NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
समाज
भारत
राजनीति
जिउतिया व्रत: बेटियों के मनुष्य होने के पक्ष में परंपरा की इस कड़ी का टूटना बहुत ज़रूरी है
अब यह जरूरी हो गया है कि परंपरा के नाम पर व्रतों, त्योहारों और भौतिक त्याग-बलिदान का जो हिस्सा औरतों के नाम पर रख छोड़ा गया है,उसके ख़िलाफ़ एक तार्किक बग़ावत हो।
उपेंद्र चौधरी 
10 Sep 2020
Jiutia fast
प्रतीकात्मक तस्वीर

आज जिउतिया या जितिया है। एक ऐसा त्योहार, जिसमें बेटियों को दरकिनार करते हुए बेटों की लम्बी उम्र की कामना की जाती है। ऊपर से यह कामना भी कभी बेटी रहीं माओं के ज़रिये ही की या करवायी जाती हैं। इस कामना में बेटियों को लेकर न सिर्फ़ अतीत और वर्तमान का सामाजिक नज़रिया पैबस्त है,बल्कि इसके ज़रिये लिंगगत समानता के आड़े आने वाली एक मज़बूत,मगर अदृश्य क़िलाबंदी भी है।

यूंकि सोच के स्तर पर की गयी यह क़िलाबंदी अदृश्य है,इसलिए इससे आमने-सामने की लड़ाई तो मुमकिन नहीं,लेकिन तार्किकता के सहारे इस क़िले को ढहा पाना नामुमकिन भी नहीं है। इस क़िले में दाखिल होने से पहले जिउतिया को लेकर बुनी गयी उन कहानियों को जान लेना ज़रूरी है,जिनके ज़रिये मर्दों की सहूलियत के लिए औरतें मन माफ़िक गढ़ी जाती हैं।  

पहली कहानी: जीमूत वाहन कथा। इस कथा का संक्षेप यह है कि अपना राज-पाट अपने भाइयों के पक्ष में छोड़ चुके और जंगल में रह रहे जीमूतवाहन ने किसी बच्चे के साथ रोती हुई स्त्री को देखकर रोने का कारण पूछा। स्त्री ने बताया कि हर दिन एक गरुड़ किसी न किसी की बलि लेता है और उसे अपना आहार बनाता है और आज उसके एकलौते नन्हें बेटे की बारी है।

जीमूतवाहन ने गरुड़ के सामने उस बच्चे की जगह ख़ुद को पेश कर दिया। गरुड़ ने पूरी कहानी जानने के बाद उसे बख़्श दिया और हाथ जोड़कर वचन दे दिया कि आज से वह किसी का शिकार नहीं करेगा। तबसे जिउतिया शुरू हो गया।

दूसरी कहानी महाभारत से है। जब द्रोणाचार्य के बेटे अश्वस्थामा ने ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे पर चला दिया। कृष्ण सामने आये,उन्होंने अपने चमत्कार से उस ब्रह्मास्त्र को निष्फल कर दिया और उत्तरा का बेटा जिवित्पुत्रिका यानी बाद में राजा परीक्षित के नाम से जाने जाने वाला बच्चा ज़िंदा बच गया।

तीसरी कहानी एक सियार और गिद्ध की है। दोनों ने महिलाओं के किसी झुंड को जिउतिया करते देखा। पता चला कि वे अपने बेटों की दीर्घायु के लिए व्रत कर रही हैं।दोनों ने भी तय किये कि उन्हें भी इस व्रत को करना है। सियार व्रत के बीच में ही चुपके से खा लिया,जबकि गिद्ध ने पूरे अनुष्ठान के साथ व्रत संपन्न किया। सियार के तमाम बेटे मर गये,जबकि गिद्ध के तमाम बेटे दीर्घायु हुए।

ये कहानियां दिखाती हैं कि सालों पहले जब सोसाइटी में ऐतिहासिक कारणों से मसल पॉवर अपने इकाई स्तर पर अहम रही होगी,तब बेटियों से कहीं ज़्यादा बेटों की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया होगा। इस ज़रूरत के आस-पास ही ये कहानियां बुनी गयी होंगी।

मां,जो ख़ुद ही एक बेटी होती हैं,वह उस दौर के मसल पॉवर के सामने अपनी ही बेटियों को नज़रअंदाज़ करने के लिए मजबूर कर दी गयीं होंगी। मगर,विकासक्रम में इस तरह की मजबूरियां नहीं रहीं। बेटियां इंजीनियर,डॉक्टर बन रही हैं,सेना और अंतरिक्ष में विमान और अंतरिक्ष यान उड़ा रही हैं,भारतीय उपमहाद्वीप के कई देशों और उन देशों के कई राज्यों के शासन की कमान संभाल चुकी हैं। यहां तक की इन बेटियों के भाई या मर्द रिश्तेदार इन बेटियों के नाम से ही जाने जाते हैं।

मगर इस तरह की बेटियों की संख्या बेहद छोटी है। यह बेहद छोटी संख्या भी इतिहास के कई विकासक्रम से गुज़रकर सामने आयी है। बेशक इस लड़ाई में बेटियों की अपनी सख़्त जद्दोहजद में कई मर्दों का साथ भी मिला है। लेकिन,इस तरह के मर्दों की संख्या तो और भी छोटी है।

अपने ही ख़िलाफ़ बेटियां उस संस्कार को मां के ज़रिये हासिल करती हैं,जो मां के मनोविज्ञान को बेटों के पक्ष में सदियों से गढ़ा जाता रहा है। वे आज भी अपनी ही पैदा की गयीं बेटियों के सामने बेटों को इस क़दर तरज़ीह देती हैं कि बेटे की दीर्घायु के लिए दो-तीन दिनों के लिए अन्न-जल तक त्याग देती हैं और बेटियां टुकुर-टुकुर ताक़ते हुए अपनी मां के नक्स-ए-क़दम पर आगे बढ़ जाती हैं।

जिन चंद बेटियों के मन में यह सवाल उठता होगा कि एक ही जगह और एक ही तरीक़े से पैदा होने के बावजूद वह इतनी बेअहम या कम महत्वपूर्ण क्यों हैं? तो यह सवाल ऐसी बेटियों के ज़हन में शायद एक विद्रोह पैदा करता होगा। यही विद्रोह उन्हें उस तरह की नारीवादी बनाता हैं,जिसका आधार पुरुष विरोध है।

नारीवाद दरअस्ल मर्दवाद की तरफ़ से सदियों से उनमें बेटी होने की बैठायी गयी कुंठा के ख़िलाफ़ एक बग़ावत है। यह बग़ावत इस बात की घोषणा करता है कि बेटी कमज़ोर नहीं,अबला नहीं,निरीह नहीं,बेचारी और लाचार भी नहीं होतीं। लेकिन आज भी ज़्यादातर महिलायें इसी धारणा की शिकार हैं,जिसके ख़िलाफ़ बेटियों की एक छोटी,मगर ताक़तवर संख्या वाली नागरिक फ़ौज  तैयार है।

आज से पौने दो सौ साल पहले छपी किताब, द सब्जेक्शन ऑफ़ विमेन में स्टुअर्ट मिल्स कहते हैं कि महिलाओं के भीतर महिला होने की जो कुंठा बैठायी गयी है,वह सदियों से करवाये गये उसके अभ्यास का नतीजा है और इस बैठायी गयी कुंठा को ऐतिहासिक संदर्भ को एक तार्किक आधार के ज़रिये चूर किया जा सकता है।

जब मशहूर नारीवादी लेखिका सिमॉन द बोउआर अपनी किताब द सेकेंड सेक्स में कहती हैं कि औरत पैदा नहीं होतीं,बनायी जाती हैं,तो सिमॉन भी वही कह रही होती हैं कि औरत बना दिये जाने का अपना एक विकासक्रम है और उस विकासक्रम के सिलसिले को तोड़कर न सिर्फ़ मर्दों की बनायी गयी दुनिया को चुनौती दी जा सकती हैं,बल्कि उससे कहीं आगे निकला जा सकता हैं।

औरतों के हवाले जिउतिया जैसा व्रत रखने वाली ज़्यादातर महिलायें गांव की हैं। ऐसे में इस व्रत की रुढ़िवादी धारणा के मुताबिक़ ग्रामीण बेटों यानी पुरुषों की औसत आयु ज़्यादा होनी चाहिए।

मगर,संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) भारत और नमूना पंजीकरण सर्वेक्षण (एसआरएस) आधारित मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट में उद्धृत जीवन तालिका 2010-14 के मुताबिक़ जहां भारत के शहरों में रहने वाले पुरुषों की औसत आयु 70 साल है, वहीं गांव में रहने वाले मर्दों की औसत आयु 65.1 साल है। यानी गांव के बेटों यानी मर्दों के मुक़ाबले शहर के मर्द क़रीब 5 साल ज़्यादा जीते हैं।

दूसरी तरफ़,जिनके लिए व्रत नहीं रखा जाती है, यानी बेटियों यानी महिलाओं के सिलसिले में यह रिपोर्ट कहती है कि शहरी महिलाओं की औसत आयु 73.2 साल यानी शहरी मर्दों के मुक़ाबले तीन साल से भी ज़्यादा है, तो ग्रामीण महिलाओं की औसत आयु 68.4 वर्ष यानी शहरी बेटों यानी शहरी मर्दों से भी तीन साल से कुछ ज़्यादा है।

ये आंकड़े बेटों या मर्दों के लिए रखे जाने वाले जिउतिया जैसे व्रतों की निरर्थकता को दर्शाते हैं। भारतीय संदर्भ में यह पहली ज़रूरत है कि परंपरा के नाम पर व्रतों,त्योहारों और भौतिक त्याग-बलिदान का जो हिस्सा औरतों के नाम पर रख छोड़ा गया है,उसके ख़िलाफ़ एक तार्किक बग़ावत हो। ऐसा इसलिए,क्योंकि ये व्रत और त्योहार उनसे औरत बने रहने का इस क़दर अभ्यास कराती है कि बेटों के पक्ष में बेटी होने के फ़र्ज़ की जकड़ न सिर्फ़ मज़बूत होती है,बल्कि अगली पीढ़ी की बेटियों तक यह मानसिक जकड़न की साज़िश स्थानांतरित भी होती रहती है।

रुढ़िवाद से ग्रस्त इस तरह के व्रत के ख़िलाफ़ होने वाले विद्रोह से महिलाओं को उनकी असली सामाजिक-पारिवारिक हैसियत तो हासिल होगी ही,जनसंख्या में लिंगगत-असंतुलन को भी दुरुस्त करने में मदद मिलेगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Jiutia fast
Jitiya Fast
Traditional Festival
gender discrimination
Discrimination Festival

Related Stories

क्या समाज और मीडिया में स्त्री-पुरुष की उम्र को लेकर दोहरी मानसिकता न्याय संगत है?

इंडियन मैचमेकिंग पर सवाल कीजिए लेकिन अपने गिरेबान में भी झांक लीजिए!

अटेंशन प्लीज़!, वह सिर्फ़ देखा जाना नहीं, सुना जाना चाहती है

महिलाओं की निर्णायक स्थिति ही रोकेगी बढ़ती आबादी


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License