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भारत
राजनीति
मिलिट्री राज में क़ैद कश्मीर की कहानी
यह लेख उग्रवाद के शुरूआती दिनों में कश्मीर की आबादी की कई दुविधाओं को जानने की कोशिश करता है।
बशारत शमीम
28 May 2020
Translated by महेश कुमार
 कश्मीर

जैसा कि रोज़ाना कश्मीर में तीव्र होती दैनिक मुठभेड़ों की वजह से नागरिकों की मृत्यु, संपत्ति का विनाश और अत्यधिक सैन्य घेराबंदी जारी है, वहीं मिर्जा वहीद का उपन्यास, द कोलोबोरेटर, बड़े ही संवेदनशील तरीके से इस घिरे हुए क्षेत्र में जीवन की सूक्ष्म और नश्वर सच्चाईओं को प्रकट करता है। 1990 के दशक की शुरुआत में, नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास लगे नौगाम गाँव पर लिखे गए इस उपन्यास में 17 वर्षीय कथाकार को इसका नायक बनाया है। गांव के सरपंच या मुखिया के बेटे के चार युवा लड़के काफी करीबी दोस्त हैं- जिनके नाम हुसैन, गुल, मोहम्मद और अशफाक हैं।

उग्रवाद से पहले के अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण समय में, कथाकार हरे-भरे मैदानों में क्रिकेट खेलते थे और दुनिया की परवाह किए बिना अपने दोस्तों के साथ ताजे पानी में तैराकी करते हुए एक सुखद बचपन बिताते है। जब उग्रवाद शुरू होता है, तो कथाकार के मित्र आतंकवादी संगठनों द्वारा पाकिस्तान में लगाए गए हथियारों के प्रशिक्षण के शिविर में पहुंच जाते हैं। उनका उद्देश्य प्रशिक्षण लेकर घाटी में वापस आना तहा ताकि वे उग्रवादी कार्यवाही मीन शामिल हो सके। कथाकार जो पीछे रह गया है, वह व्यक्ति है जो अपने मित्रों के साथ बिताए वक़्त को याद करता है।

जैसे-जैसे उग्रवाद अपनी गति पकड़ता है, और भारतीय सेना अपनी जवाबी कार्रवाई को तेज करती है, गिरफ्तारियां और मुठभेड़ नगम गाँव के निवासियों के लिए एक नियमित घटना बन जाती हैं। सेना आतंकवादियों के साथ संबंधों होने के शक में गाँव के दो निवासियों को गिरफ्तार करती है, उन्हे यातना देती है और अंतत मार देती है। सेना के प्रतिशोध लेने और उत्पीड़न के डर से, गाँव के लगभग सभी परिवार घाटी से पलायन कर जाते हैं। कथाकार अपने परिवार से अलग होने पर दुखी होता है और इस तरह उपन्यासकार उसके हर्षित अतीत और उजाड़ वर्तमान के बीच की विपरीत स्थिति को सामने लाता है।

कश्मीर दुनिया भर में जिस बात के लिए प्रसिद्ध है वह है उसकी भौतिक सुंदरता लेकिन अब वह अप्रासंगिक हो गई है। कथाकार की कश्मीर में सुखद जीवन की कहानी की यादें बेतहाशा हिंसा और कुरूपता के वर्णन से विकृत हो जाती है। जब कभी भी वह सेना द्वारा मारे गए आतंकवादियों की पहचान करने घाटी में नीचे जाता है, तो वह "लगभग अमानवीय अवस्था और उनके टूटे वीभत्स अंगों के बीच का वर्णन करता है ... नंगे घाव, छेद, कालापन, बाहर निकली अंतड़ियाँ, और अंगहीन, बिना बाजू के, यहां तक कि बिना सिर की लाशें ... "टूटे हुए खिलौनों की तरह हरी घास पर पड़ी हैं। 

वहीद घाटी की वास्तविकता की एक बड़ी तस्वीर को पेश करने के लिए नायक की धारणाओं और उसके व्यक्तित्व का उपयोग करते हैं। कथाकार की गुमनामी उसे उसके लोगों का प्रतिनिधि बनाती है, और उसके माध्यम से ही वहीद कश्मीर टकराव की क्रूर वास्तविकताओं को दर्शाता है। युवा कथाकार की गुमनामी और अलगाव सैन्य उत्पीड़न के दौरान व्यक्तिगत और सामाजिक पहचान को हुए नुकसान की बड़ी तस्वीर पेश करता है।

हालात के चलते एक निर्जन गांव में रहने को मजबूर, उसके पास सुरक्षा बलों के साथ सहयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है जो दूसरों को पलायन करने पर अत्याचार करते हैं। अपने पिता के आग्रह पर नोवगाम में रहते हुए, कथाकार का दुनिया से पूरी तरह से मोहभंग हो जाता है और इस तरह वह "सैन्यकृत जंगल" की छवि पर प्रकाश डालता है। यह 1990 के दशक की शुरुआत से ही कश्मीर के ग्रामीण इलाकों का एक प्रतिबिंब है, जिसमें सशस्त्र बलों ने अपने उग्रवाद-विरोधी अभियानों के दौरान लोगों के जीवन में पैठ बनाई और उन्हे नियंत्रित कर लिया था। नोगाँव और नायक दोनों ही गहन सैन्य घेराबंदी के बीच कश्मीर और कश्मीरियों के सूक्ष्म प्रतिनिधि हैं।

निर्दयी कैप्टन कादियान इस घुसपैठ और नियंत्रण करने और उसे उजागर करने के लिए उपन्यासकार द्वारा तैयार की गई एक छवि है। वह कथाकार के पिता के पास जाता है, और उसके बेटे से सेना के लिए काम करने के लिए कहता है। यह एक ऐसा प्रस्ताव है जिसे वे अस्वीकार करने का साहस नहीं कर सकते थे: “मैं जानता था, और यह बात मेरे पिता भी जानते थे, जब पहले ही क्षण में, कप्तान से हुई पहली मुलाकात में, हमें जो बताया गया था, हमें वैसा ही करना था। हम जानते थे कि ”ज़िंदा रहना प्रतिरोध से ज्यादा महत्वपूर्ण था इसलिए कथाकार सेना का एक अनिच्छुक सहयोगी बन जाता है। उनका काम सेना द्वारा मारे गए आतंकवादियों की पहचान करना होता है क्योंकि वे एलओसी के उस पार से कश्मीर में घुसने की कोशिश कर रहे थे, साथ ही उसका काम ऐसे इलाके में मारे गए आतंकियों का सामान उठाना था जहां विस्फोटक भी दबे होते थे और सेना के लोग जाने से घबराते थे। जब वह लाशों की पहचान कर रहा होता तो वह अपने दोस्तों के मृत शरीर के सामने आने की संभावना भर से भी डरता था। यह दुखद विडंबना है कि उपन्यास का टाइटल प्रतीकात्मक रूप से इस बात को प्रतिबिंबित करता है।

अस्पष्टता और विरोधाभास कथाकार के चरित्र और उसके कार्यों को चिह्नित करते हैं। वह बेटा होने के नाते लगातार अपनी जिम्मेदारी और आतंकवादियों के धडे में शामिल होने की इच्छा के बीच झूलता रहता है। उसका मन में भारतीय सेना के प्रति संदिग्ध निष्ठा और अपने मित्रों जो उग्रवादी आतंकवादी बन गए थे, के बीच अविच्छिन्न प्रेम का एहसास था। काम के दौरान, जिसमें पहचान के लिए विखंडित लाशों के बीच घूमना घूमना शामिल था, उसका दिमाग मौत के सन्नाटे जैसे वर्तमान और एक सुखद अतीत के बीच टीक-टिक करता है। वह जब अपने नियोक्ता, कादियान की तरफ देखता है, जिसने घृणित "पाप किए हैं, और भयानक रूप से गलत काम किए हैं", लेकिन उसे उस ज्ञान से भी झटका लगता है जब उसे एहसास होता है कि कादियान जैसा सेना का अफसर, जिसने हजारों लोगों को मार डाला होगा, यह वह आदमी है जो लोगों को गायब कर देता है, यह वह आदमी है जो कुछ भी कर सकता है, और किसी को भी मार सकता है”। हालांकि वह आतंक का गवाह है, साथ ही वह एक ऐसी जटिल स्थिति का भी सामना करता जिसके लिए वह अपने को असहाय महसूस करता है। यह उन दिनों की कश्मीर की आबादी की दुविधा का निष्कर्ष पेश करता है।

जैसा कि कथाकार अपने सीमांत गांव में बड़ा होता है, धीरे-धीरे उसका विचार बनता है कि सीमा पर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoK) और इस तरफ के जम्मू और कश्मीर की सीमा, वास्तव में कोई सीमा नहीं है, पारंपरिक अर्थ में कहा जाए तो; यह एक मनमाना सीमांकन है जिसने न केवल भारत और पाकिस्तान के बीच राज्य को विभाजित किया है, बल्कि दोनों देशों के बीच तीन लड़े गए युद्धों के भयानक टकराव का एक परिदृश्य भी रहा है।

इस डे-फैक्टो बॉर्डर की मनमानी, जैसा कि कश्मीरियों को लगता है, उपन्यास में शाबान नाम के एक बुजुर्ग व्यक्ति के शब्दों में परिलक्षित होता है, जो इस भूमि को एक इलाका, एक जगह, एक ही परिदृश्य के रूप में मानता है जो सभी निवासियों के लिए खुला है, और जिसके बेवजह टुकड़े कर दिए गए हैं, एक ऐसा स्थान जो दो राष्ट्रों के बीच लड़ाई का केंद्र बन गया है। उनके विचार सलमान रुश्दी के ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ में मौजूद एक एपिसोड की याद दिलाते हैं, जहां एक कश्मीरी चरित्र, ताई, उस सीमा तक मार्च करता है जहां भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर लड़ रहे हैं, और वह जोर देकर कहता हैं: "कश्मीर, कश्मीरियों के लिए है"।

लड़ाई में मारे जाने से पहले, ताई कश्मीर में दी जा रही उस जबरन दीक्षा को एक असंभव अपरिवर्तनीय उलझन बताकर उसकी निंदा करता है और अपनी पहचान के प्रति किसी भी हस्तक्षेप का विरोध करने के कारण एक प्रतीकात्मक शहीद हो जाता है। ताई की स्थिति के लगभग विडंबनापूर्ण उलटफेर में, कोलैबोरेटर के नायक ने अपनी खुद की पहचान पूरी तरह से खो दी है और वह मनोवैज्ञानिक दाग़ से ग्रस्त है।

लेखक और अकादमिक क्लेयर चैंबर्स का मानना है कि उपन्यास "वहाँ के भयंकर हालत को समझाता" है क्योंकि "उपन्यास लड़के को मौतों से मिले सदमे और लाशों को देख उसमें आई तबदीली पर प्रगति करता है,  जैसे वह मृत लोगों के साथ बातचीत करता है, यहां तक कि उनके पास लेट जाता है, और शायद वह नोटिस ही नहीं करता उसके आसपास लाशें बिछी हैं क्योंकि वह उस काम में रम जाता है।"

वहीद का उपन्यास, उग्रवाद और उत्पीड़न की छाया में जी रहे लोगों के जीवन को काल्पनिक रूप से बयान करते हुए कथाकार की कहानी को दिखाता है। कहानी कथाकार के बारे में उतनी ही है जितनी कि वह उसके स्थान/जगह के बारे में है। उसकी कहानी उनके लोगों की कहानी बन जाती है, उसकी आवाज़ उनकी आवाज़ों में गूँजती है, उनकी कहानी दमनकारी और उत्पीड़ित दोनों के दृष्टिकोण में गूंजती हैं। इस प्रकार हर चरित्र क्षेत्रीय और राजनीतिक इतिहास का भागीदार है। इस संबंध में उपन्यास बारबरा हार्लो के दावे को यहाँ साबित करता है कि प्रतिरोध की कथा न केवल एक दस्तावेज है, बल्कि यथास्थिति की प्रथाओं का एक संकेत भी है।

कश्मीर का सशस्त्र संघर्ष सामाजिक जीवन, विशेषकर मानवीय संबंधों में जबरदस्त बदलाव लाया है। कश्मीरी सांस्कृतिक लोकाचार में हमेशा से अपने बड़ों के लिए सम्मान रहा है। वहीद की कथा में एक दुविधा में फंसने को दिखाया गया है। उनका जीवन ने तीन अलग-अलग स्तरों पर अपना पाठ्यक्रम चलाया है। एक तो, अनिश्चितताओं और उग्रवाद के बीच जीना है; दूसरा उनका पारिवारिक जीवन है जो पिता-पुत्र के झगड़े को चिह्नित है; तीसरा उग्रवादियों के लिए उनका आकर्षण जिन्हौने दमन का सामना करने के लिए इसे चुना है। उसे इन तीनों के बीच  सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है और इस तरह उसका जीवन कश्मीर के बड़े राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष का प्रतीक है जिसने कश्मीरी समाज को व्याकुल कर दिया है।

इस स्थिति का सहायक सशस्त्र संघर्ष था जिसने राजनीतिक और सैन्य दबाव बढ़ाया था। यह कथाकार का पिता है जो उग्रवादियों के हिंसक प्रतिरोध को अस्वीकार करता है: "मैंने यह पहले भी देखा है, बेटे, यह सब देखा है, अंत में कुछ भी नहीं होता है, तुम्हें इस बारे मीन  कुछ नहीं पता है।" उनके शब्दों और समझ में पीढ़ी का अंतर था; पुरानी पीढ़ी के राजनेताओं सहित, जो शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीकों के भीतर प्रयास करते थे और अधिक सुलह करने के लिए तैयार रहते थे। यह उन युवकों के दृष्टिकोण के विपरीत है जो हिंसा की ओर आकर्षित हैं और इसे एक तुरंत समाधान के रूप में देखते हैं। नायक के पिता कश्मीर की पुरानी पीढ़ी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं जो शेख अब्दुल्ला की पूजा में खो जाते थे और अधिक शांतिवादी हो जाते है। इन बड़ों के पारंपरिक मूल्यों की वजह से,  जैसे कि सम्मान और सहमति, ने कश्मीर की सामाजिक संरचना में सामुदायिकता और एकजुटता की भावना को बनाए रखा था। तब सबके भीतर साझा वंश और वंश के लिए सम्मान था, जो बड़े पैमाने पर सामाजिक संबंधों को आकार देता था।

टकराव और बंदूक की संस्कृति, हालांकि, मौलिक रूप से राज्य की पारंपरिक संरचनाओं को संशोधित करती है। जबकि युवा लोगों द्वारा हासिल राजनीतिक जागरूकता और उन्मुखीकरण कहीं अधिक सकारात्मक और संघर्षपूर्ण था। उपन्यास में एक तरफ पिता-पुत्र की जोड़ी है जो इस द्वंद्ववाद का प्रतीक है। पिता, इफ्तिखार अली कर्रा, को एक पुराने "कांग्रेस-वाला" के रूप में वर्णित किया जाता है, जो भारत के प्रति अपने राजनीतिक झुकाव के कारण उग्रवाद का लगातार विरोध करता हैं। पिता की अस्वीकृति और विलासी जीवन की संभावनाओं को त्यागते हुए, बेटा जुल्फिकार एक शीर्ष आतंकवादी बन जाता है, जिसे बाद में एक मुठभेड़ में मार दिया जाता है जिसे वह आत्मसमर्पण के बहाने फुसला कर लाता है।

इस कड़ी में, बंदूक एक प्रतीकात्मक महत्व हासिल कर लेती है क्योंकि यह एक ऐसा हथियार है जो अपनी उपयोगिता के अलावा, आतंकवादी और राज्य दोनों का साझा हथियार है। जब कथाकार कहता है, "हर कोई आजकल बंदूक चलाता है", तो वह इशारा करता है कि सशस्त्र संघर्ष ने कश्मीरी समाज की पारंपरिक पदानुक्रमित संरचनाओं को कैसे बदल कर रख दिया है। यह एक सामान्य लक्ष्य को हासिल करने और बंदूक के कब्जे का राजनीतिक संघर्ष था जो अब एकजुटता और संबद्धता की भावना लाया है।

वहीद ने इसके अंतर्निहित अंतर्विरोधों को दर्शाते हुए सशस्त्र संघर्ष के इतिहास का भी पता लगाया है। विरोधाभासी कश्मीरी आंदोलन में पाकिस्तान की भूमिका और उसके धार्मिक कट्टरपंथ को बढ़ावा देने की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता हैं। भारत के खिलाफ कश्मीरी सशस्त्र संघर्ष में पाकिस्तान की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। इसने भारत को छद्म युद्ध के माध्यम से क्षेत्र को अशांत करने का लक्ष्य हासिल किया है। अगर उपन्यास भारतीय सेना या भारतीय राज्य की क्रूरता का चित्रण करता है, तो वह पाकिस्तान पर उसकी आलोचनात्मक और व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण को भी लेता है, जिसका वर्णन "उस देश में सीमा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर है, किया गया है, जो कभी शांत नहीं रहता है" और न ही किसी को चैन से रहने देता है”। इसे उस स्थान के रूप में वर्णित किया गया है जहां से आतंकवादी कश्मीर में दाखिल होते हैं और भारतीय राष्ट्र के खिलाफ लड़ने के लिए प्रशिक्षित होते हैं। पाकिस्तान कश्मीर को एक संघर्ष और टकराव के रूप में देखता है और मानता है कि इसे केवल जिहाद के चश्मे से और भारत से इसे पृथक करके ही हल किया जा सकता है। वहीद का उपन्यास कई दृष्टिकोणों या विचारों को सामने लाता है, जो मुख्यधारा के लेखन के प्रभावी संस्करणों की भी कद्र करता हैं और उन लोगों को भी आवाज देता हैं जो लंबे समय से खुद के लिए बोलने के अधिकार से वंचित हैं।

लेखक कश्मीर स्थित एक ब्लॉगर और लेखक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में लिखे मूल आलेख के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Militarised Wilderness: Story of Kashmir under Siege

Kashmir
Kashmir Crisis
Jammu and Kashmir
Article 370
Article 35A

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