NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
झारखंड चुनाव: अविभाजित राज्य से लेकर अब तक आदिवासी महिलाओं का सियासी सफ़र
1962 से 2014 तक कुल 231 आदिवासी महिलाएं प्रतिनिधित्व की चुनावी लड़ाई लड़ चुकी हैं। जिनमें महज 22 ही विधानसभा में जीतकर पहुंच पाईं हैं। इतनी कम संख्या में जीत पाने के कई कारण हैं।
अश्विनी कुमार पंकज
13 Dec 2019
jharkhand election
Image courtesy: hindiJournalist

‘हमें इस बात का गौरव है कि हम परदे की आड़ से खुले मैदान में उतरे हुए हैं।’
- कोमला तिर्की (आदिवासी महासभा की एक्टिविस्ट और पत्रकार, जुलाई 1939 )

1951-52 और 1957 में हुए प्रांतीय चुनावों के दौरान आदिवासियों की झारखंड पार्टी ने 32 और 31 विधानसभा सीटों पर कब्जा करके तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नींद उड़ा दी थी। जयपाल सिंह मुंडा के करिश्माई नेतृत्व में आदिवासियों का संदेश बिल्कुल साफ था कि वे अलग झारखंड राज्य लेकर रहेंगे।

इस लोकतांत्रिक करिश्मे के पीछे जहां जयपाल की मारक आदिवासी रणनीति थी तो इसकी सफलता का श्रेय उन लोगों को था, जो स्वभाव से आदिम गुरिल्ले थे और जिनके खून में गांव-गणराज्य की पुरखौती राजनीतिक विरासत थी। जिनकी सामुदायिक शक्ति का मूल आधार उनकी औरतें थीं जो सामंती बेड़ियों में जकड़ी कमजोर आधी आबादी नहीं थी।

वे सब ‘आदिवासी महासभा’ की महिला शाखा ‘आदिवासी महिला संघ’ के बैनर तले सचेत और संगठित थीं। इसके बावजूद सच यही है कि 1952 और 1957 के चुनावों में एक भी आदिवासी महिला को भागीदारी का अवसर नहीं मिला। जबकि 1952 की राज्यसभा में पहुंचने वाली देश की पहली और एकमात्र आदिवासी महिला सांसद एंजेलीना तिग्गा थी।

झारखंड पार्टी की महिला नेतृत्वकर्ता और ‘आदिवासी महिला संघ’ की अध्यक्षा। तब भी आजादी के पहले दस सालों के दौरान अविभाजित झारखंड-बिहार की विधानसभा आदिवासी महिला के प्रतिनिधित्व से पूरी तरह वंचित रहा। चुनाव लड़कर इस कमी को दूर करने की पहली कोशिश 1962 के विधानसभा चुनाव में हन्ना बोदरा और कमललता ने की। उन दिनों हन्ना बोदरा ‘आदिवासी महिला संघ’ की अध्यक्षा थी।

प्रांतीय विधानसभा में भागीदारी का इतिहास हन्ना बोदरा और कमललता से ही शुरू होता है। यही वो दो आदिवासी महिलाएं हैं जो अविभाजित बिहार-झारखंड में 1962 में हुए विधानसभा चुनाव में लड़ीं। सोनुआ विधानसभा क्षेत्र कमललता देवी और तोरपा से हन्ना बोदरा। चूंकि चुनाव के पहले ही झारखंड पार्टी का विलय कांग्रेस में हो चुका था इसलिए ये दोनों कांग्रेस की प्रत्याशी के रूप में उतरीं और विलय से गुस्साई आदिवासी जनता के कारण चुनाव हार गईं।

कमललता 5927 वोट लाकर दूसरे नंबर पर रही तो हन्ना बोदरा को मात्र 2815 वोट ही मिले। लेकिन इन दो आदिवासी महिलाओं ने राजनीतिक मैदान में उतरने की जो हिम्मत की उसका परिणाम 15 साल बाद 1977 में सामने आया। जब अप्रत्याशित रूप से पहली बार 10 आदिवासी महिलाएं चुनावी समर में कूद पड़ीं और उनमें से एक मुक्तिदानी सुम्ब्रई चाईबासा सुरक्षित सीट से विधानसभा पहुंचने में कामयाब रही। ऑल इंडिया झारखंड पार्टी की मुक्तिदानी ने 1989 वोटों से अपने प्रतिद्वंद्वी को पीछे धकेलकर यह इतिहास रचा था।

1962 से 1977 के बीच कुल 17 आदिवासी महिलाओं ने बतौर पार्टी प्रत्याशी या फिर निर्दलीय तौर पर हुए विधानसभा चुनावों में दमखम के साथ हिस्सेदारी की। 1962 और 1967 में दो-दो और 1969 में तीन। जबकि 1972 के चुनाव मैदान में एक भी आदिवासी महिला नहीं थी।

77 तक के चुनावों का आंकड़ा बताता है कि कांग्रेस, जनसंघ, शोषित दल, झारखंड पार्टी, जनता पार्टी और ऑल इंडिया झारखंड पार्टी ने कुल मिलाकर केवल 9 आदिवासी महिलाओं को अपना प्रत्याशी बनाया। जबकि निर्दलीय रूप में चुनाव लड़ चुकी महिलाओं की संख्या कुल 8 थी। मतलब, राजनीतिक पार्टियां आधे मन से ही आदिवासी महिलाओं को सपोर्ट कर रही थी और वे थीं कि पूरा प्रतिनिधित्व चाहती थी।

उनकी यह आकांक्षा हम 1977 के बाद से 2019 के चुनावों में साफ तौर पर देख सकते हैं। 1980 में 6, 1985 में 12, 1990 में 16, 1995 में 27, 2000 में 20, 2005 में 32, 2009 में 51 और 2014 के विधानसभा चुनाव में कुल 50 आदिवासी महिलाओं ने शिरकत की। इनमें राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और टूट-फूट कर बनने वाले राजनीतिक दलों से टिकट पाने वाली 126 हैं।

वहीं निर्दलीय तौर पर चुनाव लड़ने वाली आदिवासी औरतों की कुल जमा संख्या 88 है। 2019 के इस चुनाव में सिर्फ आदिवासी सुरक्षित सीटों से पार्टी स्तर पर लड़ने वाली 36 और निर्दलीय 12 हैं। 2014 के चुनाव में यह संख्या 48 के मुकाबले दो ज्यादा थी। 40 पार्टी लेबल पर और 10 निर्दलीय दमखम पर।

2019 के चुनाव में भाजपा ने सुरक्षित सीटों से कुल 3 आदिवासी महिलाओं को टिकट दिया है। दुमका से लुईस मरांडी को, पोटका से मेनका सरदार को और तमाड़ से रीता देवी को। झामुमो ने जामा से सीता मुर्मू (सोरेन) और मनोहरपुर से जोबा मांझी को। आजसू ने 4 को तो जेवीएम ने 5 को पार्टी बैनर से चुनाव में उतारा है। वहीं राष्ट्रीय महिला पार्टी से 5 आदिवासी महिलाएं हैं। इसके अतिरिक्त जदयू, झापा और अभी हाल ही में राजस्थान में दो सीट जीत कर चौंका देने वाली भारतीय ट्राईबल पार्टी ने भी एक से ज्यादा सीटों पर आदिवासी महिलाओं को उतारा है।

यह ध्यान देने वाली बात है कि 1962 से 2014 तक पार्टी स्तर पर 135 और स्वतंत्र रूप से 96 यानी कुल 231 आदिवासी महिलाएं प्रतिनिधित्व की चुनावी लड़ाई लड़ चुकी हैं। जिनमें महज 22 ही जीत पाईं। इतनी कम संख्या में जीत पाने के कई कारण हैं।

पहला तो यह कि पार्टियां उन सीटों पर आदिवासी महिलाओं को टिकट नहीं देती जहां उनके जीतने के आसार ज्यादा होते हैं। जैसा कि झामुमो के उपाध्यक्ष एवं पूर्व विधानसभा अध्यक्ष शशांक शेखर भोक्ता के इस बयान से स्पष्ट होता है कि जीतने लायक महिला उम्मीदवारों की कमी के कारण महिलाओं को ज्यादा भागीदारी नहीं दे पाते।

भाजपा के संगठन महामंत्री दीपक प्रकाश की यह टिप्पणी भी इस संदर्भ में गौर करने वाली है जो उन्होंने मीडिया से कहा है। उनके अनुसार अभी राजनीति में आने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है। जैसे-जैसे अधिक महिलाएं राजनीति में कदम रखेंगी, उन्हें पार्टी अधिक से अधिक टिकट देगी। ये दोनों टिप्पणियां बताती हैं कि महिलाओं को अभी राजनीति में आना होगा और आकर उन्हें जीतने लायक बनना होगा।

यह अजीब है कि कोई भी पार्टी पुरुष उममीदवार को टिकट बांटते हुए इस क्राइटेरिया को प्राथमिकता नहीं देती। धर्म, जाति, रिश्ते और केवल धनबल-बाहुबल का ख्याल रखा जाता है। इसका ताजा उदाहरण भाजपा का एक उम्मीदवार है जिसे रांची के पास के एक विधानसभा क्षेत्र से टिकट दे दिया गया है जो वहां के मतदाताओं के लिए, उस आदिवासी महिला की तुलना में बिल्कुल नया है जो वहां से जीत सकने का माद्दा रखती हैं।

1980 में कोलेबिरा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ चुकी प्रख्यात आदिवासी बुद्धिजीवी और स्त्री आंदोलनकारी रोज केरकेट्टा कहती हैं, ‘लोकतंत्र और चुनाव पुरुषों का खेल बना हुआ है। जिसे वे स्वयं और अपने तरीके से खेलते हैं। उनकी कोशिश अभी भी यही है कि महिलाओं को इस प्रक्रिया में आने से रोका जाए क्योंकि वे आएंगी तो लोकतंत्र हिंसा रहित तो होगा ही, वह अपने वास्तविक उद्देश्य और गरिमा को भी प्राप्त करेगा।’

जल, जंगल और जमीन के संघर्ष से लंबे समय से जुड़ी सलोमी एक्का कहती हैं, ‘आदिवासी महिलाओं को राजनीति सीखाने और सशक्त करने की आवश्यकता नहीं है। हम आदिवासी महिलाएं राजनीति जानती हैं और मानसिक तौर पर पुरुषों से ज्यादा मजबूत हैं। योग्यता हर स्त्री-पुरुष में समान होती है। सवाल बस अवसर का है। आदिवासी समाज में परंपरागत रूप से स्त्रियों को लगभग समान अवसर मिलता है। गैर-आदिवासी व्यवस्था में औरतें समान अवसर और अधिकार पाने के लिए पिछले तीन हजार सालों से संघर्ष कर रही हैं। और हमको भी अपनी औरतों जैसा ट्रीट कर रही है।’

स्पष्ट है कि विधायिका में आदिवासी महिला प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने का जो संघर्ष 1962 के चुनाव में उतर कर हन्ना बोदरा और कमललता ने किया, वही संघर्ष अभी भी आदिवासी महिलाओं को करना पड़ रहा है। राजनीतिक पार्टियों की सहज पसंद वे आज भी नहीं हैं क्योंकि वे लोकतंत्र और चुनाव को साम, दाम, दण्ड, भेद से परे देखती हैं। वे चाहती हैं कि विधायिका उसी तरह से काम करे जैसा उनका गांव-गणराज्य या आदिवासी स्वशासन बिना किसी हिंसा और भेदभाव के सबके लिए काम करता है।

आदिवासी महिला प्रतिनिधित्व और विधानसभा चुनाव से जुड़े कुछ तथ्य :

 
- 1977 में चुनाव जीतने वाली झारखंड की पहली आदिवासी महिला मुक्तिदानी सुम्ब्रई

- 1980 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में दो विधानसभाओं (दुमका और जामा) से लड़ने वाली पहली आदिवासी महिला स्टेंशिला हेम्ब्रम
 
- तीन विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ने वाली पहली आदिवासी महिला अरुणा हांसदा। अरुणा 1985 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में बोरियो, दुमका और जामा से खड़ी हुई थी

- पहली बार में ही विधायक और मंत्री बनने वाली 1977 में मुक्तिदानी सुम्ब्रई (कांग्रेस), 1985 में सुशीला केरकेट्टा (कांग्रेस), 2009 में विमला प्रधान (भाजपा) और 2014 में जोबा मांझी (झामुमो)


(अश्विनी कुमार पंकज वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं।)

Jharkhand Elections 2019
Jharkhand Aadiwasi Women
आदिवासी महिलाएं
Women in Politics
Jharkhand Party
Congress
आदिवासी महासभा
Jana Sangh
Shoshit Dal
Janta Party
All India Jharkhand Party
BJP

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?


बाकी खबरें

  • शारिब अहमद खान
    ईरानी नागरिक एक बार फिर सड़कों पर, आम ज़रूरत की वस्तुओं के दामों में अचानक 300% की वृद्धि
    28 May 2022
    ईरान एक बार फिर से आंदोलन की राह पर है, इस बार वजह सरकार द्वारा आम ज़रूरत की चीजों पर मिलने वाली सब्सिडी का खात्मा है। सब्सिडी खत्म होने के कारण रातों-रात कई वस्तुओं के दामों मे 300% से भी अधिक की…
  • डॉ. राजू पाण्डेय
    विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक
    28 May 2022
    हिंसा का अंत नहीं होता। घात-प्रतिघात, आक्रमण-प्रत्याक्रमण, अत्याचार-प्रतिशोध - यह सारे शब्द युग्म हिंसा को अंतहीन बना देते हैं। यह नाभिकीय विखंडन की चेन रिएक्शन की तरह होती है। सर्वनाश ही इसका अंत है।
  • सत्यम् तिवारी
    अजमेर : ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह के मायने और उन्हें बदनाम करने की साज़िश
    27 May 2022
    दरगाह अजमेर शरीफ़ के नीचे मंदिर होने के दावे पर सलमान चिश्ती कहते हैं, "यह कोई भूल से उठाया क़दम नहीं है बल्कि एक साज़िश है जिससे कोई मसला बने और देश को नुकसान हो। दरगाह अजमेर शरीफ़ 'लिविंग हिस्ट्री' है…
  • अजय सिंह
    यासीन मलिक को उम्रक़ैद : कश्मीरियों का अलगाव और बढ़ेगा
    27 May 2022
    यासीन मलिक ऐसे कश्मीरी नेता हैं, जिनसे भारत के दो भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह मिलते रहे हैं और कश्मीर के मसले पर विचार-विमर्श करते रहे हैं। सवाल है, अगर यासीन मलिक इतने ही…
  • रवि शंकर दुबे
    प. बंगाल : अब राज्यपाल नहीं मुख्यमंत्री होंगे विश्वविद्यालयों के कुलपति
    27 May 2022
    प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बड़ा फ़ैसला लेते हुए राज्यपाल की शक्तियों को कम किया है। उन्होंने ऐलान किया कि अब विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री संभालेगा कुलपति पद का कार्यभार।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License