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गरीबी, भूख और लॉकडाउन
आर्थिक बहाली लाने और आर्थिक बदहाली से बचाने, दोनों का ही तकाजा है कि लॉकडाउन के दौरान राजकोषीय हस्तांतरणों के जरिए, मेहतनकशों की आमदनियों को बनाए रखा जाए। 
प्रभात पटनायक
25 May 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
गरीबी, भूख और लॉकडाउन
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

नरेंद्र मोदी ने, 24 मार्च 2020 को एलान किया था कि चार घंटे के बाद से, देश भर में पूर्ण लॉकडाउन लागू हो जाएगा! यह देशव्यापी लॉकडाउन मई के आखिर तक चलने जा रहा था। इसके बाद भी स्थानीय लॉकडाउन तो बने रहे पर, देशव्यापी आम लॉकडाउन नहीं हुआ। लॉकडाउन से करोड़ों मेहतनकश गरीबों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इनमें से प्रवासी मजदूूरों की तकलीफों की तरफ तो सारी दुनिया का ध्यान भी खिंचा। भारत में लागू किए गए इस लॉकडाउन की खासियत यह थी कि दुनिया भर में करीब-करीब बाकी हर जगह पर, यहां तक कि ट्रम्प के राज में अमरीका तक में जो किया गया था उसके विपरीत, भारत में लॉकडाउन के चलते अपनी आमदनियां छिनने के लिए जनता को, चंद विशेष रूप से लक्षित समूहों को दी गयी बहुत ही मामूली राशियों के अलावा, कोई मुआवजा दिया ही नहीं गया। इस तरह, इस लॉकडाउन के फैसले के जरिए गरीब मेहनतकशों को आयहीनता, कंगाली तथा भूख के मुंह में धकेल दिया गया था, जिससे से वे उस लॉकडाउन के उठाए जाने के महीनों बाद भी उबर नहीं पाए थे।

इस धक्के से उबर न पाने की इस परिघटना को ‘‘हंगर वॉच’’ नाम का एक सर्वे दस्तावेजीकृत करता है। पिछली अक्टूबर में हुआ उक्त सर्वे, अनेक सिविल सोसाइटी संगठनों द्वारा किया गया था। यह सर्वे किसी प्रतिनिधि नमूने के आधार पर नहीं किया गया है। यह सर्वे संबंधित लोगों के खर्चे के आंकड़े जमा करने की कोई कोशिश भी नहीं करता है। इस सर्वे में तो सिर्फ संबंधित लोगों से, जिनका चयन भी सर्वेक्षणकर्ता संगठनों की लोगों तक पहुंच के माध्यम से ही हुआ है, लोगों से अपने अनुभव बताने के लिए कहा जा रहा था। लोगों के ये अनुभव, बहुत कुछ बताने वाले हैं।

सर्वे में शामिल हुए करीब 4000 लोगों में से आधे से ज्यादा (53.5 फीसद) ने बताया कि अक्टूबर के महीने में उनके परिवार की गेहूं तथा चावल की खपत, मार्च के मुकाबले कम रही थी। अपने परिवार की दालों, हरी सब्जियों, अंडे तथा मांस की खपत में इस दौरान कमी दर्ज कराने का वालों का अनुपात और भी ज्यादा था। यह इस सर्वे के अन्य प्रेक्षणों के अनुरूप ही था, जो बताते हैं कि उत्तरदाताओं में से 62 फीसद से ज्यादा ने यह दर्ज कराया था कि अक्टूबर में उनके परिवार की मासिक आय, लॉकडाउन से पहले की स्थिति के मुकाबले घटकर थी। इसी के चलते, श्रम शक्ति में भागीदारी की दर भी, लॉकडाउन के पहले के दौर के मुकाबले बढ़ गयी थी। अपने परिवार की बिगड़ती माली हालत के चलते, पहले से ज्यादा लोग मेहनत-मजदूरी के काम की तलाश में श्रम शक्ति में शामिल हो रहे थे।

कोई यह दलील दे सकता है कि उत्तरदाताओं का नमूना तो प्रतिनिधित्वपूर्ण है ही नहीं और इसलिए इस तरह के प्रेक्षणों से कोई सामान्य निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं। बहरहाल, महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर लॉकडाउन के चलते किन्हीं खास ग्रुपों के मामले में ही भूख बढ़ी हो तब भी, ऐसा होना बहुत ही महत्वपूर्ण है। ‘‘हंगर वाच’’ ने खासतौर पर कमजोर समूहों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।

‘‘हंगर वाच’’ के सर्वे से निकला एक और हैरान करने वाला प्रेक्षण यह है कि लॉकडाउन से पहले की तुलना में, अक्टूबर के महीने में अपने उपभोग में कमी दर्ज कराने वाले उत्तरदाताओं का अनुपात, ग्रामीण इलाकों में जितना है, उससे भी ज्यादा शहरी इलाकों में है। यह सामान्यत: जिसकी उम्मीद की जाती है, उसके खिलाफ जाता है। सामान्य रूप से, भीषण भूख और कुपोषण को, शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में ही ज्यादा व्याप्त हुआ माना जाता है, जैसे कि पोषण के पैमाने के हिसाब से गरीबी हमेशा ही ग्रामीण भारत में, शहरी भारत के मुकाबले ज्यादा रहती आयी है। इसलिए, यह देखना हैरान करता है कि लॉकडाउन के चलते शहरी इलाकों में भूख में बढ़ोतरी, ग्रामीण इलाकों से भी ज्यादा रही थी। 

इस पहेली के दो स्वत:स्पष्ट उत्तर हो सकते हैं। पहला तो शहरी गरीबों के पास राशन कार्ड ही नहीं होना ही है, जिसके चलते वे सार्वजनिक वितरण व्यवस्था तक पहुंच से ही वंचित बने रहे हैं। दूसरा उत्तर इस तथ्य में हो सकता है कि मगनरेगा फिर भी, भारी संकट के इस दौर में ग्रामीण आबादी को कुछ सहारा देता है, जबकि शहरी भारत में इस तरह की कोई योजना ही नहीं चल रही थी और इसका मतलब यह था कि उन्हें इस संकट में कोई सहारा हासिल ही नहीं था और इसलिए, उनका संकट और भी गहरा था।

‘‘हंगर वाच’’ की इस रिपोर्ट से कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। लॉकडाउन के दौरान करीब-करीब कोई सहारा ही उपलब्ध नहीं होने के चलते, लॉकडाउन के दौरान ही लोगों का पामाल और बदहाल होना तो, अपरिहार्य था। लेकिन, खास बात यह है कि यह बदहाली बाद तक जारी रही है और लॉकडाउन के खत्म होने के बाद भी तीखी बनी रही है। आम तौर पर तो यही समझा जाता है कि लॉकडाउन से तो उत्पादन में खलल पड़ता है, लेकिन लॉकडाउन के उठाए जाने के बाद तो, उत्पादन को फिर से सामान्य स्थिति में लौट आना चाहिए। लेकिन, ऐसा सोचना उस स्थिति के लिए तो सही होगा, जहां लॉकडाउन के दौरान राजकोषीय ट्रांसफर के जरिए मेहनतकश जनता की आमदनियों को, पहले के स्तर पर बनाए रखा जा रहा हो। लेकिन, भारत के जैसे मामलों में यह मानना सही नहीं होगा, जहां ऐसे हस्तांतरणों के जरिए मेहनतकशों की आमदनियों की हिफाजत नहीं हो रही हो।

इसे समझने के लिए, हम मान लेते हैं कि लॉकडाउन के दौरान, मेहनतकश जनता की आमदनियों को पहले के स्तर पर बनाए रखा जाता है। उस सूरत में उनकी खाद्यान्न तथा अन्य उपभोग मालों की मांग में कमी नहीं होगी। और न ही उन्हें अपनी मांग को बनाए रखने के लिए, अपने ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ाना पड़ता। और इस मांग की पूर्ति विक्रेताओं द्वारा मालों की अपनी इन्वेंटरियां घटाने के जरिए की जा रही होती क्योंकि लॉकडाउन के दौरान उत्पादन तो ठप्प रहा होता। इस सूरत में जब लॉकडाउन उठाया जाता और फिर से उत्पादक गतिविधियों से मजदूरों की आय आने लगती (जिससे राजकोषीय हस्तांतरणों की जरूरत भी नहीं रह जाती), उस सूरत में उपभोग पहले जितना ही बना रहता। इसके अलावा विक्रेताओं की खाली हो गयी इन्वेंटरियां दोबारा भरे जाने से, मांग का स्तर सामान्य से बढ़ जाता और इसलिए उत्पादन पहले से भी ज्यादा हो जाता।

दूसरी ओर, अगर लॉकडाउन के दौरान मेहनतकश जनता की आय शून्य हो जाती है, उस सूरत में उन्हें अपने आवश्यक उपभोग में कटौती करनी पड़ेगी और उपभोग के इस घटे हुए स्तर की भी भरपाई करने के लिए ऋण लेने पड़ेंगे। इसके बाद जब लॉकडाउन उठाया जाएगा, अगर हम यह भी मान लें कि उत्पादन फिर से लॉकडाउन से पहले के स्तर पर लौट आएगा, तब भी मांग में कमी तो हो ही जाएगी क्योंकि लॉकडाउन के दौरान मेहतनकशों ने जो ऋण लिया होगा, उन्हें अपनी कमाई में से उसे ब्याज समेत चुकाना होगा। इसलिए, जब तक इस कर्ज को चुका नहीं दिया जाता है, तब तो मांग फिर से पहले वाले स्तर पर लौटने वाली नहीं है।

लेकिन, ठीक इसी वजह से उत्पादन, जोकि मांग से संचालित होता है, खुद भी पलटकर दोबारा लॉकडाउन से पहले के स्तर पर आने वाला नहीं है। उस सूरत में अर्थव्यवस्था कभी भी पूरी तरह से बहाली कर के उत्पादन तथा उपभोग के पुराने स्तर को हासिल कर ही नहीं पाएगी। इस तरह, ऐसे लॉकडाउन के चलते लोगों को तो बदहाली झेलनी ही पड़ती है क्योंकि न सिर्फ उनकी आमदनियां घट जाती हैं तथा उनका उपभोग लॉकडाउन से पहले के स्तर के मुकाबले घट जाने के बावजूद उनके सिर पर ऋण का बोझ बढ़ जाता है बल्कि कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था की बहाली भी कट-छंटकर ही आती है।

इसलिए, आर्थिक बहाली लाने और आर्थिक बदहाली से बचाने, दोनों का ही तकाजा है कि  लॉकडाउन के दौरान राजकोषीय हस्तांतरणों के जरिए, मेहतनकशों की आमदनियों को बनाए रखा जाए। लेकिन मोदी सरकार ने अपनी घोर विचारहीनता में न सिर्फ ऐसा नहीं किया बल्कि उसने तो मेहनतकशों के विशाल हिस्से की आमदनियों को शून्य पर ही ला दिया। ‘‘हंगर वाच’’ के प्रेक्षण इसीलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे इस  तरह के रुख के नतीजों का साक्ष्य पेश करते हैं।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि अब तक अधूरी पड़ी ढांचागत परियोजनाओं के बैकलॉग पर केंद्र का निवेश, आर्थिक बहाली को उत्प्रेरित करेगा। लेकिन, असली सवाल यह है कि यह उत्प्रेरण मुहैया कराने के लिए, कितना खर्च किया जाने वाला है? अगर यह खर्च, लॉकडाउन के पहले वाले स्तर जितना ही रहता है तो, चूंकि लॉकडाउन के बाद के दौर में मेहनतकशों का उपभोग लॉकडाउन से पहले के दौर के मुकाबले कम ही रहने वाला है क्योंकि इन मेहतनकशों को लॉकडाउन के दौर में बढ़े अपने कर्जों को भी चुकाना होगा, अर्थव्यवस्था में कुल मांग का स्तर पहले से कम ही रहने जा रहा है। इसलिए, उत्पादन का स्तर भी लॉकडाउन से पहले के स्तर से घटकर रहेगा यानी आर्थिक बहाली कटी-छंटी रहेगी। इसलिए, पूरी बहाली के लिए यह जरूरी है कि बुनियादी ढांचे व ऐसी अन्य परियोजनाओं पर खर्चों का स्तर लॉकडाउन से पहले के मुकाबले बढक़र हो, ताकि मेहनतकश जनता से आने वाली मांग में उस कमी की भी भरपाई की जा सके, जो लॉकडाउन के दौरान आमदनियां छिनने के चलतेे बढ़े हुए कर्जों को चुकाने के चलते हो रही होगी।

लेकिन, इससे तो कहीं बेहतर है कि अर्थव्यवस्था को, ढांचागत परियोजनाओं की जगह पर, लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी, मेहनतकशों के हाथों में सीधे नकदी देने के जरिए उत्प्रेरित किया जाता। और ये हस्तांतरण इतने तो होने ही चाहिए कि उत्पाद के लॉकडाउन से पहले वाले स्तर पर, मेहतनकश जनता को उत्पादक गतिविधियों से मिलने वाली आय तथा उनके पक्ष में ये राजकोषीय हस्तांतरण मिलकर, बढ़े हुए ऋण तथा उस पर बने ब्याज के भुगतान के बाद, उनके लिए पहले का उपभोग स्तर सुनिश्चित कर सकें। तभी अर्थव्यवस्था फिर से उत्पाद के अपने पहले वाले स्तर पर लौट पाएगी। दूसरे शब्दों में लॉकडाउन के दौरान मेहतनकशों के पक्ष में ऐसे हस्तांतरण न करने की छाप बाद तक बनी रहने वाली है। अगर आर्थिक बहाली को उत्प्रेरित करना है तो, लॉकडाउन के बाद भी ये हस्तांतरण करने होंगे।

इस तरह के नकदी हस्तांतरण, आर्थिक बहाली को उत्प्रेरित करने का कहीं बेहतर तरीका हैं क्योंकि इस तरह के हस्तांतरण बदहाली को तो दूर करते ही हैं, इसके अलावा उनसे मेहनतकशों के हाथों में आयी क्रय शक्ति, मुख्यत: ऐसे सरल घरेलू तौर पर उत्पादित मालों को खरीदने पर खर्च की जाती है, जिनमें आयात का तत्व अपेक्षाकृत कम होता है। इससे, सरकार के खर्चे की हरेक इकाई से, कहीं ज्यादा घरेलू मांग पैदा होती है और इसलिए कहीं ज्यादा उत्पाद तथा रोजगार पैदा होता है।

इस संदर्भ में सरकार द्वारा किए जाने वाले खर्चे का अर्थ, मजदूरों को मुफ्त खाद्यान्न मुहैया कराने में सरकार के खर्च से नहीं लगाया जा सकता है। मुफ्त खाद्यान्न मुहैया कराना बेशक लाभदायक है, फिर भी इससे अर्थव्यवस्था को कोई उत्प्रेरण नहीं मिलता है क्योंकि खाद्यान्न का यह वितरण तो भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में से, खाद्यान्न निकाले जाने के जरिए ही लागू किया जा रहा होता है। इसलिए, इसके ऊपर से होने वाले नकदी हस्तांतरण ही अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरित करने का काम करते हैं। प्रधानमंत्री के नाम विपक्षी नेताओं के पत्र में सभी बेरोजगारों के लिए, प्रति परिवार 6,000 रु0 महीना के नकद हस्तांतरण की मांग की गयी है। अगर देश के हरेक मेहनतकश परिवार को तीन महीने के लिए इतनी मदद दे भी दी जाए तो, इस पर होने वाला कुल खर्चा सकल घरेलू उत्पाद के 2 फीसद से भी कम ही बैठेगा और इतना खर्चा आराम से किया जा सकता है।

लेकिन, मोदी सरकार तो जितनी विचारहीन है, उतनी ही दब्बू भी है। वह अपने राजकोषीय अनुदारतावाद के ही रास्ते को पकड़े बैठी है, जबकि देश के अर्थव्यवस्था भारी संकट में फंसी हुई है और जनता को भारी बदहाली का सामना करना पड़ रहा है।    

इस लेख को अंग्रेजी में इस लिंक के जरिए पढ़ा जा सकता है।

Lockdown Distress: A Saga of Rising Household Debts, Ebbing Incomes

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