NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
अपराध
भारत
राजनीति
न्यायपालिका को बेख़ौफ़ सत्ता पर नज़र रखनी होगी
न्यायपालिका हुकूमत की ज़्यादतियों पर रोक लगाने का काम कर रही है और साथ ही पूरी की पूरी कार्यकारी के हथियारों पर अंकुश लगाने के लिए क़दम बढ़ा रही है। यह सतर्क आशावाद का नतीजा है।
सूहीत के सेन 
01 Sep 2021
Translated by महेश कुमार
न्यायपालिका को बेख़ौफ़ सत्ता

2014 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सत्ता में आने के बाद से दिल्ली पुलिस कोई गौरवपूर्ण कार्य तो नहीं कर पाई है। हां, लेकिन 2019 के बाद से इसका रिकॉर्ड चिंतनीय बन गया है, खासकर जब से केंद्रीय गृह मंत्रालय (एमएचए) अमित शाह को सौंपा गया है, चूंकि पुलिस बल  भारतीय राष्ट्र की एक एजेंसी होने के बजाय एक शर्मनाक निजी मिलिशिया जैसी बन गई हैं।

हम थोड़ी देर में इस बेखौफ़ पुलिस बल के कई अत्याचारों को आगे दर्ज करेंगे, लेकिन इससे पहले हम पिछले हफ्ते दिल्ली की एक अदालत के न्यायाधीश द्वारा फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों की "जांच" के संबंध में की गई आलोचना से शुरू करते हैं। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने हाल ही में दो मौकों पर इस बात के लिए अफसोस जताया कि दिल्ली पुलिस दंगों की जांच किस तरह कर रही है।

पिछले हफ्ते की शुरुआत में, न्यायाधीश ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि दंगे से संबंधित एक विशेष मामले में इसकी जांच "कठोर", "अक्षम" और "अनुत्पादक" थी। वे रोहित नाम के एक शख्स के खिलाफ तोड़फोड़, लूटपाट और आगजनी के मामले में आरोप तय कर रहे थे। आखिरकार, अदालत ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की कम से कम पांच धाराओं के तहत जिसमें गैरकानूनी रूप से भीड़ लगाना, दंगा करना, अत्याचार और घर में तोड़फोड़ करना, चोरी, आगजनी और शरारत तथा सरकारी आदेश की अवज्ञा से संबंधित आरोप तय किए। आरोपों की प्रभावशाली श्रृंखला इस बात की तसदीक करती है कि पुलिस जांच में ढीली चाल चल रही थी। 

बचाव पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि केवल उनके मुवक्किल पर ही आरोप क्यों लगाए गए हैं जबकि दंगों में तो कथित रूप से 400-500  लोगों की भीड़ शामिल थी। यह सबमिशन हमें क्या बताता है? कि रोहित को छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि कुछ सौ अन्य पर आरोप नहीं लगाया गया था? या कि बड़े स्तर पर दिल्ली पुलिस ने अपने ड्यूटि नहीं निभाई थी और अपने कर्तव्यों की अवहेलना की थी? निश्चित तौर पर बाद वाला तथ्य सही है।

इन टिप्पणियों के बाद, उस सप्ताह के अंत में एक अन्य मामले की सुनवाई करते हुए, यादव ने दिल्ली पुलिस के खिलाफ और भी अधिक भद्दी टिप्पणी की। दो आरोपियों, अशरफ अली और परवेज़ अली के खिलाफ आरोप तय करते हुए, न्यायाधीश ने कहा कि यह देखना "वास्तव में दर्दनाक" है कि पुलिस की जांच का मानक "बहुत खराब" था। उन्होंने यह भी कहा कि "आधी-अधूरी" चार्जशीट दाखिल करने के बाद, "न तो जांच अधिकारी और न ही एसएचओ [स्टेशन हाउस ऑफिसर] और सुपरवाइजिंग अधिकारियों ने यह देखने की जहमत उठाई कि क्या उपयुक्त प्राधिकारी से सामग्री एकत्र करने की जरूरत है और इसके लिए क्या कदम उठाने की आवश्यकता है, जिस सामग्री से जांच को उसके तार्किक अंत तक ले जाने के लिए लिया जाना चाहिए था।" न्यायाधीश ने कहा कि इसके परिणामस्वरूप कई मामलों में दर्ज कई आरोपी व्यक्तियों को जेल में बंद रहना पड़ा। यह निष्कर्ष निकालना कोई कठिन बात नहीं है कि जांच का यह तरीका सिर्फ आलस्य नहीं बल्कि उद्देश्यपूर्ण है।

न्यायाधीश ने कहा कि उनकी अदालत के सामने पड़े बड़ी संख्या में लंबित केस में जांच अधिकारी व्यक्तिगत रूप से या वीडियोकांफ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थित नहीं हो रहे हैं।  उन्होंने कहा कि उन्हें "समझ आ रहा है" कि पुलिस ने सरकारी वकीलों को भी कोई जानकारी नहीं दी है। दूसरे शब्दों में, दिल्ली पुलिस के कुछ अधिकारी लोगों को पीट रहे थे, कुछ प्रारंभिक जांच कर रहे थे, अधूरी चार्जशीट दाखिल कर रहे थे और आरोपियों को जेल में सड़ने दे रहे थे। इसका घालमेल का एक ही उपाय, ज़ाहिर है कि व्यापक पैमाने पर सबको जमानत देना। 

हालाँकि, मुद्दा यह नहीं है। असली मसला यह है कि दिल्ली पुलिस अपनी प्रतिष्ठा को इस हद तक बर्बाद करने में लगी हुई है कि उसे सुधारा नहीं जा सकता है। वास्तव में, एक हद के बाद भी, इसे एक वास्तविक "पुलिस बल" के रूप में पहचाना जाता है जिसे लोगों के एक निकाय के रूप में परिभाषित किया जाता है जो कानून को बनाए रखने और इसका उल्लंघन करने वालों की सजा देने की शपथ लेती है।

आइए दिल्ली दंगों पर वापस आते हैं। इस बात के विश्वसनीय प्रथम दृष्टया सबूत हैं कि भाजपा नेता कपिल मिश्रा, जो 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार गए थे, ने दिल्ली में दंगों की आग भड़काई थी, और में दंगों को भड़काया था, उन्होने शुरुआत में पुलिस को सीधी कार्रवाई की धमकी देते हुए कहा था कि अगर पुलिस ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध कर रहे लोगों को नहीं हटाया तो अंजाम खतरनाक होंगे। फिर भी, दिल्ली पुलिस ने उसे पूछताछ के लिए भी नहीं बुलाया। 

इसके बजाय, पुलिस ने बड़ी संख्या में युवा मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया। बेशक, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दंगों को भाजपा के सदस्यों और संघ परिवार के अन्य संगठनों द्वारा उकसाया गया था। दंगों में पीड़ित लोगों में भारी संख्या में मुसलमान थे। दंगों के दौरान उनके घरों, व्यवसायों और इबादत घरों सहित उनकी संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाया गया और कई जानें भी गई। 

इस प्रकार, दंगों की जांच और उनके संबंध में की गई दंडात्मक कार्रवाइयों में अल्पसंख्यक समुदाय का व्यवस्थित ढंग से हुकूमत-प्रायोजित उत्पीड़न किया गया। एल्गर परिषद-भीमा कोरेगांव मामले में भी पुणे पुलिस और राष्ट्रीय जांच एजेंसी, कार्यकर्ताओं के संबंध में व्यावहारिक रूप से इसी बात के दोषी हैं।

ऐसा पहली बार नहीं है जब दिल्ली पुलिस को अदालत में फटकार लगाई गई है। इस साल फरवरी में, एक अन्य अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने बेंगलुरू की एक जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को जमानत देते हुए पुलिस की तीखी आलोचना की थी। उसे दिल्ली पुलिस ने ऐसे "गिरफ्तार" किया था – जिसे विनम्र शब्दों में अपहरण कहा जा सकता है - अभी तक एक और ऐसा बढ़ा चढ़ा कर लगाया गया आरोप था जिसे उसने शायद अपने भाजपा के आकाओं को खुश करने के लिए किया था।

दिसंबर 2019 और जनवरी 2020 में जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पुलिस बल की कार्रवाई को कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित कहावतों जैसे  कि "फसल खाने वाली बाड़" के कई अधिक उदाहरण मिलते हैं। जामिया परिसर पर दिल्ली पुलिस का हमला, जिसमें अन्य हरकतों के अलावा, छात्रों को पीट-पीट कर पुस्तकालय से खदेड़ना और उसमें तोड़फोड़ करना शामिल था, जोकि काफी गंभीर हमला था।

मौजूदा निज़ाम का कानून-प्रवर्तन एजेंसियों का बेज़ा इस्तेमाल महामारी के अनुपात तक पहुंच गया है। केंद्र सरकार ने दिल्ली पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों को बीजेपी की मशीनरी के एक्सटेंशन में तब्दील कर दिया है. पार्टी द्वारा संचालित राज्य सरकारों ने भी इसका अनुसरण किया है। उत्तर प्रदेश सरकार राज्य को पुलिस स्टेट बनाने में ख़ास मेहनत कर रही है, ऐसी कोशिश चल रही है कि पुलिस सरकार की एक शाखा होने के सभी रूपों को खो दे, और केवल मुख्यमंत्री आदित्यनाथ द्वारा संचालित एक निजी मिलिशिया बन कर रह जाए। 

किसी की भी मनमाने ढंग से गिरफ्तारी करना और हिरासत में रखना पुलिस के भीतर किसी भी किस्म के भय न होने को दर्शाता है, यह संस्कृति खासकर उत्तर प्रदेश में सर चढ़ कर बोल रही है जहां कानून को लागू करने के लिए एनकाउंटर के जरिए हत्याएं की जा रही हैं, सार्वजनिक जीवन को कमजोर किया जा रहा है और जीवन और नागरिकों की स्वतंत्रता के प्रति संविधान और अन्य कानूनों द्वारा दी गई गारंटी को नष्ट किया जा रहा है। भारत तानाशाही और अधिनायकवाद की राह पर इतना नीचे गिर गया है कि उसे लोकतंत्र कहना थोड़ा अजीब सा लगता है या केवल कुछ चुनिन्दा योग्यता के साथ इसे लोकतंत्र माना जा सकता है।

न्यायपालिका - शीर्ष अदालत से लेकर अधीनस्थ अदालतों तक - शासन की ज्यादतियों पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठा रही है, और पूरे के पूरे प्रशासन पर नकेल कसने की कोशिश कर रही है, जो अपने आप में एक सतर्क आशावाद का कारण है। क्योंकि, भाजपा और उसकी सरकारें खुद पर किसी प्रकार की रोक-टोक को स्वीकार नहीं करती हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में आंदोलन व्यापक और तेज होगा।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

delhi police
delhi court
Delhi riots
Delhi Riots Cases
Delhi Muslims
Delhi Violence
kapil MIshra
Delhi Violence Chargesheet
Jamia Police Attack
Indian judiciary

Related Stories

दिल्ली: रामजस कॉलेज में हुई हिंसा, SFI ने ABVP पर लगाया मारपीट का आरोप, पुलिसिया कार्रवाई पर भी उठ रहे सवाल

क्या पुलिस लापरवाही की भेंट चढ़ गई दलित हरियाणवी सिंगर?

दिल्ली गैंगरेप: निर्भया कांड के 9 साल बाद भी नहीं बदली राजधानी में महिला सुरक्षा की तस्वीर

दिल्ली: सिविल डिफेंस वालंटियर की निर्मम हत्या शासन-प्रशासन के दावों की पोल खोलती है!

जेंडर के मुद्दे पर न्यायपालिका को संवेदनशील होने की ज़रूरत है!

दिल्ली बच्ची दुष्कर्म और हत्या मामला: चारों आरोपी तीन दिन के पुलिस रिमांड पर

दिल्ली बलात्कार कांड: जनसंगठनों का कई जगह आक्रोश प्रदर्शन; पीड़ित परिवार से मिले केजरीवाल, राहुल और वाम दल के नेता

दिल्ली में महिलाओं से बलात्कार एवं उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोतरी

मस्जिद में नाबालिग से बलात्कार, सुरक्षा के असल मुद्दे को सांप्रदायिकता का ऐंगल देने की कोशिश!

दिल्ली दंगे: ज़मानत के आदेश ‘संदिग्ध’ साक्ष्यों, ‘झूठे’ सुबूतों की कहानी बयां करते हैं


बाकी खबरें

  • सरोजिनी बिष्ट
    विधानसभा घेरने की तैयारी में उत्तर प्रदेश की आशाएं, जानिये क्या हैं इनके मुद्दे? 
    17 May 2022
    ये आशायें लखनऊ में "उत्तर प्रदेश आशा वर्कर्स यूनियन- (AICCTU, ऐक्टू) के बैनर तले एकत्रित हुईं थीं।
  • जितेन्द्र कुमार
    बिहार में विकास की जाति क्या है? क्या ख़ास जातियों वाले ज़िलों में ही किया जा रहा विकास? 
    17 May 2022
    बिहार में एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध है, इसे लगभग हर बार चुनाव के समय दुहराया जाता है: ‘रोम पोप का, मधेपुरा गोप का और दरभंगा ठोप का’ (मतलब रोम में पोप का वर्चस्व है, मधेपुरा में यादवों का वर्चस्व है और…
  • असद रिज़वी
    लखनऊः नफ़रत के ख़िलाफ़ प्रेम और सद्भावना का महिलाएं दे रहीं संदेश
    17 May 2022
    एडवा से जुड़ी महिलाएं घर-घर जाकर सांप्रदायिकता और नफ़रत से दूर रहने की लोगों से अपील कर रही हैं।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में 43 फ़ीसदी से ज़्यादा नए मामले दिल्ली एनसीआर से सामने आए 
    17 May 2022
    देश में क़रीब एक महीने बाद कोरोना के 2 हज़ार से कम यानी 1,569 नए मामले सामने आए हैं | इसमें से 43 फीसदी से ज्यादा यानी 663 मामले दिल्ली एनसीआर से सामने आए हैं। 
  • एम. के. भद्रकुमार
    श्रीलंका की मौजूदा स्थिति ख़तरे से भरी
    17 May 2022
    यहां ख़तरा इस बात को लेकर है कि जिस तरह के राजनीतिक परिदृश्य सामने आ रहे हैं, उनसे आर्थिक बहाली की संभावनाएं कमज़ोर होंगी।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License