्च के आंकड़े केवल ऊपर वर्णित श्रोतों पर ही उपलब्ध हैं।
साफ है कि पूरी चीज भयंकर चुटकुला बन गई है। ऐसा लगता है कि झारखंड में आजतक पारित किए गए, करीब 25,000 प्रोजेक्ट अभी भी जारी हैं। पिछले तीन सालों में एक भी पूरा नहीं हुआ।
इस बीच राज्य के लोग गरीबी में धंसते चले गए, बेरोजगारी का शिकार हुए। राज्य से कुपोषण। यहां तक भुखमरी के भी दिल दहला देने वाले आंकड़े सामने आए। आने वाले चुनाव में भारी विरोध को देखते हुए बीजेपी सरकार जा सकती है, लेकिन खनन और इसकी नीतियों पर अब गहराई से सोचने का वक्त है, ताकि लोगों को इसका फायदा मिल सके।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
Jharkhand Polls: Where Is the Mineral Wealth Going?