केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन तिरुवनंतपुरम में 23 मार्च, 2020 को कोविड-19 पर एक प्रेस मीटिंग को संबोधित करते हुए।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने पिछले हफ्ते एक तीखी स्टोरी की थी, जिसका शीर्षक था- केरल ने रास्ता दिखाया। सार्वजनिक स्वास्थ्य में दशकों का निवेश राज्य को कोविड-19 पर काबू पाने में मदद कर रहा है। शीर्षक अपने आप में स्व-व्याख्यात्मक है। इस कहानी में कोरोना वायरस के प्रकोप को नियंत्रित करने में केरल की सफलता की खूब प्रशंसा की गई है।
केरल की इस सफलता की कहानी के पीछे तीन कारक हैं - एक तो राज्य में उत्कृष्ट सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का होना, दूसरा -ज़मीनी स्तर पर स्थानीय निकायों का कामकाज और तीसरा -जनसंख्या में साक्षरता स्तर ऊंचा होना। केरल के बारें में यह एक एकदम सटीक समझ है।
भारत के अधिकांश क्षेत्रों या राज्यों के विपरीत, इन दशकों के दौरान सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली केरल राज्य के विकास के एजेंडे में एक प्राथमिक और बुनियादी मुद्दा रहा है और यही दूरदर्शिता है जो आज उसे लाभ पहुंचा रही है। जाहिर है, किसी भी महामारी से लड़ने के लिए समुदाय तक बेहतर पहुँच का होना अनिवार्य है, जिसमें कोविड केसों के संपर्क में आने वालों की कठोर खोज करना, सामूहिक क्वारंटाइन आदि हिस्सा हैं। और तीसरा, निश्चित रूप से, अधिक साक्षर लोग बड़ी जिम्मेदारी के साथ व्यवहार करते हैं, जो संक्रमण वक्र को समतल करने के सरकार के प्रयासों की प्रभावशीलता को बढ़ाता है।
अखबार यह कहकर अपनी बात समाप्त करता है कि "वर्तमान संकट के समाप्त होने के बाद, स्वास्थ्य देखभाल का केरल मॉडल निश्चित रूप से [भारत में] अन्य जगहों में दोहराने के लिए उसका अध्ययन किया जाना चाहिए।"
क्या यह उतना सरल है – इसे अन्य जगहों पर "दोहराना"? इसमें एक विरोधाभास है। "स्वास्थ्य सेवा का केरल मॉडल" एक पूरे के पूरे पैकेज का हिस्सा है और इसे केरल की सफलता की कहानी - अर्थात वाम राजनीति को शामिल किए बिना अलगाव में कॉपी पेस्ट नहीं किया जा सकता है।
हाल के सप्ताहों ने हमारे देश के विकास में वाम राजनीति की महान प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। जब तक सच्चाई के इस मूल को ठीक से नहीं समझा जाता है, तब तक हम इसे "दोहराना" को केवल कट-एंड-पेस्ट का काम ही समझेंगे। यह कामयाब नहीं होगा।
विशेष रूप से विकास के सामाजिक क्षेत्रों में अगर आप देखें तो- शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, आवास, भूमि सुधार, पर इतना बड़ा ज़ोर - केरल में वाम राजनीति की विरासत रहा है। यह सब तैंतीस साल पहले शुरू हुआ था, जब अप्रैल 1957 में, राज्य में पहली कम्युनिस्ट सरकार चुनी गई थी।
वास्तव में, यह एक लंबी और चुनौतीपूर्ण यात्रा थी, अक्सर जोख़िम भरे रास्ते पर चलते हुए, वह भी ज्यादातर अकेले - कम से कम शुरुआती समय में, लेकिन जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ी, तो कम्युनिस्टों विरोधियों को भी यह आकर्षक लगने लगा, क्योंकि इसके भीतर दिशा थी और समझ थी और मानवतावाद के अस्तित्व के प्रति सम्मोहन था, जिसकी जड़ें आज़ादी से पहले के दशकों में हमारे देश के दक्षिणी क्षेत्र में महान सामाजिक सुधार आंदोलन में थीं। बाकी सब इतिहास है।
उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में ऐसी क्रांति की ज़रूरत है तो सोच का पूरा ढंग ही बदल दे। तभी जाकर केरल की कामयाबी दोहराई जा सकती है। बेहतर स्वास्थ्य प्रणाली, सार्वजनिक कार्यक्रमों में जमीनी स्तर पर भागीदारी और उच्च साक्षरता जैसे मुकाम तभी हासिल किए जा सकते हैं। और जब ये एक साथ पारस्परिक रूप से काम करते हैं तभी प्रभावी होते हैं।
अलग ढंग से कहें, अगर केरल मॉडल को केवल गंगा के प्रदेशों में लागू किया जाता है तो इसके खिलाफ बहुत भारी रुकावटें है क्योंकि उत्तरी राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा कमजोर है या फिर गैर-मौजूद है। लोकतान्त्रिक भागीदारी न होना यहाँ की खास पहचान है। यहाँ के लिए यह एक विलक्षण विचार बना हुआ है। आबादी का बड़ा हिस्सा अनपढ़ है। अज्ञानता में डूबा हुआ है।
जब कोविड-19 जैसा संकट पैदा होता है तो तिरुवनंतपुरम में बैठी एक उत्तरदायी सरकार आत्मविश्वास से ज़मीनी स्तर की भागीदारी की उम्मीद कर सकती है, जो निश्चित रूप से आधिकारिक अभियान के समग्र प्रभाव पर एक सबसे बड़ा गुणक है और स्थिति को बदलने में सहायक साबित हो सकता है।
जाहिर है, यह एक ऐसा विकल्प है, जिसे उत्तर भारतीय राज्यों में राजनीतिक कुलीनों को तय करना होगा। उन्हें तय करना होगा कि क्या वे मध्ययुगीन सरदारों और सामंती स्वामियों की तरह शासन करना चाहते हैं या लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेताओं की तरह जो लोगों के प्रति जवाबदेह हों, विशेष रूप से आम और कमजोर तबके के लिए।
फिर, साक्षर आबादी के होने के भी दो पक्ष हैं। केरल का अनुभव बताता है कि जब महामारी फैलती है तो उसके प्रति व्यापक जागरूकता आवश्यक है और इसके लिए साक्षर आबादी एक बड़ी संपत्ति साबित हो सकती है। यह कहना भी सही होगा कि एक साक्षर आबादी को यूं ही हाँका नहीं जा सकता है। अब, केरल में असंतोष जीवन का एक हिस्सा है। यह वैसे ही है जैसे हम हवा में सांस लेते हैं लेकिन उत्तर भारत में अफसोस की बात है कि इसे गलत समझा जाता है।
कहने के लिए, केरल की सफलता की कहानी का निष्कर्ष इस प्रकार निकाला जा सकता है: जब राज्य में एक बेहतरीन ढंग से चलने वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली हो जो कोविड-19 का मुकाबला करने के लिए एक प्रबुद्ध राजनीतिक नेतृत्व के तहत युद्ध स्तर पर काम करती है, तो समुदाय तक पहुँच सरकार का एक महत्वपूर्ण अभियान बन जाता है- जिसमें लॉकडाउन, कोविड संपर्कों का पूरी सख़्ती और मेहनत से पीछा करना, बड़ी तादाद में क्वारंटाइन करना और इसे लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा देना जो अपने आप में इस अभियान का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है, जो निश्चित रूप से यह ऊंचे स्तर की साक्षर आबादी की वजह से संभव है क्योंकि वह इस बात के लिए जागरूक थी कि यह महामारी बहुत खतरनाक और जानलेवा है।
सरकार में जनता का भरोसा और चुने हुए नेतृत्व की मजबूती केरल की सफलता की कहानी का महत्वपूर्ण चौथा तत्व है।
अब, उपरोक्त चार घटकों में से किसी एक को हटा दें तो यह वास्तुकला अस्थिर हो जाएगी। मूल बात यह है कि उत्तर भारत के राज्यों में विकास, सामाजिक न्याय और समानता के समतावादी सिद्धांतों के आधार पर उत्तरदायी राजनीति का अभाव है। इस तरह की घातक कमी के लिए कट-एंड-पेस्ट काम नहीं कर सकता है।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
Kerala’s Covid Story is Hard to Replicate