NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
भारत
राजनीति
सत्ता की चाह में डूबे नेताओं की आदत है पार्टी बदलना
केवल प्रबंधन के बल पर एक पार्टी के इर्द-गिर्द सहमति ज्यादा देर तक रहती नहीं। ज्यादा देर तक रहने के लिए विचारधाराओं की ज़रूरत पड़ती है।
अजय कुमार
11 Jun 2021
जितिन प्रसाद और ज्योतिरादित्य सिंधिया।
जितिन प्रसाद और ज्योतिरादित्य सिंधिया। फोटो साभार: आजतक

चुनावी मौसम में ग्राउंड रिपोर्ट के लिए दौड़-भाग कर रहे पत्रकारों की शिकायत रहती है कि जब भी वह लोगों से यह पूछते हैं कि वह किसे वोट देंगे तो उनमें से अधिकतर लोग का एक जवाब होता है कि “जो जीत रहा होगा उसे ही वोट देंगे”। कहने का मतलब यह है कि भारत की चुनावी राजनीति में जीतने की संभावना भी जीत का रास्ता बनाती है। ठीक यही तर्क चुनावी राजनीति में हिस्सेदार बनने वाले नेताओं पर भी लागू होता है। नेता भी उस पार्टी का दामन थामने के लिए बेकरार रहता है, जहां पर जीत की संभावना दूसरों के मुकाबले अधिक दिखती है। यही तर्क अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद जैसे नेताओं पर लागू हो तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पूरी राजनीति की व्याख्या जीत की संभावना के आधार पर कर दी जाए। यह कहा जाने लगे कि राजनीति का पूरा धड़ा केवल चुनाव और जीत हासिल करने के लिए राजनीति करता है, सही नहीं होगा।

योगेंद्र यादव जैसी राजनीतिक चिंतक कहते हैं कि दुनिया में जो कुछ शुभ है और जो होना चाहिए उसे सच में बदलने की कोशिश का नाम राजनीति है। योगेंद्र यादव की बात सही भी लगती है। क्योंकि अगर ऐसी बात रहती कि जब तक जीत की संभावना नहीं दिखती तब तक हम नहीं लड़ेंगे तो भारत में वह सारे आंदोलन कब के खत्म हो चुके होते जो सालों साल से लोगों के हक के लिए लड़ते आ रहे हैं। भारत में वामपंथी दलों के तले चलने वाले ढेर सारे आंदोलन कब के खत्म हो चुके होते। दिन-रात लोगों की भलाई के लिए जमीन पर मौजूद सामाजिक कार्यकर्ता कब के रणभूमि छोड़ कर चले गए होते। यह दुनिया सच के लिए संघर्ष करने वाले राजनीतिक लोगों से खाली हो चुकी होती। इन संघर्षों और लड़ाईयों का किसी समाज में चुनावी राजनीति से अधिक महत्व होता है। चुपचाप गहरे तौर पर लड़ी जा रही यह लड़ाइयां ही समाज में मौजूद अन्याय को खत्म कर सत्ता का पलड़ा न्याय की तरफ झुकाने की कोशिश में लगी रहती हैं। समाज को खूबसूरत बनाने की कोशिश में लगी रहती हैं। भारत का संविधान भी दलगत राजनीति की अपेक्षा इन्हीं संघर्षों को ज्यादा महत्व देता है। लेकिन यह राजनीति नामक सिक्के का केवल एक पहलू है।

मौजूदा समय के मशहूर दार्शनिक युवा नवल हरारी कहते हैं कि राजनीति सत्ता पर काबिज होने की कार्यवाही है। सत्ता और सच दो विपरीत चीजें हैं। सच की खोज में लगा इंसान सत्ता पर काबिज नहीं होता। और सत्ता पर काबिज होने वाले लोग सच का इस्तेमाल उतना ही करते हैं जितना उनके लिए फायदेमंद दिखता है। अगर उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो अयोध्या मंदिर बनवाना आसान काम है लेकिन भारत से सांप्रदायिकता को खत्म करना बहुत मुश्किल काम। 

हमारी टीवी और मेनस्ट्रीम की दुनिया ने उसी राजनीति को सबसे अधिक दिखाया है जिसकी सारी तिकड़म महज सत्ता पर काबिज होने से जुड़ी होती है। इसलिए राजनीति के नाम पर हम केवल चंद पार्टियों और नेताओं को तवज्जो देते हैं। इसी आधार पर लोक मानस भी गढ़ा गया है। जो अपने लिए शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार के नाम पर वोट कम देता है बल्कि सामने वाले में जीत की संभावना को देखकर वोट ज्यादा देता है।

जब राजनीति का यह स्वरूप फैलने लगता है तो सबसे बड़ी दिक्कत इस बात की होती है कि विचारधाराओं पर जोर नहीं रहता। नैतिकता पर जोर नहीं होता। जनकल्याण पर जोर नहीं होता। सब कुछ महज जीत की संभावना तक सीमित हो जाता है। पार्टियों के प्रबंधन और संरचना तक सीमित हो जाता है।

पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर प्रदीप छिब्बर कहते है कि कांग्रेस पार्टी नेताओं की कमी से तो जूझ ही रही है। लेकिन हकीकत में कांग्रेस पार्टी की मौजूदा वक्त में अपने भीतर की संरचना के संकट से जूझ रही है। पार्टी चाहे कोई भी हो जैसे भाजपा, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया या कांग्रेस सभी के भीतर एक दूसरे से मतभेद रखने वाले बड़े धड़े हमेशा मौजूद रहते हैं। यह सब ठीक अंदर ही अंदर एक दूसरे से प्रतियोगिता करते रहते हैं। आगे निकलने की होड़ में पार्टियां इन्हें साथ लेकर ही आगे बढ़ती हैं। कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि वह बहुत लंबे समय से सत्ता से दूर है। उसके केंद्रीय नेताओं की पकड़ अपनी पार्टी पर कम पड़ती जा रही है। 

इसलिए जब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो पार्टी के भीतर के बंटवारे खुलकर सामने आना शुरू कर देते हैं, तो पार्टी से अलग होने की संभावना भी बहुत अधिक बढ़ जाती है। अगर यही पार्टी बहुत लंबे समय तक सत्ता में होती तो आसानी से पार्टी के भीतर के बंटवारे को बढ़ने नहीं देती। कई तरह लालच या डर जैसे कि मंत्री का पद या और भी कुछ और ऑर्डर जैसे की इनकम टैक्स की रेड का डर दिखाकर पार्टी में ही रहने के लिए मजबूर कर देती। कांग्रेस पार्टी अगर मजबूत होती तो ज्योतिरादित्य सिंधिया या जितिन प्रसाद या फिर जब-तब बागी तेवर अख्तियार कर लेने वाले सचिन पायलट सबको कुछ न कुछ फायदा मिलता। यह लोग मुख्यमंत्री भले ना बनते लेकिन केंद्र में मंत्री जरूर होते पार्टियों के अंदर नाराजगी वाले दलों को संभालने का यही तरीका का होता है। 

वरिष्ठ पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती ट्विटर के अपने लंबे थ्रेड एक रिसर्च में लिखते हैं कि कांग्रेस पार्टी क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी सत्ता में भागीदार बनाते हुए आजादी से लेकर साल 1990 तक राज करते आई। 1990 के बाद की राजनीति में जैसे क्षेत्रीय दलों की भागीदारी बढ़ी। जाति परिवार वंश के नाम पर बने यह क्षेत्रीय क्षत्रप भी कांग्रेस से दूर होने लगे। अब तो कांग्रेस के पक्ष में किसी भी तरह की हवा नहीं दिखती तो सब दूसरे पक्ष की तरफ मुड़ रहे हैं।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के पॉलीटिकल साइंटिस्ट राहुल वर्मा कहते हैं कि कुल मिलाकर कहा जाए तो अगर किसी पार्टी के भीतरी संरचना ऐसी है जहां पर सत्ता का बंटवारा केंद्रीय नेतृत्व के प्रति लॉयल्टी से तय होता है तो पार्टी आज नहीं तो कल ढहने की कगार पर पहुंच जाती है। खासकर तब जब वह पार्टी सत्ता में ना हो। लंबे समय तक सत्ता से दूरी की यातना सह रही हो। मौजूदा समय में कांग्रेस की सत्ता में आने की संभावना बहुत लंबे समय के लिए बहुत कमजोर दिख रही है। इसलिए उसके भीतर का मतभेद धड़ा खुलकर सर उठा रहा है। पार्टी के भीतर मोल भाव हो रहा है। पार्टी से बाहर जाने की कोशिश में लगा है। जहां उसे चुनावी राजनीति के लिहाज से आने वाले समय में ज्यादा फायदा दिखता है वहां वह मुड़ चलता है। ऐसी स्थिति को रोकना बहुत मुश्किल काम है। केवल नेता और कुछ समय की बात नहीं है।

जब कोई पार्टी ऐसी स्थिति से गुजरने लगे तो इसका मतलब है कि उसे अपनी पूरी संरचना तब्दील करने की जरूरत आन पड़ी है। वह चाहे तो आंखें मूंदकर अपनी ढह चुकी संरचना के भीतर आगे बढ़ने का लालच पाल सकती है या खुद के तरफ देखते हुए लंबे समय का सोचते हुए पार्टी को बदलने की तैयारी में लग सकती है। जब लंबे समय का सोचेगी तब तय है कि वह जीत के अलावा उन प्रवृत्तियों के तरफ भी देख पाएगी जिनकी जरूरत भारत जैसे देश को चलाने के लिए एक पार्टी को पड़ती हैं। केवल प्रबंधन के बल पर एक पार्टी के इर्द-गिर्द सहमति ज्यादा देर तक रहती नहीं ज्यादा देर तक रहने के लिए विचारधाराओं की जरूरत पड़ती है। ऐसे लोगों की जरूरत पड़ती है जो निस्वार्थ भाव से राजनीति करने में यकीन रखते हो। इन सब गुणों की जरूरत भाजपा जैसी पार्टियों को पैसे बाहुबली और मीडिया की वजह से ना पड़े लेकिन जो भाजपा के विरोध के नाम पर राजनीति कर रहे हैं उनका संघर्ष ज्यादा गहरा और ज्यादा बड़ा है।

Congress
BJP
Jitin Prasad
Jyotiraditya Scindia
sachin pilot
Party Politics
INDIAN POLITICS
UP elections

Related Stories

ख़बरों के आगे-पीछे: केजरीवाल के ‘गुजरात प्लान’ से लेकर रिजर्व बैंक तक

यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

इस आग को किसी भी तरह बुझाना ही होगा - क्योंकि, यह सब की बात है दो चार दस की बात नहीं

ख़बरों के आगे-पीछे: भाजपा में नंबर दो की लड़ाई से लेकर दिल्ली के सरकारी बंगलों की राजनीति

बहस: क्यों यादवों को मुसलमानों के पक्ष में डटा रहना चाहिए!

ख़बरों के आगे-पीछे: गुजरात में मोदी के चुनावी प्रचार से लेकर यूपी में मायावती-भाजपा की दोस्ती पर..

ख़बरों के आगे-पीछे: पंजाब में राघव चड्ढा की भूमिका से लेकर सोनिया गांधी की चुनौतियों तक..

कश्मीर फाइल्स: आपके आंसू सेलेक्टिव हैं संघी महाराज, कभी बहते हैं, और अक्सर नहीं बहते

उत्तर प्रदेशः हम क्यों नहीं देख पा रहे हैं जनमत के अपहरण को!

जनादेश-2022: रोटी बनाम स्वाधीनता या रोटी और स्वाधीनता


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ः 60 दिनों से हड़ताल कर रहे 15 हज़ार मनरेगा कर्मी इस्तीफ़ा देने को तैयार
    03 Jun 2022
    मनरेगा महासंघ के बैनर तले क़रीब 15 हज़ार मनरेगा कर्मी पिछले 60 दिनों से हड़ताल कर रहे हैं फिर भी सरकार उनकी मांग को सुन नहीं रही है।
  • ऋचा चिंतन
    वृद्धावस्था पेंशन: राशि में ठहराव की स्थिति एवं लैंगिक आधार पर भेद
    03 Jun 2022
    2007 से केंद्र सरकार की ओर से बुजुर्गों को प्रतिदिन के हिसाब से मात्र 7 रूपये से लेकर 16 रूपये दिए जा रहे हैं।
  • भाषा
    मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चंपावत उपचुनाव में दर्ज की रिकार्ड जीत
    03 Jun 2022
    चंपावत जिला निर्वाचन कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री को 13 चक्रों में हुई मतगणना में कुल 57,268 मत मिले और उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाल़ कांग्रेस समेत सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो…
  • अखिलेश अखिल
    मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 
    03 Jun 2022
    बिहार सरकार की ओर से जाति आधारित जनगणना के एलान के बाद अब भाजपा भले बैकफुट पर दिख रही हो, लेकिन नीतीश का ये एलान उसकी कमंडल राजनीति पर लगाम का डर भी दर्शा रही है।
  • लाल बहादुर सिंह
    गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया
    03 Jun 2022
    मोदी सरकार पिछले 8 साल से भारतीय राज और समाज में जिन बड़े और ख़तरनाक बदलावों के रास्ते पर चल रही है, उसके आईने में ही NEP-2020 की बड़ी बड़ी घोषणाओं के पीछे छुपे सच को decode किया जाना चाहिए।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License