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राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
लीबिया में युद्ध कभी खत्म नहीं होगा
2011 में नाटो की ओर से जारी युद्ध, जिसने लीबिया को अस्थिर करने में अपनी भूमिका निभाई थी, में खुद की भूमिका को लेकर यूरोप ने कोई जिम्मेदारी लेने से इन्कार कर दिया है। इसके बजाय इसने मिलिशिया का इस्तेमाल कर लीबिया में शरणार्थी संकट के सैन्यीकरण करने में अपनी हिस्सेदारी की है।
विजय प्रसाद
31 Jan 2020
Libya

जनरल खलीफा हफ़्तार और उसकी लीबियन नेशनल आर्मी (एलएनए-LNA) ने आंशिक रूप से लीबिया की राजधानी त्रिपोली की घेराबंदी के काम को जारी रखा है। एलएनए ने न सिर्फ त्रिपोली को आतंक की स्थिति में रख छोड़ा है बल्कि लीबिया का तीसरा सबसे बड़ा शहर मिसरता भी इसके हमले की जद में है।

त्रिपोली और मिसरता दोनों शहरों का संचालन गवर्नमेंट ऑफ़ नेशनल एकॉर्ड (जीएनए) के हाथों में हैं, जिसे संयुक्त राष्ट्र का समर्थन हासिल है, और उससे भी कहीं अधिक मजबूती से तुर्की की ओर से।

इसके बाद दूसरा सबसे बड़ा शहर बेन्ग़ाज़ी है, जिसकी कमान हफ्तार के एलएनए के हाथ में है। हफ़्तार के एलएनए संगठन को सऊदी अरब का वरदहस्त प्राप्त है। इसको लेकर हमेशा से संदेह की बू आती रही है कि हफ़्तार अपने आप में एक पुराना सीआईए का एजेंट रहा है, जिसका कई दशक से लैंग्ले, वर्जीनिया में सीआईए मुख्यालय की छत्रछाया में अड्डा रहा है। इस अंतहीन नाटो युद्ध ने अभी इस देश को जो कुछ देने के नाम पर किया है वह यह है कि लीबिया को आज पराये लोगों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए युद्ध के मैदान में तब्दील कर दिया गया है। इसने लीबिया को आज उस बहुआयामी खेल में शतरंज की बिसात बना डाला है जिसके बारे में समझा सकना बेहद मुश्किल है और ये खत्म कब होगा यह कहना उससे भी अधिक कठिन है।

एलएनए बनाम जीएनए

19 जनवरी को संयुक्त राष्ट्र और जर्मन सरकार ने बर्लिन में लीबिया के प्रश्न को लेकर एक सम्मेलन का आयोजन किया था। मजेदार तथ्य यह है कि जो दो गुट लीबिया में आपस में लड़-कट रहे हैं, वे दोनों ही बर्लिन में उस दौरान मौजूद थे, लेकिन उन्होंने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया। एलएनए के जनरल हफ्तार और जीएनए के फायेज़ सेर्राज अपने-अपने होटलों में आराम फरमा रहे थे, उन्हें जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल और संयुक्त राष्ट्र के लीबिया में प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त घासन सलामे से ब्रीफिंग का इन्तजार था।

2012 में यूएन ने घोषणा की थी कि ऐसे किसी भी सम्मेलन का आयोजन नहीं किया जाएगा जो अपने आप में “समावेशी” चरित्र का न हो, और वार्ता की मेज पर उस मसले के सभी हितधारक शामिल न हों।

बहरहाल, इस पूरी भागदौड़ का मकसद यह नहीं था कि लीबिया के भीतर कोई ऐसा समझौता हो जाये कि लीबिया के भीतर हथियारों और अन्य प्रकार की लोजिस्टिक्स व्यवस्था की विदेशों से आवक पर रोकथाम लग सके। "हम लीबिया के हथियारबंद संघर्षों या उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बचने को लेकर वचनबद्ध हैं।" बाहरी दलों को मंजूर है "और बाकी के भी सभी अंतरराष्ट्रीय भागीदारों से इसी प्रकार की वचनबद्धता को दोहराने का आग्रह करते हैं।"

अब सभी पक्षों के बाहरी समर्थकों का अर्थ हुआ इस समझौते के हस्ताक्षरकर्ता मिस्र, फ्रांस, रूस, तुर्की और संयुक्त राज्य अमेरिका। अब आप खुद कल्पना कर सकते हैं कि कौन इस बात को गंभीरता से लेने जा रहा है, शायद कोई भी नहीं।

बर्लिन सम्म्मेलन के तुरंत बाद जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल इस्तांबुल की ओर दौड़ पड़ीं, ताकि जिस समझौते को उन्होंने तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन के साथ किया हुआ था, उसे मजबूती दी जा सके, जो उस समय भागकर अल्जीरिया यह कहने गए थे कि वे लीबिया में बाहरी हस्तक्षेप को नापसन्द करते हैं।

अकेले एर्दोगन नहीं हैं जो इस बात से हक्के-बक्के दिखाई पड़ रहे हैं, बल्कि वे सभी नेतागण जो बर्लिन आये हुए थे, उनकी भी टिप्पणियां कुछ इसी प्रकार की हैं। उनका कहना था, आपको लीबिया से बाहर जाना है तो आप निकल लो, लेकिन हमें जिस प्रकार से उचित लगेगा हम इसमें शामिल रहेंगे। तुर्की ने जीएनए को हथियारों और अन्य लॉजिस्टिक के सिलसिले में मदद दे रखी है, और इसके साथ ही इसने जीएनए-समर्थित मिलिशिया की मदद के लिए सैकड़ों की संख्या में सीरियाई जिहादियों को लीबिया में प्रवेश कराने में मदद भी पहुँचाई है।
 
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने एक बयान जारी किया है जिसमें इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि जो डील हुई है उसका कोई मोल नहीं है। अपने नोट्स में संयुक्त राष्ट्र ने कहा “पिछले दस दिनों के दौरान पाया गया है कि ढेर सारे मालवाहक जहाजों और अन्य उड़ानों को लीबिया के हवाई अड्डों पर उतरते देखा गया है। जो विभिन्न गुटों को देश के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में आधुनिकतम हथियारों, बख्तरबंद वाहनों, सलाहकारों और लड़ाकू विमानों के साथ मुहैय्या कराएँगे।"

इस बयान में उन देशों के नामों का उल्लेख नहीं किया गया है जिन्होंने इस व्यापार निषेध का उल्लंघन किया है, लेकिन सभी को पता है कि वे कौन से देश हैं।

अपने आकाओं का पीठ पर मजबूत हाथ होने के कारण उत्साह से लबरेज हफ्तार शक्तियों ने पिछले कुछ दिनों से मिसराता के बाहरी इलाके में जीएनए और इसके मिश्रित मिलिशिया समूहों के साथ युद्ध छेड़ रखा है। वहीं एलएनए ने अल-विश्खा में मोर्चा सम्भाल रखा था, लेकिन उसने भी अबू गरीन पर धावा बोल रखा है, जो मिसरता के रास्ते में पड़ता है।

जैसा कि जीएनए सेना के प्रवक्ता मोहम्मद गुनुनु ने रविवार को कहा है कि युद्धविराम का सम्मान किया जाना चाहिए था, लेकिन इसका उल्लंघन किया जा रहा है। हफ्तार के प्रवक्ता अहमद अल-मिस्मारी ने ऐलान किया है कि लीबिया के लिए किसी भी राजनीतिक समाधान का कोई रास्ता नहीं है, इसका एकमात्र समाधान "बंदूकों और गोला बारूद” से होकर गुजरता है। इस बयान से साफ़ पता चलता है कि इस युद्ध का अंत संयुक्त राष्ट्र या बर्लिन में जाकर खत्म नहीं होने जा रहा है। इसे मिसरता और त्रिपोली में ही खत्म करना होगा।

तुर्की बनाम सऊदी अरब

बरसों पहले जब यह साफ़ हो गया था कि लीबिया के लोग, जिनकी नजदीकी मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ है और वे सत्ता में आ सकते हैं, तो सऊदी अरब ने उनके खिलाफ अपनी मुहिम शुरू कर दी थी। सउदी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे किसी और मुस्लिम ब्रदरहुड को उत्तरी अफ्रीका या पश्चिम एशिया में सत्ता में आने को बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं।

इसे सऊदी के कतर पर लगाये गए प्रतिबंधों में, ट्यूनीशिया में सऊदी हस्तक्षेप में, मिश्र में हस्तक्षेप कर मुस्लिम ब्रदरहुड के मोहम्मद मोर्सी को हटाने में और अब हफ्तार को सऊदी के समर्थन से साफ़ देखा जा सकता है कि सऊदी का इरादा इस क्षेत्र में किसी भी तरह से मुस्लिम ब्रदरहुड से पीछा छुड़ाने का रहा है।

तुर्की और कतर मुस्लिम ब्रदरहुड के मुख्य प्रायोजक रहे हैं; जिसमें क़तर के महत्वाकांक्षाओं पर तो सऊदी अरब ने सेंध मारने में सफलता प्राप्त कर ली है लेकिन यह अभी तक तुर्की को रस्सियों में बांध पाने में सफल नहीं हो सका है।

लीबिया में जारी युद्ध में अगर यूरोपियों के बे-सिरपैर के हस्तक्षेप के परे हटकर देखें तो आप पायेंगे कि सऊदी अरब और तुर्की के बीच युद्ध जारी है, जिसमें इन दोनों शक्तियों के बीच रूस एक रोचक भूमिका निभा रहा है।

न तो सऊदी अरब और न ही तुर्की क्रमशः एलएनए और जीएनए के अपने समर्थन जारी रखने से पीछे हटने जा रहे हैं। कोई भी इस मुद्दे को लेकर सार्वजनिक तौर पर कोहराम मचाने जा रहा है, हालांकि सभी इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि जबसे नाटो ने 2011 से लीबिया में प्रवेश किया है, तभी से इस कभी खत्म न होने वाले युद्ध की स्थिति के पीछे यही दोनों ताकतें काम कर हैं जिन्होंने संघर्ष को इस भयावह चरण में पहुंचा डाला है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसकी गणना की है। अप्रैल के बाद से, अकेले त्रिपोली में 220 स्कूल बंद पड़े हैं और कम से कम 1 लाख 16 हजार बच्चे बिना शिक्षा के रह रहे हैं। स्कूलों,  विश्वविद्यालयों और अस्पतालों में काम के घंटे या तो कम हो चुके हैं या बंद पड़े हैं।

तेल और शरणार्थी

अप्रैल 2019 में हफ्तार ने त्रिपोली की ओर अपने कदम बढाए थे। उसने पाया कि उसकी पीठ पर सिर्फ सबसे ताकतवर शक्तियों का हाथ ही नहीं है, बल्कि उसने पहले से ही कई तेल के ठिकानों को अपने कब्जे में ले लिया है और त्रिपोली की सरकार को निचोड़ कर रख छोड़ा है।

शुरुआती कुछ हफ्तों में उसका नाटकीय तौर पर त्रिपोली की ओर भागकर पहुंचना और फिर राजधानी के बाहरी इलाके में ठिठक जाना, काफी कुछ इशारा करता है। वह एक जिद्दी और बेपरवाह की तरह बर्ताव कर रहा है जिसे इस बात की कोई परवाह ही नहीं कि उसके द्वारा छेड़े गए इस युद्ध के चलते सामाजिक जीवन में सिर्फ थकाव और घिसाव ही होने जा रहा है, जिसकी शुरुआत 1990 के दशक में हुई थी और जो 2011 में नाटो युद्ध के बाद से तेज ही हुआ है।

19 जनवरी को एलएनए और उसके सहयोगियों ने शरारा और अल फील ऑयल फील्ड पर कब्ज़ा कर लिया है। ये दोनों समूचे लीबियाई तेल उत्पादन के एक तिहाई तेल का उत्पादन करते हैं, जबकि शरारा इस देश का सबसे बड़े तेल उत्पादन का क्षेत्र है।

पूर्व के 10 लाख बैरल से अधिक तेल उत्पादन की तुलना में आज लीबिया में तेल उत्पादन 3 लाख बैरल प्रति दिन तक गिर चुका है। त्रिपोली में सरकार द्वारा नियंत्रित- लीबियाई नेशनल ऑयल कंपनी को अब लीबिया से तेल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने पर मजबूर होना पड़ा है।

मीठे लीबियाई तेल पर निर्भर यूरोप के लिए यह किसी झटके से कम नहीं है, जो इसके अलावा ईरानी और रुसी ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर रहता चला आया है- इन दोनों पर अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते पूर्ण रोक लगी हुई है।

यूरोपीय पाखंड का नमूना

यूरोप को तेल चाहिए, लेकिन शरणार्थी मंजूर नहीं। 2 जुलाई 2019 को ताजौरा में शरणार्थी बंदी केंद्र पर एलएनए द्वारा की गई बमबारी को लेकर हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की ओर से एक रिपोर्ट जारी की गई है। एलएनए विमान द्वारा किये गए उस हमले में 53 प्रवासी और शरणार्थी मारे गए थे, जो अल्जीरिया, चाड, बांग्लादेश, मोरक्को, नाइजर और ट्यूनीशिया से आये थे।

जेट द्वारा काम्प्लेक्स में बम गिराए जाने के बाद "हर जगह लाशें बिखरी हुई थीं, और शरीर के चीथड़े मलबे के नीचे से चिपककर लटक रहे थे। चारों और [था] खून ही खून।" जो प्रवासी और शरणार्थी जिन्दा बच गए थे, वे परिसर में ही रुके रहने को मजबूर थे। चार दिन बाद जाकर उन्होंने अपनी भूख हड़ताल शुरू की। इस बीच जुलाई 2019 के बाद से कई हत्याएं हो चुकी हैं, जिनमें मारे जाने वाले लोग मुख्य तौर पर शरणार्थी थे। जैसे ही लीबियाई समुद्र तट या त्रिपोली में बनाए गए कई बंदी गृहों से किसी शरणार्थी ने निकल भागने की कोशिश की, सुरक्षा गार्डों के द्वारा उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है। इन बंदी गृहों में हिरासत में लिए गए शरणार्थियों और प्रवासियों की कुल संख्या का कोई उचित ब्यौरा नहीं रखा गया है।

लीबिया के भीतर ही इन शरणार्थियों और प्रवासियों को रोके रखने के लिए यूरोपीय संघ (ईयू) त्रिपोली सरकार और मिलिशिया समूहों को धन मुहैय्या कराती है, जबकि वह चाहे तो उन्हें भूमध्य सागर पार करने दिया जा सकता है। यूरोप ने 2011 में नाटो युद्ध में अपनी भूमिका को लेकर किसी प्रकार की जिम्मेदारी नहीं ली है, जिसके चलते लीबिया पूरे तौर पर अस्थिर हालात में पहुँच चुका है। इसके बजाय इसने मिलिशिया का इस्तेमाल लीबिया में शरणार्थी संकट के सैन्यीकरण करने में किया है।

यूरोपीय संघ के द्वारा चलाए गए ऑपरेशन सोफिया ने यूरोपीय जहाजों को भूमध्य सागर में उतारने का काम किया था, जिससे लीबिया से यूरोप में तेल और शरणार्थी की तस्करी को रोका जा सके। एक बार फिर से इस पालिसी को दोबारा चालू करने में दिलचस्पी दिखाई जा रही है।

बर्लिन में यूरोपीय यूनियन के उच्च प्रतिनिधि जोसेफ बोरेल ने स्यूडडूचेस जीइतुंग को बताया है कि "लीबिया एक कैंसर है, जिसके मेटास्टेस (कैंसर की किस्म का परिवर्धित रोग) पूरे क्षेत्र में फैल चुके हैं।" इस संकट पर यूरोप का दृष्टिकोण है: किस प्रकार से इस संकट को रोककर रखा जाये और इसे लीबियाई सीमा के भीतर ही रहने के लिए मजबूर किया जाये। यह बेहद स्तब्धकारी बयान है।

‘मुझे कोई बीमारी नहीं है’

करीब सौ साल पहले लीबिया के इतालवी उपनिवेशवाद के खिलाफ चल रहे संघर्षों के बीच में, कवि रजब हमाद बुहविश अल-मिनिफी ने अपने समाज की पीड़ा के बारे में एक कविता “मा बी मारद” (“कोई बीमारी नहीं लेकिन यह स्थान है”) की रचना की थी। यह वो कविता है जिसका पाठ अक्सर किया जाता है, लीबियाई होंठों से यह कविता कभी दूर नहीं जा पाती है, जिनका भी खुद के लंबे और कठिन इतिहास से परिचय है।

कविता में अक्सर जो पंक्ति दोहराई जाती है वह है, "मा बी मारद घेर मारद अल-एगैला" अर्थात ("मुझे कोई बीमारी नहीं है लेकिन यह स्थान एगैला का घर है"।) आज के लीबिया के लिए यह पूरी तरह से फिट बैठता है, वे लोग जिन्हें युद्ध ने बर्बाद कर डाला है और जो कभी खत्म नहीं होना जा रहा, वे लोग जो तेल और भय के तले दफन कर दिए गए हैं, वे लोग जो अपने घरों को तलाश रहे हैं, जिनसे वे छीन लिए गए हैं।

लेखक भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं। आप स्वतंत्र मीडिया संस्थान प्रोजेक्ट, ग्लोबट्रॉट्रर में फेलो लेखन और मुख्य संवाददाता के रूप में सम्बद्ध हैं। बतौर लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक और ट्राईकांटिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

यह लेख स्वतंत्र मीडिया संस्थान के एक प्रोजेक्ट से सम्बद्ध, ग्लोबेट्रॉटर द्वारा निर्मित किया गया था।


सौजन्य : इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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