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भारत
राजनीति
दलबदल विरोधी क़ानून का मखौल उड़ाने में अब लोकसभा अध्यक्ष भी शामिल!
जन-प्रतिनिधियों के दल-बदल और खरीद-फरोख्त के रोकथाम के लिए कोई साढ़े तीन दशक पहले दलबदल निरोधक कानून अस्तित्व में आया था। उम्मीद जताई गई थी कि इस कानून के जरिए भारतीय लोकतंत्र इस बीमारी से निजात पा सकेगा, लेकिन ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढता गया। 
अनिल जैन
22 Jul 2021
लोकसभा

भारतीय राजनीति में निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों का दल-बदल या उनकी खरीद-फरोख्त कोई नई बात नहीं है। बहुत पुरानी परिघटना है यह। इस सिलसिले की रोकथाम के लिए ही कोई साढे तीन दशक पहले दलबदल निरोधक कानून अस्तित्व में आया था। उम्मीद जताई गई थी कि इस कानून के जरिए भारतीय लोकतंत्र इस बीमारी से निजात पा सकेगा, लेकिन ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढता गया। 

वैसे भी कहा जाता है कि भारत में तो कानून बाद में बनते हैं, उनकी काट पहले ही खोज ली जाती है। दलबदल निरोधक कानून के साथ भी ऐसा ही हुआ है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान तो दलबदल और सांसदों-विधायकों की खरीद-फरोख्त के ऐसे नए-नए तरीके ईजाद कर लिए गए हैं कि यह कानून अपना अर्थ और प्रासंगिकता लगभग पूरी तरह खो चुका है। 

निर्वाचित सदनों के अध्यक्ष और सभापति भी ऐसे मामलों में दलीय अथवा गुटीय निष्ठा के आधार पर दलबदल निरोधक कानून की मनमानी व्याख्या कर दलबदलुओं को इस कानून से बचाने और दलबदल को बढावा देने में लगे हैं। यहीं नहीं, न्यायपालिका भी अक्सर ऐसे मामलों में इस कानून की अजीबोगरीब व्याख्या करते हुए अपने फैसले सुनाती है। इस सबके चलते सांसदों-विधायकों का दलबदल और खरीद-फरोख्त बदस्तूर जारी है। 

ताजा मामला पश्चिम बंगाल के दो सांसदों का है। तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए शिशिर अधिकारी और सुनील मंडल महीनों पहले दलबदल कर भाजपा में शामिल हुए हो चुके हैं। दलबदल निरोधक कानून के तहत दोनों की लोकसभा सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाना चाहिए। लेकिन दोनों ही अभी तक लोकसभा के सदस्य बने हुए हैं। दोनों ही बाकायदा वेतन भत्ते तथा सांसदों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं का लाभ भी ले रहे हैं। दोनों ने न तो खुद इस्तीफा दिया है और न ही लोकसभा अध्यक्ष ने उनकी सदस्यता समाप्त करने की घोषणा की है। 

तृणमूल कांग्रेस के संसदीय दल के नेता कई दिनों से लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला के समक्ष गुहार लगा रहे हैं कि उनकी पार्टी छोड़ने वाले दोनों सांसदों को दलबदल निरोधक कानून के तहत अयोग्य घोषित कर उनकी सीट को रिक्त घोषित किया जाए। पिछले दिनों जब तृणमूल कांग्रेस संसदीय दल के नेता सुदीप बंदोपाध्याय इस सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष से मिले थे तो अध्यक्ष की ओर से कहा गया था कि वे इस मामले में जल्द ही एक कमेटी बनाएंगे, जो तृणमूल कांग्रेस छोड़ने वाले दोनों सांसदों शिशिर अधिकारी और सुनील मंडल की सदस्यता के बारे में फैसला करेगी। 

लोकसभा अध्यक्ष का यह रवैया स्पष्ट रूप से मामले को लटकाए रखने वाला है क्योंकि दलबदल निरोधक कानून के मुताबिक दलबदल करने वाले किसी सांसद या विधायक की सदस्यता समाप्त घोषित करने का फैसला संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी को करना होता है न कि किसी कमेटी को। हालांकि अपने आश्वासन के मुताबिक लोकसभा अध्यक्ष ने कोई कमेटी नहीं बनाई है, लेकिन लोकसभा सचिवालय की ओर से संसद का मानसून सत्र शुरू होने से ठीक पहले तृणमूल कांग्रेस के इन दो सांसदों के साथ ही आंध्र प्रदेश से वाईएसआर कांग्रेस के एक सांसद रघुराम कृष्ण राजू को एक नोटिस जारी कर जवाब जरूर मांगा गया है।

उल्लेखनीय है कि लोकसभा में वाईएसआर कांग्रेस के मुख्य सचेतक ने अपनी पार्टी के सांसद रघुराम कृष्ण राजू पर पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल रहने का आरोप लगाते हुए लोकसभा अध्यक्ष से उन्हें अयोग्य घोषित करने की मांग की है। हालांकि किसी सांसद का कथित तौर पार्टी विरोधी गतिविधि में शामिल होना उस पार्टी का अंदरुनी मामला होता है और ऐसे मामलों में दलबदल विरोधी कानून लागू नहीं होता है। इसलिए वाईएसआर कांग्रेस के सांसद को नोटिस जारी किया जाने का कोई औचित्य नहीं है। 

तृणमूल कांग्रेस के दोनों सांसदों के बारे में तथ्य यह है कि वे दोनों पार्टी छोड़ चुके हैं। उन्होंने अपने पार्टी छोड़ने और भाजपा में शामिल होने की घोषणा भी सार्वजनिक तौर पर की है, जिसे देश भर के अखबारों ने छापा है और टीवी चैनलों ने दिखाया है। लिहाजा उनके पार्टी छोड़े जाने के बारे में किसी तरह की जांच करने के लिए कमेटी बनाने या उन्हें नोटिस जारी करने की कोई जरुरत ही नहीं है। सुनील मंडल को तो पार्टी छोड़े हुए सात महीने हो चुके हैं। उन्होंने पिछले साल 19 दिसंबर को मिदनापुर में हुई केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रैली में भाजपा में शामिल होने का ऐलान किया था।

इसी तरह शिशिर अधिकारी को भी भाजपा मे शामिल हुए चार महीने हो गए। वे नंदीग्राम में 21 मार्च को हुई अमित शाह की रैली में भाजपा में शामिल हुए थे। इसलिए दोनों के खिलाफ साफ तौर पर दलबदल का मामला बनता है। सुनील मंडल के खिलाफ तो तृणमूल कांग्रेस ने जनवरी के पहले हफ्ते में ही लोकसभा सचिवालय में शिकायत दर्ज करा दी थी। शिशिर अधिकारी के खिलाफ भी अप्रैल महीने में दर्ज कराई जा चुकी है। इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं होने से लोकसभा अध्यक्ष की मंशा पर सवाल उठना लाजिमी है। 

एक सवाल यह भी है कि आखिर ये दोनों सांसद खुद ही इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे हैं? जब शिशिर अधिकारी के बेटे शुभेंदु अधिकारी ने तृणमूल कांग्रेस छोड़ी थी तो उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया था। ऐसे ही शिशिर अधिकारी और सुनील मंडल भी लोकसभा से इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे हैं? 

चूंकि दोनों सांसद इस्तीफा नहीं दे रहे हैं और लोकसभा अध्यक्ष भी उनकी सदस्यता समाप्त घोषित नहीं कर रहे हैं इसलिए यह माना जाना लाजिमी है कि दोनों सांसदों को कहीं न कहीं यह भरोसा है कि उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी और मामला लटका रहेगा। लिहाजा इस्तीफा देने की जरूरत नहीं है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला जिस तरह इस मामले को लटकाए हुए हैं उससे यह भी जाहिर होता है कि उन पर भी कहीं से दबाव है या उन्हें संकेत दिया गया है कि वे मामले को इसी तरह लटकाए रखें।

दलबदल कानून का दुरुपयोग या उसकी अनदेखी का हाल के दिनों में यह कोई नया मामला नहीं हैं। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला जहां दलबदल करने वाले सांसदों को बचा रहे हैं तो राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने चार साल पहले दलबदल निरोधक कानून की मनमानी व्याख्या करते हुए जनता दल (यू) के वरिष्ठ सांसद शरद यादव की सदस्यता आनन-फानन में समाप्त कर दी थी। हालांकि वह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। 

वह मामला यह था कि बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार चला रहे नीतीश कुमार ने जुलाई 2017 में अचानक उस गठबंधन से नाता तोड़ कर भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना ली थी और केंद्र में भी नरेंद्र मोदी सरकार का समर्थन करने तथा अपनी पार्टी जनता दल (यू) के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल होने का ऐलान कर दिया था। नीतीश कुमार उस समय मुख्यमंत्री होने के साथ ही अपनी पार्टी के अध्यक्ष भी थे। 

नीतीश कुमार के इस फैसले से उनकी पार्टी के संसदीय दल के नेता शरद यादव सहमत नहीं थे। शरद यादव ने नीतीश कुमार के फैसले से अपनी असहमति को सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया था लेकिन पार्टी से अलग होने का कोई ऐलान नहीं किया था। मगर जनता दल (यू) की ओर से राज्यसभा के सभापति को लिखित में सूचित किया गया कि शरद यादव ने पार्टी छोड़ दी है, इसलिए दलबदल निरोधक कानून के तहत उनकी राज्यसभा की सदस्यता समाप्त कर दी जाए। 

जनता दल (यू) के इस पत्र के आधार को बनाते हुए ही राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने तुरत-फुरत कार्रवाई करते हुए शरद यादव की सदस्यता समाप्त घोषित कर दी। उन्होंने इस संबंध में न तो शरद यादव को कोई नोटिस दिया और न ही उन्हें बुलाकर उनसे उनका पक्ष जानने की आवश्यक औपचारिकता पूरी की। जबकि दलबदल कानून और संसदीय नियमों के मुताबिक ऐसे मामले में सदन के पीठासीन अधिकारी संबंधित सदस्य को नोटिस जारी उनसे जवाब तलब करते हैं और उसे अपने समक्ष बुलाकर उसका पक्ष सुनते हैं, लेकिन वेंकैया नायडू ने ऐसा कुछ नहीं किया। उनकी इसी एकतरफा कार्रवाई को शरद यादव ने दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। बाद में जब जनता दल (यू) इस मामले को खारिज कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट गया तो सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला हाई कोर्ट से अपने पास बुलवा लिया, जिस पर अभी फैसला होना बाकी है। 

यह तो हुआ संसद और सांसदों का मामला। इसके अलावा हाल के वर्षों में कई राज्यों में दलबदल के जरिए सरकारें गिराने और बनाने का खेल भी खूब हुआ है, जिसमें संबंधित राज्यों के विधानसभा अध्यक्षों ने दलबदल निरोधक कानून की मनमानी व्याख्या कर दलबदलू विधायकों को पूरा-पूरा संरक्षण दिया है। गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय आदि ऐसे ही राज्य हैं, जहां दलबदल के जरिए अल्पमत को बहुमत में बदला गया अथवा जनादेश का अपहरण किया गया है। 

राज्यसभा के चुनाव में ज्यादा सीटें जीतने और विरोधी दलों की सरकारें गिराने के लिए तो गुजरात, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में दलबदल को बढावा देने का बिल्कुल ही अभिनव प्रयोग किया गया। गुजरात और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के कई विधायक अपनी पार्टी और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए और राज्यसभा चुनाव के बाद भाजपा के टिकट पर विधानसभा का उपचुनाव लड़कर फिर विधायक बन गए। 

मध्य प्रदेश में तो इस प्रयोग से भाजपा ने दोहरा लाभ उठाया। वहां उसने न सिर्फ राज्यसभा की एक अतिरिक्त सीट जीती, बल्कि कांग्रेस की सरकार गिरा कर अपनी सरकार भी बना ली। इस खेल में कांग्रेस के जिन विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थामा, उन्हें भाजपा ने विधानसभा का सदस्य न होते हुए भी मंत्री बना दिया। जिन्हें मंत्री नहीं बनाया जा सका, उन्हें किसी न किसी निगम अथवा बोर्ड अध्यक्ष बना कर मंत्री का दर्जा दे दिया गया। ऐसे सभी दलबदलू बाद में उपचुनाव लड़ कर फिर विधानसभा में पहुंच गए। कर्नाटक में जनता दल (सेक्यूलर) और कांग्रेस की साझा सरकार को गिराने के लिए भी यही प्रयोग अपनाया गया था।

इस प्रकार केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद दलबदल निरोधक कानून को लगभग पूरी तरह बेमतलब बनाकर चुनाव प्रणाली को पूरी तरह दूषित कर दिया गया है। दलबदल का खेल नई-नई शक्ल में सामने आ रहा है। यह स्थिति न सिर्फ जनप्रतिनिधियों को भ्रष्ट और बेईमान बना रही है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को भी खोखला कर रही है।

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