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भारत
राजनीति
बंगाल से सबक: केरल में सीपीआई(एम) लंबे समय तक सत्ता में बने रहने से होने वाले झमेलों से बचने की कोशिश कर रही है! 
मंत्रिमंडल और विधानसभा में नए लोगों को शामिल कराने के जरिये केरल की सीपीआई(एम) असल में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की दुर्भाग्यपूर्ण हालात से बचने के प्रयास में है।
सुचिंतन दास
20 May 2021
बंगाल से सबक: केरल में सीपीआई(एम) लंबे समय तक सत्ता में बने रहने से होने वाले झमेलों से बचने की कोशिश कर रही है! 

केरल के लोगों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ वाम लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार को ऐतिहासिक जनादेश दिया है। पिछले चार दशकों में पहली बार उन्होंने सत्तारूढ़ दल को लगातार दूसरी दफा सत्ता में वापस लाने का फैसला किया है। हालाँकि दूसरे एलडीएफ मंत्रिमंडल के शपथ-ग्रहण के साथ ही एक नया विवाद छिड़ गया है।

प्रमुख गठबंधन सहयोगी, यानि सीपीआई(एम) ने अपने पिछले कैबिनेट मंत्रियों में से किसी को भी इस बार मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने का फैसला किया है, जिसमें बेहद लोकप्रिय एवं सफल के.के. शैलजा, जिन्हें शैलजा टीचर के नाम से भी जाना जाता है, भी शामिल हैं। अन्य प्रमुख घटक सहयोगी दल में से सीपीआई ने भी इसका अनुसरण किया है। सिर्फ मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन, जिनके लगातार दूसरे कार्यकाल के बाद पद पर बने रहने की उम्मीद नहीं की जा रही है, को बरकरार रखा गया है।

इससे पूर्व 2021 के चुनाव में लगातार दो कार्यकाल बिता चुके किसी भी विधायक को मैदान में न उतारने की पार्टी की नीतियों का हवाला देते हुए सीपीएम ने बेहद सक्षम पूर्व वित्त मंत्री डॉ. टी. एम. थॉमस इसाक को इस बार टिकट नहीं दिया था। यह सब भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में विचित्र लग सकता है, जहाँ पर चुनावी जीत का इस्तेमाल अक्सर प्रशासनिक अक्षमता को दूर करने के लिए किया जाता है, और सफल कार्यकाल से व्यक्तिगत वाहवाही लूटने और पद पर बने रहने का अधिकार मिल जाता है। इसका परिणाम अक्सर राजनीतिक अहंकार और/या लापरवाही में नजर आता है। या तो मतदाताओं को हल्के में ले लिया जाता है और कॉर्पोरेट मीडिया उसके अनुसार राजीतिज्ञों को बदनाम करने या उनके महिमामंडन में लग जाता है।

इनमें से कोई भी इस बार केरल में नहीं हो रहा है। एक ऐसे राज्य में जहाँ मानसून से भी तेजी से सत्ता विरोधी लहर उठने लगती है, और जहाँ यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट(यूडीएफ) और एलडीएफ वैकल्पिक तौर पर हर पांच वर्षों के बाद सरकार बनाते हैं, शासन में इस अचानक से आई इस निरंतरता को वरदान और अभिशाप दोनों ही तरह से देखा जा रहा है। यह एक वरदान है क्योंकि एलडीएफ की नीतियों को अब और भी मजबूती से लागू किया जा सकता है और प्रशासन को लंबे समय के बाद जाकर एक बेहद आवश्यक स्थिरता हासिल होने जा रही है।

ठीक इसी वक्त, लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के नुकसान भी दिखने शुरू होने लगते हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार और संभावित राजनीतिक गतिरोध से बेहद सचेत तरीके से बचाव की जरूरत होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि केरल में सीपीआई(एम) ने शायद इसकी काट खोज ली है। मंत्रालय और विधानसभा में नए खून को शामिल कर इसका इरादा पार्टी के भीतर से एक वैकल्पिक नेतृत्व को सामने लाने का है, जो इस कार्यकाल के खत्म होते-होते लोक प्रशासन के मामले में मूल्यवान अनुभवों के मामले में पारंगत हो चुका होगा। पार्टी नहीं चाहती कि पिछले सत्ताधारी प्रतिष्ठान को बरकरार रखा जाये, ताकि सत्ता-विरोधी लहर को बेअसर किया जा सके। हालाँकि सरकार दोबारा से निर्वाचित हुई है, किंतु लोगों को ऐसा अहसास कराया जायेगा कि यह एक नई शुरुआत हुई है, भले ही पुरानी नीतियों को ही आगे बरकरार रखा जायेगा।

भारत में अन्य राजनीतिक दलों के विपरीत केरल में सीपीआई(एम) सरकार एक और कार्यकाल को अपनेआप में एक अंत के रूप नहीं देख रही है, बल्कि पार्टी संगठन को और अधिक विस्तारित करने और समाज को नीचे से उपर तक कायाकल्प करने के साधन के तौर पर मान रही है। विधानसभा सीटों और मंत्रिमंडल में स्थान को संसदीय व्यवस्था में काम करने के लिए हासिल अवसरों के तौर पर लिया जाना चाहिए, न कि सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों के लिए शानदार पदोन्नति के तौर पर। पार्टी को व्यक्तिगत राजनीतिज्ञ से उपर रखना कुछ ऐसा है, जिसकी कॉर्पोरेट मीडिया भारतीय राजनीति में देखने की आदी नहीं रही है, जिसमें क्षेत्रीय क्षत्रपों और निरंकुश सुप्रीमो का वर्चस्व हर जगह कायम है।

हालाँकि एक कम्युनिस्ट पार्टी के तौर पर सीपीआई(एम) देश में बाकी के जगहों के अपने पिछले अनुभवों से सीख रही है। एक ऐसी पार्टी के लिए, जिसके पास संविधान में गैर-क़ानूनी घोषित होने की स्थिति में ‘भूमिगत होने’ का भी प्रावधान हो, उसके लिए मुश्किल घड़ी में वैकल्पिक नेतृत्व को तैयार रखना उसके अस्तित्व को बनाये रखने का प्रश्न बन जाता है। केरल में सीपीआई(एम) के फैसले को तब तक पूरी तरह से आत्मसात नहीं किया जा सकता है जब तक कि इसे पश्चिम बंगाल के अनुभव के खिलाफ राहत के तौर पर नहीं बिठाया जाता – पूर्व के लाल दुर्ग जहाँ कम्युनिस्टों ने करीब साढ़े तीन दशकों तक लगातार शासन किया हो- और उन इससे उत्पन्न चिंताओं और सबक से सीखने के तौर पर।

पश्चिम बंगाल में सत्ता से बाहर होने के एक दशक के भीतर ही, एक समय की शक्तिशाली सीपीआई(एम) को राज्य की विधानसभा में एक भी सीट पर प्रतिनिधित्व करने से वंचित कर दिया गया है। इस दुर्भाग्यपूर्ण चुनावी सफाए और 2008 के बाद से ही जारी इस निरंतर राजनीतिक गिरावट के दौर में कई कारकों का योगदान रहा है, जिनमें से सबसे शक्तिशाली कारक, पूर्ववर्ती सीपीआई(एम) के नेतृत्ववाली वाम मोर्चे की सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर सत्ता-विरोधी लहर रही है। बंगाल की राजनीति में मोर्चे के प्रभुत्व ने इसके निर्लज्ज और अवसरवादी राजनीतिक विरोधियों को कपटपूर्ण चलताऊ मुहावरों को इसके खिलाफ चलाने का अवसर प्रदान किया, जैसे कि ‘कम्युनिस्ट जब तक इस दुनिया से उठ नहीं जाते, तब तक पदों से चिपके रहते हैं।’ साढ़े तीन दशकों के कार्यकाल के दौरान पार्टी का एक वर्ग, कतिपय मंत्रियों, विधायकों और स्थानीय पार्टी नेताओं के प्रति कुछ हद तक लापरवाह हो गया था, जो कहीं न कहीं अपने-अपने पदों बने रहते हुए भी निष्क्रिय हो गये थे। इतना ही नहीं बल्कि इसके द्वारा चलाए गये भूमि सुधारों के बेहद सफल कार्यक्रम, त्रि-स्तरीय पंचायती राज के विकेंद्रीकरण और सामाजिक सौहार्द्य की उपलब्धि भी उसके विरोधियों के लिए मायने नहीं रहीं, जिसके पास अब वामपंथियों को पछाड़ने के लिए एक प्रभावी डंडा मिल गया था। 

इसका यह मतलब कत्तई नहीं कि सीपीआई(एम) के पास सक्षम और लोकप्रिय मंत्री नहीं थे – वो चाहे वृद्ध हो या युवा – उनमें से कुछ ने तो अपनी वैयक्तिक जीवन में भ्रष्टाचार मुक्त होने और जनता के प्रति समर्पण भाव की वजह से उल्लेखनीय मुकाम हासिल कर लिया था। लेकिन इस सबके बावजूद नेतृत्व के भीतर स्थिरता के मुद्दे को कॉर्पोरेट मीडिया द्वारा निरंतर ‘जड़ता’ के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता रहा। वाम-विरोधी ताकतों द्वारा उन वरिष्ठ मंत्रियों, जिनको अपने पद पर अक्सर अपनी खुद की अनिच्छा और गिरते स्वास्थ्य के बावजूद बने रहना पड़ा, के खिलाफ राजनीतिक दुष्प्रचार अभियान चलाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। इसका कुल नतीजा यह निकला कि वैकल्पिक नेतृत्व की नई फसल को उभरने में जो आदर्श समय लगना चाहिए था, उसकी तुलना में कहीं अधिक समय लग रहा है।   

साठ के दशक के उत्तरार्ध और सत्तर के दशक की शुरुआत में अस्थिर संयुक्त मोर्चा सरकारों की यादों  और जिस प्रकार से कम्युनिस्टों के खिलाफ लक्षित राजनीतिक हिंसा को निर्धारित किया गया था, उसने बंगाल में सीपीआई(एम) को इस बात के आश्वस्त कर दिया था कि वाम मोर्चे की सरकार को बनाए रखने के लिए लंबे संघर्ष से निर्मित जनता के हथियार को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। नब्बे के दशक में दक्षिणपंथी ताकतों के लगातार उभार और नवउदारवादी हमले द्वारा वाम मोर्चा सरकार को अस्थिर करने की निरंतर कोशिशों के चलते रक्षात्मक अचेतनता लगातार बढ़ने लगी थीई। शासन चलाने के लिए नवपरिवर्तनों और नेतृत्व प्रदान करने की रफ्तार में कहीं न कहीं सुस्ती बनी रही और जिस आवश्यक गतिशीलता की जरूरत थी वह भोथरी पड़ चुकी थी।

यही वह दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्षेपवक्र है जिससे केरल में सीपीआई(एम) अब बचने की कोशिश में है, क्योंकि वह एक बार फिर से सत्ता आ गई है। पार्टी के भीतर संकीर्णतावाद से मुकाबला करने के लिए नेतृत्व में अनिवार्य बदलाव और सफल नेताओं तक को कूलिंग-ऑफ की अवधि में रखना इसके उपकरण हैं। और ठीक इसी दौरान, पार्टी सदस्यों के बीच में राजनीतिक अवसरों को लोकतांत्रिक बनाने और नए नेताओं की खेप को तैयार करने की निरंतर प्रक्रिया के तौर पर भी देखा जा सकता है। पार्टी अपने पिछले रिकॉर्ड के भरोसे ही नहीं बैठे रहना चाहती है, बल्कि वह अपने भविष्य पर भी पर्याप्त निवेश कर रही है। यह बंगाल की गलतियों को दोबारा से न दुहराने या अपने विपक्षियों को जवाबी हमले के लिए कोई गोला-बारूद नहीं मुहैय्या कराने के प्रति दृढ प्रतिज्ञ है। के.के. शैलजा को मंत्रिमंडल से नहीं ‘हटाया’ गया है, उन्हें और उनके जैसे अन्य नेताओं को शायद भविष्य में पार्टी और सरकार के भीतर और भी बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार किया जा रहा है। इस पूर्वानुमान की पुष्टि करने के लिए एक बढ़िया उदाहरण, पी. राजीव के राजनीतिक जीवन पर गौर किया जा सकता है। राजीव ने राज्यसभा में केरल से सीपीआई(एम) के मनोनीत सदस्य के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान एक बेहतरीन सांसद के रूप में प्रसिद्धि हासिल की थी। इतनी अधिक कि जब उन्हें एक और राज्य सभा का कार्यकाल नहीं दिया गया, जिसके वे निश्चित तौर पर हकदार थे तो अन्य राजनीतिक दलों तक ने इस बारे में तीखी नाराजगी व्यक्त की थी। इसके बजाय पार्टी द्वारा उन्हें वापस बुलाकर उनके गृह राज्य में जिला कमेटी के सचिव के तौर पर सेवा का करने के लिए नियुक्त कर दिया गया गया था। इस दफा उन्हें एलडीएफ मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है।

शैलजा और राजीव जैसे लोगों के लिए, मंत्री पद, संसद की सदस्यता या ऐसे मामलों में पार्टी कमेटियों में नेतृत्वकारी भूमिका तो मात्र पार्टी द्वारा सौंपे गए राजनीतिक कार्यभार हैं। जिस प्रकार से समाज के रूपांतरण का बड़ा लक्ष्य कभी नहीं बदलता, उसी प्रकार से आम जन के लिए काम करने का उद्येश्य हमेशा अपरिवर्तित बना रहता है। इनमें से किसी ने भी इन मामलों पर जरा सी भी नाराजगी नहीं व्यक्त की है। ऐसा इसलिये क्योंकि वे खुद को पार्टी के नेताओं या कार्यकर्ताओं के तौर पर नहीं देखते हैं, बल्कि सबसे पहले खुद को पार्टी का हिमायती मानते हैं – जो पार्टी के कार्यभार को अपनी बेहतरीन क्षमता के साथ पूरा करने के प्रति ऊर्जा से लबरेज रहते हैं। 

आणविक राजनीति के इस युग में, जहाँ पहचान के युद्ध निरंतर राजनीतिक विमर्श को आकार दे रहे हों, ऐसे में वर्गीय राजनीति को करने के लिए सामूहिक एवं अनुशासित दृष्टिकोण की आवश्यकता पड़ती है, जिसे के.के. शैलजा और पी. राजीव जैसों के कार्यों से सर्वश्रेष्ठ तरीके से प्रस्तुत किया गया है। पी. राजीव के शब्दों में कहें तो, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई नेता कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, वे हमेशा पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं, न कि पार्टी उनका। केरल में सीपीआई(एम) बंगाल के अनुभव से मिले सबक को बेहद गंभीरता से ले रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल में सीपीआई(एम) सहित भारत में मौजूद अन्य वाम-मार्गी राजनीतिक दलों को भी आज अपनी किताब से एक या दो सबक लेने की आवश्यकता है।

इस लेख को अंग्रेजी में इस लिंक के जरिए पढ़ सकते हैं

Lessons from Bengal: CPI(M) in Kerala Seeking to Avoid Pitfalls of Being in Power for Long

CPIM Kerala
Pinarayi Vijayan
kerala assembly
Kerala Cabinet Ministers
KK Shailaja
LDF

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