NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
नहीं रहीं ‘आज़ाद देश’ में महिलाओं की आज़ादी मांगने वालीं कमला भसीन
महिला आंदोलन की मजबूत स्तंभ कमला भसीन का निधन नारीवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका है। लेकिन उनका संघर्ष, उनके लेख अन्य कई आंदोलनों की ज़मीन तैयार कर गए हैं, जो हमारी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। कमला ‘दीदी’ दुनिया से जरूर चली गईं लेकिन वो हमेशा जिंदा रहेंगी हमारी आवाज़ों में, संघर्षों में।
सोनिया यादव
25 Sep 2021
Kamla Bhasin
'हँसना तो संघर्षों में भी ज़रूरी है’, फ़ोटो सोशल मीडिया से साभार

देश में औरत अगर बेआबरू नाशाद है, दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है?

अदम गोंडवी की तर्ज पर आज़ाद देश में महिलाओं की आज़ादी तलाशती, सवाल पूछतीं ये पंक्तियां कमला भसीन के बारे में काफ़ी कुछ कह देती हैं। वह आज हमारे बीच नहीं रहीं। बेबाकी से महिलाओं के हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करने वाली कमला 'दीदी' ने शनिवार, 25 सितंबर को सुबह होने से पहले करीब तीन बजे अंतिम सांस ली। कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी से पीड़ित होने के बावजूद वो हंसते-हंसते दुनिया को अलविदा कह गईं और अपनी ढेर सारी आंदोलनकारी लेखनी और संघर्ष हमारे बीच छोड़ गईं। वो महिलाओँ के लिए कम या ज्यादा की बात नहीं करती थीं, वो हमेशा आधा-आधा मांगती थीं।

कमला भसीन एक नारीवादी सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जो लैंगिक समानता, शिक्षा, गरीबी-उन्मूलन, मानवाधिकार और दक्षिण एशिया में शांति जैसे मुद्दों पर 1970 से लगातार सक्रिय थीं। कमला एक कवि, लेखक, समाजसेवी होने के साथ लंबे समय से महिला अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती रहीं। और लगभग चार दशकों से देश और विदेश में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहीं थीं।

पितृसत्तातमक विचारों से लोहा लेतीं कमला महिला संघर्ष की पहचान हैं

कमला भसीन का पूरा जीवन ही उनके काम का परिचय है। वो अपनी और सभी महिलाओं की आज़ादी की बात समाज के सामने मुखर ढंग से रखती थीं, पितृसत्तातमक विचारों से लोहा लेती हुई खुद को 'आवारा' कहती थीं। समाज द्वारा शोषित-पीड़ित महिलाओं के लिए धरातल पर काम करने वालीं कमला हमेशा अपने नारीवादी विचारों और एक्टिविज़्म के कारण जानी जाती रहीं। साल 2002 में उन्होंने नारीवादी सिद्धांतों को ज़मीनी कोशिशों से मिलाने के लिए दक्षिण एशियाई नेटवर्क ‘संगत’ की स्थापना की। ये संस्था ग्रामीण और आदिवासी समुदायों की वंचित महिलाओं के लिए काम करती है। दुनियाभर में महिलाओँ के खिलाफ हो रही हिंसा के खिलाफ आवाज़ बुलंद करता कैंपेन 'वन बिलियन राइजिंग' भी कमला की पहचान है।

आपको बता दें कि वर्तमान पाकिस्तान के मंडी बहाउद्दीन ज़िले में 24 अप्रैल, 1946 में जन्मी कमला अक्सर ख़ुद को ‘आधी रात की संतान’ कहती थीं, जिसका संदर्भ विभाजन के आसपास पैदा हुई भारतीय उपमहाद्वीप की पीढ़ी से है। उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से मास्टर्स की डिग्री ली थी और पश्चिमी जर्मनी के मंस्टर यूनिवर्सिटी से सोशियोलॉजी ऑफ डेवलपमेंट की पढ़ाई की। 1976-2001 तक उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के साथ काम किया। इसके बाद उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से ‘संगत’ के कामों और महिला आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया।

परिवर्तन की राह आसन नहीं है लेकिन नामुमकिन भी नहीं

कमला भसीन ने पितृसत्ता और जेंडर पर काफी विस्तार से लिखा है। उनकी प्रकाशित रचनाओं का करीब 30 भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। उनकी प्रमुख रचनाओं में लाफिंग मैटर्स (2005; बिंदिया थापर के साथ सहलेखन), एक्सप्लोरिंग मैस्कुलैनिटी (2004), बॉर्डर्स एंड बाउंड्रीज: वुमेन इन इंडियाज़ पार्टिशन (1998, ऋतु मेनन के साथ सहलेखन), ह्वॉट इज़ पैट्रियार्की? (1993) और फेमिनिज़्म एंड इट्स रिलेवेंस इन साउथ एशिया (1986, निघत सईद खान के साथ सहलेखन) शामिल हैं।

'क्यूंकि मैं लड़की हूँ, मुझे पढ़ना है’, 'हँसना तो संघर्षों में भी जरूरी है’, जैसी अनगिनत कवितायें और नारे लिख चुकीं, कमला समाज में बदलाव के प्रति आशावादी थीं। उन्हें लगता था की परिवर्तन की राह आसन नहीं है लेकिन नामुमकिन भी नहीं है। वो मानती थीं कि आज महिलाएं अपने अधिकारों के लिए पहले से ज्यादा जागरूक हैं। अपने से जुड़े कानूनी प्रावधानों को जानने लगी हैं। लेकिन सफ़र बहुत लम्बा है और इस पर बिना रुके निरंतर चलने की जरूरत है।

कमला मानती थीं कि पूंजीवाद और पितृसत्ता का दोहरा रिश्ता रहा है क्योंकि पूंजीवाद को सस्ते श्रम की ज़रूरत है और महिलाएं सबसे सस्ती श्रमिक हैं, इसलिए महिलाओं का लगातार शोषण-उत्पीड़न किया जाता है। वो आज की नारी को स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बनने की सलाह देती थीं। ताकि उसे कभी दूसरों का शोषण न सहना पड़े। वो कहती थीं कि “जब तक हम सशक्त नहीं होंगे, अपने अधिकारों के लिए नहीं आवाज़ उठा पाएंगे। अगर अन्याय से लड़ना है तो ज्ञान अर्जित करो।"

नारीवाद का मतलब “समानता और सिर्फ़ समानता”

संविधान को अपना धर्म मानने वाली कमला भसीन औरत और मर्द की बराबरी की हिमायती थीं। वो नारीवाद और नारीवाद के मुद्दे पर चर्चा को जेंडर समानता के लिए बेहद जरूरी बताती थीं। नारीवाद से उनका मतलब “समानता और सिर्फ समानता” था। वो कहती थीं कि सिर्फ महिलाओं के संसद में आने से चीज़ें बेहतर नहीं होंगी। बदलाव लाने के लिए अधिक से अधिक नारीवादी महिलाओं का संसद में पहुंचना जरूरी है। क्योंकि नारीवादी महिला स्त्री-पुरुष समानता की बात करेगी, नारीवादी महिला कास्ट के चक्कर में पीछे नहीं हटेगी।

वो हमेशा इस बात पर ज़ोर देती थीं कि समाज में परिवर्तन के लिए सिर्फ नारीवादी महिला ही नहीं, नारीवादी पुरुषों की भी जरूरत है क्योंकि यह पितृसत्ता की सोच कोई जिस्मानी सोच नहीं है, ये एक दिमागी सोच है जो किसी को भी किसी का दुश्मन बना सकती है। बराबरी की लड़ाई को कमला औरत या मर्द की लड़ाई नहीं मानती थीं, वो इसे मानसिकता की लड़ाई मानती थीं। वो कहती थीं कि “जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी, बदलाव संभव नहीं है”।

नारीवाद एक सफ़र है, मंज़िल नहीं!

कमला नारीवाद को एक सफर बताती थीं, मंजिल नहीं। उनका कहना था कि ये 3 हजार साल पुरानी पितृसत्ता से लड़ाई लंबी है, मंजिल अभी दूर है, मगर मैं सफर में हूँ; इसी का मतलब है कि मैं नारीवादी हूँ। वो हमारे समाज के ताने-बने को महिलाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती समझती थीं। उनके अनुसार हमारा धर्म, हमारी परम्पराएं, रीति- रिवाज़, सामाजिक संरचना पितृसत्तात्मकता को बढ़ावा देती हैं। हमारी संस्कृति कन्यादान और पति परमेश्वर जैसे ढकोसलों में महिलाओं को बांध देती है, जहाँ आगे चलकर स्त्री का दम घुटने लगता है। तीज- त्योहार पति की आराधना करना सिखा देते हैं। कमला पति को पति बोलने को भी अलग नज़रिए से देखती थीं। वे कहती थीं, “औरत किसी की गुलाम नहीं है लेकिन पति शब्द में ही मालिक का अस्तित्व झलकता है, जैसे करोड़पति, जो करोड़ों का मालिक हो। लेकिन स्त्री का मालिक कोई नहीं हो सकता क्यूंकि संविधान में सबको बराबर का अधिकार प्राप्त है”।

कमला मानती थीं कि लड़कियों को बराबरी का दर्जा तभी मिलेगा जब घर की जायदाद में उन्हें उनका हिस्सा मिलेगा। इसके लिए उनकी संस्था ने “बेटी दिल में, बेटी विल में” नाम से कैम्पेन भी शुरू किया। उनकी एक और कोशिश थी “शेरिंग ऑफ़ अनपेड वर्क।" इसके जरिए वो पुरुषों को भी घर के कामों में हाथ बटाने का अभियान चला रहीं थीं। क्यूंकि हम अक्सर लड़कियों को तो अपने पैरों पर खड़े होने की वकालत करते हैं लेकिन कभी लड़कों को घर में हाथ बटाना नहीं सिखाते। कमला अपने इन प्रयासों से एक बेहतर कल को देखती थीं, जहाँ स्त्री और पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं होगा। सब एक साथ समानता की जिंदगी बसर करेंगे और मिलकर खूबसूरत बनायेंगे ये सारा जहाँ।

यकीनन कमला भसीन का निधन महिला आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका है। लेकिन उनका संघर्ष, उनके लेख अन्य कई आंदोलनों की ज़मीन तैयार कर गए हैं, जो हमारी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं। कमला ‘दीदी’ दुनिया से जरूर चली गईं लेकिन वो हमेशा जिंदा रहेंगी हमारी आवाज़ों में, संघर्षों में।

Kamla Bhasin
Kamla Bhasin Passes Away
Women's rights activist
feminist
feminism
patriarchal society
Gender Based Discrimination
Women's Rights Movement
azadi

Related Stories

एमपी ग़ज़ब है: अब दहेज ग़ैर क़ानूनी और वर्जित शब्द नहीं रह गया

भारत में सामाजिक सुधार और महिलाओं का बौद्धिक विद्रोह

बिहार: आख़िर कब बंद होगा औरतों की अस्मिता की क़ीमत लगाने का सिलसिला?

यूपी से लेकर बिहार तक महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न की एक सी कहानी

त्वरित टिप्पणी: हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फ़ैसला सभी धर्मों की औरतों के ख़िलाफ़ है

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: महिलाओं के संघर्ष और बेहतर कल की उम्मीद

दलित और आदिवासी महिलाओं के सम्मान से जुड़े सवाल

बिहार: सहरसा में पंचायत का फरमान बेतुका, पैसे देकर रेप मामले को रफा-दफा करने की कोशिश!

हिजाब को गलत क्यों मानते हैं हिंदुत्व और पितृसत्ता? 

विशेष: लड़ेगी आधी आबादी, लड़ेंगे हम भारत के लोग!


बाकी खबरें

  • yogi
    अजय कुमार
    उत्तर प्रदेश : बिल्कुल पूरी नहीं हुई हैं जनता की बुनियादी ज़रूरतें
    09 Feb 2022
    लोगों की बेहतरी से जुड़े सरकारी मानकों के निगाह से देखने पर उत्तर प्रदेश में घाव ही घाव नजर आते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग़रीबी बेरोज़गारी के के हालात इतने बुरे हैं कि लगता है जैसे योगी सरकार ने इन…
  • देबांगना चैटर्जी
    फ़्रांस में खेलों में हिजाब पर लगाए गए प्रतिबंध के ज़रिये हो रहा है विभाजनकारी, भेदभावपूर्ण और ख़तरनाक खेल
    09 Feb 2022
    फ़्रांस में धर्मनिरपेक्षता को बरक़रार रखने के लिए खेलों में हिजाब और दूसरे "सुस्पष्ट धार्मिक चिन्हों" पर प्रतिबंध लगाने की कवायद पूरी तरह से पाखंड, भेदभाव और राजनीतिक हितों से भरी नज़र आती है। आख़िरकार…
  • Modi
    अजय गुदावर्ती
    मोदी की लोकप्रियता अपने ही बुने हुए जाल में फंस गई है
    09 Feb 2022
    अलोकप्रिय नीतियों के बावजूद पीएम की चुनाव जीतने की अद्भुत कला ही उनकी अपार लोकप्रियता का उदाहरण है। जहाँ इस लोकप्रियता ने अभी तक विमुद्रीकरण, जीएसटी और महामारी में कुप्रबंधन के बावजूद अच्छी तरह से…
  • unemployment
    कौशल चौधरी, गोविंद शर्मा
    ​गत 5 वर्षों में पदों में कटौती से सरकारी नौकरियों पर छाए असुरक्षा के बादल
    09 Feb 2022
    संघ लोकसेवा आयोग द्वारा 2016-17 में भर्ती किए गए कुल उम्मीदवार 6,103 की तदाद 2019-20 में 30 फीसदी घट कर महज 4,399 रह गई।
  • SP MENIFESTO
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    जनता की उम्मीदों पर कितना खरा होगा अखिलेश का ‘वचन’
    09 Feb 2022
    समाजवादी पार्टी ने अपने कहे मुताबिक भाजपा के बाद अपने वादों का पिटारा खोल दिया, इस बार अखिलेश ने अपने घोषणा पत्र को समाजवादी वचन पत्र का नाम दिया, इसमें किसानों, महिलाओं, युवाओं पर विशेष ध्यान दिया…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License