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मंडी पावर बनाम कॉरपोरेट पावर : दो महाशक्तियों की टक्कर
मंडियों में भले ही कुछ समस्याएं हों, मंडियां प्रधानतः किसानों के व्यापारिक हितों की सेवा करती हैं और व्यापार में उनकी रक्षा भी करती हैं। अवश्य, उनके जनवादीकरण की आवश्यकता थी। लेकिन सुधारों के नाम पर मोदी इन्हें पूरी तरह दफ़्ना देना चाहते हैं।
बी. सिवरामन
14 Dec 2020
किसान

‘भारत बंद’ के दिन किसानों के साथ वार्ता के लिए अमित शाह द्वारा बुलाई गई आपातकालीन बैठक फेल हो गई और अब किसान आंदोलन फिर एक गतिरोध की स्थिति में है। किसान भी विचार कर रहे हैं कि अगला कारगर कदम क्या हो? और, सभी विश्लेषक अटकलों में व्यस्त हैं कि खेल का अंत कैसे होगा। पर गतिरोध स्वाभाविक है क्योंकि उसकी जड़ें गहरे वर्गीय सवालों में हैं, जिनका हल आसान नहीं।

इस बार किसान उभार एक परंपरागत मुद्दा-आधारित आंदोलन नहीं है। यह लोन माफी, एमएसपी बढ़ाने या उर्वरक जैसे सस्ती लागत सामग्री के लिए संघर्ष की भांति नहीं है। ऐसी मांगें तो कई बार बातचीत के बाद आंशिक या पूर्ण रूप से मान ली जाती हैं। आखिर इस बार ऐसा क्यों नहीं हुआ? दरअसल, इस बार का आंदोलन गांव में ‘पावर अलाइनमेंट’ में निहित है; यह इस बात के लिए टकराव है कि मंडी पावर और कॉरपोरेट पावर के बीच सत्ता का बंटवारा कैसे होगा। इस रस्साकस्सी  में देश का ग्रामीण अभिजात्य तबका सहित व्यापक किसान एक ओर है और मोदी द्वारा समर्थित कॉरपोरेट अभिजात्य दूसरी ओर। शायद इसीलिए सुलह का रास्ता आसान नहीं।

कितनी ताकतवर हैं मंडियां?

मंडियां क्या हैं और मंडी पावर से हमारा अभिप्राय क्या है? हमारे लेख में मंडी के मायने हैं एपीएमसी (APMC)। ये वैधानिक नियंत्रित बाज़ार थे जो राज्यों के अपने-अपने एपीएमसी अध्यादेशों के तहत बने। एपीएमसी ऐक्ट के तहत किसानों को अपना उत्पाद केवल इन मंडियों के माध्यम से बेचना है-मार्केट यार्ड से व्यापारी और कमीशन एजेन्टों को, जो मंडियों में पंजीकृत हैं, और एपीएमसी सेस, कमीशन व अन्य टैक्स भी देना होता है। कुछ अपवादों को छोड़कर अब कृषि उत्पाद के व्यापारियों को उन किसानों से सीधे नहीं खरीदना था, जो एपीएमसी मार्केट यार्ड से बाहर हैं। उन्हें सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य के अनुरूप मंडियों द्वारा तय किये गए दामों पर खरीदना होता।

मंडियों का संचालन ऐसी समितियों द्वारा होना था जिनमें किसानों के चुने हुए प्रतिनिधि होंगे, जो किसी अधिकृत क्षेत्र में एपीएमसी के पंजीकृत सदस्य होंगे। तो, मंडी समितियों में वे ही चुने जाते और अपना वर्चस्व कायम कर पाते, जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं और जिनका जातिगत दबदबा है। कुछ ही समय में एक छोटा मंडी माफिया पैदा हो जाता, और यह मंडियों के सारे मामलों पर वर्चस्व रखता। बाकी, किसानों का बड़ा हिस्सा जो मंडियों के अधीन होता, इन मंडियों के कामकाज और निर्णयों के बारे में कुछ नहीं कह पाता। अधिकतर उस क्षेत्र के बड़े भूस्वामी भी व्यापारी के रूप में कार्य करते। वे ज्यादातर स्थानीय होते, और बिरले ही बाहरी व्यापारी होते। बड़े व्यापारी और कॉरपोरेट, चाहे वे सीधे खरीदें या निर्दिष्ट कमीशन एजेन्टों से, केवल मंडी यार्डों से खरीद सकते और केवल कुछ अपवादों में, बाहर से भी। मस्लन, चीनी एपीएमसी मार्केटों से मुक्त रही है और चीनी मिल सीधे किसानों से गन्ना खरीद सकते हैं। तम्बाकू भी मुक्त है और आईटीसी अपने नीलामी मंच के माध्यम से सीधे किसानों से तम्बाकू खरीद सकता है। इनके अलावा, महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों ने अपने एपीएमसी कानून में बदलाव करके सब्ज़ियों और फलों सहित कुछ अन्य सामग्रियों को एपीएमसी के दायरे से मुक्त कर दिया। इसी तरह कुछ एक्सपोर्ट कम्पनियां, खासकर जैविक खाद्यों का व्यापार करने वाले लाइसेंसधारी व्यापारी भी मुक्त रहे।

मंडियों का सबसे महत्वपूर्ण काम है दाम तय करना और निगरानी करना कि कृषि सामग्री का तय दामों में ही व्यापार हो। व्यापारी किसानों से मंडी यार्डों में, या तो नीलामी के जरिये, या किसान के साथ आपसी द्विपक्षीय मोल-भाव से खरीद कर सकते हैं। मंडियों एमएसपी से कम दाम तय नहीं कर सकते और एमएसपी से आगे वे मंडी सेस, कुछ सरचार्ज या स्थानीय टैक्स जोड़ सकते हैं ताकि प्रशासनिक-खर्च या मंडी विकास के लिए निमार्ण-खर्च जुड़ जाए।

पर असलियत में मंडी केवल व्यापारिक मंच नहीं होते। वे ग्रामीण अभिजात्य वर्ग के लिए सामाजिक-राजनीतिक शक्ति-केंद्र के रूप में विकसित हुए हैं। कुछ मंडी समिति सदस्य, व्यक्तिगत तौर पर साहूकार के रूप में काम करते हैं या किसानों को अन्न उपजाने के लिए पैसा देते हैं, क्योंकि व्यापारी उत्पाद को पूर्व-निर्धारित कम दाम पर खरीदते हैं, जो मार्केट मूल्य से कम होता है। ये अनौपचारिक अर्ध-न्यायिक संस्थाओं के रूप में अथवा गैरकानूनी न्यायालयों के रूप में काम करते हुए किसानों और व्यापारियों के बीच विवाद या किसानों अथवा व्यापारियों के आपसी झगड़े निपटाते हैं। आप यूं कह सकते हैं कि पंचायतों व सहकारी समितियों के साथ मंडियां भी ग्रामीण अभिजात्यों के शक्ति-केंद्रों के रूप में उभरे हैं। पर, राजनीतिक तौर पर मंडी का अभिजात्य वर्ग आम किसानों को अपने प्रभाव में रखता है।

मंडियां ग्रामीण अभिजात्यों और आम किसानों के हितों के संमिलन के प्रतीक भी होते हैं। मंडियों के नींव पर हमला करके मोदी जाने-अनजाने उस सामाजिक संविदा पर हमला कर रहे हैं जो जवाहरलाल नेहरू ने शक्तिशाली उद्योगपतियों और भूस्वामियों के बीच किया था-यानी शहरी तथा ग्रामीण शासकों के बीच। क्या कॉरपोरेट राजनीतिक रूप से इतने मजबूत हैं कि ऐसे संबंध-विच्छेद को संभाल पाएंगे और झेल भी ले जाएंगे? राजनीतिक स्थिरता के लिहाज से इसके दूरगामी परिणाम भयानक होंगे।

भले ही कुछ समस्याएं हों, जैसे कि धनी किसानों अथवा वर्चस्व रखने वाली जातियों के भूस्वामियों का मंडियों में दबदबा; या फिर पैसों के मामले में भ्रष्टाचार और हेराफेरी। पर मंडियां प्रधानतः किसानों के व्यापारिक हितों की सेवा करती हैं और व्यापार में उनकी रक्षा भी करती हैं। अवश्य, उनके जनवादीकरण की आवश्यकता थी। साथ ही, मंडियों के मामलों को संचालित करने में आम छोटे-मझोले किसानों की भागीदारी बढ़ाई जानी थी। पर सुधारों के नाम पर क्रमशः आने वाली सरकारों ने मंडियों की ताकत और भूमिका को खण्डित करना शुरू कर दिया और अब तो मोदी इन्हें पूरी तरह दफ्ना देना चाहते हैं।

तीन कृषि कानूनों के जरिये मंडियों पर मोदी का कुठाराघात-कॉरपोरेटों को लाभ

एपीएमसी व्यवस्था में क्रमशः सुधार की जगह मोदी ने संपूर्ण परिवर्तन की लाइन पकड़ ली, जिससे 3 कृषि कानून लाकर मंडी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। ये तीन कानून कृषि व्यापार प्रबंधन में मंडी व्यवस्था के एकाधिकार को खत्म कर देंगे। न केवल यह निजी व्यापारियों और कॉरपोरेटों को किसानों से सीधे खरीदनी की छूट देंगे, बल्कि यह किसी भी तरीके से किसी भी मंच से, और एमएसपी से पृथक किसी दाम पर खरीदने की छूट देंगे। अनौपचारिक रूप से ये कानून किसानों से सुनिश्चित एमएसपी पर सरकारी खरीद को खत्म कर देंगे। मोदी ने इसे भारतीय कृषि के लिए एक ‘‘वॉटरशेड मोमेंट’’ (“watershed moment”) कहा है और दावा कर रहे हैं कि ये किसानों को बेहतर दाम प्राप्त करने में मदद करेंगे, उपभोक्ताओं को कृषि उत्पादों के तेजी से बढ़ने वाले दामों से बचाएंगे, कॉरपोरेट निवेश बढ़ाएंगे और बिचौलियों की भूमिका समाप्त करेंगे। पर इन सारे मामलों में जो मोदी कह रहे हैं वह ऐतिहासिक रूप से भारत और शेष विश्व में गलत साबित हुआ है; कॉरपोरेट पूंजी ही कृषि व्यापार पर एकाधिकार जमाती है।

मोदी सरकार सहकारी संघवाद (co-operative federalism) की बात करती है। भारतीय संविधान के तहत कृषि स्टेट लिस्ट में आती है और एपीएमसी राज्य सरकारों के अधीन आएंगे। पर मोदी सरकार एपीएमसीज़ की शक्ति को छीनने हेतु कानून बनाकर राज्य सरकारों के अधिकार-क्षेत्र पर चढ़ाई कर रही है। हमारे देश के प्रधान संविधान की धज्जियां उड़ाने के मामले में एक्सपर्ट बन चुके हैं। जहां तक कृषि नीति का सवाल है, सुसंगति मोदी सरकार का गुण नहीं है। जब खुले बाज़ार में किसानों को एमएसपी नहीं मिल रहा था और उत्तर भारत के कई हिस्सों में सरकारी खरीद बंद होना बड़ा मुद्दा बन गया था, मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार ने 2017 में ‘भावान्तर भुगतान योजना’ नाम की स्कीम को पायलट आधार पर लागू किया। इसके तहत जिले में किसानों को एमएसपी और औसत बाजार भाव के अंतर का नकद भुग्तान किया जाएगा। यद्यपि सही मंशा से ही इस योजना की आलोचना हुई कि यह सफल नहीं हो सकेगा, 2019 के चुनाव की पूर्वबेला में एसीपीसी (Agriculture Costs and Prices Commission) और नीति आयोग ने सिफारिश की कि इसका पूरे देश में विस्तार किया जाए। मोदी ने स्वयं कहा कि ऐसी स्कीम को देशव्यापी स्तर पर लागू किया जाएगा। चुनाव के पश्चात इसपर कुछ सुनाई नहीं दिया। क्या मोदी सरकार एमएसपी और कॉरपोरेटों द्वारा दिये जा रहे मूल्य का अन्तर किसानों को देगी? देखें कि कैसे प्रशासन में ईमान ताक पर रखा जा रहा है!

अपने पहले टर्म में, अप्रैल 2016 में मोदी ने बड़े जोर-शोर से ई-नाम (e-NAM) स्कीम की घोषणा की थी। यह एक ई-प्लेटफार्म स्कीम होता है, जो देश भर के समस्त एपीएमसीज़ को डिजिटल विधि से जोड़ने वाला है, ताकि किसान ऑनलाइन व्यापार कर सकें। कुल 7000 एपीएमसी मंडियों में से 1000 एपीएमसीज़ को मई 2020 तक 21 राज्यों में इलेक्ट्रानिक माध्यम से जोड़ा गया। मोदी सरकार का दावा था कि डिजिटल कनेक्टिविटी से मंडियों के लेन-देन 65 प्रतिशत बढ़े हैं। अब, जब एपीएमसी ही खत्म हो रहे हैं, ई-नाम का क्या हश्र होगा? कॉरपोरेट तो अपने ई-ट्रेडिंग प्लेटफार्म चला सकते हैं पर आम किसानों के पास कौन सा साझा ई-ट्रेडिंग प्लेटफार्म होगा जिसके माध्यम से वे देश भर के संभावित खरीददारों से संपर्क कर सकेंगे? मोदी सरकार देश को जवाब नहीं देती कि वह किसानों के साथ धोखा क्यों कर रही है।

कृषि व्यापार पर कॉरपोरेट एकाधिकार का क्या होगा असर?

अर्थशास्त्र की पाठ्य पुस्तक कहती होंगी कि दाम ‘डिमांड ऐण्ड सप्लाई’ से निर्धारित होते हैं। पर सच तो यह है कि उत्पादन के मूल्य के अलावा सामाजिक-राजनीतिक ताकत, और सबसे ज्यादा, पूंजी की आर्थिक ताकत भी दामों को प्रभावित करती है। मूल रूप से एपीएमसी मंडी व्यवस्था बड़े व्यापारियों द्वारा किसानों को शोषण और धोखाधड़ी से बचाने के लिए बनी थी। बड़ी व्यापारिक पूंजी के भीतर क्षमता है कि वह किसानों को उत्पाद का जो दाम मिल रहा है उसमें गिरावट पैदा कर दें। वे जमाखोरी और अपने स्टॉक के माध्यम से मार्केट में सप्लाई व डिमांड की हेरा-फेरी कर सकती है। इस तरह वह किसानों के लाभ को घटा सकती है। यदि किसान अधिक दाम मांगे, तो बड़ी कम्पनियां खरीद (procurement)  में देरी कर सकती हैं या उसे रोक सकती हैं। उनके पास जरूरी आर्थिक ताकत है कि वे किसानों को मजबूर कर सकें। क्योंकि अधिकतर कृषि उत्पाद समय के साथ खराब हो जाता है और किसानों के पास कम बचत होती है, वे अपने उत्पाद की बिक्री पर ही निर्भर होते हैं। एक मौसम की बिक्री से दूसरे मौसम की बुवाई होती है और उन्हें अपने कर्ज भी चुकाने होते हैं। दूसरी ओर छोटे और मध्यम किसान बड़ी व्यापारिक कम्पनियों को कम दामों पर अपने उत्पाद की संकट बिक्री (distress sale) में जाते हैं। माल के व्यापार में अटकलबाजी (speculation in commodities trade)  के माध्यम से कृषिजन्य व्यापार या ऐग्रि बिजनेस उपभोक्ताओं के लिए दामों को आसमान छुआया जा सकता हैं और किसानों को न्यूनतम कीमत पाने पर मजबूर किया जा सकता है।

जैसा हमने कहा कि एपीएमसी किसानों को इसी स्थिति से बचाने के लिए बनीं। अब जो 3 कृषि कानून आए हैं, वे कॉरपोरेट गिद्धों के सामने किसानों का निहत्था खड़ा कर रहे हैं। कॉरपोरेट अबसे अनियंत्रित समानान्तर बाज़ार खोल देंगे।

ऐसे निजी बाजार नए नहीं हैं। महाराष्ट्र सरकार ने बिग बास्केट और रिलाइंस फ्रेश जैसे ई-कामर्स कम्पनियों को कृषि सामग्री के व्यापार के लिए निजी बाज़ार खड़ा करने हेतु लाइसेंस दिये। अब महाराष्ट्र में ही ऐसे 18 बाजार हैं। पंजाब ने पेप्सीको ठेका-खेती यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करने और सीधे किसानों से व्यापार करने के लिए बहुत पहले ही अनुमति दी थी। पार्थसार्थी बिस्वास के अध्ययन के अनुसार, जबकि करीब 7000 एपीएमसी लगातार 48,000 करोड़ रुपये के वार्षिक टर्नओवर रिपोर्ट करते हैं, निजी बाजार 11,000 करोड़-13,000 करोड़ के व्यापार की रिपोर्टिंग करते हैं। वे अनियंत्रित रहते हैं। पिछले वर्ष इस बहुराष्ट्रीय कम्पनी पेप्सीको की अनियमितता के विरुद्ध ठेके पर आलू की खेती कर रहे गुजरात के किसान और इससे पूर्व पंजाब के किसानों ने प्रतिरोध किया था। क्या मोदी सरकार भारत के कृषि व्यापार को बड़े कॉरपोरेटों को दे देने का खमियाजा भुगतने के लिए तैयार है?

इसके बाद क्या?

8 दिसम्बर 2020 को किसान नेताओं के साथ अमित शाह की बैठक जब किसी समझौते पर नहीं पहुंची, मोदी सरकार ने उसी रात कुछ पीछे हटते हुए किसान नेताओं के पास प्रस्ताव भेजा कि वे कानूनों में 7 सुधार करेंगे, जिसमें एक एपीएमसी को रखने संबंधित होगा। पर अमित शाह के पास इसका कोई जवाब नहीं था कि जब व्यापार को मंडियों के दायरे से हटा दिया जाएगा तो उनकी ‘लाशों’ को बचाकर क्या होगा? एक ही राहत की बात की गई कि मंडियों के बाहर कार्यरत निजी व्यापारियों को पंजीकरण के लिए बाध्य किया जा सकता है, पर वे यह न समझा सके कि किसानों को उत्पाद की सही कीमत समय से कैसे मिलेगी? जब आक्रोशित किसान नेताओं ने बैठक में अमित शाह से जवाब मांगा कि कानूनों को पारित करने की सोचने से पूर्व किसान संगठनों से राय-मश्विरा क्यों नहीं किया गया, वे केवल बुदबुदाते रहे, ‘‘कुछ गलती हुई है’’। पर सरकार तैयार नहीं है कि अपनी गलती सुधारने के लिए इन कानूनों को वापस ले ले। इसलिए किसानों ने तय किया है कि वे पीछे नहीं हटेंगे और उन्होंने कानूनों में सुधार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। उन्होंने साफ कह दिया है कि वे इन कानूनों को रद्द करने पर ही आंदोलन समाप्त करेंगे।

सरकार के प्रस्तावों पर अगले दिन, यानी 9 दिसम्बर 2020 को ‘संयुक्त किसान समिति’ की बैठक में भी चर्चा हुई और उन्हें सर्वसम्मति से पूरी तरह खारिज किया गया। सरकार और किसान संगठनों के बीच अगले राउंड की वार्ता अभी खारिज कर दी गई है जबकि दोनों ओर से वार्ता जारी रखने पर विरोध नहीं है। किसान नेताओं ने फिलहाल कड़ा रुख अख्तियार किया है और वे कह रहे हैं कि आगरा-दिल्ली हाइवे और जयपुर-दिल्ली हाइवे सहित दिल्ली आने वाले रास्तों को सप्ताह के अन्त में रोककर आंदोलन को देश भर में तीव्र करेंगे। उन्होंने धमकी दी है   कि वे भाजपा नेताओं का सामाजिक बहिष्कार करेंगे और पार्टी के मंत्रियों का घेराव भी करेंगे। विडम्बना है कि किसानों को दिल्ली जाम करने से रोकने के नाम पर दिल्ली पुलिस ने राजधानी आने वाले सभी मार्गों को सील कर दिया है-दिल्ली-यूपी बार्डर, दिल्ली-हरियाणा बार्डर, दिल्ली-राजस्थान बार्डर। कुछ ही समय में सब्जियों और दूध के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है।

सरकार के पास मात्र दो विकल्प हैं: एक, कि वह अपनी बात से और भी पीछे हटे और बिना किसी राजनीतिक अहंकार के कानूनों को रद्द करे। या फिर पुलिस दमन का रास्ता अख्तियार करे। यानी वह किसानों को हटाने के लिए कड़े कदम उठाए और आगे उन्हें जमा होने से रोकने के लिए बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां करे अथवा पुलिस फायरिंग करे। ऐसी स्थिति में पंजाब जलेगा और ऑपरेशन ब्लू स्टार-2 की स्थिति पैदा होगी, जो संभाले न संभलेगी। शायद अमित शाह को पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह इसी बात से आगाह कर रहे थे। मुद्दा तब किसानों का ही नहीं रहेगा, पूरे पंजाब का बनेगा। इस जनउभार का सुरक्षा पर भी गंभीर असर होगा।

इधर, उपभोक्ता अभी से ही दिनोंदिन खरीदारी में निजी व्यापार का असर देख रहा है। दिसम्बर प्रथम सप्ताह में आलू, टमाटर और प्याज 50 रु किलो बिक रहे हैं। ऐसी कीमतें गर्मी के पीक समय में देखी जाती हैं। पर खरीफ की फसल के बाद भी ये किसानों को भी चौंकाने वाली स्थिति है। इलाहाबाद में गंगा किनारे बसे किसानों के अनुसार उन्हें केवल 10-15 रुपये किलो मिल रहे हैं। आलू मिल पूरी तरह भरा हुआ है, इससे समझ आता है कि दाम बढ़ने की तैयारी में जमाखोरी हो चुकी है। तो किसानों का आक्रोश ही नहीं, अब मोदी को आम जनता के आक्रोश का सामना करना होगा। कई राज्यों में जब चुनाव नजदीक हैं, मोदी जी जो बो रहे हैं, वही काटेंगे!

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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