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भारत को मध्ययुग में ले जाने का राष्ट्रीय अभियान चल रहा है!
भारत किसी एक मामले में फिसला होता तो गनीमत थी। चाहे गिरती अर्थव्यवस्था हो, कमजोर होता लोकतंत्र हो या फिर तेजी से उभरता बहुसंख्यकवाद हो, इस वक्त भारत कई मोर्चे पर वैश्विक आलोचनाएं झेल रहा है लेकिन हमारा घरेलू मीडिया और सरकार की साठगांठ इसे लगातार झुठलाने की कोशिश कर रही है।
कृष्णकांत
10 May 2022
press freedom
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

हाल ही में जारी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत आठ पायदान नीचे चला गया। 180 देशों की इस सूची में भारत को 150वीं रैंक मिली है। दुनिया भर में प्रेस की आजादी की निगरानी करने वाली संस्था 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' की इस रिपोर्ट में भारत पिछले साल 142वें स्थान पर था। जिस दौरान यह रिपोर्ट आई, उसी वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूरोप के दौरे पर थे और साझा बयान जारी करने के दौरान प्रेस के सवाल न लेने की वजह से उन्हें एक बार फिर वैश्विक स्तर पर आलोचना झेलनी पड़ी। 

इसके कुछ ही वक्त पहले यूपी में इंटरमीडियट का पेपर लीक हुआ तो इस बारे में खबर छापने वाले पत्रकारों को ही जेल भेज दिया गया, जबकि पत्रकारों ने सही खबर छापी थी। सरकार को 24 जिलों में परीक्षा रद्द करनी पड़ी। प्रशासन के मुताबिक मास्टरमाइंड भी पकड़ लिए गए थे, फिर भी पत्रकारों को जेल की हवा खानी पड़ी। क्या अब इस देश में सच बोलना गुनाह है? क्या हम एक लोकतंत्र नहीं रह गए हैं जहां प्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी हो? भारत अपनी इस गिरती साख से निकलने का कोई प्रयत्न कर रहा हो, इसके भी कोई संकेत दूर दूर तक नहीं दिख रहे हैं। 

भारत किसी एक मामले में फिसला होता तो गनीमत थी। चाहे गिरती अर्थव्यवस्था हो, कमजोर होता लोकतंत्र हो या फिर तेजी से उभरता बहुसंख्यकवाद हो, इस वक्त भारत कई मोर्चे पर वैश्विक आलोचनाएं झेल रहा है लेकिन हमारा घरेलू मीडिया और सरकार की साठगांठ इसे लगातार झुठलाने की कोशिश कर रही है। 

कुछ वक्त पहले ही संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट में कहा गया कि भारत 146 देशों की सूची में 136वें पायदान पर है। इस सूची में श्रीलंका, पाकिस्‍तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे हमारे पड़ोसी हमसे ऊपर हैं। यह हैपीनेस सूचकांक जीडीपी के स्तर, खुशहाली, जीवन प्रत्याशा, विकल्प के चुनाव की स्वतंत्रता, उदारता और भ्रष्टाचार आदि के आधार पर जारी किया जाता है। इस सूचकांक से जाहिर है कि भारत उन देशों में शामिल है जहां पर खुशहाली का स्तर सबसे खराब है।

इसी तरह, ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भी भारत की स्थिर बेहद गंभीर है। 2021 की 116 देशों की रिपोर्ट में भारत 101वें नंबर पर है। इस सूची में महज 15 देश भारत से पीछे हैं। यह सूचकांक कहता है कि भारत उन देशों में शामिल है जहां पर भुखमरी की समस्या बेहद गंभीर है। इस सूचकांक में भी हमारा देश, पड़ोसी नेपाल से 24 और पाकिस्तान से 9 पायदान नीचे है। यानी भुखमरी के मामले में हमारे पड़ोसियों की हालत हमसे बेहतर है। यह बात ध्यान देने की है कि हंगर इंडेक्स में भारत यूपीए सरकार के दौरान 2012 में 65वें और 2013 में 63वें स्थान पर था।

सबसे बुरी खबर तो वह रही जिसमें अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनबल इम्प्लॉयमेंट ने कहा कि अप्रैल 2020 से अप्रैल 2021 के बीच एक साल के भीतर भारत के 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए। इसके पहले संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2006 से 2016 के बीच भारत में करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आए थे। हम कह सकते हैं कि यूपीए के दौर में एक दशक में जितने लोग गरीबी से उबरे थे, वे एक झटके में फिर गरीब हो गए। इससे देश कम से कम 9 साल पीछे चला गया। 

आज इन सभी क्षेत्रों में भारत की खराब होती परिस्थितियों पर उस तरह चर्चा भी नहीं होती, जिस तरह पहले हुआ करती थी। सरकार भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा या किसी भी विसंगति के बारे में खुद ही आंकड़े जारी करती थी ताकि हम अपने विकास और प्रगति का स्वस्थ आकलन और समालोचना कर सकें। लेकिन आज सरकार खुद आंकड़े जारी नहीं करती, दूसरी संस्थाओं के आंकड़े नकारती है और आलोचनाओं को रौंद रही है। सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को और मीडियाकर्मियों को निशाना बनाया जा रहा है।

विभिन्न वैश्विक सूचकांक की बातें छोड़ दें, तो भी ढहती अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़े इसी सरकार के हैं। भारत में बेरोजगारी पांच दशक का रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। नोटबंदी और कोरोना के कुप्रबंधन की वजह से माइनस में पहुंची अर्थव्यवस्था अब तक उस झटके से उबर नहीं पाई है जिसकी वजह से भारत में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। मोदी सरकार के कार्यकाल में देश जिस आर्थिक तबाही से गुजर रहा है, उसका राज दो पूंजीपतियों और खुद भाजपा की बेलगाम अमीरी में छुपा है। इन तीनों की बेतहाशा बढ़ती संपत्ति ही देश की आर्थिक तबाही का रहस्य है। 

इन सारी समस्याओं को दूर करने के लिए हर मोर्चे पर ठोस प्रयासों की जरूरत थी, लेकिन आठ सालों से केंद्र की सत्ता में काबिज भाजपा समस्याओं का उपाय खोजने की जगह सारा संसाधन और सारी ऊर्जा जनता का ध्यान भटकाने में खर्च कर रही है। इसके लिए सरकार सामाजिक समरसता भंग करने और विभाजनकारी नीतियों को आगे बढ़ाने में जी-जान से जुटी हुई है। इससे पता चलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की अगुवाई में भाजपा देश के सामने खड़ी इन चुनौतियों से निपटने में सक्षम नहीं है।

एक दशक में गरीबी से बाहर निकली करोड़ों जनता को एक झटके में फिर से गरीबी में धकेल देना यह साबित करता है कि भाजपा सरकार के पास वह दृष्टि ही नहीं है, जिसने इस देश को सबसे तेज विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं की कतार में लाकर खड़ा किया था। 8 से 10 फीसदी की विकास दर से असंतुष्ट जनता को यह कहकर बहलाया जा रहा है कि माइनस विकास दर वाली यह सरकार जरूरी है, वरना हिंदू खतरे में आ जाएगा। बहुसंख्यक आबादी के मन में भरा जा रहा यह काल्पनिक डर लोकतंत्र के लिए खतरे के रूप में तेजी से उभर रहा है। ऐसा लगता है कि भारत को मध्ययुग में ले जाने का राष्ट्रीय अभियान चल रहा है। 

आज देश को ऐसे राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत है जो देश की जनता को आपस में लड़ाने की जगह लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हो और देश की जनता के बेहतर भविष्य के लिए काम करे। भारत की 55 फीसदी से ज्यादा युवा आबादी को ऐसे अवसरों की दरकार है जो उनके सपनों को ऊंची उड़ान दे सके। हमारे लोकतंत्र की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था के विकास और विविधता से भरे समाज के समुचित विकास और खुशहाली के लिए भाजपा बेहद खतरनाक साबित हुई है। इसे देश की सत्ता से चले जाना चाहिए।

(कई मीडिया संस्थानों में काम कर चुके कृष्णकांत फिलहाल फ्रीलांसिंग कर रहे हैं।)

ये भी पढ़ें : भारतीय मीडिया : बेड़ियों में जकड़ा और जासूसी का शिकार

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